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<span class="HindiText">शिलालेखों तथा शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर <span class="GRef">(तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/पृष्ठ संख्या)</span>....आपको श्रुतकेवलियों के समकक्ष/(179)। प्रथम जैन संस्कृत कवि एवं स्तुतिकार, वादी, वाग्मी, गमक, तार्किक/(172) तथा युग संस्थापक माना गया है।(174)। आप उरगपुर (त्रिचनापल्ली) के नागवंशी चोल नरेश कीलिक वर्मन के कनिष्ठ पुत्र शांति वर्मन होने क्षत्रियकुलोत्पन्न थे।183। श्रवणलबेगोल के शिलालेख नं.54 राजाबलिक थे, आराधना कथाकोष।(176-177)। तथा प्रभाचंद्र कृत कथाकोष के अनुसार आपको भस्मक व्याधि हो गई थी। धर्म तथा साहित्य को इनसे बहुत कुछ प्राप्त होने वाला है, यह जानकर गुरु ने इन्हें समाधिमरण की आज्ञा न देकर लिंगछेद की आज्ञा दी। अत: आप पहले पुंड्रवर्द्धन नगर में बौद्ध भिक्षुक हुए, फिर दशपुर नगर में परिव्राजक हुए और अंत में दक्षिण देशस्थ कांची नगर में शैव तापसी बनकर वहाँ के राजा शिवकोटि के शिवालय में रहते हुये शिव पर चढ़े नैवेद्य का भोग करने लगे। पकड़े जाने पर आपने स्वयंभू स्तोत्र के पाठ द्वारा शिवलिंग में से चंद्रप्रभु भगवान् की प्रतिमा प्रगट की जिससे प्रभावित होकर शैवराज शिवकोटि दीक्षा धारण कर उनके शिष्य हुए गए।(177)।</span></br><span class="HindiText">आपकी रचनाओं में 11 प्रसिद्ध हैं‒1. वृहत् स्वयंभू स्तोत्र 2. स्तुति विद्या (जिनशतक), 3. देवागम स्तोत्र (आप्त मीमांसा), 4. युक्त्यनुशासन, 5. तत्वानुशासन, 6. जीवसिद्धि, 7. प्रमाण पदार्थ, 8. कर्म प्राभृत टीका, 9. गंधहस्तिमहाभाष्य, 10. रत्नकंडश्रावकाचार, 11. प्राकृतव्याकरण, 12. षटखंडागम के आद्य पाँच खंडों पर एक टीका भी बताई जाती है, परंतु अधिकतर विद्वान इसे प्रमाणित नहीं मानते <span class="GRef">( कषायपाहुड़/1/ प्रस्तावना 63/पं.महेंद्र)</span>, <span class="GRef">( भगवती आराधना/ प्रस्तावना 4/प्रेमी जी)</span>, <span class="GRef">( युक्त्यनुशासन/ प्रस्तावना 44/पं. मुख्तार साहब)</span>, <span class="GRef">( धवला 1/ प्रस्तावना 50/H.L.jain)</span>, <span class="GRef">(पं.प्र./प्रस्तावना 121/उपाध्ये)</span>, <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/ प्रस्तावना 17/पं.महेंद्र)</span>, <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/ प्रस्तावना 6/पं.पन्नालाल)</span> इत्यादि।</br><span class="HindiText">बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति के समकालीन बताकर डा.सतीशचंद विद्याभूषण इन्हें ई.600 में स्थापित करते हैं।(181)। रत्नक्रंड श्रावकाचार के श्लोक 9 को सिद्धसेन गणी कृत न्यायावतार में से आगम बताकर श्वेतांबर विद्वान् पं.सुखलाल जी इन्हें इसी समय में हुआ मानते हैं। प्रेमी जी तथा डा.हीरा लाल इन्हें ई.श.6 में कल्पित करते हैं।(182)। परंतु नागवंशी चोल नरेश कीलिकवर्मन के अनुसार ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर डा.ज्योति प्रशाद इन्हें ई.120-185 में और मुख्तार साहब तथा डा.महेंद्र कुमार ई.श.2 में प्रतिष्ठित करते हैं।(183)। परंतु ऐसा मानने पर श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं.40 में इन्हें जो गृद्धपिच्छ (उमास्वामी) के प्रशिष्य और वलाक पिच्छ के शिष्य कहा गया है।(180)। वह घटित नहीं हो सकता। <span class="GRef">(तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/पृष्ठ संख्या</span>...) (देखें [[ इतिहास#7.1 | इतिहास - 7.1]])। | |||
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<span class="HindiText">(1) आचार्य सिद्धसेन का उत्तरवर्ती एक आचार्य । ये जीवसिद्धि और युक्त्यनुशासन ग्रंथों के रचयिता थे । देवागम स्तोत्र भी इन्हीं ने बनाया था । ये महान् कवि भी थे । <span class="GRef"> महापुराण 1.43-44 <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#29|हरिवंशपुराण - 1.29]],<span class="GRef"> पांडवपुराण 1.15 </span></br> | |||
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Latest revision as of 15:25, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
शिलालेखों तथा शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/पृष्ठ संख्या)....आपको श्रुतकेवलियों के समकक्ष/(179)। प्रथम जैन संस्कृत कवि एवं स्तुतिकार, वादी, वाग्मी, गमक, तार्किक/(172) तथा युग संस्थापक माना गया है।(174)। आप उरगपुर (त्रिचनापल्ली) के नागवंशी चोल नरेश कीलिक वर्मन के कनिष्ठ पुत्र शांति वर्मन होने क्षत्रियकुलोत्पन्न थे।183। श्रवणलबेगोल के शिलालेख नं.54 राजाबलिक थे, आराधना कथाकोष।(176-177)। तथा प्रभाचंद्र कृत कथाकोष के अनुसार आपको भस्मक व्याधि हो गई थी। धर्म तथा साहित्य को इनसे बहुत कुछ प्राप्त होने वाला है, यह जानकर गुरु ने इन्हें समाधिमरण की आज्ञा न देकर लिंगछेद की आज्ञा दी। अत: आप पहले पुंड्रवर्द्धन नगर में बौद्ध भिक्षुक हुए, फिर दशपुर नगर में परिव्राजक हुए और अंत में दक्षिण देशस्थ कांची नगर में शैव तापसी बनकर वहाँ के राजा शिवकोटि के शिवालय में रहते हुये शिव पर चढ़े नैवेद्य का भोग करने लगे। पकड़े जाने पर आपने स्वयंभू स्तोत्र के पाठ द्वारा शिवलिंग में से चंद्रप्रभु भगवान् की प्रतिमा प्रगट की जिससे प्रभावित होकर शैवराज शिवकोटि दीक्षा धारण कर उनके शिष्य हुए गए।(177)।
आपकी रचनाओं में 11 प्रसिद्ध हैं‒1. वृहत् स्वयंभू स्तोत्र 2. स्तुति विद्या (जिनशतक), 3. देवागम स्तोत्र (आप्त मीमांसा), 4. युक्त्यनुशासन, 5. तत्वानुशासन, 6. जीवसिद्धि, 7. प्रमाण पदार्थ, 8. कर्म प्राभृत टीका, 9. गंधहस्तिमहाभाष्य, 10. रत्नकंडश्रावकाचार, 11. प्राकृतव्याकरण, 12. षटखंडागम के आद्य पाँच खंडों पर एक टीका भी बताई जाती है, परंतु अधिकतर विद्वान इसे प्रमाणित नहीं मानते ( कषायपाहुड़/1/ प्रस्तावना 63/पं.महेंद्र), ( भगवती आराधना/ प्रस्तावना 4/प्रेमी जी), ( युक्त्यनुशासन/ प्रस्तावना 44/पं. मुख्तार साहब), ( धवला 1/ प्रस्तावना 50/H.L.jain), (पं.प्र./प्रस्तावना 121/उपाध्ये), ( सर्वार्थसिद्धि/ प्रस्तावना 17/पं.महेंद्र), ( हरिवंशपुराण/ प्रस्तावना 6/पं.पन्नालाल) इत्यादि।
बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति के समकालीन बताकर डा.सतीशचंद विद्याभूषण इन्हें ई.600 में स्थापित करते हैं।(181)। रत्नक्रंड श्रावकाचार के श्लोक 9 को सिद्धसेन गणी कृत न्यायावतार में से आगम बताकर श्वेतांबर विद्वान् पं.सुखलाल जी इन्हें इसी समय में हुआ मानते हैं। प्रेमी जी तथा डा.हीरा लाल इन्हें ई.श.6 में कल्पित करते हैं।(182)। परंतु नागवंशी चोल नरेश कीलिकवर्मन के अनुसार ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर डा.ज्योति प्रशाद इन्हें ई.120-185 में और मुख्तार साहब तथा डा.महेंद्र कुमार ई.श.2 में प्रतिष्ठित करते हैं।(183)। परंतु ऐसा मानने पर श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं.40 में इन्हें जो गृद्धपिच्छ (उमास्वामी) के प्रशिष्य और वलाक पिच्छ के शिष्य कहा गया है।(180)। वह घटित नहीं हो सकता। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/पृष्ठ संख्या...) (देखें इतिहास - 7.1)।
पुराणकोष से
(1) आचार्य सिद्धसेन का उत्तरवर्ती एक आचार्य । ये जीवसिद्धि और युक्त्यनुशासन ग्रंथों के रचयिता थे । देवागम स्तोत्र भी इन्हीं ने बनाया था । ये महान् कवि भी थे । महापुराण 1.43-44 हरिवंशपुराण - 1.29, पांडवपुराण 1.15
(2)सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.216