पार्श्वनाथ: Difference between revisions
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महापुराण/73/ श्लोक पूर्व के नवमें भव में विश्वभूति ब्राह्मण के घर में मरुभूति नामक पुत्र थे (7-9)। फिर वज्रघोष नामक हाथी हुए (11-12)। वहाँ से सहस्रार स्वर्ग में देव हुए (16-24)। फिर पूर्व के छठे भव में रश्मिवेग विद्याधर हुए (25-26)। तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग में देव हुए (29-31)। वहाँ से च्युत हो वज्रनाभि नाम के चक्रवर्ती हुए (32)। फिर पूर्व के तीसरे भव में मध्यम ग्रैवेयक में अहमिंद्र हुए (40) फिर आनंद नामक राजा हुए (41-42)। वहाँ से प्राणत स्वर्ग में इंद्र हुए (67-68)। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वर्तमान भव में 23वें तीर्थंकर हुए। अपरनाम ‘सुभौम’ था। 109। (और भी देखें [[ महापुराण#73.169 | महापुराण - 73.169 ]]) विशेष परिचय - देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर- 5]]। | |||
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<div class="HindiText"> <p> अवसर्पिणी काल के दु:षमा-सुषमा नामक चतुर्थ काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एव तेईसवें तीर्थंकर । तीर्थंकर नेमिनाथ के पश्चात् तेरासी हजार सात सौ पचास वर्ष का काल बीत जाने पर ये काशी देश की वाराणसी नगरी में काक्यप गोत्र के उग्रवशी राजा विश्वसेन की रानी ब्राह्मी <span class="GRef">( पद्मपुराण </span>के अनुसार वामादेवी) के सोलह स्वप्नपूर्वक वैशाख कृष्ण द्वितीया प्रात: वेला में विशाखा नक्षत्र में गर्भ में आये तथा पौष कृष्ण एकादशी के अनिल योग में इनका जन्म हुआ । जन्माभिषेक करने के पश्चात् सौधर्मेंद्र ने इनका यह नाम रखा । इनकी आयु सौ वर्ष थी, वर्ण हरा था और शरीर 9 हाथ था । सोलह वर्ष की अवस्था में ये नगर के बाहर अपने नाना महीपाल के पास पहुंचे । वह पंचाग्नि तप के लिए लकड़ी फाड़ रहा था । इन्होंने उसे रोका और बताया कि लकड़ी में नागयुगल है । वह नहीं माना और क्रोध से युक्त होकर उसने वह लकड़ी काट डाली । उसमें सर्प युगल था वह कट गया । मरणासन्न सर्पयुक्त को इन्होंने धर्मोपदेश दिया जिससे यह सर्पयुगल स्वर्ग में धरणेंद्र हुआ । तीस वर्ष के कुमारकाल के पश्चात् अपने पिता के वचनों के स्मरण से ये विरक्त हुए और आत्मज्ञान होने पर पौध कृष्णा एकादशी के दिन ये विमला नामक शिविका में बैठकर अश्ववन में पहुँचे और वही प्रात: वेला में तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हुए । प्रथम पारणा गुल्मखेट नगर में हुई । अश्ववन में जब ये ध्यानावस्था में थे कमठ के जीव शंबर देव ने इन पर उपसर्ग किया । उस समय धरणेंद्र देव और पद्मावती ने आकर उपसर्ग का निवारण किया । ये चैत्र चतुर्दशी के दिन प्रातः वेला में विशाखा नक्षत्र में केवली हुए । उपसर्ग के निवारण के पश्चात् शंबर देव को पश्चाताप हुआ । उसने क्षमा मांगी और धर्मश्रवण करके वह सम्यक्त्वी हो गया । सात अन्य मिथ्यात्वी और संयमी हुए थे । इनके संघ में स्वयंभू आदि दस गणधर, सोलह हजार मुनि, सुलोचना आदि छत्तीस हजार आर्यिकाएँ थी । उनहत्तर वर्ष सात मास विहार करके अंत में एक मास की आयु शेष रहने पर सम्मेदाचल पर छत्तीस मुनियों के साथ इन्होंने प्रतिमायोग धारण किया और श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात: वेला में विशाखा नक्षत्र में इनका निर्वाण हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 2.132-134, 73.74-157, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#216|पद्मपुराण - 5.216]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#14|पद्मपुराण - 20.14-122]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#25|हरिवंशपुराण - 1.25]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#204|हरिवंशपुराण - 60.204]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#341|हरिवंशपुराण - 60.341-349]], पांडवपुराण 25.1, वीरवर्द्धमान चरित्र 1.33, 18.101-108, </span>पूर्वभवों के नवें भव में ये विश्वभूति ब्राह्मण के मरुभूति नामक पुत्र थे, इस भव में कमठ इनका भाई था । कमठ के जीव के द्वारा आगे के भवों में इन पर अनेक उपसर्ग किये गये । मरुभूमि की पर्याय के पश्चात् से वज्रघोष नामक हाथी हुए । फिर सहस्रार स्वर्ग में देव हुए । इसके पश्चात् ये क्रम से रश्मिवेग विद्याधर, अच्युत स्वर्ग में देव, वज्रनाभि चक्रवर्ती, मध्यम ग्रैवेयक में अहमिंद्र, राजा आनंद और अच्युत स्वर्ग के प्राणत विमान में इंद्र हुए । वहाँ से च्युत होकर वर्तमान भव में ये तेईसवें तीर्थंकर हुए । <span class="GRef"> महापुराण 73. 7-68, 109 </span></p> | |||
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Latest revision as of 09:11, 28 June 2024
सिद्धांतकोष से
सामान्य परिचय
तीर्थंकर क्रमांक | 23 |
---|---|
चिह्न | सर्प |
पिता | विश्वसेन |
माता | ब्राह्मी |
वंश | उग्र |
उत्सेध (ऊँचाई) | 9 हाथ |
वर्ण | हरित |
आयु | 100 वर्ष |
पूर्व भव सम्बंधित तथ्य
पूर्व मनुष्य भव | आनन्द |
---|---|
पूर्व मनुष्य भव में क्या थे | मण्डलेश्वर |
पूर्व मनुष्य भव के पिता | डामर |
पूर्व मनुष्य भव का देश, नगर | जम्बू भरत अयोध्या |
पूर्व भव की देव पर्याय | प्राणत |
गर्भ-जन्म कल्याणक सम्बंधित तथ्य
गर्भ-तिथि | वैशाख कृष्ण 2 |
---|---|
गर्भ-नक्षत्र | विशाखा |
गर्भ-काल | प्रात: |
जन्म तिथि | पौष कृष्ण 11 |
जन्म नगरी | बनारस |
जन्म नक्षत्र | विशाखा |
योग | अनिल |
दीक्षा कल्याणक सम्बंधित तथ्य
वैराग्य कारण | जातिस्मरण |
---|---|
दीक्षा तिथि | पौष कृष्ण 11 |
दीक्षा नक्षत्र | विशाखा |
दीक्षा काल | पूर्वाह्न |
दीक्षोपवास | षष्ठ भक्त |
दीक्षा वन | अश्वत्थ |
दीक्षा वृक्ष | धव |
सह दीक्षित | 300 |
ज्ञान कल्याणक सम्बंधित तथ्य
केवलज्ञान तिथि | चैत्र कृष्ण 4 |
---|---|
केवलज्ञान नक्षत्र | विशाखा |
केवलोत्पत्ति काल | पूर्वाह्न |
केवल स्थान | आश्रमकेस |
केवल वृक्ष | धव |
निर्वाण कल्याणक सम्बंधित तथ्य
योग निवृत्ति काल | 1 मास पूर्व |
---|---|
निर्वाण तिथि | श्रावण शुक्ल 7 |
निर्वाण नक्षत्र | विशाखा |
निर्वाण काल | सायं |
निर्वाण क्षेत्र | सम्मेद |
समवशरण सम्बंधित तथ्य
समवसरण का विस्तार | 1 1/4 योजन |
---|---|
सह मुक्त | 36 |
पूर्वधारी | 350 |
शिक्षक | 10900 |
अवधिज्ञानी | 1400 |
केवली | 1000 |
विक्रियाधारी | 1000 |
मन:पर्ययज्ञानी | 750 |
वादी | 600 |
सर्व ऋषि संख्या | 16000 |
गणधर संख्या | 10 |
मुख्य गणधर | स्वयंभू |
आर्यिका संख्या | 38000 |
मुख्य आर्यिका | सुलोका |
श्रावक संख्या | 100000 |
मुख्य श्रोता | महासेन |
श्राविका संख्या | 300000 |
यक्ष | मातङ्ग |
यक्षिणी | पद्मा |
आयु विभाग
आयु | 100 वर्ष |
---|---|
कुमारकाल | 30 वर्ष |
विशेषता | त्याग |
छद्मस्थ काल | 4 मास |
केवलिकाल | 69 वर्ष 8 मास |
तीर्थ संबंधी तथ्य
जन्मान्तरालकाल | 84650 वर्ष |
---|---|
केवलोत्पत्ति अन्तराल | 279 वर्ष 8 मास |
निर्वाण अन्तराल | 250 वर्ष |
तीर्थकाल | 278 वर्ष |
तीर्थ व्युच्छित्ति | ❌ |
शासन काल में हुए अन्य शलाका पुरुष | |
चक्रवर्ती | ❌ |
बलदेव | ❌ |
नारायण | ❌ |
प्रतिनारायण | ❌ |
रुद्र | ❌ |
महापुराण/73/ श्लोक पूर्व के नवमें भव में विश्वभूति ब्राह्मण के घर में मरुभूति नामक पुत्र थे (7-9)। फिर वज्रघोष नामक हाथी हुए (11-12)। वहाँ से सहस्रार स्वर्ग में देव हुए (16-24)। फिर पूर्व के छठे भव में रश्मिवेग विद्याधर हुए (25-26)। तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग में देव हुए (29-31)। वहाँ से च्युत हो वज्रनाभि नाम के चक्रवर्ती हुए (32)। फिर पूर्व के तीसरे भव में मध्यम ग्रैवेयक में अहमिंद्र हुए (40) फिर आनंद नामक राजा हुए (41-42)। वहाँ से प्राणत स्वर्ग में इंद्र हुए (67-68)। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वर्तमान भव में 23वें तीर्थंकर हुए। अपरनाम ‘सुभौम’ था। 109। (और भी देखें महापुराण - 73.169 ) विशेष परिचय - देखें तीर्थंकर- 5।
पुराणकोष से
अवसर्पिणी काल के दु:षमा-सुषमा नामक चतुर्थ काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एव तेईसवें तीर्थंकर । तीर्थंकर नेमिनाथ के पश्चात् तेरासी हजार सात सौ पचास वर्ष का काल बीत जाने पर ये काशी देश की वाराणसी नगरी में काक्यप गोत्र के उग्रवशी राजा विश्वसेन की रानी ब्राह्मी ( पद्मपुराण के अनुसार वामादेवी) के सोलह स्वप्नपूर्वक वैशाख कृष्ण द्वितीया प्रात: वेला में विशाखा नक्षत्र में गर्भ में आये तथा पौष कृष्ण एकादशी के अनिल योग में इनका जन्म हुआ । जन्माभिषेक करने के पश्चात् सौधर्मेंद्र ने इनका यह नाम रखा । इनकी आयु सौ वर्ष थी, वर्ण हरा था और शरीर 9 हाथ था । सोलह वर्ष की अवस्था में ये नगर के बाहर अपने नाना महीपाल के पास पहुंचे । वह पंचाग्नि तप के लिए लकड़ी फाड़ रहा था । इन्होंने उसे रोका और बताया कि लकड़ी में नागयुगल है । वह नहीं माना और क्रोध से युक्त होकर उसने वह लकड़ी काट डाली । उसमें सर्प युगल था वह कट गया । मरणासन्न सर्पयुक्त को इन्होंने धर्मोपदेश दिया जिससे यह सर्पयुगल स्वर्ग में धरणेंद्र हुआ । तीस वर्ष के कुमारकाल के पश्चात् अपने पिता के वचनों के स्मरण से ये विरक्त हुए और आत्मज्ञान होने पर पौध कृष्णा एकादशी के दिन ये विमला नामक शिविका में बैठकर अश्ववन में पहुँचे और वही प्रात: वेला में तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हुए । प्रथम पारणा गुल्मखेट नगर में हुई । अश्ववन में जब ये ध्यानावस्था में थे कमठ के जीव शंबर देव ने इन पर उपसर्ग किया । उस समय धरणेंद्र देव और पद्मावती ने आकर उपसर्ग का निवारण किया । ये चैत्र चतुर्दशी के दिन प्रातः वेला में विशाखा नक्षत्र में केवली हुए । उपसर्ग के निवारण के पश्चात् शंबर देव को पश्चाताप हुआ । उसने क्षमा मांगी और धर्मश्रवण करके वह सम्यक्त्वी हो गया । सात अन्य मिथ्यात्वी और संयमी हुए थे । इनके संघ में स्वयंभू आदि दस गणधर, सोलह हजार मुनि, सुलोचना आदि छत्तीस हजार आर्यिकाएँ थी । उनहत्तर वर्ष सात मास विहार करके अंत में एक मास की आयु शेष रहने पर सम्मेदाचल पर छत्तीस मुनियों के साथ इन्होंने प्रतिमायोग धारण किया और श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात: वेला में विशाखा नक्षत्र में इनका निर्वाण हुआ । महापुराण 2.132-134, 73.74-157, पद्मपुराण - 5.216, पद्मपुराण - 20.14-122, हरिवंशपुराण - 1.25, हरिवंशपुराण - 60.204, हरिवंशपुराण - 60.341-349, पांडवपुराण 25.1, वीरवर्द्धमान चरित्र 1.33, 18.101-108, पूर्वभवों के नवें भव में ये विश्वभूति ब्राह्मण के मरुभूति नामक पुत्र थे, इस भव में कमठ इनका भाई था । कमठ के जीव के द्वारा आगे के भवों में इन पर अनेक उपसर्ग किये गये । मरुभूमि की पर्याय के पश्चात् से वज्रघोष नामक हाथी हुए । फिर सहस्रार स्वर्ग में देव हुए । इसके पश्चात् ये क्रम से रश्मिवेग विद्याधर, अच्युत स्वर्ग में देव, वज्रनाभि चक्रवर्ती, मध्यम ग्रैवेयक में अहमिंद्र, राजा आनंद और अच्युत स्वर्ग के प्राणत विमान में इंद्र हुए । वहाँ से च्युत होकर वर्तमान भव में ये तेईसवें तीर्थंकर हुए । महापुराण 73. 7-68, 109