द्वादश चक्रवर्ती निर्देश: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 53: | Line 53: | ||
<td rowspan="2" style="width:156px;"> | <td rowspan="2" style="width:156px;"> | ||
<p> | <p> | ||
<strong>1.ति.प/4/515-516</strong></p> | <strong>1.<span class="GRef"> ति.प/4/515-516</span></strong></p> | ||
<p> | <p> | ||
<strong>2.<span class="GRef"> त्रिलोकसार/815 </span></strong></p> | <strong>2.<span class="GRef"> त्रिलोकसार/815 </span></strong></p> | ||
Line 61: | Line 61: | ||
<strong>4.<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/60/286-287 </span></strong></p> | <strong>4.<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/60/286-287 </span></strong></p> | ||
<p> | <p> | ||
<strong>5.<span class="GRef"> महापुराण/ </span | <strong>5.<span class="GRef"> महापुराण/>पूर्ववत् </span</strong></p> | ||
</td> | </td> | ||
<td colspan="3" style="width:300px;"> | <td colspan="3" style="width:300px;"> |
Revision as of 08:34, 2 July 2023
- द्वादश चक्रवर्ती निर्देश
- चक्रवर्ती का लक्षण
- नाम व पूर्वभव परिचय
- वर्तमान भव में नगर व माता पिता
- वर्तमान भव शरीर परिचय
- कुमारकाल आदि परिचय
- वैभव परिचय
- चौदह रत्न परिचय सामान्य
- चौदह रत्न परिचय विशेष
- नव निधि परिचय
- दश प्रकार भोग परिचय
- भरत चक्रवर्ती की विभूतियों के नाम
- दिग्विजय का स्वरूप
- राजधानी का स्वरूप
- हुंडावसर्पिणी में चक्रवर्ती के उत्पत्ति काल में कुछ अपवाद
2. द्वादश चक्रवर्ती निर्देश
1. चक्रवर्ती का लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/1/48 छक्खंड भरहणादो बत्तीससहस्समउडबद्धपहुदीओ। होदि हु सयलं चक्की तित्थयरो सयलभुवणवई।48। =जो छह खंडरूप भरतक्षेत्र का स्वामी हो और बत्तीस हज़ार मुकुट बद्ध राजाओं का तेजस्वी अधिपति हो वह सकल चक्री होता है।...।48। (धवला 1/1,1,1/ गाथा 43/58); (त्रिलोकसार/685)
2. नाम व पूर्वभव परिचय
|
नाम |
पूर्व भव नं. 2 |
पूर्वभव |
||
महापुराण/सर्ग/श्लो. |
1. ति.प/4/515-516 2. त्रिलोकसार/815 3. पद्मपुराण/20/124-193 4. हरिवंशपुराण/60/286-287 5. महापुराण/>पूर्ववत् </span |
1. पद्मपुराण/20/124-193 2. महापुराण/>पूर्ववत् </span |
1. पद्मपुराण/20/124-193 2. महापुराण/पूर्ववत् |
||
नाम राजा |
नगर |
दीक्षागुरु |
स्वर्ग |
||
|
भरत |
पीठ |
पुंडरीकिणी |
कुशसेन |
सर्वार्थ सिद्धि 2 अच्युत |
48/69-78 |
सगर |
विजय 2 जयसेन |
पृथिवीपुर |
यशोधर |
विजय वि. |
61/91-101 |
मघवा |
शशिप्रभ 2 नरपति |
पुंडरीकिणी |
विमल |
ग्रैवेयक |
62/101/106 |
सनत्कुमार |
धर्मरुचि |
महापुरी |
सुप्रभ |
माहेंद्र 2 अच्युत |
63/384 |
शांति* |
देखें तीर्थंकर |
|||
64/12-22 |
कुंथु* |
देखें तीर्थंकर |
|||
65/14-30 |
अर* |
देखें तीर्थंकर |
|||
65/56 |
सुभौम |
कनकाभ 2 भूपाल |
धान्यपुर |
विचित्रगुप्त 2 संभूत |
जयंत वि. 2 महाशुक्र |
66/76-80 |
पद्म• |
चिंत 2 प्रजापाल |
वीतशोका 2 श्रीपुर |
सुप्रभ 2 शिवगुप्त |
ब्रह्मस्वर्ग 2 अच्युत |
67/64-65 |
हरिषेण |
महेंद्रदत्त |
विजय |
नंदन |
माहेंद्र 2 सनत्कुमार |
69/78-80 |
जयसेन 4 जय |
अमितांग 2 वसुंधर |
राजपुर 2 श्रीपुर |
सुधर्ममित्र 2 वररुचि |
ब्रह्मस्वर्ग 2 महाशुक्र |
72/287-288 |
ब्रह्मदत्त |
संभूत |
काशी |
स्वतंत्रलिंग |
कमलगुल्म मि. |
*शांति कुंथु और अर ये तीनों चक्रवर्ती भी थे और तीर्थंकर भी। •प्रमाण नं. 2,3,4 के अनुसार इनका नाम महापद्म था। यह राजा पद्म उन्हीं विष्णुकुमार मुनि के बड़े भाई थे जिन्होंने 750 मुनियों की राजा बलि कृत उपसर्ग से रक्षा की थी। |
3. वर्तमान भव में नगर व माता पिता
क्रम |
महापुराण/ सर्ग/श्लो. |
वर्तमान नगर |
वर्तमान पिता |
वर्तमान माता |
तीर्थंकर |
|||
1. पद्मपुराण/20/125-193 2. महापुराण/ पूर्ववत् |
1. पद्मपुराण/20/124-193 2. महापुराण/ पूर्ववत् |
1. पद्मपुराण/20/124-193 2. महापुराण/ पूर्ववत् |
||||||
सामान्य |
विशेष |
सामान्य |
विशेष |
सामान्य |
विशेष |
|||
|
|
|
पद्मपुराण |
|
पद्मपुराण |
|
पद्मपुराण |
देखें तीर्थंकर |
1 |
|
अयोध्या |
|
ऋषभ |
|
यशस्वती |
मरुदेवी |
|
2 |
48/69-78 |
अयोध्या |
|
विजय |
समुद्रविजय |
सुमंगला |
सुबाला |
|
3 |
61/91-101 |
श्रावस्ती |
अयोध्या |
सुमित्र |
|
भद्रवती |
भद्रा |
|
4 |
61/104-106 |
हस्तिनापुर |
अयोध्या |
विजय |
अनंतवीर्य |
सहदेवी |
|
|
5 |
63/384,413 |
― |
देखें तीर्थंकर |
|
― |
|||
6 |
64/12-22 |
― |
देखें तीर्थंकर |
|
― |
|||
7 |
65/14-30 |
― |
देखें तीर्थंकर |
|
― |
|||
8 |
65/56,152 |
दृशावती |
अयोध्या |
कीर्तिवीर्य |
सहस्रबाहु |
तारा |
चित्रमती |
|
9 |
66/76-80 |
हस्तिनापुर |
वाराणसी |
पद्मरथ |
पद्मनाभ |
मयूरी |
|
|
10 |
67/64-65 |
कांपिल्य |
भोगपुर |
पद्मनाभ |
हरिकेतु |
वप्रा |
एरा |
|
11 |
69/78-80 |
कांपिल्य |
कौशांबी |
विजय |
|
यशोवती |
प्रभाकरी |
|
12 |
72/287-288 |
कांपिल्य |
× |
ब्रह्मरथ |
ब्रह्मा |
चूला |
चूड़ादेवी |
4. वर्तमान भव शरीर परिचय
क्र. |
महापुराण/ सर्ग/श्लोक/सं. |
वर्ण |
संस्थान |
संहनन |
शरीरोत्सेध |
आयु |
||||||
|
तिलोयपण्णत्ति/4/1371 |
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1292-1293 2. त्रिलोकसार/818-819 3. हरिवंशपुराण/60/306-309 4. महापुराण/ पूर्व शीर्षवत् |
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1295-1296 2. त्रिलोकसार/819-820 3. हरिवंशपुराण/60/494-516 4. महापुराण/ पूर्व शीर्षवत् |
|||||||||
|
सामान्य |
प्रमाण नं. |
विशेष |
सामान्य |
प्रमाण नं. |
विशेष |
||||||
|
|
|
|
|
धनुष |
|
धनुष |
|
|
|
||
1 |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
500 |
|
|
84 लाख पूर्व |
|
|
||
2 |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
450 |
|
|
72 लाख पूर्व |
4 |
70 लाख पूर्व |
||
3 |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
|
|
5 लाख पूर्व |
|
|
|||
4 |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
42 |
2 4 |
3 लाख पूर्व |
|
|
|||
5 |
|
― |
― |
देखें तीर्थं |
|
(शांति) |
― |
― |
||||
6 |
|
― |
― |
देखें तीर्थं |
|
(कुंथु) |
― |
― |
||||
7 |
|
― |
― |
देखें तीर्थं |
|
(अरह) |
― |
― |
||||
8 |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
28 |
|
|
60,000 वर्ष |
3 |
68,000 वर्ष |
||
9 |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
22 |
|
|
30,000 वर्ष |
|
|
||
10 |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
20 |
4 |
24 |
10,000 वर्ष |
3 |
26,000 वर्ष |
||
11 |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
15 |
3 |
14 |
3,000 वर्ष |
|
|
||
12 |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
7 |
4 |
60 |
700 वर्ष |
|
|
5. कुमारकाल आदि परिचय
ला.=लाख; पू.=पूर्व
क्रम |
कुमार काल |
मंडलीक |
दिग्विजय |
राज्य काल |
संयम काल |
मर कर कहाँ गये |
||
तिलोयपण्णत्ति/4/ 1297-1299 हरिवंशपुराण/60/ 494-516 |
तिलोयपण्णत्ति/4/ 1300-1302 हरिवंशपुराण/60/ 494-516 |
तिलोयपण्णत्ति/4/ 1368-1369 हरिवंशपुराण/60/ 494-516 |
तिलोयपण्णत्ति/4/ 1401-1405 हरिवंशपुराण/60/ 494-516 |
तिलोयपण्णत्ति/4/ 1407-1409 हरिवंशपुराण/60/ 494-516 |
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1410 2. त्रिलोकसार/824 3. पद्मपुराण/20/124-193 4. महापुराण/ देखें शीर्षक सं - 2 |
|||
सामान्य |
विशेष हरिवंशपुराण |
सामान्य |
विशेष महापुराण |
|||||
1 |
77,000 वर्ष |
1,000 वर्ष |
60,000 वर्ष |
6 लाख पूर्व 61000 वर्ष |
6 लाख पूर्व 1 पूर्व |
1 लाख पूर्व• |
मोक्ष |
|
2 |
50,000 वर्ष |
50,000 वर्ष |
30,000 वर्ष |
70लाख पूर्व 30000 वर्ष |
6970000पूर्व +99999 पूर्वांग+83 लाख वर्ष |
1 लाख पूर्व |
|
|
3 |
25,000 वर्ष |
25,000 वर्ष |
10,000 वर्ष |
39000 वर्ष |
|
50000 वर्ष |
सनत्कुमार स्वर्ग |
मोक्ष |
4 |
50,000 वर्ष* |
50,000 वर्ष* |
10,000 वर्ष |
90000 वर्ष |
|
1 लाख वर्ष |
सनत्कुमार स्वर्ग |
मोक्ष |
5 |
|
|
|
|
|
|
|
|
6 |
|
|
|
|
|
|
|
|
7 |
|
|
|
|
|
|
|
|
8 |
5,000 वर्ष |
5,000 वर्ष** |
500 वर्ष |
49500 वर्ष |
62500 वर्ष |
0 |
7वें नरक |
|
9 |
500 वर्ष |
500 वर्ष |
300 वर्ष |
18700 वर्ष |
|
10000 वर्ष |
मोक्ष |
|
10 |
325 वर्ष |
325 वर्ष |
150 वर्ष |
8850 वर्ष |
25175 वर्ष |
350 वर्ष |
मोक्ष |
सर्वार्थ सिद्धि |
11 |
300 वर्ष |
300 वर्ष |
100 वर्ष |
1900 वर्ष |
|
400 वर्ष |
मोक्ष |
जयंत |
12 |
28 वर्ष |
56 वर्ष |
16 वर्ष |
600 वर्ष |
|
0 |
7वें नरक |
|
• हरिवंशपुराण में भरत का संयम काल 1 लाख+(1 पूर्व–1 पूर्वांग)+8309030 वर्ष दिया है। * हरिवंशपुराण व महापुराण में सगर का कुमार व मंडलीक काल 18 लाख पूर्व दिया गया है। ** हरिवंशपुराण की अपेक्षा सुभौम चक्रवर्ती को राज्यकाल प्राप्त नहीं हुआ। |
6. वैभव परिचय
1. ( तिलोयपण्णत्ति/4/1372-1397 ); 2. ( त्रिलोकसार/682 ); 3. ( हरिवंशपुराण/11/108-162 ) 4. ( महापुराण/37/23-37,59-81,181-185 ); 5. ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/7/43-54,65-67 )।
क्रम |
नाम |
गणना सामान्य |
प्रमाण नं. |
गणना विशेष |
1 |
रत्न |
14 |
(देखें आगे ) |
|
2 |
निधि |
9 |
(देखें आगे ) |
|
3 |
रानियाँ |
|
|
|
i |
आर्य खंड की राजकन्याएँ |
32,000 |
|
|
ii |
विद्याधर राजकन्याएँ |
32,000 |
|
|
iii |
म्लेच्छ राजकन्याएँ |
32,000 |
|
|
96,000 |
||||
4 |
पटरानी |
1 |
|
|
5 |
पुत्र पुत्री |
संख्यात सहस्र |
3 |
भरत के 500 पुत्र थे |
|
|
|
4 |
सगर के 60,000 पुत्र |
|
|
|
4 |
पद्म के 8 पुत्री थीं |
6 |
गणबद्ध देव |
32,000 |
3,4 |
16000 |
7 |
तनुरक्षक देव |
360 |
|
|
8 |
रसोइये |
360 |
|
|
9 |
यक्ष |
32 |
|
|
10 |
यक्षों का बंधु कुल |
350 लाख |
|
|
11 |
भेरी |
12 |
|
|
12 |
पटह (नगाड़े) |
12 |
|
|
13 |
शंख |
24 |
|
|
14 |
हल |
1 कोड़ाकोड़ी |
हरिवंशपुराण 4 |
1 करोड़ 1 लाख करोड़ |
15 |
गौ |
3 करोड़ |
|
|
16 |
गौशाला |
|
4 |
3 करोड़ |
17 |
थालियाँ |
1 करोड़ |
4 |
1 करोड़ |
18 |
हंडे |
|
|
|
19 |
गज |
84 लाख |
|
|
20 |
रथ |
84 लाख |
|
|
21 |
अश्व |
18 करोड़ |
|
|
22 |
योद्धा |
84 करोड़ |
|
|
23 |
विद्याधर |
अनेक करोड़ |
|
|
24 |
म्लेच्छ राजा |
88000 |
4 |
18000 |
25 |
चित्रकार |
99000 |
3 |
99000 |
26 |
मुकुट बद्ध राजा |
3200 |
|
|
27 |
नाट्यशाला |
32000 |
|
|
28 |
संगीतशाला |
32000 |
|
|
29 |
पदाति |
48 करोड़ |
|
|
30 |
देश |
32000 |
|
|
31 |
ग्राम |
96 करोड़ |
|
|
32 |
नगर |
75000 |
4 5 |
72000 26000 |
33 |
खेट |
16000 |
|
|
34 |
खर्वट |
24000 |
5 |
34000 |
35 |
मटंब |
4000 |
|
|
36 |
पट्टन |
48000 |
|
|
37 |
द्रोणमुख |
99000 |
|
|
38 |
संवाहन |
14000 |
|
|
39 |
अंतर्द्वीप |
56 |
|
|
40 |
कुक्षि निवास |
700 |
|
|
41 |
दुर्गादिवन |
28000 |
|
|
42 |
पताकाएँ |
|
4 |
48 करोड़ |
43 |
भोग |
10 प्रकार |
|
|
44 |
पृथिवी |
षट् खंड |
|
|
7. चौदह रत्न परिचय सामान्य
क्रम |
निर्देश |
संज्ञा |
उत्पत्ति |
दृष्टि भेद |
विशेषता |
|||
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1376-1381 2. त्रिलोकसार/823 3. हरिवंशपुराण/11/108-109 4 . महापुराण/83-86 |
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1377-1381 2. देखें आगे शीर्षक सं - 11
|
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1378-1380 2. त्रिलोकसार/823 3. महापुराण/37/85-86 |
||||||
नाम |
क्या है |
सामान्य |
विशेष प्रमाण नं.2 |
सामान्य |
विशेष प्रमाण नं.2 |
|||
1 |
चक्र |
आयुध |
सुदर्शन |
|
आयुधशाला |
|
तिलोयपण्णत्ति/4/ 1382 किन्हीं आचार्यों के मत से इनकी उत्पत्ति का नियम नहीं। यथायोग्य स्थानों में उत्पत्ति। |
देखें पृ अगला शीर्षक। |
2 |
छत्र |
छतरी |
सूर्यप्रभ |
|
आयुधशाला |
|
||
3 |
खड्ग |
आयुध |
भद्रमुख |
सौनंदक |
आयुधशाला |
|
||
4 |
दंड |
अस्त्र |
प्रवृद्धवेग |
चंडवेग |
आयुधशाला |
|
||
5 |
काकिणी |
अस्त्र |
चिंता जननी |
|
श्री गृह |
|
||
6 |
मणि |
रत्न |
चूड़ामणि |
|
श्री गृह |
|
||
7 |
चर्म |
तंबू |
|
|
श्री गृह |
|
||
8 |
सेनापति |
|
आयोध्य |
|
राजधानी |
विजयार्ध |
||
9 |
गृहपति |
भंडारी |
भद्रमुख |
कामवृष्टि ( हरिवंशपुराण/11/123 ) |
राजधानी |
विजयार्ध |
||
10 |
गज |
हाथी |
विजयगिरि |
|
विजयार्ध |
विजयार्ध |
||
11 |
अश्व |
|
पवनंजय |
|
विजयार्ध |
विजयार्ध |
||
12 |
पुरोहित |
|
बुद्धिसागर |
|
राजधानी |
विजयार्ध |
||
13 |
स्थपति |
तक्षक(बढ़ई) |
कामवृष्टि |
|
राजधानी |
विजयार्ध |
||
14 |
युवती |
पटरानी |
सुभद्रा |
|
विजयार्ध |
विजयार्ध |
8. चौदह रत्न परिचय विशेष
क्रम |
|
जीव अजीव |
काहे से बने |
विशेषताएँ |
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1377-1379 2 . महापुराण/37/84 |
तिलोयपण्णत्ति/4/1381 |
1. तिलोयपण्णत्ति/4/ गा.; 2. त्रिलोकसार/823; 3. महापुराण/37/ श्लो.; 4. जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/7/ गा. |
||
1 |
चक्र |
अजीव |
वज्र |
शत्रु संहार |
2 |
छत्र |
अजीव |
वज्र |
12 योजन लंबा और इतना ही चौड़ा है। वर्षा से कटक की रक्षा करता है।4/140-141। |
3 |
खड्ग |
अजीव |
वज्र |
शत्रु संहार |
4 |
दंड |
अजीव |
वज्र |
विजयार्ध गुफा द्वार उद्धाटन।1/1330; 2/4/124। गुफा के कांटों आदि का शोधन।3/170। वृषभाचल पर चक्रवर्ती का नाम लिखना।1/1354। |
5 |
काकिणी |
अजीव |
वज्र |
विजयार्ध की गुफाओं का अंधकार दूर करना।1/1339;3/173। वृषभाचल पर नाम लिखना।2। |
6 |
मणि |
अजीव |
वज्र |
विजयार्ध की गुफा में उजाला करना। |
7 |
चर्म |
अजीव |
वज्र महापुराण/37/171 |
म्लेच्छ राजा कृत जल के ऊपर तैरकर अपने ऊपर सारे कटक को आश्रय देता है। (2;3/171;4/140) |
8 |
सेनापति |
जीव |
|
|
9 |
गृहपति |
जीव |
|
हिसाब किताब आदि रखना।3/176। |
10 |
गज |
जीव |
|
|
11 |
अश्व |
जीव |
|
|
12 |
पुरोहित |
जीव |
|
दैवी उपद्रवों की शांति के अर्थ अनुष्ठान करना। (3/175) |
13 |
स्थपति |
जीव |
|
नदी पर पुल बनाना। (1/1342;4/131) मकान आदि बनाना।3/177। |
14 |
युवती |
जीव |
|
नोट– हरिवंशपुराण 11/109 । इन रत्नों में से प्रत्येक की एक-एक हजार देव रक्षा करते थे। |
9. नव निधि परिचय
क्रम |
1. निर्देश |
2. उत्पत्ति |
3. क्या प्रदान करती है |
विशेष |
|||
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1384 2. त्रिलोकसार/821 3. हरिवंशपुराण/11/1- 110-111 4. महापुराण/37/75-82 |
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1384 2. तिलोयपण्णत्ति/4/1385
|
1. तिलोयपण्णत्ति/4/1386 2. त्रिलोकसार/822 3. हरिवंशपुराण/11/114-122 4. महापुराण/37/75-82 |
|||||
|
दृष्टि सं.1 |
दृष्टि सं.2 |
सामान्य |
प्रमाण सं. |
विशेष |
||
1 |
काल |
श्रीपुर |
नदीमुख |
ऋतु के अनुसार पुष्प फल आदि |
3,4 |
निमित्त, न्याय, व्याकरण आदि विषयक अनेक प्रकार के शास्त्र |
देखें नीचे |
|
|
|
|
|
4 |
बाँसुरी, नगाड़े आदि पंचेंद्रिय के मनोज्ञ विषय |
|
2 |
महाकाल |
श्रीपुर |
नदीमुख |
भाजन |
3 |
पंचलोह आदि धातुएँ |
|
|
|
|
|
|
4 |
असि, मसि आदि के साधनभूत द्रव्य |
|
3 |
पांडु |
श्रीपुर |
नदीमुख |
धान्य |
4 |
धान्य तथा गट्रस |
|
4 |
मानव |
श्रीपुर |
नदीमुख |
आयुध |
4 |
नीति व अन्य अनेक विषयों के शास्त्र |
|
5 |
शंख |
श्रीपुर |
नदीमुख |
वादित्र |
|
|
|
6 |
पद्म |
श्रीपुर |
नदीमुख |
वस्त्र |
|
|
|
7 |
नैसर्प |
श्रीपुर |
नदीमुख |
हर्म्य (भवन) |
3, 4 |
शय्या, आसन, भाजन आदि उपभोग्य वस्तुएँ |
|
8 |
पिंगल |
श्रीपुर |
नदीमुख |
आभरण |
|
|
|
9 |
नानारत्न |
श्रीपुर |
नदीमुख |
अनेक प्रकार के रत्न आदि |
|
|
4. विशेषताएँ
हरिवंशपुराण/11/111-113,123 अमी...निधयोऽनिधना नव। पालिता निधिपालाख्यै: सुरैर्लोकोपयोगिन:।111। शकटाकृतय: सर्वे चतुरक्षाष्टचक्रका:। नवयोजनविस्तीर्णा द्वादशायामसंमिता:।112। ते चाष्टयोजनागाधा बहुवक्षारकुक्षय:। नित्यं यक्षसहस्रेण प्रत्येकं रक्षितेक्षिता:।113। कामवृष्टिवशास्तेऽमी नवापि निधय: सदा। निष्पादयंति नि:शेषं चक्रवर्तिमनीषितम् ।123।=ये सभी निधियाँ अविनाशी थीं। निधिपाल नाम के देवों द्वारा सुरक्षित थीं। और निरंतर लोगों के उपकार में आती थीं।111। ये गाड़ी के आकार की थीं। 9 योजन चौड़ी, 12 योजन लंबी, 8 योजन गहरी और वक्षार गिरि के समान विशाल कुक्षि से सहित थीं। प्रत्येक की एक-एक हज़ार यक्ष निरंतर देखरेख रखते थे।112-113। ये नौ की नो निधियाँ कामवृष्टि नामक गृहपति (9वाँ रत्न) के अधीन थीं। और सदा चक्रवर्ती के समस्त मनोरथों को पूर्ण करती थीं।123।
10. दश प्रकार भोग परिचय
तिलोयपण्णत्ति/4/1397 दिव्वपुरं रयणणिहिं चमुभायण भोयणाइं सयणिज्जं। आसणवाहणणट्टा दसंग भोग इमे ताणं।1397।=दिव्वपुर (नगर), रत्न, निधि, चमू (सैन्य) भाजन, भोजन, शय्या, आसन, वाहन, और नाट्य ये उन चक्रवर्तियों के दशांग भोग होते हैं।1397। (हरिवंशपुराण/11/131); (महापुराण/37/143) ।
11. भरत चक्रवर्ती की विभूतियों के नाम
महापुराण/37/ श्लोक सं.
क्रम |
श्लोक सं. |
विभूति |
नाम |
1 |
146 |
घर का कोट |
क्षितिसार |
2 |
146 |
गौशाला |
सर्वतोभद्र |
3 |
147 |
छावनी |
नंद्यावर्त |
4 |
147 |
ऋतुओं के लिए महल |
वैजयंत |
5 |
147 |
सभाभूमि |
दिग्वसतिका |
6 |
148 |
टहलने की लकड़ी |
सुविधि |
7 |
149 |
दिशा प्रेक्षण भवन |
गिरि कूटक |
8 |
149 |
नृत्यशाला |
वर्धमानक |
9 |
150 |
शीतगृह |
धारागृह |
10 |
150 |
वर्षा ऋतु निवास |
गृहकूटक |
11 |
151 |
निवास भवन |
पुष्करावती |
12 |
151 |
भंडार गृह |
कुबेरकांत |
13 |
152 |
कोठार |
वसुधारक |
14 |
152 |
स्नानगृह |
जीमूत |
15 |
153 |
रत्नमाला |
अवतंसिका |
16 |
153 |
चाँदनी |
देवरम्या |
17 |
154 |
शय्या |
सिंहवाहिनी |
18 |
155 |
चमर |
अनुपमान |
19 |
156 |
छत्र |
सूर्यप्रभ |
20 |
157 |
कुंडल |
विद्युत्प्रभ |
21 |
158 |
खड़ाऊँ |
विषमोचिका |
22 |
159 |
कवच |
अभेद्य |
23 |
160 |
रथ |
अजितंजय |
24 |
161 |
धनुष |
वज्रकांड |
25 |
162 |
बाण |
अमोघ |
26 |
163 |
शक्ति |
वज्रतुंडा |
27 |
164 |
माला |
सिंघाटक |
28 |
165 |
छुरी |
लोह वाहिनी |
29 |
166 |
कणप (अस्त्र विशेष) |
मनोवेग |
30 |
167 |
तलवार |
सौनंदक |
31 |
168 |
खेट (अस्त्र विशेष) |
भूतमुख |
32 |
169 |
चक्र |
सुदर्शन |
33 |
170 |
दंड |
चंडवेग |
34 |
172 |
चिंतामणि रत्न |
चूड़ामणि |
35 |
173 |
काकिणी (दीपिका) |
चिंताजननी |
36 |
174 |
सेनापति |
अयोघ्य |
37 |
175 |
पुरोहित |
बुद्धिसागर |
38 |
176 |
गृहपति |
कामवृष्टि |
39 |
177 |
शिलावट (स्थपित) |
भद्रमुख |
40 |
178 |
गज |
विजयगिरि (धवल वर्ण) |
41 |
179 |
अश्व |
पवनंजय |
42 |
180 |
स्त्री |
सुभद्रा |
43 |
182 |
भेरी |
आनंदिनी (12 योजन शब्द) ( महापुराण/37/182 ) |
44 |
184 |
शंख |
गंभीरावर्त |
45 |
185 |
कड़े |
वीरानंद |
46 |
187 |
भोजन |
महाकल्याण |
47 |
188 |
खाद्य पदार्थ |
अमृतगर्भ |
48 |
189 |
स्वाद्यपदार्थ |
अमृतकल्प |
49 |
189 |
पेय पदार्थ |
अमृत |
12. दिग्विजय का स्वरूप
तिलोयपण्णत्ति/4/1303-1369 का भावार्थ ―
आयुधशाला में चक्र की उत्पत्ति हो जाने पर चक्रवर्ती जिनेंद्र पूजन पूर्वक दिग्विजय के लिए प्रयाण करता है।1303-1304।
पहले पूर्व दिशा की ओर जाकर गंगा के किनारे-किनारे उपसमुद्र पर्यंत जाता है।1305।
रथ पर चढ़कर 12 योजन पर्यंत समुद्र तट पर प्रवेश करके वहाँ से अमोघ नामा बाण फेंकता है, जिसे देखकर मागध देव चक्रवर्ती की अधीनता स्वीकार कर लेता है।1306-1314।
यहाँ से जंबूद्वीप की वेदी के साथ-साथ उसके वैजयंत नामा दक्षिण द्वार पर पहुँचकर पूर्व की भाँति ही वहाँ रहने वाले वरतनुदेव को वश करता है।1315-1316।
यहाँ से वह पश्चिम दिशा की ओर जाता है और सिंधु नदी के द्वार में स्थित प्रभासदेव को पूर्ववत् ही वश करता है।1317-1318।
तत्पश्चात् नदी के तट से उत्तर मुख होकर विजयार्ध पर्वत तक जाता है। और पर्वत के रक्षक वैताढ्य नामा देव को वश करता है।1319-1323।
तब सेनापति दंड रत्न से उस पर्वत की खंडप्रपात नामक पश्चिम गुफा को खोलता है।1325-1330।
गुफा में से गर्म हवा निकलने के कारण वह पश्चिम के म्लेच्छ राजाओं को वश करने के लिए चला जाता है। छह महीने में उन्हें वश करके जब वह अपने कटक में लौट आता है तब तक उस गुफा की वायु भी शुद्ध हो चुकती है।1331-1336।
अब सर्व सैन्य को साथ लेकर वह गुफा में प्रवेश करता है, और काकिणी रत्न से गुफा के अंधकार को दूर करता है। और स्थपति रत्न गुफा में स्थित उन्मग्नजला नदी पर पुल बाँधता है। जिसके द्वारा सर्व सैन्य गुफा से पार हो जाती है।1337-1341।
यहाँ पर सेना को ठहराकर पहले सेनापति पश्चिम खंड के म्लेच्छ राजाओं को जीतता है।1345-1348।
तत्पश्चात् हिमवान पर्वत पर स्थित हिमवानदेव से युद्ध करता है। देव के द्वारा अतिघोर वृष्टि की जाने पर छत्र रत्न व चर्म रत्न से सैन्य की रक्षा करता हुआ उस देव को भी जीत लेता है।1349-1350।
अब वृषभगिरि पर्वत के निकट आता है। और दंडरत्न द्वारा अन्य चक्रवर्ती का नाम मिटाकर वहाँ अपना नाम लिखता है।1351-1355।
यहाँ से पुन: पूर्व में गंगा नदी के तट पर आता है, जहाँ पूर्ववत् सेनापति दंड रत्न द्वारा तमिस्रा गुफा के द्वार को खोलकर छह महीने में पूर्वखंड के म्लेच्छ राजाओं को जीतता है।1356-1358।
विजयार्ध की उत्तर श्रेणी के 60 विद्याधरों को जीतने के पश्चात् पूर्ववत् गुफा द्वार से पर्वत को पार करता है।1359-1365।
यहाँ से पूर्वखंड के म्लेच्छ राजाओं को छह महीने में जीतकर पुन: कटक में लौट आता है।1366।
इस प्रकार छह खंडों को जीतकर अपनी राजधानी में लौट आता है। (हरिवंशपुराण/11/1-56); (महापुराण/26-36 पर्व/पृ.1-220); (जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/7/115-151)।
13. राजधानी का स्वरूप
ति.सा./716-717
रयणकवाडवरावर सहस्सदलदार हेमपायारा। बारसहस्सा वीही तत्थ चउप्पह सहस्सेक्कं।716। णयराण बहिं परिदो वणाणि तिसद ससट्ठि पुरमज्झे। जिणभवणा णरवइ जणगेहा सोहंति रयणमया।717।
=राजधानी में स्थित नगरों के (देखें मनुष्य - 4) रत्नमयी किवाड़ हैं। उनमें बड़े द्वारों की संख्या 1000 है और छोटे 500 द्वार हैं। सुवर्णमयी कोट है। नगर के मध्य में 12000 वीथी और 1000 चौपथ हैं।716। नगरों के बाह्य चौगिर्द 360 बाग हैं। और नगर के मध्य जिनमंदिर, राजमंदिर व अन्य लोगों के मंदिर रत्नमयी शोभते हैं।...।717।
14. हुंडावसर्पिणी में चक्रवर्ती के उत्पत्ति काल में कुछ अपवाद
तिलोयपण्णत्ति/4/1616-1618
...सुसमदुस्समकालस्स ठिदिम्मि थोअवसेसे।1616। तक्काले जायते...पढमचक्की य।1617। चक्किस्सविजयभंगो।
=हुंडावसर्पिणी काल में कुछ विशेषता है। वह यह कि इस काल में चौथा काल शेष रहते ही प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हो जाता है। (यद्यपि चक्रवर्ती की विजय कभी भंग नहीं होती। परंतु इस काल में उसकी विजय भी भंग होती है।)