पर्याय: Difference between revisions
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<p class="HindiText">पर्याय का वास्तविक अर्थ वस्तु का अंश है। ध्रुव अन्वयी या सहभूह तथा क्षणिक व्यतिरेकी या क्रमभावी के भेद से वे अंश दो प्रकार के होते हैं। अन्वयी को गुण और व्यतिरेकी को पर्याय कहते हैं। वे गुण के विशेष परिणमनरूप होती हैं। अंश की अपेक्षा यद्यपि दोनों ही अंश पर्याय हैं, पर रूढ़ि से केवल व्यतिरेकी अंश को ही पर्याय कहना प्रसिद्ध है। वह पर्याय भी दो प्रकार की होती हैं - अर्थ व व्यंजन। अर्थ पर्याय तो छहों द्रव्यों में समान रूप से होनेवाले क्षणस्थायी सूक्ष्म परिणमन को कहते हैं। व्यंजन पर्याय जीव व पुद्गल की संयोगी अवस्थाओं को कहते हैं। अथवा भावात्मक पर्यायों को अर्थ-पर्याय और प्रदेशात्मक आकारों को व्यंजनपर्याय कहते हैं। दोनों ही स्वभाव व विभाव के भेद से दो प्रकार की होती हैं। शुद्ध द्रव्य व गुणों की पर्याय स्वाभाविक और अशुद्ध द्रव्य व गुणों की विभाविक होती हैं। इन ध्रुव व क्षणिक दोनों अंशों से ही उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप वस्तु की अर्थ क्रिया सिद्ध होती है। <br /> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">पर्याय का वास्तविक अर्थ वस्तु का अंश है। ध्रुव अन्वयी या सहभूह तथा क्षणिक व्यतिरेकी या क्रमभावी के भेद से वे अंश दो प्रकार के होते हैं। अन्वयी को गुण और व्यतिरेकी को पर्याय कहते हैं। वे गुण के विशेष परिणमनरूप होती हैं। अंश की अपेक्षा यद्यपि दोनों ही अंश पर्याय हैं, पर रूढ़ि से केवल व्यतिरेकी अंश को ही पर्याय कहना प्रसिद्ध है। वह पर्याय भी दो प्रकार की होती हैं - अर्थ व व्यंजन। अर्थ पर्याय तो छहों द्रव्यों में समान रूप से होनेवाले क्षणस्थायी सूक्ष्म परिणमन को कहते हैं। व्यंजन पर्याय जीव व पुद्गल की संयोगी अवस्थाओं को कहते हैं। अथवा भावात्मक पर्यायों को अर्थ-पर्याय और प्रदेशात्मक आकारों को व्यंजनपर्याय कहते हैं। दोनों ही स्वभाव व विभाव के भेद से दो प्रकार की होती हैं। शुद्ध द्रव्य व गुणों की पर्याय स्वाभाविक और अशुद्ध द्रव्य व गुणों की विभाविक होती हैं। इन ध्रुव व क्षणिक दोनों अंशों से ही उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप वस्तु की अर्थ क्रिया सिद्ध होती है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong>कर्म का अर्थ पर्याय </strong>- | <li class="HindiText"><strong>कर्म का अर्थ पर्याय </strong>- देखें [[ अर्थ#1.1 | अर्थ - 1.1]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong> ऊर्ध्व क्रम व ऊर्ध्व प्रचय। </strong>- देखें | <li class="HindiText"><strong> ऊर्ध्व क्रम व ऊर्ध्व प्रचय। </strong>- देखें [[ क्रम ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong> पर्याय में परस्पर व्यतिरेक प्रदर्शन </strong>- | <li class="HindiText"><strong> पर्याय में परस्पर व्यतिरेक प्रदर्शन </strong>- देखें [[ सप्तभंगी#5.3 | सप्तभंगी - 5.3]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong> पर्याय पर्यायी में कथंचित् भेदाभेद</strong> - | <li class="HindiText"><strong> पर्याय पर्यायी में कथंचित् भेदाभेद</strong> - देखें [[ द्रव्य#4 | द्रव्य - 4]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>पर्यायों को द्रव्यगुण तथा उन्हें पर्यायों से लक्षित करना। -</strong> | <li class="HindiText"><strong>पर्यायों को द्रव्यगुण तथा उन्हें पर्यायों से लक्षित करना। -</strong> देखें [[ उपचार#3 | उपचार - 3]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>परिणमन का अस्तित्व द्रव्य में या द्रव्यांशों में या पर्यायों में। </strong>- | <li class="HindiText"><strong>परिणमन का अस्तित्व द्रव्य में या द्रव्यांशों में या पर्यायों में। </strong>- देखें [[ उत्पाद#3 | उत्पाद - 3]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong> पर्याय का कथंचित् सत्पना या नित्यानित्यपना।</strong> | <li class="HindiText"><strong> पर्याय का कथंचित् सत्पना या नित्यानित्यपना।</strong> देखें [[ उत्पाद#3 | उत्पाद - 3]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>व्यंजन पर्याय के अभाव का नियम नहीं।</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong>व्यंजन पर्याय के अभाव का नियम नहीं।</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong> अर्थ व व्यंजन पर्यायों की सूक्ष्मता स्थूलता</strong> - (दोनों का काल; | <li class="HindiText"><strong> अर्थ व व्यंजन पर्यायों की सूक्ष्मता स्थूलता</strong> - (दोनों का काल; 2 व्यंजन पर्याय में अर्थपर्याय; स्थूल; व सूक्ष्म पर्यायों की सिद्धि)। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>स्वभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय।</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong>स्वभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय।</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>सादि-अनादि व सदृश-विसदृश परिणमन।</strong> - देखें | <li class="HindiText"><strong>सादि-अनादि व सदृश-विसदृश परिणमन।</strong> - देखें [[ परिणाम ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> निरुक्ति अर्थ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> निरुक्ति अर्थ</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/33/1/95/6 <span class="SanskritText">परि समन्तादायः पर्यायः। </span>= <span class="HindiText">जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त करे सो पर्याय है। (ध. 1/1,1,1/84/1); (क.पा.1/1,13-14/§181/217/1); (नि.सा./ता.वृ. 14)। </span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./6 <span class="SanskritText">स्वभावविभावरूपतया याति पर्येति परिणमतीति पर्याय इति पर्यायस्य व्युत्पत्तिः।</span> =<span class="HindiText"> जो स्वभाव विभाव रूप से गमन करती है पर्येति अर्थात् परिणमन करती है, वह पर्याय है। यह पर्याय की व्युत्पत्ति है। (न. च./श्रुत/पृ.57)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2">द्रव्यांश या वस्तु विशेष के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2">द्रव्यांश या वस्तु विशेष के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/33/141/1 <span class="SanskritText">पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरिव्यर्थः। </span>= <span class="HindiText">पर्याय का अर्थ - विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है। </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/29/4/89/4<span class="SanskritText"> तस्य मिथो भवनं प्रति विरोध्यविरोधिनां धर्माणामुपात्तानुपात्तहेतुकानां शब्दान्तरात्मलाभनिमित्तत्वाद् अर्पितव्यवहारविषयोऽवस्थाविशेषः पर्यायः। 4।</span> =<span class="HindiText"> स्वाभाविक या नैमित्तिक विरोधी या अविरोधी धर्मों में अमुक शब्द व्यवहार के लिए विवक्षित द्रव्य की अवस्था विशेष को पर्याय कहते हैं। </span><br /> | ||
ध. | ध. 9/4,1,45/170/2 <span class="SanskritText">एष एव सदादिरविभागप्रतिच्छेदनपर्यन्तः संग्रह-प्रस्तारः क्षणिकत्वेन विवक्षितः वाचकभेदेन च भेदमापन्नः विशेष-विस्तारः पर्यायः। </span>= <span class="HindiText">सत् को आदि लेकर अविभाग प्रतिच्छेद पर्यन्त यही संग्रह प्रस्तार क्षणिक रूप से विवक्षित व शब्द भेद से भेद को प्राप्त हुआ विशेष प्रस्तार या पर्याय है। </span><br /> | ||
<strong>स.सा./आ./ | <strong>स.सा./आ./345</strong>-348 <span class="SanskritText">क्षणिकत्वेऽपि वृत्त्यंशानाम्।</span> = <span class="HindiText">वृत्त्यंशों अर्थात् पर्यायों का क्षणिकत्व होने पर भी। </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./26, 117 <span class="SanskritText">पर्यायाणामेतद्धर्म यत्त्वंशकल्पनं द्रव्ये। 26। स च परिणामोऽवस्था तेषामेव (गुणानामेव)। 117। </span>= <span class="HindiText">द्रव्य में जो अंश कल्पना की जाती है यही तो पर्यायों का स्वरूप है। 26। परिणमन गुणों की ही अवस्था है अर्थात् गुणों की प्रतिसमय होनेवाली अवस्था का नाम पर्याय है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3">द्रव्य विकार के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3">द्रव्य विकार के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
त.सू./ | त.सू./5/42 <span class="SanskritText">तद्भावः परिणामः। 42। </span>= <span class="HindiText">उसका होना अर्थात् प्रतिसमय बदलते रहना परिणाम है। (अर्थात् गुणों के परिणमन की पर्याय कहते हैं।)</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./5/38/309-310/7 <span class="SanskritText">दव्व विकारी हि पज्जवो भणिदो। तेषां विकारा विशेषात्मना भिद्यमानाः पर्यायाः। </span>= | ||
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<li class="HindiText"> द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं। </li> | <li class="HindiText"> द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> द्रव्य के विकार विशेष रूप से भेद को प्राप्त होते हैं इसलिए वे पर्याय कहलाते हैं। (न.च.वृ./ | <li><span class="HindiText"> द्रव्य के विकार विशेष रूप से भेद को प्राप्त होते हैं इसलिए वे पर्याय कहलाते हैं। (न.च.वृ./17)। </span><br /> | ||
न.च./श्रुत/पृ. | न.च./श्रुत/पृ. 57 <span class="SanskritText">सामान्यविशेषगुणा एकस्मिन् धर्मणि वस्तुत्व-निष्पादकास्तेषां परिणामः पर्यायः।</span> =<span class="HindiText"> सामान्य विशेषात्मक गुण एक द्रव्य में वस्तुत्व के बतलानेवाले हैं उनका परिणाम पर्याय है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.4" id="1.1.4">पर्याय के एकार्थवाची नाम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.4" id="1.1.4">पर्याय के एकार्थवाची नाम</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/33/141 <span class="SanskritText">पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः।</span> =<span class="HindiText"> पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है। </span><br /> | ||
गो.जी./मू./ | गो.जी./मू./572/1016 <span class="PrakritText">ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति एयट्ठो। 572।</span> =<span class="HindiText"> व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय ये सब एकार्थ हैं। 572। </span><br /> | ||
स.म./ | स.म./23/272/11 <span class="SanskritText">पर्ययः पर्यवः पर्याय इत्यनर्थान्तरम्।</span> = <span class="HindiText">पर्यय, पर्यव और पर्याय ये एकार्थवाची हैं। </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./60 <span class="SanskritGatha">अपि चांशः पर्यायो भागो हारोविधा प्रकारश्च। भेदश्छेदो भंगः शब्दाश्चैकार्थवाचका एते। 60। </span>= <span class="HindiText">अंश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार तथा भेद, छेद और भंग ये सब एक ही अर्थ के वाचक हैं। 60। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">सहभावी व क्रमभावी</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">सहभावी व क्रमभावी</strong> </span><br /> | ||
श्ल.वा./ | श्ल.वा./4/1/33/60/245/1 <span class="SanskritText">यः पर्यायः स द्विविधः क्रमभावी सहभावी चेति। </span>= <span class="HindiText">जो पर्याय है वह क्रमभावी और सहभावी इस ढंग से दो प्रकार है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2">द्रव्य व गुण पर्याय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2">द्रव्य व गुण पर्याय</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./93<span class="SanskritText"> पर्यायास्तु... द्रव्यात्मका अपि गुणात्मका अपि।</span> = <span class="HindiText">पर्याय गुणात्मक भी हैं और द्रव्यात्मक भी। (पं.ध./पू./25, 62-63, 135)। </span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./16/35/12 <span class="SanskritText">द्विधा पर्याया द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्च।</span> =<span class="HindiText"> पर्याय दो प्रकार की होती हैं - द्रव्य पर्याय और गुणपर्याय। (पं.ध./पू./112)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.3" id="1.2.3">अर्थ-पर्याय व व्यंजन-पर्याय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.3" id="1.2.3">अर्थ-पर्याय व व्यंजन-पर्याय</strong> </span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./16/36/8 <span class="SanskritText">अथवा द्वितीयप्रकारेणार्थव्यंजनपर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवन्ति। </span>= <span class="HindiText">अथवा दूसरे प्रकार से अर्थ-पर्याय व व्यंजन-पर्यायरूप से पर्याय दो प्रकार की होती हैं। (गो.जी./मू./581) (न्या.दी./3/§77/120)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.4" id="1.2.4">स्वभाव पर्याय व विभाव पर्याय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.4" id="1.2.4">स्वभाव पर्याय व विभाव पर्याय</strong> </span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./17-19 <span class="PrakritText">पज्जयं द्विविधः। 17। सब्भावं खुविहावं दव्वाणं पज्जयं जिणुद्दिट्ठं। 18। दव्वगुणाण सहावा पज्जायंतह विहावदो णेयं। 19।</span> = <span class="HindiText">पर्याय दो प्रकार की होती हैं - स्वभाव व विभाव। तहाँ द्रव्य व गुण दोनों की ही पर्याय स्वभाव व विभाव के भेद से दो-दो प्रकार की जाननी चाहिए। (पं.का./ता.वृ./16/36/16)। </span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./3 <span class="SanskritText">पर्यायास्तु द्वेधा स्वभावविभावपर्यायभेदात्। ...विभावद्रव्य-व्यंजनपर्यायः... विभावगुणव्यंजनपर्यायः... स्वभावद्रव्यव्यंजनपर्यायः ...स्वभावगुणव्यंजनपर्यायः।</span> = <span class="HindiText">पर्याय दो प्रकार की होती हैं - स्वभाव व विभाव। ये दोनों भी दो प्रकार की होती हैं यथा - विभाव-द्रव्य व्यंजनपर्याय, विभावगुण व्यंजनपर्याय, स्वभाव द्रव्य-व्यंजन पर्याय व स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय। (प.प्र./टी./1/57)। </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./93 <span class="SanskritText">द्रव्यपर्यायः। स द्विविधः, समानजातीयोऽसमानजातीयश्च। ...गुणपर्यायः। सोऽपि द्विविधः स्वभावपर्यायो विभावंपर्यायश्च। </span>= <span class="HindiText">द्रव्यपर्याय दो प्रकार की होती है - समानजातीय और असमानजातीय। ...गुणपर्याय दो प्रकार की है - स्वभाव पर्याय व विभाव पर्याय। (पं.का./ता.वृ./16/35/13)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.5" id="1.2.5">कारण शुद्ध पर्याय व कार्य शुद्ध पर्याय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.5" id="1.2.5">कारण शुद्ध पर्याय व कार्य शुद्ध पर्याय</strong> </span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ. | नि.सा./ता.वृ. 15 <span class="SanskritText">स्वभावविभावपर्य्यायाणां मध्ये स्वभावपर्यायस्तावत् द्विप्रकारेणोच्यते। कारणशुद्धपर्य्यायः कार्यशुद्धपर्य्यायश्चेति।</span> =<span class="HindiText"> स्वभाव पर्यायों व विभाव पर्यायों के बीच प्रथम स्वभाव पर्याय दो प्रकार से कही जाती है - कारण शुद्धपर्याय, और कार्यशुद्धपर्याय। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">द्रव्य पर्याय सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">द्रव्य पर्याय सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./92 <span class="SanskritText">तत्रानेकद्रव्यात्मकैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो द्रव्यपर्यायः। </span>= <span class="HindiText">अनेक द्रव्यात्मक एकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत द्रव्य पर्याय है। (पं.का./ता.वृ./16/35/12)। </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./135 <span class="SanskritText">यतरे प्रदेशभागास्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना। 135।</span> = <span class="HindiText">द्रव्य के जितने प्रदेश रूप अंश हैं, उतने वे सब नाम से द्रव्यपर्याय हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">समान व असमान जातीय द्रव्यपर्याय का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">समान व असमान जातीय द्रव्यपर्याय का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./93 <span class="SanskritText">तत्र समानजातीयो नाम यथा अनेकपुद्गलात्मको द्वयणुकस्त्र्यणुक इत्यादि, असमानजातीयो नाम यथा जीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यादि। </span>= <span class="HindiText">समानजातीय वह है - जैसे कि अनेक पुद्गलात्मक द्विअणुक, त्रिअणुक, इत्यादि; असमानजातीय वह है - जैसे कि जीव पुद्गलात्मक देव, मनुष्य इत्यादि। </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./52 <span class="SanskritText">स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चित एवान्यस्मिन्नर्थे विशिष्टरूपतया संभावितात्मलाभोऽर्थोऽनेकद्रव्यात्मकः पर्यायः। ...जीवस्य पुद्गले संस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमानः संभाव्यत एव।</span> = <span class="HindiText">स्वलक्षण भूत स्वरूपास्तित्व से निश्चित अन्य अर्थ में विशिष्ट (भिन्न-भिन्न) रूप से उत्पन्न होता हुआ अर्थ (असमानजातीय) अनेक द्रव्यात्मक पर्याय है। ...जो कि जीव की पुद्गल में संस्थानादि से विशिष्टतया उत्पन्न होती हुई अनुभव में आती है। </span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./16/35/14 <span class="SanskritText">द्वे त्रीणि वा चत्वारीत्यादिपरमाणुपुद्गल-द्रव्याणि मिलित्वा स्कन्धा भवन्तीत्यचेतनस्यापरेणाचेतनेन संबन्धा-त्समानजातीयो भण्यते। असमानजातीयः कथ्यते-जीवस्य भवान्तर-गतस्य शरीरनोकर्मपुद्गलेन सह मनुष्यदेवादिपर्यायोत्पत्तिचेतन-जीवस्याचेतनपुद्गलद्रव्येण सह मेलापकादसमानजातीयः द्रव्य-पर्यायो भण्यते। </span>= <span class="HindiText">दो, तीन वा चार इत्यादि परमाणु रूप पुद्गल द्रव्य मिलकर स्कन्ध बनते हैं, तो यह एक अचेतन की दूसरे अचेतन द्रव्य के सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाली समानजातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है। अब असमान जातीय द्रव्य पर्याय कहते हैं - भवान्तर को प्राप्त हुए जीव के शरीर नोकर्म रूप पुद्गल के साथ मनुष्य, देवादि पर्याय रूप जो उत्पत्ति है वह चेतन जीव की अचेतन पुद्गल द्रव्य के साथ मेल से होने के कारण असमानजातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5">गुणपर्याय सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5">गुणपर्याय सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./93 <span class="SanskritText">गुणद्वारेणायतनैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो गुणपर्यायः। 93। </span>= <span class="HindiText">गुण द्वारा आयत की अनेकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत गुणपर्याय है। 93। </span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./16/36/4<span class="SanskritText"> गुणद्वारेणान्वयरूपाया एकत्वप्रतिपत्तेर्निबन्धनं कारणभूतो गुणपर्यायः।</span> =<span class="HindiText"> जिन पर्यायों में गुणों के द्वारा अन्वयरूप एकत्व का ज्ञान होता है, उन्हें गुणपर्याय कहते हैं। </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./135 <span class="SanskritText">यतरे च विशेषांस्ततरे गुणपर्यया भवन्त्येव। 135। </span>= <span class="HindiText">जितने गुण के अंश हैं, उतने वे सब गुणपर्याय ही कहे जाते हैं। 135। (पं.ध./पू./61)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">गुणपर्याय एक द्रव्यात्मक ही होती हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">गुणपर्याय एक द्रव्यात्मक ही होती हैं</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./105 <span class="SanskritText">एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्यायाः गुणपर्यायाणामेक-द्रव्यत्वात्। एकद्रव्यत्वं हि तेषां सहकारफलवत्। </span>=<span class="HindiText"> गुणपर्यायें एक द्रव्यपर्यायें हैं, क्योंकि गुणपर्यायों को एक द्रव्यत्व है तथा वह द्रव्यत्व आम्रफल की भाँति हैं। </span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./16/36/5<span class="SanskritText"> गुणपर्यायः स चैकद्रव्यगत एव सहकारफले हरितपाण्डुरादिवर्णवत्।</span> =<span class="HindiText"> गुणपर्याय एक द्रव्यगत ही होती है, आम्र में हरे व पीले रंग की भाँति। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7">स्व व पर पर्याय के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7">स्व व पर पर्याय के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
मोक्ष पंचाशत/ | मोक्ष पंचाशत/23-25 <span class="SanskritGatha">केवलिप्रज्ञया तस्या जघन्योऽशंस्तु पर्य्ययः। तदाऽनन्त्येन निष्पन्नं सा द्युतिर्निजपर्य्ययाः। 23। क्षयोपशम-वैचित्र्यं ज्ञेयवैचित्र्यमेव वा। जीवस्य परपर्यायाः षट्स्थनपतितामी। 25। </span>= <span class="HindiText">केवलज्ञान के द्वारा निष्पन्न जो अनन्त अन्तर्द्युति या अन्तर्तेज है वही निज पर्याय है। 23। और क्षयोपशम के द्वारा व ज्ञेयों के द्वारा चित्र-विचित्र जो पर्याय है, सो परपर्याय है। दोनों ही षट्स्थान पतित वृद्धि हानि युक्त है। 25। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8">कारण व कार्य शुद्ध पर्याय के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8">कारण व कार्य शुद्ध पर्याय के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./15 <span class="SanskritText">इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्ता-तीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शन-सहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्वभावानन्तचतुष्टयस्वरूपेण सहांचितपंचमभावपरिणतिरेव कारणशुद्धपर्याय इत्यर्थः। साद्यतिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञान-केवलदर्शनकेवल-सुखकेवलशक्तियुक्तफलरूपानन्तचतुष्टयेन सार्द्धं परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्य्यायश्च। </span>= <span class="HindiText">सहज शुद्ध निश्चय से, अनादि अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान-सहजदर्शन-सहजचारित्र-सहजपरमवीतरागसुखात्मक शुद्ध अन्तस्तत्त्व रूप जो स्वभाव अनन्तचतुष्टय का स्वरूप उसके साथ की जो पूजित पंचम भाव परिणति वही कारण शुद्धपर्याय है। सादि-अनन्त, अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले, शुद्धसद्भूत व्यवहार से, केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्त चतुष्टय के साथ की परमोत्कृष्ट क्षायिक भाव की जो शुद्ध परिणति वही कार्य शुद्ध पर्याय है। </span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1"> (1) द्रव्य में प्रति समय होने वाला गुणों का परिणमन । <span class="GRef"> महापुराण 3. 5-8 </span></p> | |||
<p id="2">(2) श्रुतज्ञान के बीस भेदों में प्रथम भेद । यह ज्ञान गम निगोदिया लब्धपर्याप्तक जीवों के होता है और श्रुतज्ञानावरण पर होने वाले आवरण से रहित होता है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10.12, 16 </span></p> | |||
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Revision as of 21:43, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
पर्याय का वास्तविक अर्थ वस्तु का अंश है। ध्रुव अन्वयी या सहभूह तथा क्षणिक व्यतिरेकी या क्रमभावी के भेद से वे अंश दो प्रकार के होते हैं। अन्वयी को गुण और व्यतिरेकी को पर्याय कहते हैं। वे गुण के विशेष परिणमनरूप होती हैं। अंश की अपेक्षा यद्यपि दोनों ही अंश पर्याय हैं, पर रूढ़ि से केवल व्यतिरेकी अंश को ही पर्याय कहना प्रसिद्ध है। वह पर्याय भी दो प्रकार की होती हैं - अर्थ व व्यंजन। अर्थ पर्याय तो छहों द्रव्यों में समान रूप से होनेवाले क्षणस्थायी सूक्ष्म परिणमन को कहते हैं। व्यंजन पर्याय जीव व पुद्गल की संयोगी अवस्थाओं को कहते हैं। अथवा भावात्मक पर्यायों को अर्थ-पर्याय और प्रदेशात्मक आकारों को व्यंजनपर्याय कहते हैं। दोनों ही स्वभाव व विभाव के भेद से दो प्रकार की होती हैं। शुद्ध द्रव्य व गुणों की पर्याय स्वाभाविक और अशुद्ध द्रव्य व गुणों की विभाविक होती हैं। इन ध्रुव व क्षणिक दोनों अंशों से ही उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप वस्तु की अर्थ क्रिया सिद्ध होती है।
- भेद व लक्षण
- पर्याय सामान्य का लक्षण अंश व विकार।
- पर्याय के भेद (द्रव्य-गुण; अर्थ-व्यंजन; स्वभाव-विभाव; कारण-कार्य)।
- कर्म का अर्थ पर्याय - देखें अर्थ - 1.1।
- द्रव्य पर्याय सामान्य का लक्षण।
- समान व असमान द्रव्य पर्याय सामान्य का लक्षण।
- गुणपर्याय सामान्य का लक्षण।
- गुणपर्याय एक द्रव्यात्मक ही होती है।
- स्व व पर पर्याय के लक्षण।
- कारण व कार्य शुद्ध पर्याय के लक्षण।
- पर्याय सामान्य का लक्षण अंश व विकार।
- ऊर्ध्व क्रम व ऊर्ध्व प्रचय। - देखें क्रम ।
- पर्याय सामान्य का निर्देश
- गुण से पृथक् पर्याय निर्देश का कारण।
- पर्याय द्रव्य के व्यतिरेकी अंश हैं।
- पर्याय में परस्पर व्यतिरेक प्रदर्शन - देखें सप्तभंगी - 5.3।
- गुण से पृथक् पर्याय निर्देश का कारण।
- पर्याय द्रव्य के क्रम भावी अंश हैं।
- पर्याय स्वतन्त्र है।
- पर्याय व क्रिया में अन्तर।
- पर्याय निर्देश का प्रयोजन।
- पर्याय पर्यायी में कथंचित् भेदाभेद - देखें द्रव्य - 4।
- पर्यायों को द्रव्यगुण तथा उन्हें पर्यायों से लक्षित करना। - देखें उपचार - 3।
- परिणमन का अस्तित्व द्रव्य में या द्रव्यांशों में या पर्यायों में। - देखें उत्पाद - 3।
- पर्याय का कथंचित् सत्पना या नित्यानित्यपना। देखें उत्पाद - 3।
- स्वभाव-विभाव अर्थ व्यंजन व द्रव्य गुण पर्याय निर्देश
- अर्थ व व्यंजन पर्याय के लक्षण व उदाहरण।
- अर्थ व गुणपर्याय एकार्थवाची हैं।
- व्यंजन व द्रव्य पर्याय एकार्थवाची हैं।
- द्रव्य व गुणपर्याय से पृथक् अर्थ व व्यंजन पर्याय के निर्देश का कारण।
- सब गुण पर्याय ही हैं फिर द्रव्य पर्याय का निर्देश क्यों।
- अर्थ व व्यंजन पर्याय का स्वामित्व।
- व्यंजन पर्याय के अभाव का नियम नहीं।
- अर्थ व व्यंजन पर्यायों की सूक्ष्मता स्थूलता - (दोनों का काल; 2 व्यंजन पर्याय में अर्थपर्याय; स्थूल; व सूक्ष्म पर्यायों की सिद्धि)।
- स्वभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय।
- विभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय।
- स्वभाव गुण व अर्थपर्याय।
- विभाव गुण व अर्थपर्याय।
- स्वभाव व विभाव गुण व्यंजन पर्याय।
- स्वभाव व विभाव पर्यायों का स्वामित्व।
- सादि-अनादि व सदृश-विसदृश परिणमन। - देखें परिणाम ।
- अर्थ व व्यंजन पर्याय के लक्षण व उदाहरण।
- भेद व लक्षण
- पर्याय सामान्य का लक्षण
- निरुक्ति अर्थ
रा.वा./1/33/1/95/6 परि समन्तादायः पर्यायः। = जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त करे सो पर्याय है। (ध. 1/1,1,1/84/1); (क.पा.1/1,13-14/§181/217/1); (नि.सा./ता.वृ. 14)।
आ.प./6 स्वभावविभावरूपतया याति पर्येति परिणमतीति पर्याय इति पर्यायस्य व्युत्पत्तिः। = जो स्वभाव विभाव रूप से गमन करती है पर्येति अर्थात् परिणमन करती है, वह पर्याय है। यह पर्याय की व्युत्पत्ति है। (न. च./श्रुत/पृ.57)
- द्रव्यांश या वस्तु विशेष के अर्थ में
स.सि./1/33/141/1 पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरिव्यर्थः। = पर्याय का अर्थ - विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है।
रा.वा./1/29/4/89/4 तस्य मिथो भवनं प्रति विरोध्यविरोधिनां धर्माणामुपात्तानुपात्तहेतुकानां शब्दान्तरात्मलाभनिमित्तत्वाद् अर्पितव्यवहारविषयोऽवस्थाविशेषः पर्यायः। 4। = स्वाभाविक या नैमित्तिक विरोधी या अविरोधी धर्मों में अमुक शब्द व्यवहार के लिए विवक्षित द्रव्य की अवस्था विशेष को पर्याय कहते हैं।
ध. 9/4,1,45/170/2 एष एव सदादिरविभागप्रतिच्छेदनपर्यन्तः संग्रह-प्रस्तारः क्षणिकत्वेन विवक्षितः वाचकभेदेन च भेदमापन्नः विशेष-विस्तारः पर्यायः। = सत् को आदि लेकर अविभाग प्रतिच्छेद पर्यन्त यही संग्रह प्रस्तार क्षणिक रूप से विवक्षित व शब्द भेद से भेद को प्राप्त हुआ विशेष प्रस्तार या पर्याय है।
स.सा./आ./345-348 क्षणिकत्वेऽपि वृत्त्यंशानाम्। = वृत्त्यंशों अर्थात् पर्यायों का क्षणिकत्व होने पर भी।
पं.ध./पू./26, 117 पर्यायाणामेतद्धर्म यत्त्वंशकल्पनं द्रव्ये। 26। स च परिणामोऽवस्था तेषामेव (गुणानामेव)। 117। = द्रव्य में जो अंश कल्पना की जाती है यही तो पर्यायों का स्वरूप है। 26। परिणमन गुणों की ही अवस्था है अर्थात् गुणों की प्रतिसमय होनेवाली अवस्था का नाम पर्याय है।
- द्रव्य विकार के अर्थ में
त.सू./5/42 तद्भावः परिणामः। 42। = उसका होना अर्थात् प्रतिसमय बदलते रहना परिणाम है। (अर्थात् गुणों के परिणमन की पर्याय कहते हैं।)
स.सि./5/38/309-310/7 दव्व विकारी हि पज्जवो भणिदो। तेषां विकारा विशेषात्मना भिद्यमानाः पर्यायाः। =- द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं।
- द्रव्य के विकार विशेष रूप से भेद को प्राप्त होते हैं इसलिए वे पर्याय कहलाते हैं। (न.च.वृ./17)।
न.च./श्रुत/पृ. 57 सामान्यविशेषगुणा एकस्मिन् धर्मणि वस्तुत्व-निष्पादकास्तेषां परिणामः पर्यायः। = सामान्य विशेषात्मक गुण एक द्रव्य में वस्तुत्व के बतलानेवाले हैं उनका परिणाम पर्याय है।
- पर्याय के एकार्थवाची नाम
स.सि./1/33/141 पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः। = पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है।
गो.जी./मू./572/1016 ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति एयट्ठो। 572। = व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय ये सब एकार्थ हैं। 572।
स.म./23/272/11 पर्ययः पर्यवः पर्याय इत्यनर्थान्तरम्। = पर्यय, पर्यव और पर्याय ये एकार्थवाची हैं।
पं.ध./पू./60 अपि चांशः पर्यायो भागो हारोविधा प्रकारश्च। भेदश्छेदो भंगः शब्दाश्चैकार्थवाचका एते। 60। = अंश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार तथा भेद, छेद और भंग ये सब एक ही अर्थ के वाचक हैं। 60।
- निरुक्ति अर्थ
- पर्याय के दो भेद
- सहभावी व क्रमभावी
श्ल.वा./4/1/33/60/245/1 यः पर्यायः स द्विविधः क्रमभावी सहभावी चेति। = जो पर्याय है वह क्रमभावी और सहभावी इस ढंग से दो प्रकार है।
- द्रव्य व गुण पर्याय
प्र.सा./त.प्र./93 पर्यायास्तु... द्रव्यात्मका अपि गुणात्मका अपि। = पर्याय गुणात्मक भी हैं और द्रव्यात्मक भी। (पं.ध./पू./25, 62-63, 135)।
पं.का./ता.वृ./16/35/12 द्विधा पर्याया द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्च। = पर्याय दो प्रकार की होती हैं - द्रव्य पर्याय और गुणपर्याय। (पं.ध./पू./112)।
- अर्थ-पर्याय व व्यंजन-पर्याय
पं.का./ता.वृ./16/36/8 अथवा द्वितीयप्रकारेणार्थव्यंजनपर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवन्ति। = अथवा दूसरे प्रकार से अर्थ-पर्याय व व्यंजन-पर्यायरूप से पर्याय दो प्रकार की होती हैं। (गो.जी./मू./581) (न्या.दी./3/§77/120)।
- स्वभाव पर्याय व विभाव पर्याय
न.च.वृ./17-19 पज्जयं द्विविधः। 17। सब्भावं खुविहावं दव्वाणं पज्जयं जिणुद्दिट्ठं। 18। दव्वगुणाण सहावा पज्जायंतह विहावदो णेयं। 19। = पर्याय दो प्रकार की होती हैं - स्वभाव व विभाव। तहाँ द्रव्य व गुण दोनों की ही पर्याय स्वभाव व विभाव के भेद से दो-दो प्रकार की जाननी चाहिए। (पं.का./ता.वृ./16/36/16)।
आ.प./3 पर्यायास्तु द्वेधा स्वभावविभावपर्यायभेदात्। ...विभावद्रव्य-व्यंजनपर्यायः... विभावगुणव्यंजनपर्यायः... स्वभावद्रव्यव्यंजनपर्यायः ...स्वभावगुणव्यंजनपर्यायः। = पर्याय दो प्रकार की होती हैं - स्वभाव व विभाव। ये दोनों भी दो प्रकार की होती हैं यथा - विभाव-द्रव्य व्यंजनपर्याय, विभावगुण व्यंजनपर्याय, स्वभाव द्रव्य-व्यंजन पर्याय व स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय। (प.प्र./टी./1/57)।
प्र.सा./त.प्र./93 द्रव्यपर्यायः। स द्विविधः, समानजातीयोऽसमानजातीयश्च। ...गुणपर्यायः। सोऽपि द्विविधः स्वभावपर्यायो विभावंपर्यायश्च। = द्रव्यपर्याय दो प्रकार की होती है - समानजातीय और असमानजातीय। ...गुणपर्याय दो प्रकार की है - स्वभाव पर्याय व विभाव पर्याय। (पं.का./ता.वृ./16/35/13)।
- कारण शुद्ध पर्याय व कार्य शुद्ध पर्याय
नि.सा./ता.वृ. 15 स्वभावविभावपर्य्यायाणां मध्ये स्वभावपर्यायस्तावत् द्विप्रकारेणोच्यते। कारणशुद्धपर्य्यायः कार्यशुद्धपर्य्यायश्चेति। = स्वभाव पर्यायों व विभाव पर्यायों के बीच प्रथम स्वभाव पर्याय दो प्रकार से कही जाती है - कारण शुद्धपर्याय, और कार्यशुद्धपर्याय।
- सहभावी व क्रमभावी
- द्रव्य पर्याय सामान्य का लक्षण
प्र.सा./त.प्र./92 तत्रानेकद्रव्यात्मकैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो द्रव्यपर्यायः। = अनेक द्रव्यात्मक एकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत द्रव्य पर्याय है। (पं.का./ता.वृ./16/35/12)।
पं.ध./पू./135 यतरे प्रदेशभागास्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना। 135। = द्रव्य के जितने प्रदेश रूप अंश हैं, उतने वे सब नाम से द्रव्यपर्याय हैं।
- समान व असमान जातीय द्रव्यपर्याय का लक्षण
प्र.सा./त.प्र./93 तत्र समानजातीयो नाम यथा अनेकपुद्गलात्मको द्वयणुकस्त्र्यणुक इत्यादि, असमानजातीयो नाम यथा जीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यादि। = समानजातीय वह है - जैसे कि अनेक पुद्गलात्मक द्विअणुक, त्रिअणुक, इत्यादि; असमानजातीय वह है - जैसे कि जीव पुद्गलात्मक देव, मनुष्य इत्यादि।
प्र.सा./त.प्र./52 स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चित एवान्यस्मिन्नर्थे विशिष्टरूपतया संभावितात्मलाभोऽर्थोऽनेकद्रव्यात्मकः पर्यायः। ...जीवस्य पुद्गले संस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमानः संभाव्यत एव। = स्वलक्षण भूत स्वरूपास्तित्व से निश्चित अन्य अर्थ में विशिष्ट (भिन्न-भिन्न) रूप से उत्पन्न होता हुआ अर्थ (असमानजातीय) अनेक द्रव्यात्मक पर्याय है। ...जो कि जीव की पुद्गल में संस्थानादि से विशिष्टतया उत्पन्न होती हुई अनुभव में आती है।
पं.का./ता.वृ./16/35/14 द्वे त्रीणि वा चत्वारीत्यादिपरमाणुपुद्गल-द्रव्याणि मिलित्वा स्कन्धा भवन्तीत्यचेतनस्यापरेणाचेतनेन संबन्धा-त्समानजातीयो भण्यते। असमानजातीयः कथ्यते-जीवस्य भवान्तर-गतस्य शरीरनोकर्मपुद्गलेन सह मनुष्यदेवादिपर्यायोत्पत्तिचेतन-जीवस्याचेतनपुद्गलद्रव्येण सह मेलापकादसमानजातीयः द्रव्य-पर्यायो भण्यते। = दो, तीन वा चार इत्यादि परमाणु रूप पुद्गल द्रव्य मिलकर स्कन्ध बनते हैं, तो यह एक अचेतन की दूसरे अचेतन द्रव्य के सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाली समानजातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है। अब असमान जातीय द्रव्य पर्याय कहते हैं - भवान्तर को प्राप्त हुए जीव के शरीर नोकर्म रूप पुद्गल के साथ मनुष्य, देवादि पर्याय रूप जो उत्पत्ति है वह चेतन जीव की अचेतन पुद्गल द्रव्य के साथ मेल से होने के कारण असमानजातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है।
- गुणपर्याय सामान्य का लक्षण
प्र.सा./त.प्र./93 गुणद्वारेणायतनैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो गुणपर्यायः। 93। = गुण द्वारा आयत की अनेकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत गुणपर्याय है। 93।
पं.का./ता.वृ./16/36/4 गुणद्वारेणान्वयरूपाया एकत्वप्रतिपत्तेर्निबन्धनं कारणभूतो गुणपर्यायः। = जिन पर्यायों में गुणों के द्वारा अन्वयरूप एकत्व का ज्ञान होता है, उन्हें गुणपर्याय कहते हैं।
पं.ध./पू./135 यतरे च विशेषांस्ततरे गुणपर्यया भवन्त्येव। 135। = जितने गुण के अंश हैं, उतने वे सब गुणपर्याय ही कहे जाते हैं। 135। (पं.ध./पू./61)।
- गुणपर्याय एक द्रव्यात्मक ही होती हैं
प्र.सा./त.प्र./105 एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्यायाः गुणपर्यायाणामेक-द्रव्यत्वात्। एकद्रव्यत्वं हि तेषां सहकारफलवत्। = गुणपर्यायें एक द्रव्यपर्यायें हैं, क्योंकि गुणपर्यायों को एक द्रव्यत्व है तथा वह द्रव्यत्व आम्रफल की भाँति हैं।
पं.का./ता.वृ./16/36/5 गुणपर्यायः स चैकद्रव्यगत एव सहकारफले हरितपाण्डुरादिवर्णवत्। = गुणपर्याय एक द्रव्यगत ही होती है, आम्र में हरे व पीले रंग की भाँति।
- स्व व पर पर्याय के लक्षण
मोक्ष पंचाशत/23-25 केवलिप्रज्ञया तस्या जघन्योऽशंस्तु पर्य्ययः। तदाऽनन्त्येन निष्पन्नं सा द्युतिर्निजपर्य्ययाः। 23। क्षयोपशम-वैचित्र्यं ज्ञेयवैचित्र्यमेव वा। जीवस्य परपर्यायाः षट्स्थनपतितामी। 25। = केवलज्ञान के द्वारा निष्पन्न जो अनन्त अन्तर्द्युति या अन्तर्तेज है वही निज पर्याय है। 23। और क्षयोपशम के द्वारा व ज्ञेयों के द्वारा चित्र-विचित्र जो पर्याय है, सो परपर्याय है। दोनों ही षट्स्थान पतित वृद्धि हानि युक्त है। 25।
- कारण व कार्य शुद्ध पर्याय के लक्षण
नि.सा./ता.वृ./15 इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्ता-तीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शन-सहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्वभावानन्तचतुष्टयस्वरूपेण सहांचितपंचमभावपरिणतिरेव कारणशुद्धपर्याय इत्यर्थः। साद्यतिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञान-केवलदर्शनकेवल-सुखकेवलशक्तियुक्तफलरूपानन्तचतुष्टयेन सार्द्धं परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्य्यायश्च। = सहज शुद्ध निश्चय से, अनादि अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान-सहजदर्शन-सहजचारित्र-सहजपरमवीतरागसुखात्मक शुद्ध अन्तस्तत्त्व रूप जो स्वभाव अनन्तचतुष्टय का स्वरूप उसके साथ की जो पूजित पंचम भाव परिणति वही कारण शुद्धपर्याय है। सादि-अनन्त, अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले, शुद्धसद्भूत व्यवहार से, केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्त चतुष्टय के साथ की परमोत्कृष्ट क्षायिक भाव की जो शुद्ध परिणति वही कार्य शुद्ध पर्याय है।
- पर्याय सामान्य का लक्षण
पुराणकोष से
(1) द्रव्य में प्रति समय होने वाला गुणों का परिणमन । महापुराण 3. 5-8
(2) श्रुतज्ञान के बीस भेदों में प्रथम भेद । यह ज्ञान गम निगोदिया लब्धपर्याप्तक जीवों के होता है और श्रुतज्ञानावरण पर होने वाले आवरण से रहित होता है । हरिवंशपुराण 10.12, 16