व्युत्सर्ग: Difference between revisions
From जैनकोष
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<p class="HindiText">बाहर में क्षेत्र वास्तु आदि का और अभ्यन्तर में कषाय आदि का अथवा नित्य व अनियत काल के लिए शरीर का त्याग करना व्युत्सर्ग तप या व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त का अपर नाम कायोत्सर्ग है जो दैवसिक, रात्रिक, चातुर्मासिक आदि दोषों के साधनार्थ विधि पूर्वक किया जाता है। शरीर पर से ममत्व बुद्धि छोड़कर, उपसर्ग आदि को जीतता हुआ, अन्तर्मुहूर्त्त या एक दिन, मास व वर्ष पर्यंत निश्चल खड़े रहना कायोत्सर्ग है। <br /> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">बाहर में क्षेत्र वास्तु आदि का और अभ्यन्तर में कषाय आदि का अथवा नित्य व अनियत काल के लिए शरीर का त्याग करना व्युत्सर्ग तप या व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त का अपर नाम कायोत्सर्ग है जो दैवसिक, रात्रिक, चातुर्मासिक आदि दोषों के साधनार्थ विधि पूर्वक किया जाता है। शरीर पर से ममत्व बुद्धि छोड़कर, उपसर्ग आदि को जीतता हुआ, अन्तर्मुहूर्त्त या एक दिन, मास व वर्ष पर्यंत निश्चल खड़े रहना कायोत्सर्ग है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> कायोत्सर्ग निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> कायोत्सर्ग का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> कायोत्सर्ग का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
नि.सा./मू./ | नि.सा./मू./121 <span class="PrakritGatha">कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं। तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्विअप्पेण।121।</span> =<span class="HindiText"> काय आदि परद्रव्यों में स्थिर भाव छोड़कर, जो आत्मा को निर्विकल्परूप से ध्याता है, उसे कायोत्सर्ग कहते हैं।121। </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./28 <span class="PrakritGatha">देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि। जिणगुणचिंतणजुत्तो काओसग्गो तणुविसग्गो।28। </span>= <span class="HindiText">दैवसिक निश्चित क्रियाओं में यथोक्त कालप्रमाण पर्यंत उत्तम क्षमा आदि जिनगुणों की भावना सहित देह में ममत्व को छोड़ना कायोत्सर्ग है। </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./6/24/11/530/14<span class="SanskritText"> परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिवृत्तिः कायोत्सर्गः। </span>=<span class="HindiText"> परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। (चा.सा./56/3)। </span><br /> | ||
भा.आ./वि./ | भा.आ./वि./6/32/21 <span class="SanskritText">देहे ममत्वनिरासः कायोत्सर्गः।</span> = <span class="HindiText">देह में ममत्व का निरास करना कायोत्सर्ग है। </span><br /> | ||
यो.सा./अ./ | यो.सा./अ./5/52 <span class="SanskritGatha">ज्ञात्वा योऽचेतनं कायं नश्वरं कर्मनिर्मितम् । न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्गं करोति सः।52। </span>=<span class="HindiText"> देह को अचेतन, नश्वर व कर्मनिर्मित समझकर जो उसके पोषण आदि के अर्थ कोई कार्य नहीं करता, वह कायोत्सर्ग का धारक है। </span><br /> | ||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./467-468<span class="PrakritGatha"> जल्लमललित्तगत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो। मुहधोवणादि-विरओ भोयणसेज्जदिणिरवे-क्खो।467। ससरूवचिंतणरओ दुज्जणसुयणाण जो हु मज्झत्थो। देहे वि णिम्ममत्ते काओसग्गो तओ तस्स।468।</span> = <span class="HindiText">जिस मुनि का शरीर जल्ल और मल से लिप्त हो, जो दुस्सह रोग के हो जाने पर भी उसका इलाज नहीं करता हो, मुख धोना आदि शरीर के संस्कार से उदासीन हो और भोजन शय्या आदि की अपेक्षा नहीं करता हो, तथा अपने स्वरूप के चिन्तन में ही लीन रहता हो, दुर्जन और सज्जन में मध्यस्थ हो और शरीर से भी ममत्व न करता हो, उस मुनि के कायोत्सर्ग नाम का तप होता है। </span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./70 <span class="SanskritText">सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वयः क्रिया विद्यन्ते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः, स एव गुप्तिर्भवति। </span>= <span class="HindiText">सब जनों को कायसम्बन्धी बहुत क्रियाएँ होती हैं; उनकी निवृत्ति सो कायोत्सर्ग है। वही गुप्ति है। <br /> | ||
देखें [[ कृतिकर्म#3.2 | कृतिकर्म - 3.2 ]](खड़े-खड़े या बैठे-बैठे शरीर का तथा कषायों का त्याग करना कायोत्सर्ग है)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> कायोत्सर्ग के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> कायोत्सर्ग के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./673-677 <span class="SanskritGatha">उट्ठिदउट्ठिद उट्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठ-उट्ठिदो चेव। उवविट्ठदणिविट्ठोवि य काओसग्गो चदुट्ठाणो।673। धम्मं सुक्कं च दुवे झायदि ज्झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो इह उट्ठिदउट्ठिदो णाम।674। अट्टं रुद्दं च दुवे झायदि झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो उट्ठिदणिविट्ठिदो णाम।375। धम्मं सुक्कं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काउसग्गो उवविट्ठउट्ठिदो णाम।676। अट्टं रुद्दं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काउसग्गो णिसण्णिदणिसण्णिदो णाम।677।</span> = <span class="HindiText">अत्थितात्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्ट निविष्ट, इस प्रकार कायोत्सर्ग के चार भेद हैं।673। जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ धर्म शुक्ल ध्यानों को चिन्तवन करता है, वह उत्थितोत्थि है।674। जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ आर्त रौद्र ध्यानों को चिन्तवन करता है, वह उत्थितनिविष्ट है।675। जो बैठे हुए धर्म व शुक्लध्यानों का चिन्तवन करता है वह उपविष्टोत्थित है।676। और जो बैठा हुआ आर्त रौद्र ध्यानों का चिन्तवन करता है, वह उपविष्टोपविष्ट है।677। (अन.ध.8/123/833)। </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./116/278/27 <span class="SanskritText">उत्थितोत्थितं, उत्थितनिविष्टम्, उपविष्टोत्थितं, उपविष्टोपविष्टं इति चत्वारो विकल्पाः। धर्मे शुक्ले वा परिणतो यस्तिष्ठति तस्य कायोत्सर्गः उत्थितोत्थितो नाम। द्रव्यभावोत्थानसमन्वितत्वादुत्थानप्रकर्षः उत्थितोत्थितशब्देनोच्यते। तत्र द्रव्योत्थानं शरीरं स्थाणुवदूर्ध्वं अविचलमवस्थानं। ध्येयैकवस्तुनिष्ठता ज्ञानमयस्य भावस्य भावोत्थानं। आर्तरौद्रयोः परिणतो यस्तिष्ठति तस्य उत्थितनिषण्णो नाम कायोत्सर्गः। शरीरोत्थानादुत्थितत्वं शुभपरिणामोद्गतिरूपस्योत्थानस्याभावान्निषण्ण इत्युच्यते। अतएव विरोधाभावो भिन्ननिमित्तत्वादुत्थानासनयोः एकत्र एकदा। यस्त्वासीन एवं धर्मशुक्लध्यानपरिणतिमुपैति तस्य उत्थितनिषण्णो भवति परिणामोत्था-नात्कायानुत्थानाच्च। यस्तु निषण्णोऽशुभध्यानपरस्तस्य निषण्णनिषण्णकः। कायाशुभपरिणामाभ्यां अनुत्थानात्। </span>= <span class="HindiText">कायोत्सर्ग के उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्टोपविष्ट ऐसे चार भेद कहे हैं। धर्म व शुक्लध्यान में परिणत होकर जो खड़े होते हैं, उनका कायोत्सर्ग उत्थितोत्थित नाम वाला है। क्योंकि द्रव्य व भाव दोनों का उत्थान होने के कारण यहाँ उत्थान का प्रकर्ष है जो उत्थितोत्थित शब्द के द्वारा कहा गया है । तहाँ शरीर का खम्बे के समान खड़ा रहना द्रव्योत्थान है तथा ज्ञान का एक ध्येय वस्तु में एकाग्र होकर ठहरना भावोत्थान है। आर्त और रौद्रध्यान से परिणत होकर जो खड़े होते हैं, उनका कायोत्सर्ग उत्थितनिविष्ट है। शरीर के उत्थान से उत्थित और शुभपरिणामों की उद्गतिरूप उत्थान के अभाव से निविष्ट है। शरीर व भावरूप भिन्न-भिन्न कारण होने से उत्थितावस्था और आसनावस्था में यहाँ विरोध नहीं है। जो मुनि बैठकर ही धर्म और शुक्लध्यान में लवलीन होता है, उसका उपविष्टोत्थि कायोत्सर्ग है, क्योंकि उसके परिणाम तो खड़े हैं, पर शरीर नहीं खड़ा है। जो मुनि बैठकर अशुभध्यान कर रहा है, वह निषण्णनिषण्ण कायोत्सर्ग युक्त समझना चाहिए। क्योंकि वह शरीर से बैठा हुआ है और परिणामों से भी उत्थानशील नहीं है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> कायोत्सर्ग बैठे व खड़े दोनों प्रकार से होता है | <li><span class="HindiText"> कायोत्सर्ग बैठे व खड़े दोनों प्रकार से होता है ।–देखें [[ व्युत्सर्ग#1.2 | व्युत्सर्ग - 1.2]]। <br /> | ||
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<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> मानसिक व कायिक कायोत्सर्ग विधि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> मानसिक व कायिक कायोत्सर्ग विधि</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./गा.<span class="PrakritGatha">वोसरिदबाहुजुगलो चदुरंगुलअंतरेण समपादो। सव्वंगचलणरहिओ काउसग्गो विसुद्धो | मू.आ./गा.<span class="PrakritGatha">वोसरिदबाहुजुगलो चदुरंगुलअंतरेण समपादो। सव्वंगचलणरहिओ काउसग्गो विसुद्धो दु।650। जे केई उवसग्गा देव माणुसतिरिक्खचेदणिया। ते सव्वे अधिआसे काओसग्गे ठिदो संते।655। काओसग्गम्मि ठिदो चिंचिदु इरियावधस्स अतिचारं। तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च चिंतेज्जो।664।</span> = <span class="HindiText">जिसने दोनों बाहु लम्बी की हैं, चार अंगुल के अन्तर सहित समपाद हैं तथा हाथ आदि अंगों का चालन नहीं है, वह शुद्ध कायोत्सर्ग है।650। देव, मनुष्य, तिर्यंच व अचेतनकृत जितने भी उपसर्ग हैं, सबको कायोत्सर्ग में स्थित हुआ मैं अच्छी तरह सहन करता हूँ।655। कायोत्सर्ग में तिष्ठा ईर्यापथ के अतिचार के नाश को चिन्तवन करता मुनि उन सब नियमों को समाप्त कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तवन करो।664। (भ.आ./वि./116/278/20); (अन.ध./8/76/804)। </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./509/729/16 <span class="SanskritText">मनसा शरीरे ममेदंभावनिवृत्तिः मानसः कायोत्सर्गः। प्रलम्बभुजस्य, चतुरङ्गुलमात्रपा-दान्तरस्य निश्चलावस्थानं कायेन कायोत्सर्गः।</span> =<span class="HindiText"> मन से शरीर में ममेदं बुद्धि की निवृत्ति मानस कायोत्सर्ग है और (‘मैं शरीर का त्याग करता हूँ–ऐसा वचनोच्चार करना वचनकृत कायोत्सर्ग है’)। बाहु नीचे छोड़कर चार अंगुलमात्र अन्तर दोनों पाँवों में रखकर निश्चल खड़े होना, वह शरीर के द्वारा कायोत्सर्ग है। </span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./9/22-24/866 <span class="SanskritText">जिनेन्द्रमुद्रया गाथां ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे। हृत्पंकजे प्रवेश्यान्तर्निरुध्य मनसानिलम्।22। पृथग् द्विद्वयेकगाथांशचिन्तान्ते रेचयेच्छनैः। नवकृत्वः प्रयोक्तैवं दहत्यंहः सुधीर्महत्।23। वाचाप्युपांशु व्युत्सर्गे कार्यो जप्यः स वाचिकः। पुण्यं शतगुणं चैत्तः सहस्रगुणमावहेत्।24। </span>=<span class="HindiText"> व्युत्सर्ग के समय अपनी प्राणवायु को भीतर प्रविष्ट करके, उसे आनन्द से विकसित हृदयकमल में रोककर, जिनेन्द्र मुद्रा के द्वारा णमोकार मन्त्र की गाथा का ध्यान करना चाहिए।23। गाथा के दो-दो और एक अंश को पृथक्-पृथक् चिन्तवन करके अन्त में उस प्राणवायु को धीरे-धीरे बाहर निकालना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्रयोग करने वाले के चिरसंचित महान् कर्मराशि भस्म हो जाती है।23। प्राणायाम में असमर्थ साधु वचन के द्वारा भी उस मन्त्र का जाप कर सकता है, परन्तु उसे अन्य कोई न सुने, इस प्रकार करना चाहिए। परन्तु वाचनिक और मानसिक जपों के फल में महान् अन्तर है। दण्डकों के उच्चारण की अपेक्षा सौ गुना पुण्य संचय वाचनिक जाप में होता है और हजार गुणा मानसिक जाप में।24। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">कायोत्सर्ग के योग्य दिशा व क्षेत्र</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.4" id="1.4"></a>कायोत्सर्ग के योग्य दिशा व क्षेत्र</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./550/763<span class="PrakritGatha"> पाचीणोदीचिमुहो चेदिमहुत्तो व कुणदि एगंते। आलोयणपत्तीयं काउसग्गं अणाबाधे।550।</span> = <span class="HindiText">पूर्व अथवा उत्तर दिशा की तरफ मुँह करके किंवा जिनप्रतिमा की तरफ मुँह करके आलोचना के लिए क्षपक कायोत्सर्ग करता है। यह कायोत्सर्ग वह एकान्त स्थान में, अबाधित स्थान में अर्थात् जहाँ दूसरों का आना-जाना न हो, ऐसे अमार्ग में करता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> कायोत्सर्ग के योग्य अवसर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> कायोत्सर्ग के योग्य अवसर</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./663, 665 <span class="PrakritGatha">भत्ते पाणे गामंतरे य चदुमासिवरिसचरिमेसु। णाऊण ठंति धीरा घणिदं दुक्खक्खयट्ठाए।663। तह दिवसियरादियपक्खियचदुमासिवरिसचरिमेसु। तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च झायेज्जो।665।</span> =<span class="HindiText"> भक्त, पान, ग्रामान्तर, चातुर्मासिक, वार्षिक, उत्तमार्थ, इनको जानकर धीरपुरुष अतिशयकर दुःख के क्षय के अर्थ कायोत्सर्ग में तिष्ठते हैं।663। इसी प्रकार दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक व उत्तमार्थ इन सब नियमों को पूर्ण कर धर्मध्यान शुक्लध्यान को ध्यावे।665। <br /> | ||
देखें | देखें [[ अगला शीर्षक ]]–(हिंसा आदि पापों के अतिचारों में भक्त पान व गोचरी के पश्चात्, तीर्थ व निषद्यका आदि की वन्दनार्थ जाने पर, लघु व दीर्घ शंका करने पर, ग्रन्थ को आरम्भ करते समय व पूर्ण हो जाने पर, ईर्यापथ के दोषों की निवृत्ति के अर्थ कायोत्सर्ग किया जाता है।) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> यथा अवसर कायोत्सर्ग के काल का प्रमाण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> यथा अवसर कायोत्सर्ग के काल का प्रमाण</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./656-661<span class="PrakritGatha"> संवरच्छरमुक्कस्सं भिण्णमुहुत्तं जहण्णयं होदि। सेसा काओसग्गा होंति अणेगेसु ठाणेसु।656। अट्ठसदं देवसियं कल्लद्धं पक्खियं च तिण्णिसया। उस्सासा कायव्वा णियमंता अपमत्तेण।657। चादुम्मासे चउरो सदाइं संवत्थरे य पञ्चसदा। काओसग्गुस्सासा पञ्चसु ठाणेसु णादव्वा।658। पाणिवह मुसावाए अदत्त मेहुण परिग्गहे चे य। अट्ठसदं उस्सासा काओसग्गम्हि कादव्वा।659। भत्ते पाणे गामंतरे य अरहहंत समणसेज्जासु। उच्चारेपस्सवणे पणवीसं होंति उस्सासा।660। उद्देसे णिद्देसे सज्झाए वंदणेय परिधाणे। सत्तावीसुस्सासा काओसग्गम्हि कादव्वा।661। </span>= <span class="HindiText">कायोत्सर्ग एक वर्ष का उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य होता है। शेष कायोत्सर्ग दिन-रात्रि आदि के भेद से बहुत हैं।656। </span></li> | ||
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<td width="103" valign="top"><span class="HindiText"><br /> | <td width="103" valign="top"><span class="HindiText"><br /> | ||
0 </span></td> | |||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">अवसर </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">अवसर </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">उच्छवास </span></p></td> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">उच्छवास </span></p></td> | ||
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<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">1. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">दैवसिक प्रतिक्र. </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">दैवसिक प्रतिक्र. </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">108 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">2. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">रात्रिक प्रतिक्र. </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">रात्रिक प्रतिक्र. </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">54 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">3. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">पाक्षिक प्रतिक्र. </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">पाक्षिक प्रतिक्र. </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">300 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">4. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">चातुर्मासिक प्रतिक्र. </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">चातुर्मासिक प्रतिक्र. </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">400 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">5. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">वार्षिक प्रतिक्र. </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">वार्षिक प्रतिक्र. </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">500 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">6. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">हिंसादि रूप अतिचारों में </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">हिंसादि रूप अतिचारों में </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">108 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">7. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">गोचरी से आने पर </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">गोचरी से आने पर </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">25 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">8. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">निर्वाण भूमि </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">निर्वाण भूमि </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">25 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">9. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">अर्हंत शय्या </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">अर्हंत शय्या </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">25 </span></p></td> | ||
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<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">10. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">अर्हंत निषद्यका </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">अर्हंत निषद्यका </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">25 </span></p></td> | ||
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<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">11. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">श्रमण शय्या </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">श्रमण शय्या </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">25 </span></p></td> | ||
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<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">12. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">लघु व दीर्घ शंका </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">लघु व दीर्घ शंका </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">25 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">13. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">ग्रन्थ के आरम्भ में </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">ग्रन्थ के आरम्भ में </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">27 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">14. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">ग्रन्थ की समाप्ति </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">ग्रन्थ की समाप्ति </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">27 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">15. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">वन्दना </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">वन्दना </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">27 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">16. </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">अशुभ परिणाम </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">अशुभ परिणाम </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">27 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">17 </span></p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">कायोत्सर्ग के श्वास भूल जाने पर </span></p></td> | <td width="240" valign="top"><p><span class="HindiText">कायोत्सर्ग के श्वास भूल जाने पर </span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText">8-अधिक </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="493" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>नोट–</strong>सर्व प्रतिक्रमणों में यह कायोत्सर्ग वीर भक्ति के | <td width="493" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>नोट–</strong>सर्व प्रतिक्रमणों में यह कायोत्सर्ग वीर भक्ति के पश्चात् किया जाता है। </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | </table> | ||
<p><span class="HindiText">(भ.आ./वि./ | <p><span class="HindiText">(भ.आ./वि./116/278/22); (चा.सा./158/1); (अन.ध./8/72-73/801)। </span></p> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<ol start="7"> | <ol start="7"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> कायोत्सर्ग का प्रयोजन व फल</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> कायोत्सर्ग का प्रयोजन व फल</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./662, 666 <span class="PrakritGatha">काओसग्गं इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि। वोसट्ठचत्तदेहा करंति दुक्खक्खयट्ठाए।662। काओसग्गम्हि कदे जह भिज्जदि अंगुवंगसंधीओ। तह भिज्जदि कम्मरयं काउसग्गस्स करणेण।666।</span> = <span class="HindiText">ईर्यापथ के अतिचार को सोधने के लिए (तथा उपर्युक्त सर्व अवसरों पर यथायोग्य दोषों को शोधने के लिए) मोक्षमार्ग में स्थित शरीर में ममत्व को छोड़ने वाले मुनि दुःख के नाश करने के लिए कायोत्सर्ग करते हैं।662। कायोत्सर्ग करने पर जैसे अंगोपांगों की संधियाँ भिद जाती हैं, उसी प्रकार इससे कर्मरूपी धूलि भी अलग हो जाती है।666। (अन.ध./8/76/ 804)। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> कायोत्सर्ग व धर्मध्यान में | <li><span class="HindiText"> कायोत्सर्ग व धर्मध्यान में अन्तर–देखें [[ धर्मध्यान#3 | धर्मध्यान - 3]]। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> कायोत्सर्ग व कायगुप्ति में | <li><span class="HindiText"> कायोत्सर्ग व कायगुप्ति में अन्तर–देखें [[ धर्मध्यान#3 | धर्मध्यान - 3]]। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="8"> | <ol start="8"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> कायोत्सर्ग शक्ति अनुसार करना चाहिए</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> कायोत्सर्ग शक्ति अनुसार करना चाहिए</strong> </span><br /> | ||
मू. आ. / | मू. आ. /667, 671-672 <span class="PrakritGatha">बलवीरियमासेज्ज य खेत्ते काले सरीरसंहडणं। काओसग्गं कुज्जा इमे दु दोसे परिहरंतो।667। णिक्कूडं सविसेसं बलाणुरूवं वयाणुरूवं च। काओसग्गं धीरा करंति दुक्खक्खयट्ठाए।671। जो पुण तीसदिसरिसो सत्तरिवरिसेण पारणायसमो। विसमो य कूडवादी णिव्विण्णाणी य सो य जड़ो।672।</span> = <span class="HindiText">बल और आत्म शक्ति का आश्रय कर क्षेत्र, काल और संहनन इनके बल की अपेक्षा कर कायोत्सर्ग के कहे जाने वाले दोषों का त्याग करता हुआ कायोत्सर्ग करे।667। मायाचारी से रहित (देखें [[ आगे इसके अतिचार ]]) विशेषकर सहित, अपनी शक्ति के अनुसार, बाल आदि अवस्था के अनुकूल धीर पुरुष दुःख के क्षय के लिए कात्योसर्ग करते हैं।671। जो तीस वर्ष प्रमाण यौवन अवस्थावाला समर्थ साधु 70 वर्ष वाले असक्त वृद्ध के साथ कायोत्सर्ग की पूर्णता करके समान रहता है वृद्ध की बराबरी करता है, वह साधु शान्त रूप नहीं है, मायाचारी है, विज्ञानरहित है, चरित्ररहित है और मूर्ख है।672। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> मरण के बिना काय का त्याग कैसे?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> मरण के बिना काय का त्याग कैसे?</strong></span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./116/278/13<span class="SanskritText"> ननु च आयुषो निरवशेषगलने आत्मा शरीरमुत्सृजति नान्यदा तत्किमुच्यते कायोत्सर्ग इति।.... अनपायित्वेऽपि शरीरे अशुचित्वं...तथानित्यत्वं, अपायित्वं, दुर्वहत्वं, असारत्वं, दुःखहेतुत्वं, शरीरगतममताहेतुकमनन्तसंसारपरिभ्रमणं इत्यादिकान्संप्रधार्य दोषान्नेदं मम नाहमस्येति संकल्पवतस्तदादराभावात्कायस्य त्यागो घटत एव। यथा प्राणेभ्योऽपि प्रियतमा कृतापराधावस्थिता ह्येकस्मिन्मन्दिरे त्यक्तेत्युच्यते तस्यामनुरागाभावान्ममेदं भावव्यावृत्तिमपेक्ष्य एवमिहापि। किंच....शरीरापायनिराकरणानुत्सुकश्च यतिस्तस्माद्युज्यते कायत्यागः। </span>= | ||
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<li class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong> आयु के निरवशेष समाप्त हो जाने पर आत्मा शरीर को छोड़ती है, अन्य समय में नहीं, तब अन्य समय में कायोत्सर्ग का कथन कैसा? <strong>उत्तर–</strong>शरीर का विछोह न होते हुए भी, इसके अशुचित्व, अनित्यत्व, विनाशशील, असारत्व, दुःखहेतुत्व, अनन्तसंसार परिभ्रमणहेतुत्व इत्यादि दोषों का विचार कर ‘यह शरीर मेरा नहीं है और मैं इसका स्वामी नहीं हूँ’ ऐसा संकल्प मन में उत्पन्न हो जाने से शरीर पर प्रेम का अभाव होता है, उससे शरीर का त्याग सिद्ध होता है। जैसे प्रियतमा पत्नी से कुछ अपराध हो जाने पर, पति के साथ ही घर में रहते हुए भी, पति का प्रेम का हट जाने के कारण वह त्यागी हुई कही जाती है। इसी प्रकार यहाँ भी समझना। </li> | <li class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong> आयु के निरवशेष समाप्त हो जाने पर आत्मा शरीर को छोड़ती है, अन्य समय में नहीं, तब अन्य समय में कायोत्सर्ग का कथन कैसा? <strong>उत्तर–</strong>शरीर का विछोह न होते हुए भी, इसके अशुचित्व, अनित्यत्व, विनाशशील, असारत्व, दुःखहेतुत्व, अनन्तसंसार परिभ्रमणहेतुत्व इत्यादि दोषों का विचार कर ‘यह शरीर मेरा नहीं है और मैं इसका स्वामी नहीं हूँ’ ऐसा संकल्प मन में उत्पन्न हो जाने से शरीर पर प्रेम का अभाव होता है, उससे शरीर का त्याग सिद्ध होता है। जैसे प्रियतमा पत्नी से कुछ अपराध हो जाने पर, पति के साथ ही घर में रहते हुए भी, पति का प्रेम का हट जाने के कारण वह त्यागी हुई कही जाती है। इसी प्रकार यहाँ भी समझना। </li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.10" id="1.10"> कायोत्सर्ग के अतिचार व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.10" id="1.10"> कायोत्सर्ग के अतिचार व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./116/279/8<span class="SanskritText"> कायोत्सर्गं प्रपन्नः स्थानदोषान् परिहरेत्। के ते इति चेदुच्यते। </span> | ||
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<li class="SanskritText"> तुरग इव कुण्टीकृतपादेन | <li class="SanskritText"> तुरग इव कुण्टीकृतपादेन अवस्थानम्, </li> | ||
<li class="SanskritText"> लतेवेतस्ततश्चलतोऽवस्थानं, </li> | <li class="SanskritText"> लतेवेतस्ततश्चलतोऽवस्थानं, </li> | ||
<li class="SanskritText"> स्तम्भवत्स्तब्धशरीरं कृत्वा स्थानं, </li> | <li class="SanskritText"> स्तम्भवत्स्तब्धशरीरं कृत्वा स्थानं, </li> | ||
<li class="SanskritText"> स्तम्भोपाश्रयेण वा | <li class="SanskritText"> स्तम्भोपाश्रयेण वा कुड्याश्रयेण वा मालावलग्नशिरसा वावस्थानम्, </li> | ||
<li class="SanskritText"> लम्बिताधरतया, | <li class="SanskritText"> लम्बिताधरतया, स्तनगतदृष्ट्या वायस इव इतस्ततो नयनोद्वर्तनं कृत्वावस्थानम्, </li> | ||
<li class="SanskritText"> खलीनावपीडितमुखहय इव मुखचालनं संपादयतोऽवस्थानं, </li> | <li class="SanskritText"> खलीनावपीडितमुखहय इव मुखचालनं संपादयतोऽवस्थानं, </li> | ||
<li class="SanskritText"> युगावष्टब्धबलीवर्द्द इव शिरोऽधः पातयता, </li> | <li class="SanskritText"> युगावष्टब्धबलीवर्द्द इव शिरोऽधः पातयता, </li> | ||
<li class="SanskritText"> कपित्थफलग्राहीव विकाशिकरतलं, | <li class="SanskritText"> कपित्थफलग्राहीव विकाशिकरतलं, संकुचिताङ्गुलिपञ्चकं वा कृत्वा, </li> | ||
<li class="SanskritText"> शिरश्चालनं | <li class="SanskritText"> शिरश्चालनं कुर्वन्, </li> | ||
<li class="SanskritText"> मूक इव हुंकारं संपाद्यावस्थानं, </li> | <li class="SanskritText"> मूक इव हुंकारं संपाद्यावस्थानं, </li> | ||
<li class="SanskritText"> मूक इव नासिकया वस्तूपदर्शयता वा, </li> | <li class="SanskritText"> मूक इव नासिकया वस्तूपदर्शयता वा, </li> | ||
<li class="SanskritText"> | <li class="SanskritText"> अङ्गुलिस्फोटनं, </li> | ||
<li class="SanskritText"> भ्रूनर्तनं वा कृत्वा, </li> | <li class="SanskritText"> भ्रूनर्तनं वा कृत्वा, </li> | ||
<li class="SanskritText"> शबरवधूरिव स्वकौपीनदेशाच्छादनपुरोगं, </li> | <li class="SanskritText"> शबरवधूरिव स्वकौपीनदेशाच्छादनपुरोगं, </li> | ||
<li class="SanskritText"> | <li class="SanskritText"> शृङ्खलाबद्धपाद इवावस्थानं, </li> | ||
<li><span class="SanskritText"> पीतमदिर इव परवशगतशरीरो वा भूत्वावस्थानं इत्यमी दोषाः।</span> = </li> | <li><span class="SanskritText"> पीतमदिर इव परवशगतशरीरो वा भूत्वावस्थानं इत्यमी दोषाः।</span> = </li> | ||
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<li class="HindiText"> जैसे घोड़ा अपना एक पाँव अकड़ लँगड़ा करके खड़ा हो जाता है वैसे खड़ा होना घोटकपाद दोष है। </li> | <li class="HindiText"> जैसे घोड़ा अपना एक पाँव अकड़ लँगड़ा करके खड़ा हो जाता है वैसे खड़ा होना घोटकपाद दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> बेल की भाँति इधर-उधर हिलना लतावक्र दोष है। </li> | <li class="HindiText"> बेल की भाँति इधर-उधर हिलना लतावक्र दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> स्तम्भवत् शरीर अकड़ाकर खड़े होना स्तंभस्थिति दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> खम्बे के आश्रय स्तंभावष्टंभ। </li> | <li class="HindiText"> खम्बे के आश्रय स्तंभावष्टंभ। </li> | ||
<li class="HindiText"> भित्ति के आधार से | <li class="HindiText"> भित्ति के आधार से कुड्याश्रित। </li> | ||
<li class="HindiText"> अथवा मस्तक ऊपर करके किसी पदार्थ का आश्रय देकर खड़ा होना मालिकोद्वहन दोष है। </li> | <li class="HindiText"> अथवा मस्तक ऊपर करके किसी पदार्थ का आश्रय देकर खड़ा होना मालिकोद्वहन दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> अधरोष्ठ लम्बा करके खड़े होना या, </li> | <li class="HindiText"> अधरोष्ठ लम्बा करके खड़े होना या, </li> | ||
<li class="HindiText"> स्तन की ओर दृष्टि देकर खड़े होना स्तन दृष्टि। </li> | <li class="HindiText"> स्तन की ओर दृष्टि देकर खड़े होना स्तन दृष्टि। </li> | ||
<li class="HindiText"> कौवे की भाँति दृष्टि को इतस्ततः फेंकते हुए खड़े होना काकावलोकन दोष है। </li> | <li class="HindiText"> कौवे की भाँति दृष्टि को इतस्ततः फेंकते हुए खड़े होना काकावलोकन दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> लगाम से पीड़ित | <li class="HindiText"> लगाम से पीड़ित घोड़ेवत् मुख को हिलाते हुए खड़े होना खलीनित दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> जैसे बैल अपने कन्धे से जूये की मान नीचे करता है, उस पर कन्धे झुकाते हुए खड़ा होना युगकन्धर दोष है। </li> | <li class="HindiText"> जैसे बैल अपने कन्धे से जूये की मान नीचे करता है, उस पर कन्धे झुकाते हुए खड़ा होना युगकन्धर दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> कैथ का फल पकड़ने वाले मनुष्य की भाँति हाथ का तलभाग पसारकर या पाँचों अंगुली सिकोड़कर | <li class="HindiText"> कैथ का फल पकड़ने वाले मनुष्य की भाँति हाथ का तलभाग पसारकर या पाँचों अंगुली सिकोड़कर अर्थात् मुट्ठी बाँधकर खड़े होना कपित्थमुष्टि है। सिर को हिलाते हुए खड़े होना सिरचालन दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> गूंगे की भाँति हुंकार करते हुए खड़े होना, अंगुली से नाक या किसी वस्तु की ओर संकेत करते हुए खड़े होना मूकसंज्ञा दोष है। </li> | <li class="HindiText"> गूंगे की भाँति हुंकार करते हुए खड़े होना, अंगुली से नाक या किसी वस्तु की ओर संकेत करते हुए खड़े होना मूकसंज्ञा दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> अँगुली चलाना या चुटकी बजाना अंगुलिचालन है। </li> | <li class="HindiText"> अँगुली चलाना या चुटकी बजाना अंगुलिचालन है। </li> | ||
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<li class="HindiText"> भील की स्त्री की भाँति अपने गुह्य प्रदेश को हाथ से ढकते हुए खड़े होना शबरीगुह्यगूहन दोष है। </li> | <li class="HindiText"> भील की स्त्री की भाँति अपने गुह्य प्रदेश को हाथ से ढकते हुए खड़े होना शबरीगुह्यगूहन दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> बेड़ी से जकड़े मनुष्य की भाँति खड़े होना शृंखलित दोष है। </li> | <li class="HindiText"> बेड़ी से जकड़े मनुष्य की भाँति खड़े होना शृंखलित दोष है। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> मद्यपायीवत् शरीर को इधर-उधर झुकाते हुए खड़े होना उन्मत्त दोष है। ऐसे ये कायोत्सर्ग के दोष हैं (अन. ध./8/112-119, शेष देखें [[ आगे ]])। </span><br /> | ||
चा. सा./ | चा. सा./156/2 <span class="SanskritText">व्युत्सृष्टबाहुयुगले सर्वाङ्गचलनरहिते कायोत्सर्गेऽपि दोषाः स्युः। घोटकपादं, लतावक्रं, स्तम्भावष्टम्भं, कुड्याश्रितं, मालिकोद्वहनं, शबरीगुह्यगूहनं, शृङ्खलितं, लम्बितं उत्तरितं, स्तनदृष्टिः, काकालोकनं, खलीनितं, युगकन्धरं, कपित्थमुष्टिः, शीर्षप्रकम्पितं, मूकसंज्ञा, अङ्गुलिचालनं, भ्रूक्षेपं, उन्मत्तं पिशाचं, अष्टदिगवलोकनं, ग्रीवोन्नमनं, ग्रीवावनमनं, निष्ठीवनं, अङ्गस्पर्शनमिति द्वात्रिंशद्दोषा भवन्ति।</span> = <span class="HindiText">जिसमें दोनों भुजाएँ लम्बी छोड़ दी गयी हैं, चार अंगुल के अन्तर से दोनों पैर एक से रक्खे हुए हैं और शरीर के अंगोपांग सब स्थिर हैं, ऐसे कायोत्सर्ग के भी 32 दोष होते हैं–घोटकपाद, लतावक्र, स्तंभावष्टंभ, कुड्याश्रित, मालिकोद्वहन, शबरीगुह्यगूहन, शृंखलित, लंबित, उत्तरित, स्तनदृष्टि, काकालोकन, खलीनित, युगकन्धर, कपित्थमुष्टि, शीर्षप्रकंपित, मूकसंज्ञा, अंगुलिचालन, भ्रूक्षेप, उन्मत्त, पिशाच, पूर्व दिशावलोकन, आग्नेयदिशावलोकन, दक्षिण दिशावलोकन, नैऋत्य दिशावलोकन, पश्चिमदिशावलोकन, वायव्य दिशावलोकन, उत्तर दिशावलोकन, ईशान दिशावलोकन, ग्रीवोन्नमन, ग्रीवावनमन, निष्ठीवन और अंगस्पर्श। इनमें से कुछ के लक्षण ऊपर भ.आ./वि. में दे दिये गये हैं, शेष के लक्षण स्पष्ट हैं। अथवा निम्न प्रकार हैं।] </span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./8/115-121 <span class="SanskritText">लम्बितं नमनं मूर्ध्न स्तस्योत्तरितमुन्नमः। उन्नमय्य स्थितिर्वक्षः स्तनदावत्स्तनोन्नतिः।115।...... शीर्षकम्पनम्।117। शिरः प्रकम्पितं संज्ञा....।118।.....ऊर्ध्वं नयनं शिरोधेर्बहुधाप्यधः।119। निष्ठीवनं वपुःस्पर्शो न्यूनत्वं दिगवेक्षणम्। मायाप्रायास्थितिश्चित्रा वयोपेक्षा विवर्जनम्।120। व्याक्षेपासक्तचित्तत्वं कालापेक्षव्यतिक्रमः। लोभाकुलत्वं मूढत्वं पापकर्मैसर्गता ।121।</span> = </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ol start="1"> <li class="HindiText"> शिर को नीचा करके खड़े होना लम्बित दोष है । </li> | <ol start="1"> <li class="HindiText"> शिर को नीचा करके खड़े होना लम्बित दोष है । </li> | ||
<li class="HindiText"> शिर को ऊपर को उठाकर खड़े होना उत्तरित दोष है। </li> | <li class="HindiText"> शिर को ऊपर को उठाकर खड़े होना उत्तरित दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> बालक को दूध पिलाने को उद्यत | <li class="HindiText"> बालक को दूध पिलाने को उद्यत स्त्रीवत् वक्षःस्थल के स्तनभाग को ऊपर उठा कर खड़े होना स्तनोन्नति दोष है। </li> | ||
<li class="HindiText"> कायोत्सर्ग के समय शिर हिलाना शीर्षप्रकम्पित, </li> | <li class="HindiText"> कायोत्सर्ग के समय शिर हिलाना शीर्षप्रकम्पित, </li> | ||
<li class="HindiText"> ग्रीवा को ऊपर उठाना ग्रीवोर्ध्वनयन। </li> | <li class="HindiText"> ग्रीवा को ऊपर उठाना ग्रीवोर्ध्वनयन। </li> | ||
<li class="HindiText"> ग्रीवा को नीचे की तरफ झुकाना ग्रीवाधोनयन या ग्रीवावनमन दोष | <li class="HindiText"> ग्रीवा को नीचे की तरफ झुकाना ग्रीवाधोनयन या ग्रीवावनमन दोष है।115-119। </li> | ||
<li class="HindiText"> थूकना आदि निष्ठीवन। </li> | <li class="HindiText"> थूकना आदि निष्ठीवन। </li> | ||
<li class="HindiText"> शरीर को इधर-उधर स्पर्श करना वपुःस्पर्श। </li> | <li class="HindiText"> शरीर को इधर-उधर स्पर्श करना वपुःस्पर्श। </li> | ||
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<li class="HindiText"> आठों दिशाओं की तरफ देखना दिगवलोकन। </li> | <li class="HindiText"> आठों दिशाओं की तरफ देखना दिगवलोकन। </li> | ||
<li class="HindiText"> लोगों को आश्चर्योत्पादक ढंग से खड़े होना मायाप्रायास्थिति।</li> | <li class="HindiText"> लोगों को आश्चर्योत्पादक ढंग से खड़े होना मायाप्रायास्थिति।</li> | ||
<li class="HindiText"> और वृद्धावस्था के कारण कायोत्सर्ग को छोड़ देना वयोपेक्षाविवर्जन नामक दोष | <li class="HindiText"> और वृद्धावस्था के कारण कायोत्सर्ग को छोड़ देना वयोपेक्षाविवर्जन नामक दोष है।120। </li> | ||
<li class="HindiText"> मन में विक्षेप होना या चलायमान होना व्याक्षेपासक्तचित्तता। </li> | <li class="HindiText"> मन में विक्षेप होना या चलायमान होना व्याक्षेपासक्तचित्तता। </li> | ||
<li class="HindiText"> समय की कमी के कारण कायोत्सर्ग के अंशों को छोड़ देना कालापेक्ष व्यतिक्रम। </li> | <li class="HindiText"> समय की कमी के कारण कायोत्सर्ग के अंशों को छोड़ देना कालापेक्ष व्यतिक्रम। </li> | ||
<li class="HindiText"> लोभ वश चित्त में विक्षेप होना लोभाकुलता। </li> | <li class="HindiText"> लोभ वश चित्त में विक्षेप होना लोभाकुलता। </li> | ||
<li class="HindiText"> कर्त्तव्य अकर्त्तव्य के विवेक से शून्य होना मूढ़ता और कायोत्सर्ग के समय हिंसादि के परिणामों का उत्कर्ष होना पापकर्मैकसर्गता नामक दोष | <li class="HindiText"> कर्त्तव्य अकर्त्तव्य के विवेक से शून्य होना मूढ़ता और कायोत्सर्ग के समय हिंसादि के परिणामों का उत्कर्ष होना पापकर्मैकसर्गता नामक दोष है।121। <br /> | ||
</li> | </li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.11" id="1.11"> वन्दना के अतिचार व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.11" id="1.11"> वन्दना के अतिचार व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./603-607 <span class="PrakritGatha">अणादिट्ठं च थद्धं च पविट्ठं परिपीडिदं। दोलाइयमंकुसियं तहा कच्छभरिंगियं।603। मच्छुव्वत्तं मणोदुट्ठं वेदिआबद्धमेव य। भयदोसो वभयत्तं इड्ढिगारव गारवं।604। तेणिदं पडिणिदं चावि पदुट्ठं तज्जिदं तधा। सद्दं च हीलिदं चावि तह तिवलिदकंचिदं।605। दिट्ठमदिट्ठं चावि य संगस्स करमोयणं। आलद्धमणालद्धं च हीणमुत्तरचूलियं।606। मूगं च दद्दुरं चावि चुलुलिदमपच्छिमं। बत्तीसदोसविसुद्धं किदियम्मं पउचदे।607। </span>= <span class="HindiText">अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीडित, दोलायित, अंकुशित, कच्छपरिंगित, मत्स्योद्वर्त, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भय, विभ्य, ऋद्धिगौरव, अन्य गौरव, स्तेनित, प्रतिनीत, प्रदुष्ट, तर्जित, शब्द, हीलित, त्रिवलित, कुंचित, दृष्ट, अदृष्ट, संघकरमोचन आलब्ध, अनालब्ध, हीन, उत्तरचूलिका, मूक, दर्दुर, चलुलित, इन बत्तीस दोषों से रहित विशुद्ध कृतिकर्म जो साधु करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है।603-607। (चा.सा./155/3)। </span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./8/98-111/822 <span class="SanskritGatha">अनादृतमतात्पर्यं वन्दनायां मदोद्धृतिः। स्तब्धमत्यासन्नभावः प्रविष्टं परमेष्ठिनाम्।98। हस्ताभ्यां जानुनोः स्वस्य संस्पर्शः परिपीडितम्। दोलायितं चलन् कायो दोलावत् प्रत्ययोऽथवा।99। भालेङ्कुशवदङ्गुष्ठविन्यासोऽङ्कुशितं मतम्। निषेदुषः कच्छपवद्रिङ्रवा कच्छपरिङ्गितम्।100। मत्स्योद्वर्तं स्थितिर्मत्स्योद्वर्तवत् त्वेकपार्श्वतः। मनोदुष्टं खेदकृतिर्गुर्वाद्युपरि चेतसि।101। वेदिबद्धं स्तनोत्पीडो दोर्भ्यां वा जानुबन्धनम्। भयं क्रिया सप्तभयाद्विभ्यत्ता विभ्यतो गुरोः।102। भक्तो गणो मे भावीति वन्दारोर्ऋद्धिगौरवम्। गौरवं स्वस्य महिमन्याहारादावथ स्पृहा।103। स्याद्वन्दने चोरिकया गुर्वादेः स्तेनितं मलः। प्रतिनीतं गुरोराज्ञाखण्डनं प्रातिकूल्यतः।104। प्रदुष्टं वन्दमानस्य द्विष्ठेऽकृत्वा क्षमां त्रिधा। तर्जितं तर्जनान्येषां स्वेन स्वस्याथ सूरिभिः।105। शब्दो जल्पक्रियान्येषामुपहासादि हेलितम्। त्रिवलितं कटिग्रीवाहृद्भङ्गो भृकुटिर्नवा।106। करामर्शोऽथ जान्वन्तः क्षेपः शीर्षस्य कुञ्चितम्। दृष्टं पश्यन् दिशः स्तौति पश्यन्स्वान्येषु सुष्ठु वा।107। अदृष्टं गुरुदृङ्मार्गत्यागो वाप्रतिलेखनम्। विष्टिः संघस्येयमिति धीः संघकरमोचनम्।108। उपध्यात्त्या क्रियालब्धमनालब्धं तदाशया। हीनं न्यूनाधिकं चूला चिरेणोत्तरचूलिका।109। मूको मुखान्तवन्दारोर्हुङ्काराद्यथ कुर्वतः। दुर्दरो ध्वनिनान्येषां स्वेन च्छादयतो ध्वनीन्।110। द्वात्रिंशो वन्दने गीत्या दोषः सुललिताह्वयः। इति दोषोज्झिता कार्या वन्दना निर्जरार्थिना।111। </span>= | ||
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<li><span class="HindiText"> वन्दना में तत्परता या आदर का अभाव अनादृत दोष है, </span></li> | <li><span class="HindiText"> वन्दना में तत्परता या आदर का अभाव अनादृत दोष है, </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"> अर्हंतादि परमेष्ठियों के अत्यन्त निकट होकर वन्दना करना प्रविष्ट दोष है, </span></li> | <li><span class="HindiText"> अर्हंतादि परमेष्ठियों के अत्यन्त निकट होकर वन्दना करना प्रविष्ट दोष है, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> वन्दना के समय जंघाओं का स्पर्श करना परिपीडित दोष है, </span></li> | <li><span class="HindiText"> वन्दना के समय जंघाओं का स्पर्श करना परिपीडित दोष है, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> हिंडोले की भाँति शरीर का अथवा मन का डोलना दोलायित दोष | <li><span class="HindiText"> हिंडोले की भाँति शरीर का अथवा मन का डोलना दोलायित दोष है।98-99। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> अंकुश की भाँति हाथ को मस्तक पर रखना अंकुशित दोष है, </span></li> | <li><span class="HindiText"> अंकुश की भाँति हाथ को मस्तक पर रखना अंकुशित दोष है, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> बैठे-बैठे इधर उधर रींगना कच्छपरिंगित दोष | <li><span class="HindiText"> बैठे-बैठे इधर उधर रींगना कच्छपरिंगित दोष है।100। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> मछली की भाँति कटिभाग को ऊपर को निकालना मत्स्योद्वर्त दोष है। </span></li> | <li><span class="HindiText"> मछली की भाँति कटिभाग को ऊपर को निकालना मत्स्योद्वर्त दोष है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> आचार्य आदि के प्रति आक्षेप या खिन्नता होना मनोदुष्ट दोष | <li><span class="HindiText"> आचार्य आदि के प्रति आक्षेप या खिन्नता होना मनोदुष्ट दोष है।101। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> अपनी छाती के स्तनभाग मर्दन करना अथवा दोनों भुजाओं से दोनों घुटने बाँधकर बैठना वेदिकाबद्ध दोष है, </span></li> | <li><span class="HindiText"> अपनी छाती के स्तनभाग मर्दन करना अथवा दोनों भुजाओं से दोनों घुटने बाँधकर बैठना वेदिकाबद्ध दोष है, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> सप्तभय युक्त होकर वन्दनादि करना भयदोष, </span></li> | <li><span class="HindiText"> सप्तभय युक्त होकर वन्दनादि करना भयदोष, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> आचार्य आदि के भय से करना विभ्य दोष | <li><span class="HindiText"> आचार्य आदि के भय से करना विभ्य दोष है।102।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> चतुः प्रकार संघ को अपना भक्त बनाने के अभिप्राय से वन्दनादि करना ऋद्धि गौरव,</span></li> | <li><span class="HindiText"> चतुः प्रकार संघ को अपना भक्त बनाने के अभिप्राय से वन्दनादि करना ऋद्धि गौरव,</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> भोजन, उपकरण आदि की चाह से करना गौरव दोष | <li><span class="HindiText"> भोजन, उपकरण आदि की चाह से करना गौरव दोष है।103। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> गुरुजनों से छिपाकर करना स्तेनित,</span></li> | <li><span class="HindiText"> गुरुजनों से छिपाकर करना स्तेनित,</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> और गुरु की आज्ञा से प्रतिकूल करना प्रतिनीत दोष | <li><span class="HindiText"> और गुरु की आज्ञा से प्रतिकूल करना प्रतिनीत दोष है।104। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> तीनों योगों से द्वेषी को क्षमा धारण कराये बिना या उसे क्षमा किये बिना करना प्रदुष्ट और </span></li> | <li><span class="HindiText"> तीनों योगों से द्वेषी को क्षमा धारण कराये बिना या उसे क्षमा किये बिना करना प्रदुष्ट और </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> तर्जनी अंगुली के द्वारा अन्य साधुओं को भय दिखाते हुए अथवा आचार्य आदि से स्वयं तर्जित होकर वन्दनादि करना तर्जित दोष | <li><span class="HindiText"> तर्जनी अंगुली के द्वारा अन्य साधुओं को भय दिखाते हुए अथवा आचार्य आदि से स्वयं तर्जित होकर वन्दनादि करना तर्जित दोष है।105।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> वन्दना के बीच में बातचीत करना शब्द, </span></li> | <li><span class="HindiText"> वन्दना के बीच में बातचीत करना शब्द, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> वन्दना के समय दूसरों को धक्का आदि देना या उनकी हँसी आदि करना हेलित, </span></li> | <li><span class="HindiText"> वन्दना के समय दूसरों को धक्का आदि देना या उनकी हँसी आदि करना हेलित, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> कटि ग्रीवा मस्तक आदि पर तीन बल पड़ जाना त्रिवलित दोष | <li><span class="HindiText"> कटि ग्रीवा मस्तक आदि पर तीन बल पड़ जाना त्रिवलित दोष है।106। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> दोनों घुटनों के बीच में सिर रखना कुंचित, </span></li> | <li><span class="HindiText"> दोनों घुटनों के बीच में सिर रखना कुंचित, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> दिशाओं की तरफ देखना अथवा दूसरे उसकी ओर देखें तब अधिक उत्साह से स्तुति आदि करना दृष्ट दोष | <li><span class="HindiText"> दिशाओं की तरफ देखना अथवा दूसरे उसकी ओर देखें तब अधिक उत्साह से स्तुति आदि करना दृष्ट दोष है।107। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> गुरु की दृष्टि से ओझल होकर अथवा पीछे से प्रतिलेखना न करके वन्दनादि करना अदृष्ट,</span></li> | <li><span class="HindiText"> गुरु की दृष्टि से ओझल होकर अथवा पीछे से प्रतिलेखना न करके वन्दनादि करना अदृष्ट,</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> ‘संघ जबरदस्ती मुझसे वन्दनादि करता है’ ऐसा विचार आना ‘संघकर मोचन’ दोष | <li><span class="HindiText"> ‘संघ जबरदस्ती मुझसे वन्दनादि करता है’ ऐसा विचार आना ‘संघकर मोचन’ दोष है।108। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> उपकरणादि का लोभ हो जाने पर क्रिया करना आलब्ध, </span></li> | <li><span class="HindiText"> उपकरणादि का लोभ हो जाने पर क्रिया करना आलब्ध, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> उपकरणादि की आशा से करना अनालब्ध, </span></li> | <li><span class="HindiText"> उपकरणादि की आशा से करना अनालब्ध, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> मात्रा प्रमाण की अपेक्षा हीन अधिक करना हीन, </span></li> | <li><span class="HindiText"> मात्रा प्रमाण की अपेक्षा हीन अधिक करना हीन, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> वन्दना को थोड़ी ही देर में ही समाप्त करके उसकी चूलिका रूप आलोचनादि को अधिक समय तक करना उत्तर चूलिका दोष | <li><span class="HindiText"> वन्दना को थोड़ी ही देर में ही समाप्त करके उसकी चूलिका रूप आलोचनादि को अधिक समय तक करना उत्तर चूलिका दोष है।109। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> मन मन में पढ़ना ताकि दूसरा न सुने अथवा वन्दना करते-करते बीच-बीच में इशारे आदि करना मूक दोष है, </span></li> | <li><span class="HindiText"> मन मन में पढ़ना ताकि दूसरा न सुने अथवा वन्दना करते-करते बीच-बीच में इशारे आदि करना मूक दोष है, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> इतनी जोर-जोर से पाठ का उच्चारण करना जिससे दूसरों को बाधा हो सो दुर्दर दोष | <li><span class="HindiText"> इतनी जोर-जोर से पाठ का उच्चारण करना जिससे दूसरों को बाधा हो सो दुर्दर दोष है।110।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> पाठ को पञ्चम स्वर में गा-गाकर बोलना सुललित या चलुलित दोष है। इस प्रकार ये वन्दना के | <li><span class="HindiText"> पाठ को पञ्चम स्वर में गा-गाकर बोलना सुललित या चलुलित दोष है। इस प्रकार ये वन्दना के 32 दोष कहे।111। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.1" id="2.1"></a>व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/20/439/8 <span class="SanskritText">आत्माऽत्मीयसंकल्पत्यागो व्युत्सर्गः। </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/22/440/8 <span class="SanskritText">कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्गः। </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/26/443/10 <span class="SanskritText">व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गस्त्यागः।</span> = | ||
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<li> <span class="HindiText">अहंकार और ममकाररूप संकल्प का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। </span></li> | <li> <span class="HindiText">अहंकार और ममकाररूप संकल्प का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। </span></li> | ||
<li class="HindiText"> कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। (रा.वा./ | <li class="HindiText"> कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। (रा.वा./9/22/6/621/28); (त.सा./7/24)। <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"> व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है। जिसका नाम त्याग है। (रा.वा./ | <li><span class="HindiText"> व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है। जिसका नाम त्याग है। (रा.वा./9/26/1/624/26)। </span><br /> | ||
ध. | ध.8/3, 41/85/2 <span class="PrakritText">सरीराहारेसु हु मणवयणपवुत्तीओ ओसारिय ज्झेयम्मि एअग्गेण चित्तणिरोहो विओसग्गो णाम। </span>= <span class="HindiText">शरीर वआहार में मन एवं वचन की प्रवृत्तियों को हटाकर ध्येय वस्तु की ओर एकाग्रता से चित्त का निरोध करने को व्युत्सर्ग कहते हैं। </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5, 4, 26/61/2 <span class="PrakritText">झाणेण सह कायमुज्झिदूण मुहुत्त-दिवस-पक्ख-मासादिकालमच्छणं उवसग्गो णाम पायच्छित्तं। </span>= <span class="HindiText">काय का उत्सर्ग करके ध्यानपूर्वक एक मुहूर्त्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महीना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नाम का प्रायश्चित्त है। (चा.सा./142/3); (अन.ध./7/51/695)। </span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./7/94/721 <span class="PrakritGatha">बाह्याभ्यन्तरदोषा ये विविधा बन्धहेतवः। यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्युत्सर्गो निरुच्यते।94। </span>= <span class="HindiText">बन्ध के हेतुभूत विविध प्रकार के बाह्य और अभ्यन्तर दोषों का उत्तम प्रकार से त्याग करना, यह ‘व्युत्सर्ग’ की निरुक्ति है। </span></li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> व्युत्सर्ग तप के भेद-प्रभेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> व्युत्सर्ग तप के भेद-प्रभेद</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./406 <span class="PrakritText">दुविहो य विउसग्गो अब्भंतर बाहिरो मुणेयव्वो।406।</span><span class="HindiText"> व्युत्सर्ग दो प्रकार का है-अभ्यन्तर व बाह्य। (त.सू./9/26); (त.सा./7/29)। </span><br /> | ||
चा.सा./पृष्ठ/पंक्ति <span class="SanskritText">अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्गः स द्विविधः-यावज्जीवं, नियतकालश्चेति। ( | चा.सा./पृष्ठ/पंक्ति <span class="SanskritText">अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्गः स द्विविधः-यावज्जीवं, नियतकालश्चेति। (154/3)। तत्र यावज्जीवं त्रिविधः–भक्तप्रत्याख्यानेङ्गिनीमरणप्रायोपगमनभेदात्। (154/3)। नियतकालो द्विविधः-नित्यनैमित्तिकभेदेन। </span>(155/1)। = <span class="HindiText">अभ्यन्तर उपधि का व्युत्सर्ग दो प्रकार का है–यावज्जीव व नियतकाल। तहाँ यावज्जीव व्युत्सर्ग तीन प्रकार है–भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन। नियतकाल दो प्रकार का है–नित्य व नैमित्तिक। (अन.ध./7/ 96-98/721); (भा.पा./टी./78/225/16)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> बाह्य व अभ्यंतर व्युत्सर्ग के लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> बाह्य व अभ्यंतर व्युत्सर्ग के लक्षण </strong></span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./406 <span class="SanskritText">अभ्यंतरः क्रोधादिः बाह्यः क्षेत्रादिकं द्रव्यं।406।</span> = <span class="HindiText">अभ्यन्तर उपधिरूप क्रोधादि का त्याग करना अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है और बाह्य उपधि, रूप, क्षेत्र, वास्तु आदि का त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है।406। विशेष (देखें [[ ग्रन्थ#2 | ग्रन्थ - 2]])। </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/26/443/11 <span class="SanskritText">अनुपात्तं वास्तुधनधान्यादि बाह्योपधिः। क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यन्तरोपधिः। कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वाभ्यन्तरोपधित्याग इत्युच्यते।</span> = <span class="HindiText">आत्मा के एकत्व को नहीं प्राप्त हुए ऐसे वास्तु, धन और धान्य आदि बाह्य उपधि हैं और क्रोधादि आत्मभाव अभ्यन्तर उपधि हैं। (इनका त्याग बाह्य व अभ्यन्तर उपधि व्युत्सर्ग है)। तथा नियत काल तक या यावज्जीवन तक काय का त्याग करना भी अभ्यन्तर उपधित्याग कहा जाता है। (रा.वा./9/ 26/3-4/624/30); (त.सा./7/29); (चा.सा./154/1); (अन.ध./7/93, 96/720)। </span><br /> | ||
चा.सा./ | चा.सा./155/2 <span class="SanskritText">नित्य आवश्यकादयः। नैमित्तिकः पार्वणी क्रिया निषद्याक्रियाद्याश्च।</span> =<span class="HindiText"> [काय सम्बन्धी अभ्यन्तर व्युत्सर्ग नियत व अनियतकाल की अपेक्षा दो प्रकार का है। तहाँ अनियतकाल व्युत्सर्ग भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन विधि से शरीर को त्यागने की अपेक्षा तीन प्रकार का है। (इन तीनों के लक्षण देखें [[ सल्लेखना#2 | सल्लेखना - 2]])। नियत काल व्युत्सर्ग नित्य व नैमित्तिक के भेद से दो प्रकार का है–(देखें [[ व्युत्सर्ग#2.2 | व्युत्सर्ग - 2.2]])] इन दोनों में से आवश्यक आदि क्रियाओं का करना नित्य है तथा पर्व के दिनों में होने वाली क्रियाएँ करना व निषद्या आदि क्रिया करना नैमित्तिक है। (अन.ध./ 7/97-98/722)। </span><br /> | ||
भा.पा./टी./ | भा.पा./टी./225/16 <span class="SanskritText">नियतकालो यावज्जीवं वा कायस्य त्यागोऽभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्गः। बाह्यस्त्वनेकप्रायो व्युत्सर्गः।</span> = <span class="HindiText">काय का नियत काल के लिए अथवा यावज्जीवन त्याग करना अभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है। बाह्योपधि व्युत्सर्ग अनेक प्रकार का है। <br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> बाह्य व अभ्यन्तर | <li><span class="HindiText"> बाह्य व अभ्यन्तर उपधि–देखें [[ ग्रन्थ#2 | ग्रन्थ - 2]]। <br /> | ||
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</ul> | </ul> | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> व्युत्सर्गतप का प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> व्युत्सर्गतप का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/26/443/12<span class="SanskritText"> निस्संगत्वनिर्भयत्वजीविताशाव्युदासाद्यर्थः। </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./9/26/10/625/14 <span class="SanskritText">निसङ्गत्वं मिर्भयत्वं जीविताशाव्युदासः, दोषोच्छेदो, मोक्षमार्गप्रभावनापरत्वमित्ये-वमाद्यर्थो व्युत्सर्गोऽभिधीयते द्विविधः। </span>= <span class="HindiText">निःसंगत्व, निर्भयत्व, जीविताशा का त्याग, दोषोच्छेद और मोक्षमार्गप्रभावना, तत्परत्व आदि के लिए दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग करना आवश्यक है। (चा.सा./166/5); (भा.पा./टी./7/ 225/17)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> व्युत्सर्गतप के अतिचार</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> व्युत्सर्गतप के अतिचार</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./487/707/23 <span class="SanskritText">व्युत्सर्गातिचारः। कुतो भवति शरीरममतायामनिवृत्तिः।</span> = <span class="HindiText">शरीर पर से ममता हटाना व्युत्सर्ग तप है। परन्तु ममत्व दूर नहीं करना, यह व्युत्सर्ग तप का अतिचार है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./9/26/8/625/7 <span class="SanskritText">अथ मतमेतत्-प्रायश्चित्ताभ्यन्तरो व्युत्सर्गस्ततः पुनस्तस्य वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्य प्रतिद्वन्द्विभावात्, तस्य हि व्युत्सर्गस्यातिचारः प्रतिद्वन्द्वी विद्यते, अयं पुनरनपेक्षः क्रियते इत्यस्ति विशेषः। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>प्रायश्चित्त के भेदों में व्युत्सर्ग कह दिया गया। पुनः तप के भेदों में उसे गिनाना निरर्थक है? <strong>उत्तर–</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि इनमें भेद है। प्रायश्चित्त में गिनाया गया व्युत्सर्ग, अतिचार होने पर उसकी शुद्धि के लिए किया जाता है, पर व्युत्सर्ग तप स्वयं निरपेक्षभाव से किया जाता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> व्युत्सर्गतप व परिग्रहत्याग व्रत में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> व्युत्सर्गतप व परिग्रहत्याग व्रत में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./9/6/6/625/1 <span class="SanskritText">स्यादेतत्-महाव्रतोपदेशकाले परिग्रहनिवृत्तिरुक्ता, ततः पुनरिदं वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्य धनहिरण्यवसनादिविषयत्वात्। </span><span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>महाव्रतों का उपदेश देते समय परिग्रहत्याग कह दिया गया। अब तप प्रकरण में पुनः व्युत्सर्ग कहना अनर्थक है? <strong>उत्तर–</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि परिग्रहत्याग व्रत में सोना-चाँदी आदि के त्याग का उपदेश है, अतः यह उससे पृथक् है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> व्युत्सर्गतप व त्याग धर्म में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> व्युत्सर्गतप व त्याग धर्म में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./9/6/19/598/6 <span class="SanskritText">स्यान्मतम्-वक्ष्यते तपोऽभ्यन्तरं षड्विधम्, तत्रोत्सर्गलक्षणेन तपसाग्रहणमस्य सिद्धमित्य-नर्थकं त्यागग्रहणमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्यान्यार्थत्वात्। तद्धि नियतकालं सर्वोत्सर्गलक्षणम्, अयं पुनस्त्यागः यथा–शक्ति अनियतकालः क्रियते इत्यस्ति भेदः। </span>=<span class="HindiText"><strong> प्रश्न–</strong>छह प्रकार के अभ्यन्तर तप में उत्सर्ग लक्षण वाले तप का ग्रहण किया गया है, अतः यहाँ दस धर्मों के प्रकरण में त्यागधर्म का ग्रहण निरर्थक है? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि, वहाँ तप के प्रकरण में तो नियतकाल के लिए सर्वत्याग किया जाता है और त्याग धर्म में अनियतकाल के लिए यथाशक्ति त्याग किया जाता है। </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./9/26/7/625/4 <span class="SanskritText">स्यादेतत्-दशविधधर्मेऽन्तरीभूतस्त्याग इति पुनरिदं वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। प्रासुकनिरवद्याहारादिनिवृत्तितन्त्रत्वात् तस्य।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>दश धर्मों में त्याग नाम का धर्म अन्तर्भूत है, अतः यहाँ व्युत्सर्ग का व्याख्यान करना निरर्थक है? <strong>उत्तर–</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि त्याग धर्म प्रासुक औषधि व निरवद्य आहारादि का अमुक समय तक त्याग के लिए त्याग धर्म है। अतः यह उससे पृथक् है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किसको कब दिया जाता | <li><span class="HindiText"> व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किसको कब दिया जाता है–देखें [[ प्रायश्चित्त#4 | प्रायश्चित्त - 4]]। </span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1"> (1) आभ्यन्तर तप का पाँचवाँ भेद । आत्मा को देह से भिन्न जानकर शरीर से निस्पृह होकर तप करना व्युत्सर्ग-तप कहलाता है । इसमें बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग किया जाता है । यह दो प्रकार का होता है― आभ्यन्तरोपाधित्याग-तप और बाह्योपाधित्याग-तप । इनमें क्रोध आदि अन्तरंग उपाधि का त्याग करना तथा शरीर के विषय में ‘‘यह मेरा नहीं है’’ इस प्रकार क विचार करना आभ्यन्तरोपाधित्याग-तप और आभूषण आदि बाह्य उपाधि का त्याग करना बाह्मोपाधित्याग-तप है । इन दोनों उपाधियों का त्याग निष्परिग्रहता, निर्भयता और जिजोविषा को दूर करने के लिए किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 20.189, 200-201, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 14.116-117, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 64.30, 49-50, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-46 </span></p> | |||
<p id="2">(2) प्रायश्चित्त के नौ वेदों में पाँचवां भेद । कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त-तप कहलाता है । यह अतिचार लगने पर उसकी शुद्धि के लिए किया जाता है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 64. 35 </span></p> | |||
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Revision as of 21:47, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
बाहर में क्षेत्र वास्तु आदि का और अभ्यन्तर में कषाय आदि का अथवा नित्य व अनियत काल के लिए शरीर का त्याग करना व्युत्सर्ग तप या व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त का अपर नाम कायोत्सर्ग है जो दैवसिक, रात्रिक, चातुर्मासिक आदि दोषों के साधनार्थ विधि पूर्वक किया जाता है। शरीर पर से ममत्व बुद्धि छोड़कर, उपसर्ग आदि को जीतता हुआ, अन्तर्मुहूर्त्त या एक दिन, मास व वर्ष पर्यंत निश्चल खड़े रहना कायोत्सर्ग है।
- कायोत्सर्ग निर्देश
- कायोत्सर्ग का लक्षण
नि.सा./मू./121 कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं। तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्विअप्पेण।121। = काय आदि परद्रव्यों में स्थिर भाव छोड़कर, जो आत्मा को निर्विकल्परूप से ध्याता है, उसे कायोत्सर्ग कहते हैं।121।
मू.आ./28 देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि। जिणगुणचिंतणजुत्तो काओसग्गो तणुविसग्गो।28। = दैवसिक निश्चित क्रियाओं में यथोक्त कालप्रमाण पर्यंत उत्तम क्षमा आदि जिनगुणों की भावना सहित देह में ममत्व को छोड़ना कायोत्सर्ग है।
रा.वा./6/24/11/530/14 परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिवृत्तिः कायोत्सर्गः। = परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। (चा.सा./56/3)।
भा.आ./वि./6/32/21 देहे ममत्वनिरासः कायोत्सर्गः। = देह में ममत्व का निरास करना कायोत्सर्ग है।
यो.सा./अ./5/52 ज्ञात्वा योऽचेतनं कायं नश्वरं कर्मनिर्मितम् । न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्गं करोति सः।52। = देह को अचेतन, नश्वर व कर्मनिर्मित समझकर जो उसके पोषण आदि के अर्थ कोई कार्य नहीं करता, वह कायोत्सर्ग का धारक है।
का.अ./मू./467-468 जल्लमललित्तगत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो। मुहधोवणादि-विरओ भोयणसेज्जदिणिरवे-क्खो।467। ससरूवचिंतणरओ दुज्जणसुयणाण जो हु मज्झत्थो। देहे वि णिम्ममत्ते काओसग्गो तओ तस्स।468। = जिस मुनि का शरीर जल्ल और मल से लिप्त हो, जो दुस्सह रोग के हो जाने पर भी उसका इलाज नहीं करता हो, मुख धोना आदि शरीर के संस्कार से उदासीन हो और भोजन शय्या आदि की अपेक्षा नहीं करता हो, तथा अपने स्वरूप के चिन्तन में ही लीन रहता हो, दुर्जन और सज्जन में मध्यस्थ हो और शरीर से भी ममत्व न करता हो, उस मुनि के कायोत्सर्ग नाम का तप होता है।
नि.सा./ता.वृ./70 सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वयः क्रिया विद्यन्ते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः, स एव गुप्तिर्भवति। = सब जनों को कायसम्बन्धी बहुत क्रियाएँ होती हैं; उनकी निवृत्ति सो कायोत्सर्ग है। वही गुप्ति है।
देखें कृतिकर्म - 3.2 (खड़े-खड़े या बैठे-बैठे शरीर का तथा कषायों का त्याग करना कायोत्सर्ग है)।
- कायोत्सर्ग के भेद व उनके लक्षण
मू.आ./673-677 उट्ठिदउट्ठिद उट्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठ-उट्ठिदो चेव। उवविट्ठदणिविट्ठोवि य काओसग्गो चदुट्ठाणो।673। धम्मं सुक्कं च दुवे झायदि ज्झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो इह उट्ठिदउट्ठिदो णाम।674। अट्टं रुद्दं च दुवे झायदि झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो उट्ठिदणिविट्ठिदो णाम।375। धम्मं सुक्कं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काउसग्गो उवविट्ठउट्ठिदो णाम।676। अट्टं रुद्दं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काउसग्गो णिसण्णिदणिसण्णिदो णाम।677। = अत्थितात्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्ट निविष्ट, इस प्रकार कायोत्सर्ग के चार भेद हैं।673। जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ धर्म शुक्ल ध्यानों को चिन्तवन करता है, वह उत्थितोत्थि है।674। जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ आर्त रौद्र ध्यानों को चिन्तवन करता है, वह उत्थितनिविष्ट है।675। जो बैठे हुए धर्म व शुक्लध्यानों का चिन्तवन करता है वह उपविष्टोत्थित है।676। और जो बैठा हुआ आर्त रौद्र ध्यानों का चिन्तवन करता है, वह उपविष्टोपविष्ट है।677। (अन.ध.8/123/833)।
भ.आ./वि./116/278/27 उत्थितोत्थितं, उत्थितनिविष्टम्, उपविष्टोत्थितं, उपविष्टोपविष्टं इति चत्वारो विकल्पाः। धर्मे शुक्ले वा परिणतो यस्तिष्ठति तस्य कायोत्सर्गः उत्थितोत्थितो नाम। द्रव्यभावोत्थानसमन्वितत्वादुत्थानप्रकर्षः उत्थितोत्थितशब्देनोच्यते। तत्र द्रव्योत्थानं शरीरं स्थाणुवदूर्ध्वं अविचलमवस्थानं। ध्येयैकवस्तुनिष्ठता ज्ञानमयस्य भावस्य भावोत्थानं। आर्तरौद्रयोः परिणतो यस्तिष्ठति तस्य उत्थितनिषण्णो नाम कायोत्सर्गः। शरीरोत्थानादुत्थितत्वं शुभपरिणामोद्गतिरूपस्योत्थानस्याभावान्निषण्ण इत्युच्यते। अतएव विरोधाभावो भिन्ननिमित्तत्वादुत्थानासनयोः एकत्र एकदा। यस्त्वासीन एवं धर्मशुक्लध्यानपरिणतिमुपैति तस्य उत्थितनिषण्णो भवति परिणामोत्था-नात्कायानुत्थानाच्च। यस्तु निषण्णोऽशुभध्यानपरस्तस्य निषण्णनिषण्णकः। कायाशुभपरिणामाभ्यां अनुत्थानात्। = कायोत्सर्ग के उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्टोपविष्ट ऐसे चार भेद कहे हैं। धर्म व शुक्लध्यान में परिणत होकर जो खड़े होते हैं, उनका कायोत्सर्ग उत्थितोत्थित नाम वाला है। क्योंकि द्रव्य व भाव दोनों का उत्थान होने के कारण यहाँ उत्थान का प्रकर्ष है जो उत्थितोत्थित शब्द के द्वारा कहा गया है । तहाँ शरीर का खम्बे के समान खड़ा रहना द्रव्योत्थान है तथा ज्ञान का एक ध्येय वस्तु में एकाग्र होकर ठहरना भावोत्थान है। आर्त और रौद्रध्यान से परिणत होकर जो खड़े होते हैं, उनका कायोत्सर्ग उत्थितनिविष्ट है। शरीर के उत्थान से उत्थित और शुभपरिणामों की उद्गतिरूप उत्थान के अभाव से निविष्ट है। शरीर व भावरूप भिन्न-भिन्न कारण होने से उत्थितावस्था और आसनावस्था में यहाँ विरोध नहीं है। जो मुनि बैठकर ही धर्म और शुक्लध्यान में लवलीन होता है, उसका उपविष्टोत्थि कायोत्सर्ग है, क्योंकि उसके परिणाम तो खड़े हैं, पर शरीर नहीं खड़ा है। जो मुनि बैठकर अशुभध्यान कर रहा है, वह निषण्णनिषण्ण कायोत्सर्ग युक्त समझना चाहिए। क्योंकि वह शरीर से बैठा हुआ है और परिणामों से भी उत्थानशील नहीं है।
- कायोत्सर्ग बैठे व खड़े दोनों प्रकार से होता है ।–देखें व्युत्सर्ग - 1.2।
- मानसिक व कायिक कायोत्सर्ग विधि
मू.आ./गा.वोसरिदबाहुजुगलो चदुरंगुलअंतरेण समपादो। सव्वंगचलणरहिओ काउसग्गो विसुद्धो दु।650। जे केई उवसग्गा देव माणुसतिरिक्खचेदणिया। ते सव्वे अधिआसे काओसग्गे ठिदो संते।655। काओसग्गम्मि ठिदो चिंचिदु इरियावधस्स अतिचारं। तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च चिंतेज्जो।664। = जिसने दोनों बाहु लम्बी की हैं, चार अंगुल के अन्तर सहित समपाद हैं तथा हाथ आदि अंगों का चालन नहीं है, वह शुद्ध कायोत्सर्ग है।650। देव, मनुष्य, तिर्यंच व अचेतनकृत जितने भी उपसर्ग हैं, सबको कायोत्सर्ग में स्थित हुआ मैं अच्छी तरह सहन करता हूँ।655। कायोत्सर्ग में तिष्ठा ईर्यापथ के अतिचार के नाश को चिन्तवन करता मुनि उन सब नियमों को समाप्त कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तवन करो।664। (भ.आ./वि./116/278/20); (अन.ध./8/76/804)।
भ.आ./वि./509/729/16 मनसा शरीरे ममेदंभावनिवृत्तिः मानसः कायोत्सर्गः। प्रलम्बभुजस्य, चतुरङ्गुलमात्रपा-दान्तरस्य निश्चलावस्थानं कायेन कायोत्सर्गः। = मन से शरीर में ममेदं बुद्धि की निवृत्ति मानस कायोत्सर्ग है और (‘मैं शरीर का त्याग करता हूँ–ऐसा वचनोच्चार करना वचनकृत कायोत्सर्ग है’)। बाहु नीचे छोड़कर चार अंगुलमात्र अन्तर दोनों पाँवों में रखकर निश्चल खड़े होना, वह शरीर के द्वारा कायोत्सर्ग है।
अन.ध./9/22-24/866 जिनेन्द्रमुद्रया गाथां ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे। हृत्पंकजे प्रवेश्यान्तर्निरुध्य मनसानिलम्।22। पृथग् द्विद्वयेकगाथांशचिन्तान्ते रेचयेच्छनैः। नवकृत्वः प्रयोक्तैवं दहत्यंहः सुधीर्महत्।23। वाचाप्युपांशु व्युत्सर्गे कार्यो जप्यः स वाचिकः। पुण्यं शतगुणं चैत्तः सहस्रगुणमावहेत्।24। = व्युत्सर्ग के समय अपनी प्राणवायु को भीतर प्रविष्ट करके, उसे आनन्द से विकसित हृदयकमल में रोककर, जिनेन्द्र मुद्रा के द्वारा णमोकार मन्त्र की गाथा का ध्यान करना चाहिए।23। गाथा के दो-दो और एक अंश को पृथक्-पृथक् चिन्तवन करके अन्त में उस प्राणवायु को धीरे-धीरे बाहर निकालना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्रयोग करने वाले के चिरसंचित महान् कर्मराशि भस्म हो जाती है।23। प्राणायाम में असमर्थ साधु वचन के द्वारा भी उस मन्त्र का जाप कर सकता है, परन्तु उसे अन्य कोई न सुने, इस प्रकार करना चाहिए। परन्तु वाचनिक और मानसिक जपों के फल में महान् अन्तर है। दण्डकों के उच्चारण की अपेक्षा सौ गुना पुण्य संचय वाचनिक जाप में होता है और हजार गुणा मानसिक जाप में।24।
- <a name="1.4" id="1.4"></a>कायोत्सर्ग के योग्य दिशा व क्षेत्र
भ.आ./मू./550/763 पाचीणोदीचिमुहो चेदिमहुत्तो व कुणदि एगंते। आलोयणपत्तीयं काउसग्गं अणाबाधे।550। = पूर्व अथवा उत्तर दिशा की तरफ मुँह करके किंवा जिनप्रतिमा की तरफ मुँह करके आलोचना के लिए क्षपक कायोत्सर्ग करता है। यह कायोत्सर्ग वह एकान्त स्थान में, अबाधित स्थान में अर्थात् जहाँ दूसरों का आना-जाना न हो, ऐसे अमार्ग में करता है।
- कायोत्सर्ग के योग्य अवसर
मू.आ./663, 665 भत्ते पाणे गामंतरे य चदुमासिवरिसचरिमेसु। णाऊण ठंति धीरा घणिदं दुक्खक्खयट्ठाए।663। तह दिवसियरादियपक्खियचदुमासिवरिसचरिमेसु। तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुक्कं च झायेज्जो।665। = भक्त, पान, ग्रामान्तर, चातुर्मासिक, वार्षिक, उत्तमार्थ, इनको जानकर धीरपुरुष अतिशयकर दुःख के क्षय के अर्थ कायोत्सर्ग में तिष्ठते हैं।663। इसी प्रकार दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक व उत्तमार्थ इन सब नियमों को पूर्ण कर धर्मध्यान शुक्लध्यान को ध्यावे।665।
देखें अगला शीर्षक –(हिंसा आदि पापों के अतिचारों में भक्त पान व गोचरी के पश्चात्, तीर्थ व निषद्यका आदि की वन्दनार्थ जाने पर, लघु व दीर्घ शंका करने पर, ग्रन्थ को आरम्भ करते समय व पूर्ण हो जाने पर, ईर्यापथ के दोषों की निवृत्ति के अर्थ कायोत्सर्ग किया जाता है।)
- यथा अवसर कायोत्सर्ग के काल का प्रमाण
मू.आ./656-661 संवरच्छरमुक्कस्सं भिण्णमुहुत्तं जहण्णयं होदि। सेसा काओसग्गा होंति अणेगेसु ठाणेसु।656। अट्ठसदं देवसियं कल्लद्धं पक्खियं च तिण्णिसया। उस्सासा कायव्वा णियमंता अपमत्तेण।657। चादुम्मासे चउरो सदाइं संवत्थरे य पञ्चसदा। काओसग्गुस्सासा पञ्चसु ठाणेसु णादव्वा।658। पाणिवह मुसावाए अदत्त मेहुण परिग्गहे चे य। अट्ठसदं उस्सासा काओसग्गम्हि कादव्वा।659। भत्ते पाणे गामंतरे य अरहहंत समणसेज्जासु। उच्चारेपस्सवणे पणवीसं होंति उस्सासा।660। उद्देसे णिद्देसे सज्झाए वंदणेय परिधाणे। सत्तावीसुस्सासा काओसग्गम्हि कादव्वा।661। = कायोत्सर्ग एक वर्ष का उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य होता है। शेष कायोत्सर्ग दिन-रात्रि आदि के भेद से बहुत हैं।656।
- कायोत्सर्ग का लक्षण
0 |
अवसर |
उच्छवास |
1. |
दैवसिक प्रतिक्र. |
108 |
2. |
रात्रिक प्रतिक्र. |
54 |
3. |
पाक्षिक प्रतिक्र. |
300 |
4. |
चातुर्मासिक प्रतिक्र. |
400 |
5. |
वार्षिक प्रतिक्र. |
500 |
6. |
हिंसादि रूप अतिचारों में |
108 |
7. |
गोचरी से आने पर |
25 |
8. |
निर्वाण भूमि |
25 |
9. |
अर्हंत शय्या |
25 |
10. |
अर्हंत निषद्यका |
25 |
11. |
श्रमण शय्या |
25 |
12. |
लघु व दीर्घ शंका |
25 |
13. |
ग्रन्थ के आरम्भ में |
27 |
14. |
ग्रन्थ की समाप्ति |
27 |
15. |
वन्दना |
27 |
16. |
अशुभ परिणाम |
27 |
17 |
कायोत्सर्ग के श्वास भूल जाने पर |
8-अधिक |
नोट–सर्व प्रतिक्रमणों में यह कायोत्सर्ग वीर भक्ति के पश्चात् किया जाता है। |
(भ.आ./वि./116/278/22); (चा.सा./158/1); (अन.ध./8/72-73/801)।
- कायोत्सर्ग का प्रयोजन व फल
मू.आ./662, 666 काओसग्गं इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि। वोसट्ठचत्तदेहा करंति दुक्खक्खयट्ठाए।662। काओसग्गम्हि कदे जह भिज्जदि अंगुवंगसंधीओ। तह भिज्जदि कम्मरयं काउसग्गस्स करणेण।666। = ईर्यापथ के अतिचार को सोधने के लिए (तथा उपर्युक्त सर्व अवसरों पर यथायोग्य दोषों को शोधने के लिए) मोक्षमार्ग में स्थित शरीर में ममत्व को छोड़ने वाले मुनि दुःख के नाश करने के लिए कायोत्सर्ग करते हैं।662। कायोत्सर्ग करने पर जैसे अंगोपांगों की संधियाँ भिद जाती हैं, उसी प्रकार इससे कर्मरूपी धूलि भी अलग हो जाती है।666। (अन.ध./8/76/ 804)।
- कायोत्सर्ग व धर्मध्यान में अन्तर–देखें धर्मध्यान - 3।
- कायोत्सर्ग व कायगुप्ति में अन्तर–देखें धर्मध्यान - 3।
- कायोत्सर्ग शक्ति अनुसार करना चाहिए
मू. आ. /667, 671-672 बलवीरियमासेज्ज य खेत्ते काले सरीरसंहडणं। काओसग्गं कुज्जा इमे दु दोसे परिहरंतो।667। णिक्कूडं सविसेसं बलाणुरूवं वयाणुरूवं च। काओसग्गं धीरा करंति दुक्खक्खयट्ठाए।671। जो पुण तीसदिसरिसो सत्तरिवरिसेण पारणायसमो। विसमो य कूडवादी णिव्विण्णाणी य सो य जड़ो।672। = बल और आत्म शक्ति का आश्रय कर क्षेत्र, काल और संहनन इनके बल की अपेक्षा कर कायोत्सर्ग के कहे जाने वाले दोषों का त्याग करता हुआ कायोत्सर्ग करे।667। मायाचारी से रहित (देखें आगे इसके अतिचार ) विशेषकर सहित, अपनी शक्ति के अनुसार, बाल आदि अवस्था के अनुकूल धीर पुरुष दुःख के क्षय के लिए कात्योसर्ग करते हैं।671। जो तीस वर्ष प्रमाण यौवन अवस्थावाला समर्थ साधु 70 वर्ष वाले असक्त वृद्ध के साथ कायोत्सर्ग की पूर्णता करके समान रहता है वृद्ध की बराबरी करता है, वह साधु शान्त रूप नहीं है, मायाचारी है, विज्ञानरहित है, चरित्ररहित है और मूर्ख है।672।
- मरण के बिना काय का त्याग कैसे?
भ.आ./वि./116/278/13 ननु च आयुषो निरवशेषगलने आत्मा शरीरमुत्सृजति नान्यदा तत्किमुच्यते कायोत्सर्ग इति।.... अनपायित्वेऽपि शरीरे अशुचित्वं...तथानित्यत्वं, अपायित्वं, दुर्वहत्वं, असारत्वं, दुःखहेतुत्वं, शरीरगतममताहेतुकमनन्तसंसारपरिभ्रमणं इत्यादिकान्संप्रधार्य दोषान्नेदं मम नाहमस्येति संकल्पवतस्तदादराभावात्कायस्य त्यागो घटत एव। यथा प्राणेभ्योऽपि प्रियतमा कृतापराधावस्थिता ह्येकस्मिन्मन्दिरे त्यक्तेत्युच्यते तस्यामनुरागाभावान्ममेदं भावव्यावृत्तिमपेक्ष्य एवमिहापि। किंच....शरीरापायनिराकरणानुत्सुकश्च यतिस्तस्माद्युज्यते कायत्यागः। =- प्रश्न– आयु के निरवशेष समाप्त हो जाने पर आत्मा शरीर को छोड़ती है, अन्य समय में नहीं, तब अन्य समय में कायोत्सर्ग का कथन कैसा? उत्तर–शरीर का विछोह न होते हुए भी, इसके अशुचित्व, अनित्यत्व, विनाशशील, असारत्व, दुःखहेतुत्व, अनन्तसंसार परिभ्रमणहेतुत्व इत्यादि दोषों का विचार कर ‘यह शरीर मेरा नहीं है और मैं इसका स्वामी नहीं हूँ’ ऐसा संकल्प मन में उत्पन्न हो जाने से शरीर पर प्रेम का अभाव होता है, उससे शरीर का त्याग सिद्ध होता है। जैसे प्रियतमा पत्नी से कुछ अपराध हो जाने पर, पति के साथ ही घर में रहते हुए भी, पति का प्रेम का हट जाने के कारण वह त्यागी हुई कही जाती है। इसी प्रकार यहाँ भी समझना।
- और भी दूसरी बात यह है कि शरीर के अपाय के कारण को हटाने में यति निरुत्सुक रहते हैं, इसलिए उनका कायत्याग योग्य ही है।
- कायोत्सर्ग के अतिचार व उनके लक्षण
भ.आ./वि./116/279/8 कायोत्सर्गं प्रपन्नः स्थानदोषान् परिहरेत्। के ते इति चेदुच्यते।- तुरग इव कुण्टीकृतपादेन अवस्थानम्,
- लतेवेतस्ततश्चलतोऽवस्थानं,
- स्तम्भवत्स्तब्धशरीरं कृत्वा स्थानं,
- स्तम्भोपाश्रयेण वा कुड्याश्रयेण वा मालावलग्नशिरसा वावस्थानम्,
- लम्बिताधरतया, स्तनगतदृष्ट्या वायस इव इतस्ततो नयनोद्वर्तनं कृत्वावस्थानम्,
- खलीनावपीडितमुखहय इव मुखचालनं संपादयतोऽवस्थानं,
- युगावष्टब्धबलीवर्द्द इव शिरोऽधः पातयता,
- कपित्थफलग्राहीव विकाशिकरतलं, संकुचिताङ्गुलिपञ्चकं वा कृत्वा,
- शिरश्चालनं कुर्वन्,
- मूक इव हुंकारं संपाद्यावस्थानं,
- मूक इव नासिकया वस्तूपदर्शयता वा,
- अङ्गुलिस्फोटनं,
- भ्रूनर्तनं वा कृत्वा,
- शबरवधूरिव स्वकौपीनदेशाच्छादनपुरोगं,
- शृङ्खलाबद्धपाद इवावस्थानं,
- पीतमदिर इव परवशगतशरीरो वा भूत्वावस्थानं इत्यमी दोषाः। =
- मुनियों को उत्थित कायोत्सर्ग के दोषों का त्याग करना चाहिए। उन दोषों का स्वरूप इस प्रकार है–
- जैसे घोड़ा अपना एक पाँव अकड़ लँगड़ा करके खड़ा हो जाता है वैसे खड़ा होना घोटकपाद दोष है।
- बेल की भाँति इधर-उधर हिलना लतावक्र दोष है।
- स्तम्भवत् शरीर अकड़ाकर खड़े होना स्तंभस्थिति दोष है।
- खम्बे के आश्रय स्तंभावष्टंभ।
- भित्ति के आधार से कुड्याश्रित।
- अथवा मस्तक ऊपर करके किसी पदार्थ का आश्रय देकर खड़ा होना मालिकोद्वहन दोष है।
- अधरोष्ठ लम्बा करके खड़े होना या,
- स्तन की ओर दृष्टि देकर खड़े होना स्तन दृष्टि।
- कौवे की भाँति दृष्टि को इतस्ततः फेंकते हुए खड़े होना काकावलोकन दोष है।
- लगाम से पीड़ित घोड़ेवत् मुख को हिलाते हुए खड़े होना खलीनित दोष है।
- जैसे बैल अपने कन्धे से जूये की मान नीचे करता है, उस पर कन्धे झुकाते हुए खड़ा होना युगकन्धर दोष है।
- कैथ का फल पकड़ने वाले मनुष्य की भाँति हाथ का तलभाग पसारकर या पाँचों अंगुली सिकोड़कर अर्थात् मुट्ठी बाँधकर खड़े होना कपित्थमुष्टि है। सिर को हिलाते हुए खड़े होना सिरचालन दोष है।
- गूंगे की भाँति हुंकार करते हुए खड़े होना, अंगुली से नाक या किसी वस्तु की ओर संकेत करते हुए खड़े होना मूकसंज्ञा दोष है।
- अँगुली चलाना या चुटकी बजाना अंगुलिचालन है।
- भौंह टेढ़ी करना या नचाना भ्रूक्षेप दोष है।
- भील की स्त्री की भाँति अपने गुह्य प्रदेश को हाथ से ढकते हुए खड़े होना शबरीगुह्यगूहन दोष है।
- बेड़ी से जकड़े मनुष्य की भाँति खड़े होना शृंखलित दोष है।
- मद्यपायीवत् शरीर को इधर-उधर झुकाते हुए खड़े होना उन्मत्त दोष है। ऐसे ये कायोत्सर्ग के दोष हैं (अन. ध./8/112-119, शेष देखें आगे )।
चा. सा./156/2 व्युत्सृष्टबाहुयुगले सर्वाङ्गचलनरहिते कायोत्सर्गेऽपि दोषाः स्युः। घोटकपादं, लतावक्रं, स्तम्भावष्टम्भं, कुड्याश्रितं, मालिकोद्वहनं, शबरीगुह्यगूहनं, शृङ्खलितं, लम्बितं उत्तरितं, स्तनदृष्टिः, काकालोकनं, खलीनितं, युगकन्धरं, कपित्थमुष्टिः, शीर्षप्रकम्पितं, मूकसंज्ञा, अङ्गुलिचालनं, भ्रूक्षेपं, उन्मत्तं पिशाचं, अष्टदिगवलोकनं, ग्रीवोन्नमनं, ग्रीवावनमनं, निष्ठीवनं, अङ्गस्पर्शनमिति द्वात्रिंशद्दोषा भवन्ति। = जिसमें दोनों भुजाएँ लम्बी छोड़ दी गयी हैं, चार अंगुल के अन्तर से दोनों पैर एक से रक्खे हुए हैं और शरीर के अंगोपांग सब स्थिर हैं, ऐसे कायोत्सर्ग के भी 32 दोष होते हैं–घोटकपाद, लतावक्र, स्तंभावष्टंभ, कुड्याश्रित, मालिकोद्वहन, शबरीगुह्यगूहन, शृंखलित, लंबित, उत्तरित, स्तनदृष्टि, काकालोकन, खलीनित, युगकन्धर, कपित्थमुष्टि, शीर्षप्रकंपित, मूकसंज्ञा, अंगुलिचालन, भ्रूक्षेप, उन्मत्त, पिशाच, पूर्व दिशावलोकन, आग्नेयदिशावलोकन, दक्षिण दिशावलोकन, नैऋत्य दिशावलोकन, पश्चिमदिशावलोकन, वायव्य दिशावलोकन, उत्तर दिशावलोकन, ईशान दिशावलोकन, ग्रीवोन्नमन, ग्रीवावनमन, निष्ठीवन और अंगस्पर्श। इनमें से कुछ के लक्षण ऊपर भ.आ./वि. में दे दिये गये हैं, शेष के लक्षण स्पष्ट हैं। अथवा निम्न प्रकार हैं।]
अन.ध./8/115-121 लम्बितं नमनं मूर्ध्न स्तस्योत्तरितमुन्नमः। उन्नमय्य स्थितिर्वक्षः स्तनदावत्स्तनोन्नतिः।115।...... शीर्षकम्पनम्।117। शिरः प्रकम्पितं संज्ञा....।118।.....ऊर्ध्वं नयनं शिरोधेर्बहुधाप्यधः।119। निष्ठीवनं वपुःस्पर्शो न्यूनत्वं दिगवेक्षणम्। मायाप्रायास्थितिश्चित्रा वयोपेक्षा विवर्जनम्।120। व्याक्षेपासक्तचित्तत्वं कालापेक्षव्यतिक्रमः। लोभाकुलत्वं मूढत्वं पापकर्मैसर्गता ।121। =
- शिर को नीचा करके खड़े होना लम्बित दोष है ।
- शिर को ऊपर को उठाकर खड़े होना उत्तरित दोष है।
- बालक को दूध पिलाने को उद्यत स्त्रीवत् वक्षःस्थल के स्तनभाग को ऊपर उठा कर खड़े होना स्तनोन्नति दोष है।
- कायोत्सर्ग के समय शिर हिलाना शीर्षप्रकम्पित,
- ग्रीवा को ऊपर उठाना ग्रीवोर्ध्वनयन।
- ग्रीवा को नीचे की तरफ झुकाना ग्रीवाधोनयन या ग्रीवावनमन दोष है।115-119।
- थूकना आदि निष्ठीवन।
- शरीर को इधर-उधर स्पर्श करना वपुःस्पर्श।
- कायोत्सर्ग के योग्य प्रमाण से कम काल तक करना हीन या न्यून।
- आठों दिशाओं की तरफ देखना दिगवलोकन।
- लोगों को आश्चर्योत्पादक ढंग से खड़े होना मायाप्रायास्थिति।
- और वृद्धावस्था के कारण कायोत्सर्ग को छोड़ देना वयोपेक्षाविवर्जन नामक दोष है।120।
- मन में विक्षेप होना या चलायमान होना व्याक्षेपासक्तचित्तता।
- समय की कमी के कारण कायोत्सर्ग के अंशों को छोड़ देना कालापेक्ष व्यतिक्रम।
- लोभ वश चित्त में विक्षेप होना लोभाकुलता।
- कर्त्तव्य अकर्त्तव्य के विवेक से शून्य होना मूढ़ता और कायोत्सर्ग के समय हिंसादि के परिणामों का उत्कर्ष होना पापकर्मैकसर्गता नामक दोष है।121।
- वन्दना के अतिचार व उनके लक्षण
मू.आ./603-607 अणादिट्ठं च थद्धं च पविट्ठं परिपीडिदं। दोलाइयमंकुसियं तहा कच्छभरिंगियं।603। मच्छुव्वत्तं मणोदुट्ठं वेदिआबद्धमेव य। भयदोसो वभयत्तं इड्ढिगारव गारवं।604। तेणिदं पडिणिदं चावि पदुट्ठं तज्जिदं तधा। सद्दं च हीलिदं चावि तह तिवलिदकंचिदं।605। दिट्ठमदिट्ठं चावि य संगस्स करमोयणं। आलद्धमणालद्धं च हीणमुत्तरचूलियं।606। मूगं च दद्दुरं चावि चुलुलिदमपच्छिमं। बत्तीसदोसविसुद्धं किदियम्मं पउचदे।607। = अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीडित, दोलायित, अंकुशित, कच्छपरिंगित, मत्स्योद्वर्त, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भय, विभ्य, ऋद्धिगौरव, अन्य गौरव, स्तेनित, प्रतिनीत, प्रदुष्ट, तर्जित, शब्द, हीलित, त्रिवलित, कुंचित, दृष्ट, अदृष्ट, संघकरमोचन आलब्ध, अनालब्ध, हीन, उत्तरचूलिका, मूक, दर्दुर, चलुलित, इन बत्तीस दोषों से रहित विशुद्ध कृतिकर्म जो साधु करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है।603-607। (चा.सा./155/3)।
अन.ध./8/98-111/822 अनादृतमतात्पर्यं वन्दनायां मदोद्धृतिः। स्तब्धमत्यासन्नभावः प्रविष्टं परमेष्ठिनाम्।98। हस्ताभ्यां जानुनोः स्वस्य संस्पर्शः परिपीडितम्। दोलायितं चलन् कायो दोलावत् प्रत्ययोऽथवा।99। भालेङ्कुशवदङ्गुष्ठविन्यासोऽङ्कुशितं मतम्। निषेदुषः कच्छपवद्रिङ्रवा कच्छपरिङ्गितम्।100। मत्स्योद्वर्तं स्थितिर्मत्स्योद्वर्तवत् त्वेकपार्श्वतः। मनोदुष्टं खेदकृतिर्गुर्वाद्युपरि चेतसि।101। वेदिबद्धं स्तनोत्पीडो दोर्भ्यां वा जानुबन्धनम्। भयं क्रिया सप्तभयाद्विभ्यत्ता विभ्यतो गुरोः।102। भक्तो गणो मे भावीति वन्दारोर्ऋद्धिगौरवम्। गौरवं स्वस्य महिमन्याहारादावथ स्पृहा।103। स्याद्वन्दने चोरिकया गुर्वादेः स्तेनितं मलः। प्रतिनीतं गुरोराज्ञाखण्डनं प्रातिकूल्यतः।104। प्रदुष्टं वन्दमानस्य द्विष्ठेऽकृत्वा क्षमां त्रिधा। तर्जितं तर्जनान्येषां स्वेन स्वस्याथ सूरिभिः।105। शब्दो जल्पक्रियान्येषामुपहासादि हेलितम्। त्रिवलितं कटिग्रीवाहृद्भङ्गो भृकुटिर्नवा।106। करामर्शोऽथ जान्वन्तः क्षेपः शीर्षस्य कुञ्चितम्। दृष्टं पश्यन् दिशः स्तौति पश्यन्स्वान्येषु सुष्ठु वा।107। अदृष्टं गुरुदृङ्मार्गत्यागो वाप्रतिलेखनम्। विष्टिः संघस्येयमिति धीः संघकरमोचनम्।108। उपध्यात्त्या क्रियालब्धमनालब्धं तदाशया। हीनं न्यूनाधिकं चूला चिरेणोत्तरचूलिका।109। मूको मुखान्तवन्दारोर्हुङ्काराद्यथ कुर्वतः। दुर्दरो ध्वनिनान्येषां स्वेन च्छादयतो ध्वनीन्।110। द्वात्रिंशो वन्दने गीत्या दोषः सुललिताह्वयः। इति दोषोज्झिता कार्या वन्दना निर्जरार्थिना।111। =- वन्दना में तत्परता या आदर का अभाव अनादृत दोष है,
- आठ मदों के वश होकर अहंकार सहित वन्दना करना स्तब्ध दोष है,
- अर्हंतादि परमेष्ठियों के अत्यन्त निकट होकर वन्दना करना प्रविष्ट दोष है,
- वन्दना के समय जंघाओं का स्पर्श करना परिपीडित दोष है,
- हिंडोले की भाँति शरीर का अथवा मन का डोलना दोलायित दोष है।98-99।
- अंकुश की भाँति हाथ को मस्तक पर रखना अंकुशित दोष है,
- बैठे-बैठे इधर उधर रींगना कच्छपरिंगित दोष है।100।
- मछली की भाँति कटिभाग को ऊपर को निकालना मत्स्योद्वर्त दोष है।
- आचार्य आदि के प्रति आक्षेप या खिन्नता होना मनोदुष्ट दोष है।101।
- अपनी छाती के स्तनभाग मर्दन करना अथवा दोनों भुजाओं से दोनों घुटने बाँधकर बैठना वेदिकाबद्ध दोष है,
- सप्तभय युक्त होकर वन्दनादि करना भयदोष,
- आचार्य आदि के भय से करना विभ्य दोष है।102।
- चतुः प्रकार संघ को अपना भक्त बनाने के अभिप्राय से वन्दनादि करना ऋद्धि गौरव,
- भोजन, उपकरण आदि की चाह से करना गौरव दोष है।103।
- गुरुजनों से छिपाकर करना स्तेनित,
- और गुरु की आज्ञा से प्रतिकूल करना प्रतिनीत दोष है।104।
- तीनों योगों से द्वेषी को क्षमा धारण कराये बिना या उसे क्षमा किये बिना करना प्रदुष्ट और
- तर्जनी अंगुली के द्वारा अन्य साधुओं को भय दिखाते हुए अथवा आचार्य आदि से स्वयं तर्जित होकर वन्दनादि करना तर्जित दोष है।105।
- वन्दना के बीच में बातचीत करना शब्द,
- वन्दना के समय दूसरों को धक्का आदि देना या उनकी हँसी आदि करना हेलित,
- कटि ग्रीवा मस्तक आदि पर तीन बल पड़ जाना त्रिवलित दोष है।106।
- दोनों घुटनों के बीच में सिर रखना कुंचित,
- दिशाओं की तरफ देखना अथवा दूसरे उसकी ओर देखें तब अधिक उत्साह से स्तुति आदि करना दृष्ट दोष है।107।
- गुरु की दृष्टि से ओझल होकर अथवा पीछे से प्रतिलेखना न करके वन्दनादि करना अदृष्ट,
- ‘संघ जबरदस्ती मुझसे वन्दनादि करता है’ ऐसा विचार आना ‘संघकर मोचन’ दोष है।108।
- उपकरणादि का लोभ हो जाने पर क्रिया करना आलब्ध,
- उपकरणादि की आशा से करना अनालब्ध,
- मात्रा प्रमाण की अपेक्षा हीन अधिक करना हीन,
- वन्दना को थोड़ी ही देर में ही समाप्त करके उसकी चूलिका रूप आलोचनादि को अधिक समय तक करना उत्तर चूलिका दोष है।109।
- मन मन में पढ़ना ताकि दूसरा न सुने अथवा वन्दना करते-करते बीच-बीच में इशारे आदि करना मूक दोष है,
- इतनी जोर-जोर से पाठ का उच्चारण करना जिससे दूसरों को बाधा हो सो दुर्दर दोष है।110।
- पाठ को पञ्चम स्वर में गा-गाकर बोलना सुललित या चलुलित दोष है। इस प्रकार ये वन्दना के 32 दोष कहे।111।
- व्युत्सर्ग तप या प्रायश्चित्त निर्देश
- <a name="2.1" id="2.1"></a>व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त का लक्षण
स.सि./9/20/439/8 आत्माऽत्मीयसंकल्पत्यागो व्युत्सर्गः।
स.सि./9/22/440/8 कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्गः।
स.सि./9/26/443/10 व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गस्त्यागः। =- अहंकार और ममकाररूप संकल्प का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है।
- कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। (रा.वा./9/22/6/621/28); (त.सा./7/24)।
- व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है। जिसका नाम त्याग है। (रा.वा./9/26/1/624/26)।
ध.8/3, 41/85/2 सरीराहारेसु हु मणवयणपवुत्तीओ ओसारिय ज्झेयम्मि एअग्गेण चित्तणिरोहो विओसग्गो णाम। = शरीर वआहार में मन एवं वचन की प्रवृत्तियों को हटाकर ध्येय वस्तु की ओर एकाग्रता से चित्त का निरोध करने को व्युत्सर्ग कहते हैं।
ध.13/5, 4, 26/61/2 झाणेण सह कायमुज्झिदूण मुहुत्त-दिवस-पक्ख-मासादिकालमच्छणं उवसग्गो णाम पायच्छित्तं। = काय का उत्सर्ग करके ध्यानपूर्वक एक मुहूर्त्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महीना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नाम का प्रायश्चित्त है। (चा.सा./142/3); (अन.ध./7/51/695)।
अन.ध./7/94/721 बाह्याभ्यन्तरदोषा ये विविधा बन्धहेतवः। यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्युत्सर्गो निरुच्यते।94। = बन्ध के हेतुभूत विविध प्रकार के बाह्य और अभ्यन्तर दोषों का उत्तम प्रकार से त्याग करना, यह ‘व्युत्सर्ग’ की निरुक्ति है।
- व्युत्सर्ग तप के भेद-प्रभेद
मू.आ./406 दुविहो य विउसग्गो अब्भंतर बाहिरो मुणेयव्वो।406। व्युत्सर्ग दो प्रकार का है-अभ्यन्तर व बाह्य। (त.सू./9/26); (त.सा./7/29)।
चा.सा./पृष्ठ/पंक्ति अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्गः स द्विविधः-यावज्जीवं, नियतकालश्चेति। (154/3)। तत्र यावज्जीवं त्रिविधः–भक्तप्रत्याख्यानेङ्गिनीमरणप्रायोपगमनभेदात्। (154/3)। नियतकालो द्विविधः-नित्यनैमित्तिकभेदेन। (155/1)। = अभ्यन्तर उपधि का व्युत्सर्ग दो प्रकार का है–यावज्जीव व नियतकाल। तहाँ यावज्जीव व्युत्सर्ग तीन प्रकार है–भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन। नियतकाल दो प्रकार का है–नित्य व नैमित्तिक। (अन.ध./7/ 96-98/721); (भा.पा./टी./78/225/16)।
- बाह्य व अभ्यंतर व्युत्सर्ग के लक्षण
मू.आ./406 अभ्यंतरः क्रोधादिः बाह्यः क्षेत्रादिकं द्रव्यं।406। = अभ्यन्तर उपधिरूप क्रोधादि का त्याग करना अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है और बाह्य उपधि, रूप, क्षेत्र, वास्तु आदि का त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है।406। विशेष (देखें ग्रन्थ - 2)।
स.सि./9/26/443/11 अनुपात्तं वास्तुधनधान्यादि बाह्योपधिः। क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यन्तरोपधिः। कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वाभ्यन्तरोपधित्याग इत्युच्यते। = आत्मा के एकत्व को नहीं प्राप्त हुए ऐसे वास्तु, धन और धान्य आदि बाह्य उपधि हैं और क्रोधादि आत्मभाव अभ्यन्तर उपधि हैं। (इनका त्याग बाह्य व अभ्यन्तर उपधि व्युत्सर्ग है)। तथा नियत काल तक या यावज्जीवन तक काय का त्याग करना भी अभ्यन्तर उपधित्याग कहा जाता है। (रा.वा./9/ 26/3-4/624/30); (त.सा./7/29); (चा.सा./154/1); (अन.ध./7/93, 96/720)।
चा.सा./155/2 नित्य आवश्यकादयः। नैमित्तिकः पार्वणी क्रिया निषद्याक्रियाद्याश्च। = [काय सम्बन्धी अभ्यन्तर व्युत्सर्ग नियत व अनियतकाल की अपेक्षा दो प्रकार का है। तहाँ अनियतकाल व्युत्सर्ग भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन विधि से शरीर को त्यागने की अपेक्षा तीन प्रकार का है। (इन तीनों के लक्षण देखें सल्लेखना - 2)। नियत काल व्युत्सर्ग नित्य व नैमित्तिक के भेद से दो प्रकार का है–(देखें व्युत्सर्ग - 2.2)] इन दोनों में से आवश्यक आदि क्रियाओं का करना नित्य है तथा पर्व के दिनों में होने वाली क्रियाएँ करना व निषद्या आदि क्रिया करना नैमित्तिक है। (अन.ध./ 7/97-98/722)।
भा.पा./टी./225/16 नियतकालो यावज्जीवं वा कायस्य त्यागोऽभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्गः। बाह्यस्त्वनेकप्रायो व्युत्सर्गः। = काय का नियत काल के लिए अथवा यावज्जीवन त्याग करना अभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है। बाह्योपधि व्युत्सर्ग अनेक प्रकार का है।
- <a name="2.1" id="2.1"></a>व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त का लक्षण
- बाह्य व अभ्यन्तर उपधि–देखें ग्रन्थ - 2।
- व्युत्सर्गतप का प्रयोजन
स.सि./9/26/443/12 निस्संगत्वनिर्भयत्वजीविताशाव्युदासाद्यर्थः।
रा.वा./9/26/10/625/14 निसङ्गत्वं मिर्भयत्वं जीविताशाव्युदासः, दोषोच्छेदो, मोक्षमार्गप्रभावनापरत्वमित्ये-वमाद्यर्थो व्युत्सर्गोऽभिधीयते द्विविधः। = निःसंगत्व, निर्भयत्व, जीविताशा का त्याग, दोषोच्छेद और मोक्षमार्गप्रभावना, तत्परत्व आदि के लिए दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग करना आवश्यक है। (चा.सा./166/5); (भा.पा./टी./7/ 225/17)।
- व्युत्सर्गतप के अतिचार
भ.आ./वि./487/707/23 व्युत्सर्गातिचारः। कुतो भवति शरीरममतायामनिवृत्तिः। = शरीर पर से ममता हटाना व्युत्सर्ग तप है। परन्तु ममत्व दूर नहीं करना, यह व्युत्सर्ग तप का अतिचार है।
- व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्त में अन्तर
रा.वा./9/26/8/625/7 अथ मतमेतत्-प्रायश्चित्ताभ्यन्तरो व्युत्सर्गस्ततः पुनस्तस्य वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्य प्रतिद्वन्द्विभावात्, तस्य हि व्युत्सर्गस्यातिचारः प्रतिद्वन्द्वी विद्यते, अयं पुनरनपेक्षः क्रियते इत्यस्ति विशेषः। = प्रश्न–प्रायश्चित्त के भेदों में व्युत्सर्ग कह दिया गया। पुनः तप के भेदों में उसे गिनाना निरर्थक है? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि इनमें भेद है। प्रायश्चित्त में गिनाया गया व्युत्सर्ग, अतिचार होने पर उसकी शुद्धि के लिए किया जाता है, पर व्युत्सर्ग तप स्वयं निरपेक्षभाव से किया जाता है।
- व्युत्सर्गतप व परिग्रहत्याग व्रत में अन्तर
रा.वा./9/6/6/625/1 स्यादेतत्-महाव्रतोपदेशकाले परिग्रहनिवृत्तिरुक्ता, ततः पुनरिदं वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्य धनहिरण्यवसनादिविषयत्वात्। प्रश्न–महाव्रतों का उपदेश देते समय परिग्रहत्याग कह दिया गया। अब तप प्रकरण में पुनः व्युत्सर्ग कहना अनर्थक है? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि परिग्रहत्याग व्रत में सोना-चाँदी आदि के त्याग का उपदेश है, अतः यह उससे पृथक् है।
- व्युत्सर्गतप व त्याग धर्म में अन्तर
रा.वा./9/6/19/598/6 स्यान्मतम्-वक्ष्यते तपोऽभ्यन्तरं षड्विधम्, तत्रोत्सर्गलक्षणेन तपसाग्रहणमस्य सिद्धमित्य-नर्थकं त्यागग्रहणमिति; तन्न; किं कारणम्। तस्यान्यार्थत्वात्। तद्धि नियतकालं सर्वोत्सर्गलक्षणम्, अयं पुनस्त्यागः यथा–शक्ति अनियतकालः क्रियते इत्यस्ति भेदः। = प्रश्न–छह प्रकार के अभ्यन्तर तप में उत्सर्ग लक्षण वाले तप का ग्रहण किया गया है, अतः यहाँ दस धर्मों के प्रकरण में त्यागधर्म का ग्रहण निरर्थक है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, वहाँ तप के प्रकरण में तो नियतकाल के लिए सर्वत्याग किया जाता है और त्याग धर्म में अनियतकाल के लिए यथाशक्ति त्याग किया जाता है।
रा.वा./9/26/7/625/4 स्यादेतत्-दशविधधर्मेऽन्तरीभूतस्त्याग इति पुनरिदं वचनमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम्। प्रासुकनिरवद्याहारादिनिवृत्तितन्त्रत्वात् तस्य। = प्रश्न–दश धर्मों में त्याग नाम का धर्म अन्तर्भूत है, अतः यहाँ व्युत्सर्ग का व्याख्यान करना निरर्थक है? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि त्याग धर्म प्रासुक औषधि व निरवद्य आहारादि का अमुक समय तक त्याग के लिए त्याग धर्म है। अतः यह उससे पृथक् है।
- व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किसको कब दिया जाता है–देखें प्रायश्चित्त - 4।
पुराणकोष से
(1) आभ्यन्तर तप का पाँचवाँ भेद । आत्मा को देह से भिन्न जानकर शरीर से निस्पृह होकर तप करना व्युत्सर्ग-तप कहलाता है । इसमें बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग किया जाता है । यह दो प्रकार का होता है― आभ्यन्तरोपाधित्याग-तप और बाह्योपाधित्याग-तप । इनमें क्रोध आदि अन्तरंग उपाधि का त्याग करना तथा शरीर के विषय में ‘‘यह मेरा नहीं है’’ इस प्रकार क विचार करना आभ्यन्तरोपाधित्याग-तप और आभूषण आदि बाह्य उपाधि का त्याग करना बाह्मोपाधित्याग-तप है । इन दोनों उपाधियों का त्याग निष्परिग्रहता, निर्भयता और जिजोविषा को दूर करने के लिए किया जाता है । महापुराण 20.189, 200-201, पद्मपुराण 14.116-117, हरिवंशपुराण 64.30, 49-50, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-46
(2) प्रायश्चित्त के नौ वेदों में पाँचवां भेद । कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त-तप कहलाता है । यह अतिचार लगने पर उसकी शुद्धि के लिए किया जाता है । हरिवंशपुराण 64. 35