योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 86: Difference between revisions
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<p class="Utthanika">जीव और कर्म की स्वतंत्रता -</p> | |||
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कर्मभावं प्रपद्यन्ते न कदाचन चेतना: ।<br> | |||
कर्म चैतन्यभावं वा स्वस्वभावव्यवस्थिते: ।।८६।।<br> | |||
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<p><b> अन्वय </b>:- | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- स्व-स्वभाव-व्यवस्थिते: चेतना: कदाचन कर्मभावं न प्रपद्यन्ते वा कर्म (अपि तथा एव) चैतन्यभावं (न प्रपद्यते )। </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- अपने-अपने स्वभाव में सदा व्यवस्थित/स्थिर/एकरूप रहने के कारण जीव कभी भी कर्मपने को प्राप्त नहीं होते । अपने-अपने स्वभाव में सदा व्यवस्थित रहने के कारण कर्म कभी भी जीवपने को प्राप्त नहीं होते । </p> | ||
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Latest revision as of 10:19, 15 May 2009
जीव और कर्म की स्वतंत्रता -
कर्मभावं प्रपद्यन्ते न कदाचन चेतना: ।
कर्म चैतन्यभावं वा स्वस्वभावव्यवस्थिते: ।।८६।।
अन्वय :- स्व-स्वभाव-व्यवस्थिते: चेतना: कदाचन कर्मभावं न प्रपद्यन्ते वा कर्म (अपि तथा एव) चैतन्यभावं (न प्रपद्यते )।
सरलार्थ :- अपने-अपने स्वभाव में सदा व्यवस्थित/स्थिर/एकरूप रहने के कारण जीव कभी भी कर्मपने को प्राप्त नहीं होते । अपने-अपने स्वभाव में सदा व्यवस्थित रहने के कारण कर्म कभी भी जीवपने को प्राप्त नहीं होते ।