भावना: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> भावना सामान्य व मति, श्रुत ज्ञान | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> भावना सामान्य व मति, श्रुत ज्ञान संबंधी भावना</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/7/3/1/535/26 <span class="SanskritText"> | राजवार्तिक/7/3/1/535/26 <span class="SanskritText">वीर्यांतरायक्षायोपशमचारित्रमोहोपशमक्षायोपशमांगोपांगनामलाभापेक्षेण आत्मना भाव्यंते ता इति भावना । </span>= <span class="HindiText">वीर्यांतराय क्षायोपशम चारित्रमोहोपशम-क्षायोपशम और अंगोपांग नामकर्मोदय की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा जो भायी जाती हैं–जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है, वे भावना हैं।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/43/86/1 <span class="SanskritText">ज्ञातेऽर्थे पुनः | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/43/86/1 <span class="SanskritText">ज्ञातेऽर्थे पुनः पुनश्चिंतनं भावना। </span>= <span class="HindiText">जाने हुए अर्थ को पुन:-पुन: चिंतन करना भावना है। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> पाँच उत्तम भावना निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> पाँच उत्तम भावना निर्देश</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/187-203 <span class="PrakritGatha"> तवभावना य सुदसत्तभावणेगत्त भावणे चेव। धिदिवतविभावणाविय असंकिलिट्ठावि पंचविहा।187। तवभावणाए पंचेंदियाणि दंताणि तस्स वसमेंति। इंदियजोगायरिओ समाधिकरणाणि सो कुणइ।188। सुदभावणाए णाणं दंसणतवसंजमं च परिणवइ। तो उवओगपइण्णा सुहमच्चविदो समाणेइ।194। देवेहिं भेसिदो वि हु कयावराधो व भीमरूवेहिं। तो सत्तभावणाए वहइ भरं णिब्भओ सयलं।196। एयत्तभावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा। सज्जइ वेरग्गमणो फासेदि अणुत्तरं धम्मं।200। कसिणा परीसहचमू अब्भुट्ठइ जइ वि सोवसग्गावि। दुद्धरपहकरवेगा भयजणणी अप्पसुत्ताणं।202। धिदिधणिदबद्धकच्छो जोधेइ अणाइलो तमच्चाई। धिदिभावणाए सूरो संपुण्णमणोरहो होई।203।</span> = <span class="HindiText">तपो भावना, श्रुतभावना, सत्त्व भावना, एकत्व भावना, और धृतिबल भावना ऐसी पाँच भावनाएँ असंक्लिष्ट हैं।187।( अनगारधर्मामृत/7/100 )। <strong><u>तपश्चरण</u></strong> से | भगवती आराधना/187-203 <span class="PrakritGatha"> तवभावना य सुदसत्तभावणेगत्त भावणे चेव। धिदिवतविभावणाविय असंकिलिट्ठावि पंचविहा।187। तवभावणाए पंचेंदियाणि दंताणि तस्स वसमेंति। इंदियजोगायरिओ समाधिकरणाणि सो कुणइ।188। सुदभावणाए णाणं दंसणतवसंजमं च परिणवइ। तो उवओगपइण्णा सुहमच्चविदो समाणेइ।194। देवेहिं भेसिदो वि हु कयावराधो व भीमरूवेहिं। तो सत्तभावणाए वहइ भरं णिब्भओ सयलं।196। एयत्तभावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा। सज्जइ वेरग्गमणो फासेदि अणुत्तरं धम्मं।200। कसिणा परीसहचमू अब्भुट्ठइ जइ वि सोवसग्गावि। दुद्धरपहकरवेगा भयजणणी अप्पसुत्ताणं।202। धिदिधणिदबद्धकच्छो जोधेइ अणाइलो तमच्चाई। धिदिभावणाए सूरो संपुण्णमणोरहो होई।203।</span> = <span class="HindiText">तपो भावना, श्रुतभावना, सत्त्व भावना, एकत्व भावना, और धृतिबल भावना ऐसी पाँच भावनाएँ असंक्लिष्ट हैं।187।( अनगारधर्मामृत/7/100 )। <strong><u>तपश्चरण</u></strong> से इंद्रियों का मद नष्ट होता है, इंद्रियाँ वश में हो जाती हैं, सो तब इंद्रियों को शिक्षा देनेवाला आचार्य साधु रत्नत्रय में जिनसे स्थिरता होती है ऐसी तप भावना करते हैं।188। श्रुत की भावना करना अर्थात् तद्विषयक ज्ञान में बारंबार प्रवृत्ति करना <strong><u>श्रुत भावना</u></strong> है। इस श्रुतज्ञान की भावना से सम्यग्ज्ञान, दर्शन, तप, संयम इन गुणों की प्राप्ति होती है।194। वह मुनि देवों से त्रस्त किया गया, भयंकर व्याघ्रादिरूप धारण कर पीड़ित किया गया तो भी <strong><u>सत्त्व भावना</u></strong> को हृदय में रखकर, दुखों को सहनकर और निर्भय होकर संयम का संपूर्ण भार धारण करता है।196। <strong><u>एकत्व भावना</u></strong> का आश्रय लेकर विरक्त ह्रदय से मुनिराज कामभोग में, चतुर्विध संघ में, और शरीर में आसक्त न होकर उत्कृष्ट चारित्ररूप धारण करता है।200। चार प्रकार के उपसर्गों के साथ भूख, प्यास, शीत, उष्ण वगैरह बाईस प्रकार के दुखों को उत्पन्न करने वाली बावीस परीषहरूपी सेना, दुर्धर संकटरूपी वेग से युक्त होकर जब मुनियों पर आक्रमण करती है तब अल्प शक्ति के धारक मुनियों को भय होता है।202। धैर्यरूपी परिधान जिसने बाँधा है ऐसा पराक्रमी मुनि <strong><u>धृतिभावना</u></strong> हृदय में धारण कर सफल मनोरथ होता है।203।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/254/13 <span class="SanskritText">अनशनादिद्वादशविधनिर्मलतपश्चरणं तपोभावना, तस्याः फलं विषयकषायजयो भवति प्रथमानियोगचरणानियोगकरणानियोगद्रव्यानियोगभेदेन चतुर्विध आगमाभ्यासः; श्रुतभावना।... मूलोत्तरगुणानुष्ठानविषये निर्गहनवृत्तिः सत्त्वभावना, तस्याः फलं घोरोपसर्गपरीषहप्रस्तावेऽपि निर्गहनेन मोक्ष साधयति | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/254/13 <span class="SanskritText">अनशनादिद्वादशविधनिर्मलतपश्चरणं तपोभावना, तस्याः फलं विषयकषायजयो भवति प्रथमानियोगचरणानियोगकरणानियोगद्रव्यानियोगभेदेन चतुर्विध आगमाभ्यासः; श्रुतभावना।... मूलोत्तरगुणानुष्ठानविषये निर्गहनवृत्तिः सत्त्वभावना, तस्याः फलं घोरोपसर्गपरीषहप्रस्तावेऽपि निर्गहनेन मोक्ष साधयति पांडवादिवत्। एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा। ( भावपाहुड़/ मू./59), (मू.आ./48), ( नियमसार/102 ), इत्येकत्वभावनया तस्याः फलं स्वजनपरजनादौ निर्मोहत्वं भवति।... मानापमानसमताबलेनाशनपानादौ यथालाभेन संतोषभावना तस्या: फलं ... आत्मोत्थखतृप्त्या... विषयसुखनिवृत्तिरिति।</span> =<span class="HindiText"> अनशन आदि बारह प्रकार के निर्मल तप को करना सो <strong>तपोभावना</strong> है। उसका फल विषयकषाय पर जय प्राप्त करना होता है। प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार प्रकार के आगम का अभ्यास करना <strong>श्रुतभावना</strong> है। ... मूल और उत्तरगुण आदि के अनुष्ठान के विषय में गाढ वृत्ति होना सो <strong>सत्त्वभावना</strong> है, घोर उपसर्ग अथवा परीषह के आने पर भी पांडवादि की भाँति उसको दृढ़ता से मोक्ष प्राप्त होती है, यही इसका फल है। ‘‘ज्ञान दर्शन लक्षण वाला शाश्वत एक आत्मा मेरा है; शेष सब संयोग लक्षणवाले भाव मुझसे बाह्य हैं।’’ ( भावपाहुड़/ मू./59), (मू.आ./48), ( नियमसार/102 ) यह <strong>एकत्व भावना</strong> है। स्वजन व परजन में निर्मोहत्व होना इस भावना का फल है। ... मान-अपमान में समता से, अनशनपानादि में यथा लाभ में समता रखना सो <strong>संतोष भावना</strong> है। ... आत्मा से उत्पन्न सुख में तृप्ति और विषय सुख से निवृत्ति ही इसका फल है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> पाँच कुत्सित भावनाएँ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> पाँच कुत्सित भावनाएँ</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/179/396 <span class="PrakritText">कंदप्पेवखिव्भिस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा। एदाहु संकिलिट्ठा पंचविहा भावणा भणिदा।</span> = <span class="HindiText"> | भगवती आराधना/179/396 <span class="PrakritText">कंदप्पेवखिव्भिस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा। एदाहु संकिलिट्ठा पंचविहा भावणा भणिदा।</span> = <span class="HindiText">कांदर्पी (कामचेष्टा), कैल्विषी (क्लेशकारिणी), आभियोगिकी (युद्ध-भावना), आसुरी (सर्वभक्षणी) और संमोही (कुटुंब मोहनी)। इस प्रकार ये पाँच भावनाएँ संक्लिष्ट कही गयी हैं।179। (मू.आ./63), ( ज्ञानार्णव/4/41 ), ( भावपाहुड़ टीका/13/137 पर उद्धृत)।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"> भावना व ध्यान में | <li><span class="HindiText"> भावना व ध्यान में अंतर–देखें [[ धर्मध्यान#3 | धर्मध्यान - 3]]।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> षोडश कारण भावनाओं का नाम निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> षोडश कारण भावनाओं का नाम निर्देश</strong> </span><br /> | ||
षट्खंडागम 8/3/ सू.41/79 <span class="PrakritText">दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए आवासएसु अपरिहीणदाए खण-लवपडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए जधाथामे तधातवे, साहूणं पासुअपरिचागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति।41। </span>=<span class="HindiText"> दर्शन विशुद्धता, विनय संपन्नता, शीलव्रतों में निरतिचारता, छह आवश्यकों में अपरिहीनता, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसंपन्नता, यथाशक्ति तप, साधुओं को प्रासुक परित्यागता, साधुओं को समाधिसंधारणा, साधुओं की वैयाव्रत्ययोगयुक्तता, अरहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्तता, इन सोलह कारणों से जीव तीर्थंकर नाम-गोत्रकर्म को बाँधते हैं।41। (मं.ब.1/34/35/16)।</span><br /> | |||
तत्त्वार्थसूत्र/6/24 <span class="SanskritText">दर्शनविशुद्धिर्विनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थंकरत्वस्य।24।</span> = <span class="HindiText">दर्शनविशुद्धि, | तत्त्वार्थसूत्र/6/24 <span class="SanskritText">दर्शनविशुद्धिर्विनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थंकरत्वस्य।24।</span> = <span class="HindiText">दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन करना, ज्ञान में सतत उपयोग, सतत संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग, शक्ति के अनुसार तप, साधुसमाधि, वैयावृत्त्य करना, अरहंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव हैं।24। ( द्रव्यसंग्रह टीका/38/159/1 )।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong> षोडकारण भावनाओं के लक्षण</strong>–देखें [[ वह वह नाम ]]। </li> | <li class="HindiText"><strong> षोडकारण भावनाओं के लक्षण</strong>–देखें [[ वह वह नाम ]]। </li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> सर्व वा किसी एक भावना से तीर्थंकरत्व का | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> सर्व वा किसी एक भावना से तीर्थंकरत्व का बंध संभव है</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/6/25/339/6 <span class="SanskritText">तान्येतानि षोडशकारणानि सम्यग्भाव्यमानानि व्यस्तानि समस्तानि च तीर्थंकरनामकर्मास्रवकारणानि प्रत्येतव्यानि। </span>= <span class="HindiText">ये सोलह कारण हैं। यदि अलग-अलग इनका भले प्रकार | सर्वार्थसिद्धि/6/25/339/6 <span class="SanskritText">तान्येतानि षोडशकारणानि सम्यग्भाव्यमानानि व्यस्तानि समस्तानि च तीर्थंकरनामकर्मास्रवकारणानि प्रत्येतव्यानि। </span>= <span class="HindiText">ये सोलह कारण हैं। यदि अलग-अलग इनका भले प्रकार चिंतवन किया जाता है तो भी ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण होते हैं और समुदाय रूप से सबका भले प्रकार चिंतन किया जाता है तो भी ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण होते हैं। ( राजवार्तिक/6/24/13/530/22 ), ( धवला 8/3,41/91/6 ); ( चारित्रसार 7/57/2 )। </span><br /> | ||
धवला 8/3,41/ पृष्ठ/ पंक्ति-<span class="PrakritText"> तीए दंसणविसुज्झाए एक्काए वि तित्थयरकम्मं बंधंति।(80/6)। तदो.... विणयसंपण्णदा एक्काए वि तित्थयरणामकम्मं मणुआ बंधंति (81/4)। तीए आवासयापरिहीणदाए एक्काए वि।(85/5)। तीए (खणलवपडिबुज्झणदाए) एक्काए वि।(85/12)। तीए (लद्धिसंवेगसंपण्णदाए) तित्थयरणामकम्मस्स पक्काए वि बंधो।(86/4)। ताए एवंविहाए एक्काए (वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए) वि।(88/10)</span> = <span class="HindiText">उस अकेली दर्शनविशुद्धि भावना से अथवा अकेली | धवला 8/3,41/ पृष्ठ/ पंक्ति-<span class="PrakritText"> तीए दंसणविसुज्झाए एक्काए वि तित्थयरकम्मं बंधंति।(80/6)। तदो.... विणयसंपण्णदा एक्काए वि तित्थयरणामकम्मं मणुआ बंधंति (81/4)। तीए आवासयापरिहीणदाए एक्काए वि।(85/5)। तीए (खणलवपडिबुज्झणदाए) एक्काए वि।(85/12)। तीए (लद्धिसंवेगसंपण्णदाए) तित्थयरणामकम्मस्स पक्काए वि बंधो।(86/4)। ताए एवंविहाए एक्काए (वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए) वि।(88/10)</span> = <span class="HindiText">उस अकेली दर्शनविशुद्धि भावना से अथवा अकेली विनयसंपन्नता से, अथवा अकेली आवश्यक अपरिहीनता से, अथवा अकेली क्षणलव प्रतिबद्धता से, अथवा अकेली लब्धिसंवेगसंपन्नता से, अथवा अकेली वैयावृत्य योगयुक्तक्ता से तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> एक-एक में शेष 15 भावनाओं का समावेश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> एक-एक में शेष 15 भावनाओं का समावेश</strong> </span><br /> | ||
चारित्रसार/57/2 <span class="SanskritText"> एकैकस्यां भावनायामविनाभाविन्य | चारित्रसार/57/2 <span class="SanskritText"> एकैकस्यां भावनायामविनाभाविन्य इतरपंचदश भावनाः।</span> = <span class="HindiText">प्रत्येक भावना शेष पंद्रहों भावनाओं की अविनाभावी है क्योंकि शेष पंद्रहों के बिना कोई भी एक नहीं हो सकती।–(विशेष देखें [[ वह वह नाम ]])। </span> | ||
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<li class="HindiText"><strong> दर्शन विशुद्धि भावना की प्रधानता</strong>–देखें [[ दर्शन विशुद्धि#3 | दर्शन विशुद्धि - 3]]।</li> | <li class="HindiText"><strong> दर्शन विशुद्धि भावना की प्रधानता</strong>–देखें [[ दर्शन विशुद्धि#3 | दर्शन विशुद्धि - 3]]।</li> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p id="1"> (1) देह और देही के यथार्थ स्वरूप का बार-बार | <p id="1"> (1) देह और देही के यथार्थ स्वरूप का बार-बार चिंतन करना । ये बारह होती हैं । उनके नाम हैं― अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । इनका अपरनाम अनुप्रेक्षा है । <span class="GRef"> महापुराण 11. 105-109 </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 1. 127, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 1. 127 </span></p> | ||
<p id="2">(2) तीर्थंकर नामकर्म का | <p id="2">(2) तीर्थंकर नामकर्म का बंध कराने वाली भावनाएं । ये सोलह हैं । उनके नाम हैं― दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलव्रतेश्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तिततस्त्याग, शक्तितस्तप, साधु-समाधि, वैयावृत्य, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवात्सल्य । <span class="GRef"> महापुराण 48.55, 63. 312-330 </span></p> | ||
Revision as of 16:29, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
भावना ही पुण्य-पाप, राग-वैराग्य, संसार व मोक्ष आदि का कारण है, अत: जीव को सदा कुत्सित भावनाओं का त्याग करके उत्तम भावनाएँ भानी चाहिए। सम्यक् प्रकार से भायी सोलह प्रसिद्ध भावनाएँ व्यक्ति को सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकर पद में भी स्थापित करने को समर्थ हैं।
- भावना सामान्य निर्देश
- भावना सामान्य व मति, श्रुत ज्ञान संबंधी भावना
राजवार्तिक/7/3/1/535/26 वीर्यांतरायक्षायोपशमचारित्रमोहोपशमक्षायोपशमांगोपांगनामलाभापेक्षेण आत्मना भाव्यंते ता इति भावना । = वीर्यांतराय क्षायोपशम चारित्रमोहोपशम-क्षायोपशम और अंगोपांग नामकर्मोदय की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा जो भायी जाती हैं–जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है, वे भावना हैं।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/43/86/1 ज्ञातेऽर्थे पुनः पुनश्चिंतनं भावना। = जाने हुए अर्थ को पुन:-पुन: चिंतन करना भावना है।
- मति श्रुत ज्ञान―देखें वह वह नाम ।
- पाँच उत्तम भावना निर्देश
भगवती आराधना/187-203 तवभावना य सुदसत्तभावणेगत्त भावणे चेव। धिदिवतविभावणाविय असंकिलिट्ठावि पंचविहा।187। तवभावणाए पंचेंदियाणि दंताणि तस्स वसमेंति। इंदियजोगायरिओ समाधिकरणाणि सो कुणइ।188। सुदभावणाए णाणं दंसणतवसंजमं च परिणवइ। तो उवओगपइण्णा सुहमच्चविदो समाणेइ।194। देवेहिं भेसिदो वि हु कयावराधो व भीमरूवेहिं। तो सत्तभावणाए वहइ भरं णिब्भओ सयलं।196। एयत्तभावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा। सज्जइ वेरग्गमणो फासेदि अणुत्तरं धम्मं।200। कसिणा परीसहचमू अब्भुट्ठइ जइ वि सोवसग्गावि। दुद्धरपहकरवेगा भयजणणी अप्पसुत्ताणं।202। धिदिधणिदबद्धकच्छो जोधेइ अणाइलो तमच्चाई। धिदिभावणाए सूरो संपुण्णमणोरहो होई।203। = तपो भावना, श्रुतभावना, सत्त्व भावना, एकत्व भावना, और धृतिबल भावना ऐसी पाँच भावनाएँ असंक्लिष्ट हैं।187।( अनगारधर्मामृत/7/100 )। तपश्चरण से इंद्रियों का मद नष्ट होता है, इंद्रियाँ वश में हो जाती हैं, सो तब इंद्रियों को शिक्षा देनेवाला आचार्य साधु रत्नत्रय में जिनसे स्थिरता होती है ऐसी तप भावना करते हैं।188। श्रुत की भावना करना अर्थात् तद्विषयक ज्ञान में बारंबार प्रवृत्ति करना श्रुत भावना है। इस श्रुतज्ञान की भावना से सम्यग्ज्ञान, दर्शन, तप, संयम इन गुणों की प्राप्ति होती है।194। वह मुनि देवों से त्रस्त किया गया, भयंकर व्याघ्रादिरूप धारण कर पीड़ित किया गया तो भी सत्त्व भावना को हृदय में रखकर, दुखों को सहनकर और निर्भय होकर संयम का संपूर्ण भार धारण करता है।196। एकत्व भावना का आश्रय लेकर विरक्त ह्रदय से मुनिराज कामभोग में, चतुर्विध संघ में, और शरीर में आसक्त न होकर उत्कृष्ट चारित्ररूप धारण करता है।200। चार प्रकार के उपसर्गों के साथ भूख, प्यास, शीत, उष्ण वगैरह बाईस प्रकार के दुखों को उत्पन्न करने वाली बावीस परीषहरूपी सेना, दुर्धर संकटरूपी वेग से युक्त होकर जब मुनियों पर आक्रमण करती है तब अल्प शक्ति के धारक मुनियों को भय होता है।202। धैर्यरूपी परिधान जिसने बाँधा है ऐसा पराक्रमी मुनि धृतिभावना हृदय में धारण कर सफल मनोरथ होता है।203।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/254/13 अनशनादिद्वादशविधनिर्मलतपश्चरणं तपोभावना, तस्याः फलं विषयकषायजयो भवति प्रथमानियोगचरणानियोगकरणानियोगद्रव्यानियोगभेदेन चतुर्विध आगमाभ्यासः; श्रुतभावना।... मूलोत्तरगुणानुष्ठानविषये निर्गहनवृत्तिः सत्त्वभावना, तस्याः फलं घोरोपसर्गपरीषहप्रस्तावेऽपि निर्गहनेन मोक्ष साधयति पांडवादिवत्। एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा। ( भावपाहुड़/ मू./59), (मू.आ./48), ( नियमसार/102 ), इत्येकत्वभावनया तस्याः फलं स्वजनपरजनादौ निर्मोहत्वं भवति।... मानापमानसमताबलेनाशनपानादौ यथालाभेन संतोषभावना तस्या: फलं ... आत्मोत्थखतृप्त्या... विषयसुखनिवृत्तिरिति। = अनशन आदि बारह प्रकार के निर्मल तप को करना सो तपोभावना है। उसका फल विषयकषाय पर जय प्राप्त करना होता है। प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार प्रकार के आगम का अभ्यास करना श्रुतभावना है। ... मूल और उत्तरगुण आदि के अनुष्ठान के विषय में गाढ वृत्ति होना सो सत्त्वभावना है, घोर उपसर्ग अथवा परीषह के आने पर भी पांडवादि की भाँति उसको दृढ़ता से मोक्ष प्राप्त होती है, यही इसका फल है। ‘‘ज्ञान दर्शन लक्षण वाला शाश्वत एक आत्मा मेरा है; शेष सब संयोग लक्षणवाले भाव मुझसे बाह्य हैं।’’ ( भावपाहुड़/ मू./59), (मू.आ./48), ( नियमसार/102 ) यह एकत्व भावना है। स्वजन व परजन में निर्मोहत्व होना इस भावना का फल है। ... मान-अपमान में समता से, अनशनपानादि में यथा लाभ में समता रखना सो संतोष भावना है। ... आत्मा से उत्पन्न सुख में तृप्ति और विषय सुख से निवृत्ति ही इसका फल है। - पाँच कुत्सित भावनाएँ
भगवती आराधना/179/396 कंदप्पेवखिव्भिस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा। एदाहु संकिलिट्ठा पंचविहा भावणा भणिदा। = कांदर्पी (कामचेष्टा), कैल्विषी (क्लेशकारिणी), आभियोगिकी (युद्ध-भावना), आसुरी (सर्वभक्षणी) और संमोही (कुटुंब मोहनी)। इस प्रकार ये पाँच भावनाएँ संक्लिष्ट कही गयी हैं।179। (मू.आ./63), ( ज्ञानार्णव/4/41 ), ( भावपाहुड़ टीका/13/137 पर उद्धृत)।
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षट्खंडागम 8/3/ सू.41/79 दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए आवासएसु अपरिहीणदाए खण-लवपडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए जधाथामे तधातवे, साहूणं पासुअपरिचागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति।41। = दर्शन विशुद्धता, विनय संपन्नता, शीलव्रतों में निरतिचारता, छह आवश्यकों में अपरिहीनता, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसंपन्नता, यथाशक्ति तप, साधुओं को प्रासुक परित्यागता, साधुओं को समाधिसंधारणा, साधुओं की वैयाव्रत्ययोगयुक्तता, अरहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्तता, इन सोलह कारणों से जीव तीर्थंकर नाम-गोत्रकर्म को बाँधते हैं।41। (मं.ब.1/34/35/16)।
तत्त्वार्थसूत्र/6/24 दर्शनविशुद्धिर्विनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थंकरत्वस्य।24। = दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन करना, ज्ञान में सतत उपयोग, सतत संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग, शक्ति के अनुसार तप, साधुसमाधि, वैयावृत्त्य करना, अरहंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव हैं।24। ( द्रव्यसंग्रह टीका/38/159/1 )।
- षोडकारण भावनाओं के लक्षण–देखें वह वह नाम ।
- सर्व वा किसी एक भावना से तीर्थंकरत्व का बंध संभव है
सर्वार्थसिद्धि/6/25/339/6 तान्येतानि षोडशकारणानि सम्यग्भाव्यमानानि व्यस्तानि समस्तानि च तीर्थंकरनामकर्मास्रवकारणानि प्रत्येतव्यानि। = ये सोलह कारण हैं। यदि अलग-अलग इनका भले प्रकार चिंतवन किया जाता है तो भी ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण होते हैं और समुदाय रूप से सबका भले प्रकार चिंतन किया जाता है तो भी ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण होते हैं। ( राजवार्तिक/6/24/13/530/22 ), ( धवला 8/3,41/91/6 ); ( चारित्रसार 7/57/2 )।
धवला 8/3,41/ पृष्ठ/ पंक्ति- तीए दंसणविसुज्झाए एक्काए वि तित्थयरकम्मं बंधंति।(80/6)। तदो.... विणयसंपण्णदा एक्काए वि तित्थयरणामकम्मं मणुआ बंधंति (81/4)। तीए आवासयापरिहीणदाए एक्काए वि।(85/5)। तीए (खणलवपडिबुज्झणदाए) एक्काए वि।(85/12)। तीए (लद्धिसंवेगसंपण्णदाए) तित्थयरणामकम्मस्स पक्काए वि बंधो।(86/4)। ताए एवंविहाए एक्काए (वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए) वि।(88/10) = उस अकेली दर्शनविशुद्धि भावना से अथवा अकेली विनयसंपन्नता से, अथवा अकेली आवश्यक अपरिहीनता से, अथवा अकेली क्षणलव प्रतिबद्धता से, अथवा अकेली लब्धिसंवेगसंपन्नता से, अथवा अकेली वैयावृत्य योगयुक्तक्ता से तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है। - एक-एक में शेष 15 भावनाओं का समावेश
चारित्रसार/57/2 एकैकस्यां भावनायामविनाभाविन्य इतरपंचदश भावनाः। = प्रत्येक भावना शेष पंद्रहों भावनाओं की अविनाभावी है क्योंकि शेष पंद्रहों के बिना कोई भी एक नहीं हो सकती।–(विशेष देखें वह वह नाम )।- दर्शन विशुद्धि भावना की प्रधानता–देखें दर्शन विशुद्धि - 3।
- षोडश कारण भावनाओं का नाम निर्देश
पुराणकोष से
(1) देह और देही के यथार्थ स्वरूप का बार-बार चिंतन करना । ये बारह होती हैं । उनके नाम हैं― अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । इनका अपरनाम अनुप्रेक्षा है । महापुराण 11. 105-109 पांडवपुराण 1. 127, वीरवर्द्धमान चरित्र 1. 127
(2) तीर्थंकर नामकर्म का बंध कराने वाली भावनाएं । ये सोलह हैं । उनके नाम हैं― दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलव्रतेश्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तिततस्त्याग, शक्तितस्तप, साधु-समाधि, वैयावृत्य, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवात्सल्य । महापुराण 48.55, 63. 312-330