बोधपाहुड़ गाथा 25: Difference between revisions
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<div class="HindiUtthanika">आगे धर्मादिक का स्वरूप कहते हैं, जिनके जानने से देवादि का स्वरूप जाना जाता है -</div> | <div class="HindiUtthanika">आगे धर्मादिक का स्वरूप कहते हैं, जिनके जानने से देवादि का स्वरूप जाना जाता है -</div> | ||
<div class=" | <div class="HindiBhavarth"><div>अर्थ - जो दया से विशुद्ध है वह धर्म है, जो सर्व परिग्रह से रहित है वह प्रव्रज्या है, जिसका मोह नष्ट हो गया है वह देव है, वह भव्य जीवों के उदय को करनेवाला है ।</div> | ||
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<div class="HindiBhavarth"><div> | <div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - लोक में यह प्रसिद्ध है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुष के प्रयोजन हैं । उनके लिए पुरुष किसी को वंदना करता है, पूजा करता है और यह न्याय है कि जिसके पास जो वस्तु हो वह दूसरे को देवे, न हो तो कहाँ से लावे ? इसलिए ये चार पुरुषार्थ जिनदेव के पाये जाते हैं । धर्म तो उनके दयारूप पाया जाता है, उसको साधकर तीर्थंकर हो गये, तब धन की और संसार के भोगों की प्राप्ति हो गई, लोकपूज्य हो गए और तीर्थंकर के परमपद में दीक्षा लेकर, सब मोह से रहित होकर, परमार्थस्वरूप आत्मिकधर्म को साधकर, मोक्षसुख को प्राप्त कर लिया ऐसे तीर्थंकर जिन हैं, वे ही ‘देव’ हैं ।</div> | ||
<div>अज्ञानी लोग जिनको देव मानते हैं, उनके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष नहीं है, क्योंकि कई हिंसक हैं, कई विषयासक्त हैं, मोही हैं, उनके धर्म कैसा ? अर्थ और काम की जिनके वांछा पाई जाती है, उनके अर्थ, काम कैसा ? जन्म, मरण सहित हैं, उनके मोक्ष कैसे ? ऐसा देव सच्चा जिनदेव ही है वही भव्यजीवों के मनोरथ पूर्ण करते हैं, अन्य सब कल्पित देव हैं ॥२५॥इसप्रकार देव का स्वरूप कहा -</div> | <div>अज्ञानी लोग जिनको देव मानते हैं, उनके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष नहीं है, क्योंकि कई हिंसक हैं, कई विषयासक्त हैं, मोही हैं, उनके धर्म कैसा ? अर्थ और काम की जिनके वांछा पाई जाती है, उनके अर्थ, काम कैसा ? जन्म, मरण सहित हैं, उनके मोक्ष कैसे ? ऐसा देव सच्चा जिनदेव ही है वही भव्यजीवों के मनोरथ पूर्ण करते हैं, अन्य सब कल्पित देव हैं ॥२५॥इसप्रकार देव का स्वरूप कहा -</div> | ||
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Latest revision as of 17:31, 2 November 2013
धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्ज सव्वसंगपरिचत्त ।
देवो ववगयमोहो उदयकरो भव्वजीवाणं ॥२५॥
धर्म: दयाविशुद्ध: प्रव्रज्या सर्वसङ्गपरित्यक्ता ।
देव: व्यपगतमोह: उदयकर: भव्यजीवानाम् ॥२५॥
आगे धर्मादिक का स्वरूप कहते हैं, जिनके जानने से देवादि का स्वरूप जाना जाता है -
अर्थ - जो दया से विशुद्ध है वह धर्म है, जो सर्व परिग्रह से रहित है वह प्रव्रज्या है, जिसका मोह नष्ट हो गया है वह देव है, वह भव्य जीवों के उदय को करनेवाला है ।
भावार्थ - लोक में यह प्रसिद्ध है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुष के प्रयोजन हैं । उनके लिए पुरुष किसी को वंदना करता है, पूजा करता है और यह न्याय है कि जिसके पास जो वस्तु हो वह दूसरे को देवे, न हो तो कहाँ से लावे ? इसलिए ये चार पुरुषार्थ जिनदेव के पाये जाते हैं । धर्म तो उनके दयारूप पाया जाता है, उसको साधकर तीर्थंकर हो गये, तब धन की और संसार के भोगों की प्राप्ति हो गई, लोकपूज्य हो गए और तीर्थंकर के परमपद में दीक्षा लेकर, सब मोह से रहित होकर, परमार्थस्वरूप आत्मिकधर्म को साधकर, मोक्षसुख को प्राप्त कर लिया ऐसे तीर्थंकर जिन हैं, वे ही ‘देव’ हैं ।
अज्ञानी लोग जिनको देव मानते हैं, उनके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष नहीं है, क्योंकि कई हिंसक हैं, कई विषयासक्त हैं, मोही हैं, उनके धर्म कैसा ? अर्थ और काम की जिनके वांछा पाई जाती है, उनके अर्थ, काम कैसा ? जन्म, मरण सहित हैं, उनके मोक्ष कैसे ? ऐसा देव सच्चा जिनदेव ही है वही भव्यजीवों के मनोरथ पूर्ण करते हैं, अन्य सब कल्पित देव हैं ॥२५॥इसप्रकार देव का स्वरूप कहा -