नियमसार - गाथा 56: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="PravachanText"><p><strong>कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणऊण जीवाणं।</strong></p> | |||
<p><strong>तस्मारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमबदं।।56।।</strong></p> | |||
<p> <strong>शुद्धभावाधिकार के बाद व्यवहारचारित्राधिकार कहने का वर्तमान कारण</ | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
[[ वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा | [[ वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 56 | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - नियमसार प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | [[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - नियमसार प्रवचन अनुक्रमणिका | अनुक्रमणिका ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: नियमसार]] | [[Category: नियमसार]] | ||
[[Category: प्रवचन]] | [[Category: प्रवचन]] |
Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणऊण जीवाणं।
तस्मारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमबदं।।56।।
शुद्धभावाधिकार के बाद व्यवहारचारित्राधिकार कहने का वर्तमान कारण―इस गाथा से पहिले शुद्धभाव का अधिकार 18 गाथावों में किया गया था। उसमें जीव का सहज शुद्धपरिणाम क्या है? इस संबंध में बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। और यह शिक्षा दी गयी है कि हे भव्य जीवो ! यदि संसार के संकटों से सदा के लिए छुटकारा चाहते हो तो निज इस शुद्ध सहजभावरूप अपने आपकी प्रतीति करो। इस ही चैतन्यस्वभाव में रुचि करो―इस ही का परिज्ञान करो, इस ही में रमण करो और इस ही में उपयोग का प्रतपन करो। यह बात पूर्णरूप से युक्त है, किंतु वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह बहुत कम संभव पाया जाता है कि ऐसे शुद्धभाव में ही यह मग्न रहा करे। कदाचित् दृष्टि पहुंचती है और प्रतीति निरंतर रहा करती है, किंतु उस सहज शुद्ध भाव में मग्न हो सके, ऐसी स्थिरता इस जीव में नहीं है, तब ऐसी स्थिति में मेरा उपयोग कुछ बाहरी बातों में भी लग जाता है; साथ ही जब शरीर का संबंध है तब शारीरिक बाधाएं जैसे भूख प्यास आदिक की बाधाएं भी हो जाया करती हैं उस स्थिति में सभी वातावरणों से बचना और शारीरिक बाधावों का भी यथा समय शमन करना यह आवश्यक हो जाता है। तब किस प्रकार की परिणति इस ज्ञानी संत को करना चाहिए? उस समस्त प्रवृत्तियों का वर्णन इस व्यवहार चारित्र अधिकार में आ रहा है। इस ही अधिकार की यह प्रथम गाथा है।
तेरह प्रकार का चारित्र―इस अधिकार में अहिंसामहाव्रत, सत्यमहाव्रत, अचौर्यमहाव्रत, ब्रह्मचर्यमहाव्रत और परिग्रहत्याग महाव्रत―इन महाव्रतों का वर्णन आयेगा। इसके बाद ईर्यासमिति, भाषासमिति, एष्णासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और व्युत्सर्गसमिति―इन 5 समितियों का वर्णन होगा। इसके पश्चात् कायगुप्ति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति इनका वर्णन होगा। यह 13 प्रकार का चारित्र कहलाता है―5 महाव्रत, 5 समिति और तीन गुप्ति। जैसे कोई लोग कहते हैं कि हम तेरापंथी हैं―उस तेरापंथी का अर्थ लोग दो तरह से समझते हैं कि तेरह प्रकार का चारित्र जिस पथ में बताया गया है उस पंथ के हम मानने वाले हैं। दूसरा अर्थ यह करते हैं कि हे प्रभु, हे अरहंत देव ! जो तेरा पंथ था वही मेरा पंथ है। तो तेरे पंथ को मानने वाले हम हैं इसलिए तेरापंथी हैं।
चारित्र द्वारा साध्य व चारित्र के साधक परमेष्ठी―उक्त तेरह प्रकार के चारित्रों का विधिवत् पालन करने में निश्चयचारित्र का स्पर्श बनाए रहने में अंत में जो फल होता है वह फल है कर्मों का क्षय होना और अरहंत अवस्था प्रकट होना। इसके पश्चात् सिद्ध अवस्था प्रकट होती है। इन 13 प्रकार के चारित्रों के साधक आचार्य, उपाध्याय और साधु होते हैं। यों साधक और साध्य का स्वरूप बताने के लिए पंचपरमेष्ठियों का इसके पश्चात् वर्णन होगा। इस तरह इस व्यवहारचारित्र अधिकार में संक्षिप्त और मूल साधनों का वर्णन करने वाला स्पष्ट साफ सह व्यवहारचारित्र आयेगा।
तेरह प्रकार के चारित्र के साधक―इन 13 प्रकार के चारित्रों में प्रथम नाम है अहिंसा महाव्रत का। इस गाथा में अहिंसाव्रत का स्वरूप बताया गया है। इस अधिकार में साधुवों के व्रतों का वर्णन है क्योंकि नियमसार के साक्षात् साधक साधु पुरुष ही हो सकते हैं। साधु किसे कहते हैं जिसको केवल सहजस्वभाव व्यक्ति सिद्ध करने का ही ध्यान हो और कोई अलाबला जिसके उपयोग में नहीं है उसे कहते हैं साधु। हम लोग साधुवों के उपासक कहलाते हैं। तो हमें साधुवों में मोक्षमार्ग का आदर्श मिला तब तो हम उपासना करते हैं। साधुजन केवल ज्ञान ध्यान और तपस्या में ही रहा करते हैं, तीन के सिवाय चौथा काम साधु का है ही नहीं। साधु ज्ञान के काम में लगा हो, ध्यान के काम में लगा हो या तपश्चरण में होगा, इनके अतिरिक्त सामाजिक उत्सव अथवा अन्य कोई मकान बनवाने का प्रसंग आये या यहाँ वहाँ के आहार की कथाएं गप्पसप्प ये सब काम लौकिकजनों के हैं। साधु तो आदर्श होते हैं। हम क्यों साधु के दर्शन करते हैं? उसके दर्शन करके हमें अपना आदर्श मिलता है कि मुझे क्या करना है?
दर्शनीय साधक―दर्शन करने का प्रयोजन यह है कि मन में यह आये कि मुझे ऐसा बनना है। जिसके प्रति यह भाव देखकर जगे कि मुझे यों बनना है वही दर्शन के योग्य है। अरहंत की मुद्रा को देखकर यों परिणाम होना चाहिए कि यों बने बिना संकटों से छुटकारा न होगा। साधु मुद्रा के दर्शन करके चित्त में यह परिणाम आना चाहिए कि संकटों से मुक्त होने के लिए ऐसा ही बनना होगा। ऐसे साधु का इस व्यवहारचारित्र में वर्णन चलेगा कि साधु किस-किस प्रकार अपनी चर्या रखते हैं? उनका प्रथम चारित्र हैं अहिंसाव्रत।
अहिंसा व्रत का लक्षण―अहिंसाव्रत का लक्षण इस गाथा में यों बताया है―कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान इनमें जीवों को जानकर उसके आरंभ की निवृत्ति का परिणाम बनाना सो अहिंसामहाव्रत है। यह जीवस्थान चर्चा पढ़ना चारित्र के लिए बढ़ने के लिए भी कारण है। जब तक यह विदित न होगा कि जीव इस-इस प्रकार इन-इन स्थानों में हुआ करता है तब तक हिंसा के आरंभ से निवृत्ति कैसे कर सकते हैं?
अजानकार के बंध के विषय में चर्चा―कोई पुरुष यों शंका करते हैं कि जो जाने कि जल में जीव है वह बिना छना जल पीवे तो उसके दोष लगे। जिसको पता ही नहीं है कि जल में जीव हैं उसको क्यों दोष लगे? जो ज्ञानी है, जानता है कि हिंसा में ये दोष हुआ करते हैं उससे हिंसा बने तब उसको दोष लगेगा। जो समझता ही नहीं कि हिंसा में दोष क्या है, सीधा जानता है कि पेट भरना है सो कार्य करता है उसे क्यों दोष लगेगा? किंतु ऐसी शंका करना युक्त नहीं है। अच्छा बतावो ज्ञान है यह दोष की बात है या ज्ञान नहीं है यह दोष की बात है? अरे अज्ञान सबसे बड़ा दोष है? अज्ञानी जीव चाहे कुछ भी न कर रहा हो, आलस्य में पड़ा हो तो भी अज्ञान के कारण निरंतर उसके इतना बंध है जितना कि ज्ञानी जीव को नहीं हो पाता।
अजानकारी में बंध विशेष पर उदाहरण―एक उदाहरण लीजिए। आग की जलती हुई डली आगे पड़ी हुई हो और उसे जान रहे हों कि यह आग की डली पड़ी है और किसी कारण उस आग पर से कूदकर ही जाना पड़े अथवा कोई धक्का लगा दें और आग पर कूदकर ही जाना पड़े तो उसे जब यह मालूम है कि यह आग पड़ी है तो उस पर बहुत जल्दी पैर धरकर निकल जावोगे, कम जलोगे और पीठ पीछे ही आग पड़ी है तथा मुझे पता नहीं है कि पीछे आग की डली पड़ी है और कदाचित् पैर रख दूं तो दृढ़ता से पैर रक्खूंगा तो अधिक जल जाऊंगा। अब यह बतलावो कि जानी हुई वृत्ति में कम जलेंगे कि बिना जाने की वृत्ति में कम जलेंगे? उत्तर होगा कि बिना जाने हुए आग में पैर रखने से ज्यादा जलेंगे। कितने ही लोग कहते हैं कि जो ज्यादा जान जायेगा उससे कोई त्रुटि होगी, गल्ती होगी तो बड़ा पाप लगेगा, जो नहीं जानता है उसको किसमें पाप? किंतु यह जानो कि जानने वाला पुरुष त्रुटि भी करेगा तो अंतरंग में हटता हुआ त्रुटि करेगा, लगता हुआ न करेगा, किंतु अज्ञानीजन लगते हुए भी त्रुटि करेंगे।
व्यवहारचारित्र के वर्णन का प्रयोजन―खैर, प्रकृत बात इतनी है कि सर्वप्रथम जीव के रहने का स्थान जानना अत्यंत आवश्यक है और इस समय में शुद्धभावाधिकार में ही कुंदकुंदाचार्यदेव ने तो केवल नाम लेकर बताया है और निषेधरूप से बताया है कि कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान ये जीव में नहीं हैं, जीव से ये परे हैं। वहाँ प्रयोजन जीव के शुद्ध सहजस्वभाव को बताने का था। यहाँ प्रयोजन व्यवहार वर्णन का है। यह वर्णन इसलिए किया जा रहा है कि यह पुरुष संसारी जीव कुल में मायने देह में, योनि में अर्थात् उत्पत्तिस्थान में रहा करता है और जीव के स्थान हैं, उनमें मार्गणा के स्थान हैं, उनमें रहा करता है―ऐसा जानकर उनको बचाने का यत्न करें, उनकी हिंसादिक आरंभों को मत करें। जो इस जीव को जानकर उनके आरंभ से हटने का परिणाम है, उसको अहिंसाव्रत कहते हैं।
संसारी जीवों का कुलों में आवास―कुल मायने देहों के प्रकार। मनुष्य कितने प्रकार के हैं? देखते जाइए―बंगाली, मद्रासी, पंजाबी, मध्यप्रदेशी, इंग्लैंड के, अमेरिका के, चीन के, रूस के ये सब न्यारे-न्यारे हैं। सूक्ष्म रूप से देखो तो एक ही जिले के मनुष्यों की शकलें अनेक प्रकार की हैं। कैसी यह प्राकृतिकता है अर्थात् कैसी यह नामकर्म की विचित्रता है कि यह तीन अंगुल लंबी नाक सब मनुष्य के मुख पर धरी है, मगर किसी की नाक से किसी की नाक मिलती नहीं है। मनुष्य का परिचय पाने के लिए यह नाक की बनावट ज्यादा मदद देती है। यह बाबूजी हैं, यह लाला जी हैं, यह सेठ जी हैं, यह अमुक चंद हैं। नाक इस शरीर के परिचय में बहुत मदद देती है। यों ही प्रत्येक अंग की सीमित जातियों में जो समता के प्रकार हैं, उनका ही नाम कुल है, उन कुलों में जीव रहता है।
योनिस्थानों में जीवों का आवास―उत्पत्तिस्थान को योनि कहते हैं। जैसे वनस्पतियां जिस दाने से उत्पन्न हुआ करती हैं और जिस शीतल वातावरण और गरम वातावरण को लेकर वनस्पतियां अंकुरा दिया करती हैं, उन सबका नाम है योनिस्थान। मनुष्य के योनिस्थान, पशुओं के योनिस्थान, कीड़ा-मकोड़ा के योनिस्थान, देव और नारकियों के योनिस्थान, नाना प्रकार के योनिस्थान हैं उनको जानो। दिगंबर जैन संप्रदाय में एक भक्ष्य पदार्थ की सीमा बनायी गई है। बरसात के दिनों में चार रात का बसा हुआ आटा नहीं खाना है, तीन रात तक का बसा हुआ खा सकते हैं याने ज्यादा से ज्यादा चार दिन चल सकता है। शीतकाल में 7 या 8 रात का बसा हुआ आटा, गर्मियों में 5 रात का बसा हुआ आटा चलेगा, बाद में वहाँ योनिस्थान हो जाते हैं।
पूर्वजों द्वारा भक्ष्यपदार्थ की निर्णीत सीमा का समर्थन―यद्यपि कोई यह नहीं कह सकता कि तीसरी रात गुजरने के बाद चौथी रात लग गई तो वहाँ बताओ कि कहां कीड़े हुए अथवा चौथी रात के सुबह कोई बता दे कि कहां कीड़े का स्थान बना है? ऐसी शंका करने वाले से पूछें कि अच्छा तुम बताओ कि फिर कितने दिन बाद कीड़े उत्पन्न होने के योग्य वह आटा बन जाएगा? उससे ही उत्तर लेकर देखो, उत्तर मिलता है कि नहीं मिलता है। उत्तर न मिलेगा। कितना वह बतावेगा? जितना बतावेगा, उससे एक घंटा पहिले परीक्षण करके बतावो कि ऐसा नहीं होता है या एक घंटा बाद परीक्षण करके बताओ। कीड़ा उत्पन्न होने का कोई ऐसा नीयत समय नहीं है कि जिसके बाद हो जिससे पहिले न हो, किंतु कीड़ा उत्पन्न हो सकने के लायक वह आटा बन जाए―ऐसी सीमा हमारे पूर्वजों ने बतायी है। हम पूर्वजों की बात न मानें तो कई बातों की व्यवस्थायें विडंबना बन जाएगी। बताओ कितने दिन की बनाते हो? तो यह सब बात ज्ञात होनी चाहिए कि अब यह आटा योनिस्थानरूप हो गया है, अब इसे न खाना चाहिए।
जीवस्थान व मार्गणास्थानों में जीवों का आवास व सर्वत्र जीवस्वरूप की परख:―इसी प्रकार जीवस्थान का ज्ञान करें। जीवस्थान, जीवसमास जो वादर एकेंद्रिय पर्याप्त अपर्याप्त आदिक 14 प्रकार के बताए गए हैं, उनका ज्ञान होगा तो उनकी हिंसा बचा सकेंगे। इनसे दूर रहें, इनकी हिंसा न करें। मार्गणास्थान भी ज्ञात होना चाहिए। तो इन सब स्थानों को जानकर फिर उसके आरंभ की निवृत्ति का जो परिणाम होता है, उसे अहिंसाव्रत कहते हैं। इन जीवों के भेद जानो। देखिए, प्रयोजनभूत धार्मिक ज्ञान करने के लिए आखिर में सीखने का काम 10 दिन का भी नहीं है, एक घंटे का भी नहीं है, पर हम उस धार्मिक प्रयोजनभूत विद्या को सीख सकें, उस शिक्षा की तैयारी के लिए शिक्षण का काम वर्षों पड़ा हुआ है। जैसे आप पहिले गुणस्थान, मार्गणास्थान के भेद प्रभेद से एक स्थान में सब स्थानों को लेकर परिज्ञान करते हैं, कर जाइये। विदित हो जायेगा कि इस जीव की कैसी-कैसी दशाएं अंतर में हुआ करती हैं और बाहर में हुआ करती हैं। बड़े विस्तार सहित इन स्थानों का परिज्ञान कर चुकने के बाद फिर धीरे से थोड़ा ही समझना होगा कि इन सब स्थानों में जो एक आधार भूत सहजस्वरूप एक शक्ति है, उस शक्ति का नाम जीव है और जो अभी जान रहे हैं―गति, इंद्रिय, काय ये सब जीव नहीं हैं। उन्हें पहिले यह जीव है, ऐसा जानना चाहिये और फिर पश्चात् यह जीव नहीं है, किंतु इन सब स्थानों में एकस्वरूप जो चैतन्यस्वभाव है, यह चैतन्यस्वभाव जीव है, यह जानना चाहिये।
उपचार कथन व प्रतिबोध के उपाय पर एक उदाहरण―जैसे जिस बालक को यह नहीं मालूम है कि घर में रक्खा हुआ मिट्टी का घड़ा जिसमें घी रक्खा है, यह वास्तव में मिट्टी का घड़ा है। घी का नाम तो आधेय की वजह से लिया जाता है, परंतु शुरू से ही सब लोग कहते चले आये हैं कि वह घी का घड़ा है, उठा लावो तो वह उठा लायेगा। यों ही बहुत सी बातें बोलते हैं―तेल की शीशी, पानी का घड़ा, पानी का लोटा, टट्टी का लोटा। बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो किसी प्रयोजन के वश से हैं। है कुछ और उपचार किया जाता है कुछ, पर वे सब बातें परमार्थत: सत्य नहीं है, व्यवहार में सत्य हैं। कोई उसी शब्द को पकड़ ले तो वह कह सकता है कि क्यों तुम झूठ बोलते हो? जैसे उस बालक को जो कि नहीं समझता है कि यह मिट्टी का घड़ा है, घी का नहीं है, उस बालक को समझाने के लिये घर का मुखिया किस तरह समझाता है, यह देखिये―देखो भाई ! जो यह घी का घड़ा है ना, सो वास्तव में घी का नहीं है। घी तो इसका आधेय है। यह वास्तव में मिट्टी का घड़ा है। इन शब्दों में ही तो समझायेगा। इन शब्दों में सबसे पहिले क्या शब्द बोला था―‘‘देखो जो यह घी का घड़ा है ना’’ इस बात को सबसे पहिले बोलना पड़ेगा, जिसका कि पहिले से परिचय चला आ रहा है। बाद में समझाकर उसका निषेध किया जायेगा।
व्यवहारकथन व प्रतिबोध का उपाय―यों ही यह सब जीवपरिणतियों का विस्तार जो व्यंजनपर्यायरूप है अथवा विभावगुणपर्यायरूप है, पहिले इस विस्तार का स्वरूप बताना होगा कि देखो जो यह जीव है ना, सो वास्तव में यह जीवस्वरूप नहीं है, किंतु किसी निमित्त उपाधि के संबंध में ऐसी-ऐसी परिणतियां हुई हैं, इन परिणतियों में एकस्वरूप रहने वाला जो चित्स्वभाव है, वह जीव है। ऐसा समझाने के लिए शुद्ध जीवाधिकार में इन सब कुलयोनियों का वर्णन आया था। यह व्यवहारचारित्र का प्रकरण है। इस कारण परिणति के समय यह सब जानना आवश्यक बताया जा रहा है कि हे मुमुक्षु जनो ! तुम समझो कि जीव इन-इन स्थानों में रहा करता है। उन स्थानों को भेद से जानकर उन जीवों की रक्षा की परिणति होना ही अहिंसा है।
अध्यात्मदृष्टि में हिंसा का हेतु जानने की एक जिज्ञासा―इस विषय में कोई एक शंका कर सकता है कि क्यों जी ! किसी कीड़े को मार डालें तो मरकर वह नया शरीर पा लेगा, उसका बिगाड़ क्या हुआ? अरे ! उस कीड़े का वह बूढ़ा शरीर अब नहीं रहा, अब उसे नया शरीर मिल गया। नये शरीर का रंग-ढंग अपूर्व ही होता है। बिगाड़ क्या हुआ कीड़े मकोड़े मार डालने से? हाँ उन्हें दूसरा शरीर न मिले, दूसरा शरीर पाने के लिये तड़फड़ाते रहें तो हमें दोष देना ऐसी कोई शंका कर सकता है। यह शंका उसकी आध्यात्मिक क्षेत्र में है, इसीलिये समाधान भी आध्यात्मिक दृष्टि से लें।
अध्यात्मदृष्टि से हिंसा के हेतु का प्रकाशन―देखिये यह जीव अनादि काल से निगोद जैसी निष्कृष्ट अवस्था में निवास करता आया है। वहाँ से निकला तो कुछ मोक्षमार्ग के लिये कुछ प्रगति की बात आयी। यद्यपि मोक्षमार्ग का प्रारंभ संज्ञीपंचेंद्रिय जीव से ही होता है, और कहीं मोक्षमार्ग का प्रारंभ नहीं होता, किंतु संसारमहागर्त से, निगोददशा से निकलकर यदि वह दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय जीव बना तो कुछ तो उसकी प्रगति हुई। अब देखिये किसी कीड़े को मारा व मसला तो ऐसी स्थिति से मरने वाले कीड़े को अधिक संक्लेश प्राप्त होगा। यह बात तो सत्य है ना, जिस कीड़े को पीटा जाये व मसला जाये तो उसके संक्लेश तो अधिक होगा। मानों वह तीनइंद्रिय कीड़ा है और वह अधिक संक्लेश से मरा तो मरकर वह एकेंद्रिय का शरीर का पायेगा, निम्न गति में जायेगा। तो देखो ना कि इतनी प्रगति का जीव जरा से तुम्हारे निमित्त से इतनी प्रगति से लौटकर फिर अवनति में चला गया तो बताओ ऐसी अवनति के भव में पहुंचना यह जीव का बिगाड़ है ना? इस आध्यात्मिक दृष्टि से भी जीव की हिंसा करना जीव पर अन्याय करना है।
आंतरिक और व्यावहारिक अहिंसापालन का कर्तव्य―व्यवहार में निर्दयता का परिणाम आये बिना, खुदगर्जी का परिणाम हुए बिना जीवों की हिंसा में यत्न नहीं होता। इसलिये उस हिंसा का परिहार करने के लिये हमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये। जिसके बाह्यहिंसा का त्याग नहीं है, वह आंतरिक हिंसा के त्याग का पात्र नहीं होता है। ऐसे ही जिसके बाह्यचारित्र नहीं होता है, उसके आंतरिक चारित्र भी नहीं होता है। जैसे जिसके बाह्यपरिग्रह का त्याग नहीं होता है, उसके आंतरिक परिग्रह का भी त्याग नहीं होता है। इस कारण हम यथाशक्ति आंतरिकस्वच्छता सदाशय रखकर आंतरिकअहिंसा की वृद्धि में और बाह्यषट्काय के जीवों का घात न करके व्यवहार अहिंसा में प्रयत्नशील रहें।
हिंसा का वास्तविक कारण―हिंसा होने में कारण अपना परिणाम है। जिसका परिणाम प्रमादग्रस्त है, अज्ञानमय है, कषायमय है उसके द्वारा कदाचित् किसी जीव का घात भी न हो तो भी हिंसा लगती रहती है और जिस महाभाग ज्ञानीसंत के परिणामों में निर्मलता है, जीव की हिंसा का भाव ही नहीं होता और चलते फिरते बैठते आदि प्रवृत्तियों के समय सावधानी रहती है, उसके पैर आदिक के द्वारा कोई कुंथु जीव मर भी जाय तो वहाँ हिंसा नहीं होती है। द्रव्यकर्म आत्मा के परिणामों का निमित्त पाकर बंधा करता है। शरीर वचन, काय की चेष्टा के कारण नहीं बंधा करता है। इस कारण हिंसा परिणाम हो तो हिंसा का बंध हुआ करता है।
हिंसा का अनन्वय―कुछ लौकिक दृष्टांत लो। एक डाक्टर किसी मरीज का आपरेशन कर रहा हो, डाक्टर भी बड़ा भला ईमानदार सबकी रक्षा का परिणाम वाला हो, आपरेशन करता है, कदाचित् उस प्रक्रिया में रोगी की मृत्यु हो जाय तो न वहाँ हिंसा का बंध हुआ और न लोक में कोई उसे हिंसक कहता है और एक शिकारी जंगल में गया, किसी पशु पर या पक्षी पर उसने गोली तानी, उससे पहिले ही वह भाग गया, बच गया, तो यद्यपि जीव का घात नहीं हुआ तथापि उस शिकारी को हिंसा का बंध हो गया।
हिंसक एक, बंधक अनेक―देखो परिणामों की विचित्रता कि कोई एक जीव तो हिंसा करता है और हिंसा का बंध बीसों मनुष्य कर लेते हैं। किसी ने कोई बड़ा सांप मार डाला है, अब उसको देखने के लिए बीसों आदमियों का ठट्ठ जुड़ जाता है और वे शाबासी देते हैं वाह किसने मारा, अच्छा मारा। तो द्रव्य हिंसा की केवल एक पुरुष ने किंतु उस हिंसा के निमित्त से बंध हो गया बीसों पुरुषों को।
हिंसा से भी पहिले हिंसाफल की प्राप्ति―देखो―हिंसा करने से पहिले भी हिंसा का फल मिल जाय ऐसी भी स्थिति होती है, हिंसा करे वह पीछे और उसका फल मिल जाय पहिले। किसी मनुष्य ने किसी मनुष्य को या किसी जीव को मारने का संकल्प किया और मारने के घात में रहने लगा और मौका नहीं मिल पाता है। उसको मार नहीं पाता है। 20, 25 वर्ष बाद जब उस मनुष्य को मारने का मौका मिला तो उसने उसकी जान निकाल दी तो हिंसा तो की 25 वर्ष बाद, मगर 25 वर्ष पहिले ही उसके घात का इरादा होने के कारण कर्म बंध गया और कहो 4, 6 वर्ष बाद ही उस कर्म का फल भी भोग ले। हिंसा की बाद में और जिसकी हिंसा की उसकी हिंसा के परिणाम के कारण कर्मबंध पहिले हो गया और उसका फल भी पहिले मिल गया, हिंसा बाद में हुई।
हिंसक अनेक बंधक एक―कहो अनेक जीव हिंसा करें और फल एक जीव ही पाये, ऐसी भी स्थिति होती है। जैसे युद्ध में सेना के द्वारा लाखों आदमियों की हिंसा हुई किंतु हिंसा का बंध हुआ उस एक राजा को। उस राजा के हुक्म से ही सेना ने अपनी ड्यूटी पूरी की। हिंसा का कारण परिणाम है। इसी वजह से किसी जीव की मृत्यु हो अथवा न हो, जिसको जीवघात से दूर रहने का परिणाम नहीं है उसके पापों का परिहार नहीं हो सकता है।
प्राणघात से जीवहिंसा होने के विषय में एक चर्चा―यहाँ आप लोग युक्तिबल से एक शंका कर सकते हैं कि यह बतलावो कि जीव के प्राण जीव से न्यारे हैं या एकमेक हैं? यदि जीव के प्राण जीव से न्यारे हैं तो प्राणों का घात करें खूब, क्या है, जीव तो जुदा है, जीव का तो कुछ बिगड़ता नहीं। जीव से जुदा जो पदार्थ है उस पदार्थ के विध्वंस करने में जीव की हानि क्या है? और जीव के प्राण यदि जीव में एकमेक हों, जीव से न्यारे न हों तो जीव तो अमूर्त है―प्राणघात करें जीव का क्या हर्ज है? न जाने क्या हो गया, जीव का तो घात नहीं हुआ तो उसमें हिंसा न लगनी चाहिए। फिर हिंसा कहां हुई? उसका समाधान यह है कि द्रव्यदृष्टि से, निश्चय दृष्टि से तो जीव के प्राण जीव से न्यारे हैं। जीव ज्ञानानंदस्वरूप है और ये प्राण 5 इंद्रियां, तीन बल, श्वासोच्छवास और आयु―ये परभाव हैं, विकार है, परद्रव्य हैं, ये जीव कैसे हो सकते हैं? इस कारण जीव के प्राण निश्चय से जीव से न्यारे हैं, किंतु व्यवहारदृष्टि से जीव के प्राण जीव से न्यारे नहीं हैं। इस कारण प्राणघात में जीवहिंसा हुई।
व्यवहारहिंसा से हानि पर शंकासमाधान―इस पर शंकाकार यह बात रख सकता है कि निश्चय से जब जीव के प्राण जीव से न्यारे हैं तो निश्चय से तो हिंसा नहीं हुई। व्यवहार से जीव के प्राण जीव में एकमेक हैं तो व्यवहार से ही हिंसा हुई। उसका भी समाधान यह है कि तुम ठीक कह रहे हो। हमें मंजूर है निश्चय से जीव की हिंसा नहीं हुई है और न प्राण ही है तब निश्चय से प्राणघात नहीं हुआ है, व्यवहार से जीव की हिंसा हुई है, क्योंकि निश्चय से तो प्राण है ही नहीं, घात ही क्या हुआ, हिंसा भी कहां हुई? व्यवहार से हिंसा हुई है, किंतु इतनी बात सुनकर मन में यह हर्ष न मानना कि बड़ा अच्छा हुआ। हिंसा व्यवहार से होती है, वास्तव में तो हमें हिंसा नहीं लगती। अरे हिंसा भी व्यवहार से होती है और नरकादिक के दु:ख भी व्यवहार से ही होते हैं। निश्चय से तो जीव का अविनाशी शुद्ध चैतन्यस्वरूप है। तुमको व्यवहार का दु:ख पसंद है क्या? यदि व्यवहार के दु:ख पसंद हों तो व्यवहार की हिंसा करते जाइए, और यदि व्यवहार के दु:ख पसंद न हों तो व्यवहार हिंसा छोड़ दीजिए।
आत्महिंसा―अपने आपके उपयोग को इस अहिंसास्वभावी शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व में न लगाना और इसको छोड़कर अन्य असार अहित भिन्न परवस्तुवों के उपयोग में फंसाना यह अपने आपकी हिंसा है। वस्तुत: कोई जीव किसी दूसरे की हिंसा नहीं करता है, किंतु अपने आपकी हिंसा करते हुए उस पर वस्तु का आश्रय मात्र होता है। हिंसा तो खुद-खुद की ही किया करते हैं। किसी ने किसी जीव को मार डाला तो उसे जो हिंसा हुई है वह परजीव के प्रति निर्दयता के दुष्ट आशय के परिणाम बनाने के कारण हुई है। दूसरे जीव के प्राण अलग हुए हैं इसके कारण नहीं हुई है किंतु यहाँ यह नहीं सोचना है कि दूसरों के घात से तो वास्तव में हिंसा ही नहीं होती तब स्वच्छंद रहें। जीव जब अपने परिणाम से अपने आपके हिंसक हुआ करते हैं तो जीव में हिंसा परिणाम में परजीव परपदार्थ का आश्रय होता है, और जिसे हिंसा का परिणाम नहीं है उसके द्वारा परजीव का घात नहीं हुआ करता है।
महती हिंसा―सबसे बड़ी हिंसा है अनंतानुबंधी क्रोध, अनंतानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया और अनंतानुबंधी लोभ और मिथ्यात्व ये परिणाम इस जीव की प्रबल हिंसा है। मिथ्यात्व नाम अज्ञान भाव का है। अपने आपके स्वरूप का पता न रहे ऐसे अंधकार में इस आत्मप्रभु की निरंतर हिंसा हो रही है। पर इस अज्ञानी को अपने आपकी बरबादी का ध्यान ही नहीं है।
दृष्टांतपूर्वक मिथ्यात्व अजीर्ण मिटे बिना अहिंसा आरोग्य का अभाव―जैसे जब पेट की खराबी के कारण सिरदर्द होता है तो कोई अमृतांजन लगाता, कोई अमृतधारा लगाता, कोई लौंग बांटकर लगाये, कोई सरसों बांटकर थोपे, पर वह तो यह अनुभव करता है कि क्या होता है इन दवाइयों से? जब तक पेट की खराबी न मिटेगी तब तक सिरदर्द नहीं मिटेगा। थोड़ी-थोड़ी चिकित्सावों से मन में कल्पना में थोड़ा शांति का अनुभव होता है पर थोड़ी ही देर बाद फिर वही की वही वेदना। यह तो मन की कल्पना है। कोई आदमी 10 मिनट से सिर दाब रहा हो, बड़ा श्रम कर रहा हो और कोई पूछे कि भाई कुछ दर्द कम हुआ कि नहीं? चूंकि उसकी दृष्टि इस ओर है कि यह 10 मिनट से मेहनत कर रहा है सो वह कहता है कि मुझे दर्द कम मालूम होता है, किंतु अजीर्ण से उत्पन्न हुई शिरोवेदना तो इन दवावों से न मिटेगी। यों ही समझिये कि जब तक इस जीव में मिथ्यात्व का अजीर्ण चल रहा है और उसके कारण जो कुछ लौकिक वेदनाएं हो रही हैं उन लोकवेदनावों का इलाज यह जीव विषयसेवन से, विषयरसपान से, यहाँ वहाँ की थोथी बातों से, उन वैभव के संचय से नाना उपायों को करता हैं किंतु इसका क्लेश तो मोक्षस्वरूप नहीं है। थोड़ी शांति समझते हैं किंतु फिर ज्यों का त्यों दु:खी। तो जब तक यह मिथ्यात्व का अजीर्ण न पचेगा तब तक संसार के क्लेश दूर नहीं हो सकते यह मिथ्यात्व है स्वयं की हिंसा।
अनंतानुबंधी क्रोध से आत्महिंसा―अनंतानुबंधी क्रोध उसे कहते हैं जो मिथ्यात्व का पोषण करे, सम्यक्त्व ही न होने दे। इस क्रोध में अपने आपके स्वरूप को रंच खबर नहीं रहती है। अपने आपसे यह जीव विमुख रहता है। यह जीव कितना अपने आप पर क्रोध किये जा रहा है? यह अपने आपकी कितनी बरबादी का काम है? वह पुरुष महाभाग है जिसको अपने आपके स्वरूप का मान रहता है। दूसरों की गालियां सुनकर हंस सके, समझ सके, यह अज्ञान की चेष्टा है। इस चेष्टा का मुझमें प्रवेश नहीं है―ऐसा दृढ़ आत्मबल कर सके, वह महाभाग अभिनंदनीय और पूज्य है।
अनंतानुबंधी मान से आत्महिंसा―अनंतानुबंधी मान, घमंड का परिणाम ऐसा यत्न है जिसमें अपने आपके स्वरूप की सुधबुध ही न रहे। एकदम बाह्य में दृष्टि है, सब लोग तुच्छ हैं, कुछ नहीं जानते हैं, इनमें हम कुछ विशेष हैं, उत्तम कार्य किया करते हैं, अपने को बड़ा मानना और दूसरों को तुच्छ समझना―ऐसी जिसकी दृष्टि हुई है, उसने अपने आपके स्वरूप का अपमान किया है। दूसरों का अपमान करना, अपने स्वरूप का अपमान है। जीवन में यह गुण तो अवश्य लाओ कि जितना बन सके हम दूसरे का मान ही रक्खा करें, सम्मान ही रक्खा करें, अपमान कभी न करें। निश्चय से समझिये कि जिस दुष्टपरिणाम के कारण दूसरों का अपमान कर दिया जाता है, वह परिणाम इसके स्वरूप का बाधक है। मान न कर सकें तो अपमान भी न करें।
अनंतानुबंधी माया से आत्महिंसा―अनंतानुबंधी माया―ओह, कितनी टेढ़ी मेढ़ी चित्तवृत्ति है कि यह उसे चैन लेने ही नहीं देती है। यत्र तत्र विकल्पजाल मचा करते हैं। मायाचारी पुरुष कभी आराम से रह नहीं पाता है। बहुत दुष्ट वृत्ति है। अपनी सही वृत्ति रखो, सीधा साफ काम रक्खो। अनंतानुबंधी माया ने इस प्रभु आत्मदेव पर महान् प्रहार किया है। यह विश्राम पाने के योग्य भी नहीं रहता है।
अनंतानुबंधी लोभ से आत्महिंसा―अनंतानुबंधी लोभ―धर्म के कार्य में, उपकार के कार्य में लोभ करना, स्वयं लोभ करना और दूसरे धर्म के कार्यों में खर्च करते हों तो वह भी न देखा जा सकना, यह सब अनंतानुबंधी लोभ है। इन वृत्तियों से सार क्या निकाल लिया जायेगा? वैभव हाथ पैर पीटने से नहीं मिलता है, किंतु जो निर्मल परिणाम किया था और वहाँ पुण्यबंध हुआ था, उसके उदय का फल है। हिम्मत नहीं है किसी में अन्यथा करके देख ले कितना भी लोकोपकार में त्याग किया जाये, उसके वैभव में घाटा नहीं हो सकता और कदाचित् त्याग दान करते हुए भी वैभव में घाटा हो जाये तो वहाँ यह निर्णय रखना चाहिये कि इस समय यह घाटा होना था, पुण्योदय को साथ न देना था, अगर दान न करते तो यह बहुत बुरी तरह से नष्ट हो जाता है। इससे भी अधिक घोर विपत्ति आती है या कहो इस वैभव के साथ जान भी चली जाती है। अपना स्वरूप न निहारना और वैभव में दृष्टि का फंसाना―यह अनंतानुबंधी लोभ है। यह सब क्या हम अपने आपकी हिंसा नहीं कर रहे हैं?
अहिंसा की साधना के लिये ज्ञान विज्ञान की आवश्यकता―भैया ! हिंसा से बचने के लिये अध्यात्मज्ञान भी चाहिये और लोक के जीवों के रहने के आवासों का भी ज्ञान चाहिये। कोई पुरुष बड़े-बड़े शास्त्र पढ़कर खूब जान चुका कि इस जगह जीव रहा करते हैं और जीव हिंसा के परिहार के भाव से त्याग भी बनाए हुए है, पर अपने आपके अध्यात्म की कुछ सुध नहीं है तो अंतर में तो महाहिंसा चल रही है और उसके कारण यह संसार का क्लेश दूर नहीं हो सकता। आत्मज्ञान और जीवों के स्थानों का ज्ञान दोनों प्रकार का ज्ञान होने पर फिर प्रयत्न करके जीवों की हिंसा का परिहार करें, इसको अहिंसाव्रत बताया गया। जो अध्यात्मप्रयन्न में तत्पर है और बाह्य में जीवघात से दूर रहने में तत्पर है―ऐसे पुरुष को हिंसा की वृत्ति का अभाव होने से अहिंसाव्रत हुआ करता है।
अहिंसा ब्रह्म―समंतभद्राचार्य ने कुंथुनाथ भगवान् के स्तवन में यह बताया है कि प्राणियों का परमधर्म, परमब्रह्म परमअहिंसा है। अहिंसा वही कहलाती है कि जहां पर अणुमात्र भी आरंभ न हो। अहिंसा महाव्रत वहाँ है, जहां आरंभ नहीं है, परिग्रह नहीं है, विषयों की आशा नहीं है। ज्ञान-ध्यान-तपस्या में ही लीन हैं―ऐसे साधुसंतों के अहिंसा महाव्रत हुआ करता है। साधु जनों का दूसरा नाम है अहिंसा की मूर्ति। चलती फिरती अहिंसा कहो या मुनि कहो एक बात है, पर चलती फिरती अहिंसा केवल भेष के कारण नहीं होती है अथवा देखभालकर चलने, सोधकर चलने में किसी जीव की हिंसा न करें, इनसे भी अहिंसा की मूर्ति नहीं होती। यह तो एक बाह्य साधन है, यह तो होना ही चाहिये, किंतु अपने अंतरात्मा में अहिंसा स्वभावमय निजज्ञायकस्वरूप दृष्टि में हो, उसकी ओर ही उन्मुखता हो, विकल्पजालों से छुटकारा हो―ऐसी वृत्ति को परमार्थअहिंसा कहा करते हैं। ऐसी अहिंसा की मूर्ति साधुजन होते हैं।
नैर्ग्रंथ्य में अहिंसा की साधकता―उस अहिंसा की सिद्धि के लिये हे भगवान् अपने परमकरुणा की ओर बाह्य और आभ्यंतर परिग्रहों का परित्याग किया तथा कोई विकृत भेष न बनाया। अच्छा बताओ साधु बनना चाहिए या होना चाहिए? आप लोग उत्तर दें। साधु होना चाहिए साधु बनता कौन है? जो मुनि हुए हैं साधु हुये हैं उन्होंने अपने को बनाया कुछ नहीं किंतु जब आत्मदृष्टि दृढ़ होती गयी तो घर से प्रयोजन न रहा तो घर छूट गया, वस्त्रों से प्रयोजन न रहा तो वस्त्र छूट गये, कुटुंब से प्रयोजन न रहा तो कुटुंब छूट गया। छूटता-छूटता ही तो गया सब कुछ, पर लगा कुछ नहीं कि चलो चिमटा रख लें, चलो त्रिशूल रख लें, भस्म रमा लें, एक कुटिया बना लें, रखने का लेने का काम कुछ नहीं किया किंतु छोड़ने-छोड़ने का काम किया। छोड़ने-छोड़ने के प्रसंग में भी गात्र तो रहा ही, सो इसी का नाम तो लोगों ने भेष रख लिया।
परिणामों की साधुता से परमार्थसाधुता―भैया ! बनना तो वह कहलाता है कि कुछ सजावट करें, कुछ चीज रक्खें सो नहीं। पिछी, कमंडल, शास्त्र तो उन्हें कुछ परिस्थितियों के कारण रखने पड़े। लोग कहते हैं कि साधु के पास कमंडल और पिछी होना ही चाहिए। न हो कमंडल पिछी तो उसकी साधुता न रहेगी, ऐसा नहीं है। न हो पिछी कमंडल तब भी साधुता रह सकती है। हाँ यह बात है कि वह चल फिर नहीं सकता। बाहुबली स्वामी ने एक वर्ष का योग किया था, कहां पिछी कमंडल गए होंगे, कहां पिछी उड़ गई होगी, कहां कमंडल सरक गया होगा, वे मात्र खड़े ही रहे, तो क्या उनकी साधुता मिट गयी? पिछी की आवश्यकता वहाँ है जहां चलना हो, लेटना हो, बैठना हो और जो न चले न बैठे, लक्कड़ की नाई खड़े-खड़े, पड़े-पड़े, बैठे हुए स्थिर ही ज्ञानयोग का रसपान करता रहे वह तो महा साधु है।
साधु के उपकरणों में मूर्च्छा का अभाव―साधुजन रखता भी है पिछी, कमंडल और शास्त्र, किंतु कोई उसे उठाकर ले जाने लगे तो साधु यह नहीं कहता कि यह तो मेरी पिछी है, तुम क्यों लिए जा रहे हो, यह तो मेरा कमंडल है तुम कहां रखते हो या यह तो मेरी पढ़ने की पुस्तक है तुम्हें कैसे दे दें? यदि यह परिणाम आ जाय थोड़ा तो उसके साधुता नहीं रहती, परिग्रह का दोष आ जाता है।
अहिंसाधर्म का जयवाद―पर से विरक्त, अध्यात्मयोगी, ज्ञानी संत अहिंसा की मूर्ति कहलाता है। हे प्रभो ! आपने यही पंथ अपनाया था। यह पथ, यह अहिंसा पथ त्रस घात के अहंकार से दूर है। सर्व जीवों को सुखदायी है, स्थावर के बंध से भी निवृत्त है, आनंद अमृत से भरा हुआ है, इसी परिणाम का नाम है जैनधर्म। शुद्ध परिणामों को जैनधर्म कहते हैं। यह धर्म, यह अहिंसा महाव्रत सदा जयवंत हो।
पूर्ण अहिंसक व एकदेश अहिंसक―अहिंसा महाव्रत चारों प्रकार की हिंसावों का सर्वथा त्याग करने पर होता है। ये चार हिंसाएं हैं संकल्पी हिंसा, उद्यमी हिंसा, आरंभी हिंसा और विरोधी हिंसा।। इन चारों हिंसावों का पूर्णरूप से त्याग साधुवों के हो जाता है। इन चार हिंसावों में से गृहस्थ संकल्पीहिंसा का सर्वथा त्यागी हो सकता है। शेष तीन हिंसावों का त्याग तो उन गृहस्थों में जैसा पद हो, जैसा वैराग्य हो उसके अनुसार हुआ करता है।
संकल्पी हिंसा―संकल्पी हिंसा कहते हैं इरादतन जीवों का घात करना, शिकार खेलना, किसी दूसरे को सताना, पीड़ा पहुंचाना, जीव हत्यायें करना, ये सब संकल्पी हिंसायें हैं। कसाईखाना खोलना, हिंसा का रोजगार रखना, कोई डाक्टरी सीखने के लिए मेंढक वगैरह चीरना―ये सब संकल्पीहिंसा में हैं। वैसे कुछ लोग यह कहते हैं कि उसमें तो उद्यमी हिंसा होनी चाहिए, क्योंकि आगे उद्यम करेंगे, डाक्टरी सीखेंगे, पैसा आयेगा, तो यह उद्यमी हिंसा होनी चाहिए, किंतु भैया ! उद्यमी हिंसा कहते उसे हैं कि हिंसा बचाते हुए, साक्षात् हिंसा न करते हुए उद्यम करे और फिर उस उद्यम में हमारे बिना जाने जो हिंसा हो जाय वह उद्यमी हिंसा है। यदि इस मेंढक आदि चीरने को उद्यमीहिंसा कहने लगे तो कसाईखाना खोलना, जीवघात करना उसे क्यों न उद्यमीहिंसा में माना जाय? यह सब संकल्पीहिंसा है।
संकल्पीहिंसा का त्यागी श्रावक―श्रावक इरादतन संकल्पीहिंसा को नहीं किया करते हैं, ऐसी परिस्थिति है कि चाहे कितना भी लाभ होता हो, उस लाभ में लोभित होकर श्रावक संकल्पी हिंसा नहीं करता। एक बार की घटना है टीकमगढ़ की। राजा ने सुना कि जैनी पुरुष हिंसा नहीं किया करता, वह बलि नहीं करता है, चींटी तक को भी नहीं मारता। एक बार वही टीकमगढ़ का राजा बग्घी पर सवार हुए चला जा रहा था। रास्ते में कोई जैन मिला। पास ही एक बकरी जा रही थी। तो राजा ने कहा ऐ भाई ! उस बकरी को पकड़कर यहाँ ले आवो। वह उस बकरी को पकड़कर ले आया। राजा ने कहा कि लो यह छुरी है, इस बकरी को अभी काट दो। तो उसने छुरी नहीं ली और राजा के मुकाबले डटकर खड़े होकर कहा कि राजन् यह काम तो एक जैनी से नहीं हो सकता है, चाहे कुछ भी दंड दें, किंतु जैनी से छुरी नहीं उठ सकती है किसी जीव को मारने के लिए। तो वह प्रसन्न हुआ और कहा कि ठीक है, जैन श्रावक बड़े दयालु होते हैं।
उद्यमीहिंसा―दूसरी हिंसा है उद्यमीहिंसा। उद्यम कर रहे हैं। उद्यम वह करना चाहिए जो हिंसा वाला उद्यम न हो। जैसे जूतों की दूकान, घी की फर्म, शक्कर की दूकान, हलवायी की दूकान, यहाँ तक कि लोहे तक का काम भी उसी में शामिल सुना गया है। तो कुछ रोजगार तो हिंसाकारक हैं उनको करना नहीं, जो सही रोजगार हैं उन्हें करें और उसमें भी जीवों की रक्षा का यत्न बनाये रहें, फिर भी कदाचित् कोई जीव मर जाय तो वह उद्यमीहिंसा कहलाती है।
आरंभी हिंसा―तीसरी हिंसा है आरंभी हिंसा। रोटी बनाते में, चक्की चलाते में, कूटने में, पानी भरने में जो घर गृहस्थी के कार्य हैं उनमें सावधानी रखते हुए भी कभी किसी जीव की हिंसा हो जाय तो वह है आरंभी हिंसा।
चौथी हिंसा है विरोधी हिंसा। कोई सिंह, कोई दुष्ट डाकू आदिक अपनी जान लेने आये या अपना सर्वस्व धन लूटने आये या अपने आश्रित अन्य जनों पर कोई आक्रमण करे तो उसका मुकाबला करने में यदि उसकी हिंसा भी हो जाय, घात हो जाय तो उसे विरोधी हिंसा कहा गया है। बिना प्रयोजन सांप, बिच्छू, ततैया इनको मार डालना यह विरोधी हिंसा नहीं है, यह तो संकल्पी हिंसा है। साधुजन चारों प्रकार की हिंसावों के त्यागी होते हैं। गृहस्थजन एक संकल्पीहिंसा के तो त्यागी होते ही हैं―शेष तीन हिंसावों के वे यथापद, यथा वैराग्य त्यागी हुआ करते हैं।
हिंसारहित भोजन की भक्ष्यता―भैया ! भोजन विधि में सबसे प्रधान लक्ष्य रक्खा जाता है कि जीवहिंसा न हो। देखभाल कर चौका धोना और सब चीजें मर्यादित शुद्ध होना, दिन में ही बनाना, दिन में ही खाना―ये सब अहिंसा की प्रवृत्तियां हैं। कोई मनुष्य चीज तो अशुद्ध खाये और उस अशुद्ध जीव के खाने के पाप को छिपाने के लिए छुवाछूत अधिक बढ़ा दे तो वह धर्मविधि में योग्य नहीं कहा है। छुवाछूत की सर्वाधिक बीमारी उस देश से शुरू होती है जहां ऐसे विशिष्ट जाति के लोग हो गए जो मांसभक्षण खूब करते हैं और मछलियां या मांसादिक रसोई में बनाते हैं और खाते हैं और करते क्या हैं कि उस रसोई पर किसी मनुष्य की छाया भी पड़ जाय तो कहते हैं कि नापाक हो गया है। बहुत बचते हैं। सर्वाधिक छुवाछूत उनमें है तो अभक्ष्य खाते हैं और बचते बहुत हैं। हालांकि बचना चाहिए, स्वच्छंद न होना चाहिए। छुवाछूत भी भोजन के प्रकरण में कुछ दर्जे तक ठीक ही है, किंतु उससे अधिक दृष्टि डालनी चाहिये भोजन की शुद्धता में। जिसमें हिंसा न हो, भक्ष्यपदार्थ मर्मादित हो वह भोजन युक्त है।
रात्रिभोजनत्याग की प्रधानता―साधुव्रत में कहीं-कहीं 6 व्रत लिख दिये गये हैं। 5 तो ये महाव्रत और एक रात्रिभोजन त्याग, यह साधुओं के लिये लिखा गया है। वहाँ ऐसी शंका नहीं करनी है कि रात्रिभोजन त्याग साधुओं के लिये बताया है तो उससे पहिले रात्रिभोजन श्रावक करते होंगे। तो यह मंशा नहीं है। कोई भी मनुष्य श्रावक हुए बिना, प्रतिमा धारण किए बिना सीधा भी साधु हो सकता है। ऐसे साधु पुरुषों को उनकी चर्या बतानी है तो 5 महाव्रतों के साथ रात्रिभोजन त्याग भी षष्ठ व्रत बताया है। रात्रिभोजन का जहां त्याग नहीं होता, वहाँ अहिंसाव्रत की पूर्ति नहीं हो सकती।
रात्रिभोजनत्याग के लाभ―रात्रिभोजन त्याग में अनेक गुण हैं। पहिली बात तो वैद्य लोग जानते होंगे कि ये स्वास्थ्य के लिये लाभदायक है। रात्रि के समय में भोजन में भी कुछ ऐसी त्रुटि आ जाती है प्रकृत्या कि वह सुपच नहीं होता है। दूसरे रात्रि के भोजन के बाद सोने का समय जल्दी आ जाता है, इस कारण भी सुपच नहीं होता। और मुख्य बात तो यह है कि रात्रि में जीवों का संचार अधिक होता है, दिन के प्रकाश में नहीं होता। कोई बादल भी छाया हो तो भी जो बचा हुआ प्रकाश है, उस प्रकाश में भी जीव नहीं होते और रात्रि में जीव बहुत उड़ते हैं। रात्रि में उजेला करो तो जीवराशि वहाँ और अधिक आ जाती है। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ा लाभ एक और भी यह है कि जिसके रात्रिभोजन का त्याग है, उसे रात्रि के समय धर्मध्यान करने के लिये अधिक अवसर मिल सकता है। अब जो रात्रि को व्यालू करते हैं उनका दिन भी झंझट में गया, और रात्रि का भी बहुभाग झंझट में चला जाता है। आप देखो ना कि शाम के समय शास्त्रसभा होती है या कोई धर्मसभा होती है तो जैनों को अड़चन नहीं मालूम होती है, क्योंकि रात्रि में खाते ही नहीं। उन्हें कुछ नहीं सोचना पड़ता है। आये और सभा में शामिल हो गये। यदि रात्रि में खाते होते तो रात्रि का टाइम बदलते या प्रार्थना करते कि महाराज 10 बजे का टाइम रक्खो। कितने ही गुण हैं रात्रिभोजन त्याग से। फिर एक मन की शुद्धता बढ़ती है। इससे यह बहुत डटकर कहा गया है कि अहिंसाव्रत पालन करने वाले को रात्रि का भोजन का त्याग तो होना ही चाहिये। अब बतलावो कोई संप्रदायों में साधु और संन्यासी तो हो जाते हैं और रात्रि की व्यालू चलती है। तब बतलावो अहिंसाव्रत कहां पला? अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए रात्रिभोजन का त्याग होना अत्यंत आवश्यक है।
बेकारी में हिंसाभाव की प्रचुरता―एक और बहुत कर्तव्य वाली यह बात है कि जिसको अपने परिणाम निर्मल रखने हों और परिणामों की निर्मलता में ही अहिंसाव्रत पलता है―ऐसे पुरुष अपने पद के अनुसार अहिंसा का बचाव करते हुए किसी न किसी कर्तव्य कार्य में लगे रहें। बेकारी से बढ़कर दुश्मन और कोई नहीं होता। नीतिकारों ने कहा है कि ‘को बैरी? नन्वनुद्योग:।’ बैरी कौन है? जो कोई उद्योग न करे। बेकारी में आत्मघातक हिंसा परिणाम बहुत होते हैं।
व्यावहारिक कर्तव्य का पालन―अभी गृहस्थ श्रावक धर्म के नाम पर त्याग व्रत तो ले लें और जहां तक उनका परिणाम विशेष निर्मल होने का पद नहीं है, परिग्रह का जहां त्याग नहीं है, परिग्रह का संबंध है और उद्योग छोड़ दें, कमाई छोड़ दें समर्थ होते हुए भी, तो ऐसे पुरुषों के परिणामों में निर्मलता नहीं जगती, क्योंकि बेकार हैं तो पचासों कल्पनाएं जगती हैं और विवाद हो जाते हैं, विडंबनाएं हो जाती हैं। बेकार रहते हुए में पचासों विसम्वाद हो जाते हैं और फिर देखो कि 7-8 प्रतिमा तक तो उनका यह नियम है कि मुनि क्षुल्लक आदि किसी पात्र को प्रतिदिन भोजन कराकर ही भोजन करेंगे, यह उन्होंने व्रत लिया है। बारह व्रतों में अतिथिसम्विभाग व्रत भी है। तो व्रत तो ले लिया और जीवनभर पले नहीं तो ऐसी दिशा क्यों अपनाई जाती है? दूसरी बात है कि जिसने शुद्ध खाने का नियम लिया और साधुओं को आहार कराकर ही खाने का नियम किया, वे तो एक दिन भी साधु की पूछ नहीं कर सकते, समाज पर सारभूत बन जाते और शेष आदमी जो अव्रती हैं, जिन्हें शुद्ध भोजन की आदत भी नहीं है और कभी बनाएं तो अड़चन पड़ जाये तो बताओ व्यवहार तीर्थ पर कुल्हाड़ी चलाई या नहीं? खूब सोचने की बात है।
परिग्रहत्यागप्रतिमा से पहिले जीवनोपयोगी कर्तव्य―कायदे की बात यह है कि घर में ही रहें, उद्यम करें, कमायें और खायें। जो कुछ कमायी होती हो उसी में गुजारा चलायें। जब तक परिग्रह का पूर्ण त्याग न हो जाये, 9 वीं प्रतिमा जब तक नहीं हो जाती है, तब तक नि:शंक होकर मन में निर्णय रखकर पर घर का भोजन नहीं बताया गया है। कोई निमंत्रण करे भक्तिपूर्वक तो वह बात अलग है, पर जो अपने उद्देश्य में कोई भोजन बनाना रखे ही नहीं है, उसका निमंत्रण ही क्या? निमंत्रण उसका होता है कि यदि कोई निमंत्रण न करे तो वह रसोई बनाना शुरू कर दे। निमंत्रण उनका हुआ करता है, जिनका निमंत्रण न करने पर फिर आपको भोजन कराने के लिये वह पात्र न मिल सके, वह अपना भोजन बनाना शुरू कर दे।
कितनी ही बातें ऐसी हैं कि जो एक बहुत मर्म को लिये हुए हैं। कैसे परिणाम निर्मल रख सकें, किस पद में क्या करना चाहिये? पद से बहुत आगे बढ़कर बात यदि छोटे पद में की जाती है तो उसका भी परिणाम ठीक नहीं निकलता और जिस पद में हैं, उस पद के योग्य कर्तव्य नहीं किया जाता तब भी उसका परिणाम ठीक नहीं निकलता। गृहस्थ संकल्पी हिंसा का सर्वथा त्यागी है। शेष तीन हिंसाओं का यथापद में वह त्यागी हुआ करता है।
असत्यवादन में हिंसा―भैया ! अहिंसा को देवता बताया है और पूछो तो धर्म एक हैं अहिंसा। पाप एक है हिंसा। पाप 5 नहीं हैं। झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये भी हिंसा में आते हैं, किंतु लौकिक जनों को शीघ्र समझने के लिये भेद करके 5 कह दिये गये हैं। अन्यथा देख लो कि कोई झूठ बोलता है, निंदा करता है, झूठी गवाही देता है तो उसने हिंसा की हैं या नहीं, बताओ? हिंसा हुई। अपना परिणाम बिगाड़ा और दूसरे को क्लेश उत्पन्न करने का निमित्त बना। झूठ बोलना हिंसा है, इसलिये झूठ पाप है। यदि हिंसा न हो तो झूठ पाप नहीं है। पर क्या है कोई ऐसा झूठ कि जिसके बोलने पर हिंसा न हो? कदाचित् ऐसा भी झूठ बोलने में आये कि किसी भी जीव का उसमें नुकसान नहीं है। जीव का घात बच जाता है तो ऐसा झूठ बोलना भी पाप में शामिल नहीं किया गया है। मर्म जानना चाहिये, मर्म है अहिंसा।
चौर्यप्रवृत्ति में हिंसा―चोरी भी हिंसा है। अंतरंग पाप तो यहाँ अपने परिणाम अपने स्वरूप से विपरीत बनायें और फिर जिसके धन को हरा, उसको कितनी चोट पहुंचायी, उसे कितना संक्लेश करना पड़ा? चोरी भी कितना पाप है? चोरी से हिंसा हुई, इस कारण पाप है। कोई कहे कि अच्छा हम ऐसी चोरी करते हैं कि जिसमें हिंसा न हो। तो ऐसी कोई चोरी ही नहीं है कि जिसमें हिंसा न लगे। शायद चीज चुराने वाले लोग सोचते होंगे कि हम तो सच्चाई से रहते हैं, हिंसा हम नहीं करते। बताओ किस जीव का हमने घात किया, किंतु चोरी करते हुए में जो परिणामों में जो मलिनता आई, शंका हुई, भय बना, यही तो हिंसा है। कुत्ता यदि रसोईघर में से दो रोटी छिपकर चुरा लाये तो उसकी सूरत देखो कि कैसी हो जाती है? पूंछ दबाकर रोटी को मुख में रखकर चुपके से निकल जाता है और अकेले में जाकर खाता है। किसी कुत्ते को आप बुलाकर दो रोटियां दे दें तो पूंछ हिलाकर जरा प्रेम जाहिर करके निर्भयता से बड़े आराम से खाता है। तो इस बात को समझने वाले तो जीव-जंतु भी हैं। क्या हम नहीं जानते हैं कि अमुक काम में पाप है। पाप केवल हिंसा को कहते हैं। हिंसा हो तो वह पाप है। चोरी में भी हिंसा है―अंतरंग हिंसा और बहिरंग हिंसा।
कुशीलसेवन में हिंसा―कुशील सेवन भी पाप है, क्योंकि इसमें भी हिंसा है। अंतरंग हिंसा में तो अपने स्वरूप को भूल गया, धर्मकर्म की बात को भूल गया और एक मलिन आशय में आ गया, सो यह अंतरंग हिंसा तो हुई किंतु उस कुशील सेवन में एक बार के सेवन में बताते हैं कि न जापे कितने लाख जीवों का विध्वंस हो जाता है? द्रव्यहिंसा भी वहाँ यह हुई। दूसरा कोई नाक छिनके तो कितना बुरा लगता है और अपनी नाक को खुद छिनके तो अपने को उतना बुरा नहीं लगेगा, क्योंकि वह अपनी वासना से अटकी हुई बात है। निष्पक्षता से कोई देखे तो स्त्रीसेवन में कितनी मलिनता, गंदगी, अपवित्रता है, हिंसा की बात तो अलग है। न जाने कितनी हिंसा होती है और फिर घंटों मूरख बनकर भी तो रहते हैं। कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है, मूढ़ बन जाते हैं, परस्पर में अटपट वचनालाप होने लगता है, विवेक उसमें कुछ नहीं रहता है। वहाँ तो हिंसा ही हिंसा है।
परिग्रहतृष्णा में हिंसा―परिग्रह का लोभ―इसको तो कहते हैं कि लोभ पाप का बाप बखाना। यह तो हिंसा है ही कि रात दिन परिणाम मलिन होते हैं, आत्मा से विमुख रहते हैं। इतना जोड़ना है, जोड़ते हुए यों ही गुजर जाते हैं।
चार चोर कहीं से दो लाख का माल चुरा लाये और रात के तीन बजे एक जगह जंगल में जा बैठे। सलाह की कि जिंदगी में यह पहिला ही मौका है जो इतना धन हाथ लगा है, अब तो सारी जिंदगी सुख से ही कटेगी। एक काम करें कि पहिले दो जने चले जाओ शहर और बढ़िया मिठाई लाओ, खूब खावेंगे। जब छक जायेंगे तब फिर आनंद से इस धन को बाटेंगे। दो आदमी गये मिठाई लेने, दो रह गये धन की रक्षा करने को। अब मिठाई लाने वालों के मन में आया कि हम ऐसा करें कि इस मिठाई में विष मिला दें, वे दोनों खाकर मर जायेंगे, फिर हम दोनों प्रेम से एक-एक लाख बांट लेंगे। इधर धन की रक्षा करने वालों ने सोचा कि अपन दोनों ऐसा करें कि उनके आने पर बंदूक से मार दें, फिर अपन एक-एक लाख रुपये बांट लेंगे। अब वे विष मिलाकर मिठाई लेकर आये तो दोनों को दूर से ही बंदूक से मार दिया। वे दोनों तो मर गये। अब वे दोनों पहिले प्रेम से लाई हुई मिठाई खाने लगे, दोनों मिठाई खाकर मर जाते हैं और सारा धन वही पड़ा रह गया। परिग्रह में परिणाम कितने मलिन होते हैं?
अहिंसाब्रह्म की उपासना समृद्धि लाभ का अमोघ उपाय―ये सर्वपाप हिंसामयी हैं, आपको नहीं दिखता है ऊपर से। आप तो जानते हैं कि हम सोना, चाँदी, रत्न, जवाहरात इनका रोजगार कर रहे हैं। ठीक है, करते हो, करना चाहिये, पर तृष्णा में डूबना उसके ही स्वप्न रात दिन बनाये रहना यह तो इसकी साक्षात् हिंसा हो रही है। व्रत है तो एक अहिंसा का। धर्म है तो एक अहिंसा का। इस अहिंसा को ब्रह्म संज्ञा दी है। अहिंसा ब्रह्म है, इस अहिंसा का आदर किये बिना, इसकी उपासना किये बिना, यथाशक्ति अहिंसापथ पर चले बिना इस जीव को शांति नहीं प्राप्त हो सकती है। इस कारण सर्व यत्न करके इस अहिंसाव्रत का पालन करें और एतदर्थ सम्यग्ज्ञान बनावें। ज्ञान ही सर्वसमृद्धियों के मिलने का साधन है।