दर्शन उपयोग 4
From जैनकोष
- दर्शनोपयोग सिद्धि
- आत्म ग्रहण अनध्यवसाय रूप नहीं है
धवला 1/1,1,4/148/3 सत्येवमनध्यवसायो दर्शनं स्यादिति चेन्न, स्वाध्यवसायस्थानध्यवसितबाह्यार्थस्य दर्शनत्वात् । दर्शनं प्रमाणमेव अविसंवादित्वात्, प्रभास: प्रमाणं चाप्रमाणं च विसंवादाविसंवादीभयरूपस्य तत्रोपलंभात् ।=प्रश्न–दर्शन के लक्षण को इस प्रकार का (सामान्य आत्म पदार्थ ग्राहक) मान लेने पर अनध्यवसाय को दर्शन मानना पड़ेगा ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, बाह्यार्थ का निश्चय न करते हुए भी स्वरूप का निश्चय करने वाला दर्शन है, इसलिए वह अनध्यवसायरूप नहीं है। ऐसा दर्शन अविसंवादी होने के कारण प्रमाण ही है। और अनध्यवसायरूप जो प्रतिभास है वह प्रमाण भी है और अप्रमाण भी है, क्योंकि उसमें विसंवाद और अविसंवाद दोनों पाये जाते हैं। (‘कुछ है’ ऐसा अनध्यवसाय निश्चयात्मक या अविसंवादी है और ‘क्या है’ ऐसा अनध्यवसाय अनिश्चयात्मक या विसंवादी है)। - दर्शन के लक्षण में ‘सामान्य‘ पद का अर्थ आत्मा ही है
धवला 1/1,1,4/147/3 तथा च ‘जं सामण्णं गहणं तं दंसण’ इति वचनेन विरोध: स्यादिति चेन्न, तत्रात्मन: सकलबाह्यार्थसाधारणत्वत: सामान्यव्यपदेशभाजो ग्रहणात् ।=प्रश्न–उक्त प्रकार से दर्शन और ज्ञान का स्वरूप मान लेने पर अंतरंग सामान्य विशेष का ग्रहण दर्शन, बाह्य सामान्य विशेष का ग्रहण ज्ञान (देखें दर्शन - 2.3,4) ‘वस्तु का जो सामान्य ग्रहण होता है उसको दर्शन कहते हैं’ परमागम के इस वचन के साथ (देखें दर्शन - 1.3.2) विरोध आता है ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि, आत्मा संपूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारण रूप से पाया जाता है (अर्थात् सर्व पदार्थ प्रतिभासात्मक है), इसलिए उक्तवचन में सामान्य संज्ञा को प्राप्त आत्मा का ही सामान्य पद से ग्रहण किया है। ( धवला 1/1,1,131/380/5 ); ( धवला 7/2,1,56/100/7 ); ( धवला 13/5,5,85/354/11 ); ( कषायपाहुड़ 1/1-20/329/360/3 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/44/191/6 )–(विशेष देखें दर्शन - 2.3,4)। - सामान्य शब्द का अर्थ निर्विकल्प रूप से सामान्यविशेषात्मक ग्रहण है
धवला 1/1,1,4/147/4 तदपि कथमवसीयत इति चेन्न, ‘भावाणं णेव कट्ठु आयारं’ इति वचनात् । तद्यथा भावानां बाह्यार्थानामाकारं प्रतिकर्मव्यवस्थामकृत्वा यद्ग्रहणं तद्दर्शनम् । अस्यैवार्थस्य पुनरपि दृढ़ीकरणार्थं, ‘अविसेसिऊण उट्ठे’ इति, अर्थानविशेष्य यद् ग्रहणं तद्दर्शनमिति। न बाह्यार्थगतसामान्यग्रहणं दर्शनमित्याशंकनीयं तस्यावस्तुन: कर्मत्वाभावात् । न च तदंतरेण विशेषो ग्राह्यत्वमास्कंदतीत्यतिप्रसंगात् । प्रश्न–यह कैसे जाना जाये कि यहाँ पर सामान्य पद से आत्मा का ही ग्रहण किया है ? उत्तर–ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, ‘पदार्थों के आकार अर्थात् भेद को नहीं करके’ सूत्र में कहे गये इस वचन से उक्त कथन की पुष्टि होती है। इसी को स्पष्ट करते हैं, भावों के अर्थात् बाह्य पदार्थों के, आकाररूप प्रति कर्म व्यवस्था को नहीं करके, अर्थात् भेदरूप से प्रत्येक पदार्थ को ग्रहण नहीं करके, जो (सामान्य) ग्रहण होता है, उसको दर्शन कहते हैं। फिर भी इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिए सूत्रकार कहते हैं (देखें दर्शन - 1.3.2) कि ‘यह अमुक पदार्थ है, यह अमुक पदार्थ है’ इत्यादि रूप से पदार्थों की विशेषता न करके जो ग्रहण होता है, उसे दर्शन कहते हैं। इस कथन से यदि कोई ऐसी आशंका करे कि बाह्य पदार्थों में रहने वाले सामान्य को ग्रहण करना दर्शन है, तो उसकी ऐसी आशंका करनी भी ठीक नहीं है, क्योंकि विशेष की अपेक्षा रहित केवल सामान्य अवस्तुरूप है, इसलिए वह दर्शन के विषयभाव को नहीं प्राप्त कर सकता है। उसी प्रकार सामान्य के बिना केवल विशेष भी ज्ञान के द्वारा ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि, अवस्तुरूप केवल सामान्य अथवा केवल विशेष का ग्रहण मान लिया जाये तो अतिप्रसंग दोष आता है। (और भी देखें दर्शन - 2.3)। - सामान्य विशेषात्मक आत्मा केवल सामान्य कैसे कहा जा सकता है
कषायपाहुड़ 1/1-20/329/360/4 सामण्णविसेसप्पओ जीवो कधं सामण्णं। ण असेसत्थपयासभावेण रायदोसाणमभावेण य तस्स समाणत्तदंसणादो। =प्रश्न–जीव सामान्य विशेषात्मक है, वह केवल सामान्य कैसे हो सकता है ? उत्तर–1. क्योंकि, जीव समस्त पदार्थों को बिना किसी भेद-भाव के जानता है और उसमें राग-द्वेष का अभाव है, इसलिए जीव में समानता देखी जाती है। ( धवला 13/5,5,85/355/1 )। द्रव्यसंग्रह टीका/44/191/8 आत्मा वस्तुपरिच्छितिं कुर्वन्निदं जानामीदं न जानामीति विशेषपक्षपातं न करोति; किंतु सामान्येन वस्तु परिच्छिनत्ति, तेन कारणेन सामान्यशब्देन आत्मा भण्यते। =वस्तु का ज्ञान करता हुआ जो आत्मा है वह ‘मैं इसको जानता हूँ’ और ‘इसको नहीं जानता हूँ’, इस प्रकार विशेष पक्षपात को नहीं करता है किंतु सामान्य रूप से पदार्थ को जानता है। इस कारण ‘सामान्य’ इस शब्द से आत्मा कहा जाता है।
धवला 1/1,1,4/147/4 आत्मन: सकलबाह्यार्थसाधारणत्वत: सामान्यव्यपदेशभाजा। =आत्मा संपूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारण रूप से पाया जाता है, इसलिए ‘सामान्य’ शब्द से आत्मा का व्यपदेश किया गया है। धवला 7/2,1,56/100/5 ण च जीवस्स सामण्णत्तमसिद्धं णियमेण विणा विसईकयत्तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जओवचियबज्झंतरंगाणं तत्थ सामणत्ताविरोहादो। =जीव का सामान्यत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि नियम के बिना ज्ञान के विषयभूत किये गए त्रिकाल गोचर अनंत अर्थ और व्यंजन पर्यायों से संचित बहिरंग और अंतरंग पदार्थों का, जीव में सामान्यत्व मानने में विरोध नहीं आता। - दर्शन सामान्य के अस्तित्व की सिद्धि
धवला 7/2,1,56/ पृष्ठ/पंक्ति ण दंसणमत्थि विसयाभावादो। ण वज्जत्थसामण्णग्गहणं दंसणं, केवलदंसणस्साभावप्पसंगादो। कुदो। केवलणाणेण तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जयसरूवस्स सव्वदव्वेसु अवगएसु केवलदंसणस्स विसयाभावा (96/8)। ण चासेसविसेग्गाही केवलणाणं जेण सयलत्थसामण्णं केवलदंसणस्स विसओ होज्ज। (97/1) तम्हा ण दंसणमत्थि त्ति सिद्धं (97/10)।
एत्थ परिहारो उच्चदे-अत्थि दंसणं, अट्ठकम्मणिदेसादो। ...ण चासंते आवरणिज्जे आवयरमत्थि, अण्णत्थतहाणुवलंभादो। ...ण चावरणिज्जं णत्थि, चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओहिदंसणी खवोसमियाए, केवलदंसणी खइयाए लद्धीए त्ति तदत्थिपटुप्पायणजिणवयणदंसणादो–(98/1)। एओ मे सस्सदो अप्पा णाणदंसण लक्खणो।16। इच्चादि उवसंहारसुत्तदंसणादो च (98/10)।
आगमपमाणेण होदु णाम दंसणस्स अत्थित्तं, ण जुत्तीए च। ण, जुत्ती हि आमस्स बाहाभावादो। आगमेण वि जच्चा जुत्ती ण बाहिज्ज त्ति चे। सच्चं ण बाहिज्जदि जच्चा जुत्ती, किंतु इमा बाहिज्जदि जच्चदाभावादो। तं जहा–ण णाणेण विसेसो चेव घेप्पदि सामण्णविसेसप्पयत्तणेण पत्तजच्चंतरदव्वुवलंभादो (98/10)। ण च एवं संते दंसणास्स अभावो, वज्झत्थे मोत्तूण तस्स अंतरंगत्थे वावारादो। ण च केवलणाणमेव सत्तिदुवसंजुत्तत्तादो बहिरंतरंगत्थपरिच्छेदयं, ...तम्हा अंतरंगोवजोगादो बहिरंगुवजोगेण पुधभूदेण होदव्वमण्णहा सव्वण्हुत्ताणुववत्तीदो। अंतरंगबहिरंगुवजोगसण्णिददुसत्तीजुत्तो अप्पा इच्छिदव्वो। ‘जं सामण्णं ग्गहणं...’ ण च एदेण सुत्तेणेदं वक्खाणं विरुज्झदे, अप्पत्थम्मि पउत्तसामण्णसद्दग्गहणादो। (99/7)।
होदु णाम सामण्णेण दंसणस्स सिद्धी, केवलदंसणस्स सिद्धी च, ण सेस दंसणाणं। (100/6)। =प्रश्न–दर्शन है ही नहीं, क्योंकि, उसका कोई विषय नहीं है। बाह्य पदार्थों के सामान्य को ग्रहण करना दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा मानने पर केवलदर्शन के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। इसका कारण यह है कि जब केवलज्ञान के द्वारा त्रिकाल गोचर अनंत अर्थ और व्यंजन पर्याय स्वरूप समस्त द्रव्यों को जान लिया जाता है, तब केवल दर्शन के (जानने के) लिए कोई विषय ही (शेष) नहीं रहता। यह भी नहीं हो सकता कि समस्त विशेषमात्र का ग्रहण करने वाला ही केवलज्ञान हो, जिससे कि समस्त पदार्थों का सामान्य धर्म दर्शन का विषय हो जाये (क्योंकि इसका पहले ही निराकरण कर दिया गया–देखें दर्शन - 2.3) इसलिए दर्शन की कोई पृथक् सत्ता है ही नहीं यह सिद्ध हुआ ? उत्तर–1. अब यहाँ उक्त शंका का परिहार करते हैं। दर्शन है, क्योंकि सूत्र में आठकर्मों का निर्देश किया गया है। आवरणीय के अभाव में आवरण हो नहीं सकता, क्योंकि अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता। ( कषायपाहुड़ 1/1-20/327/359/1 ) (और भी–देखें अगला शीर्षक )। 2. आवरणीय है ही नहीं, सो बात भी नहीं है, ‘चक्षुदर्शनी’, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी क्षायोपशमिक लब्धि से और केवलदर्शनी क्षायिक लब्धि से होते हैं ( षट्खंडागम 7/2,1/ सूत्र 57-59/102,103)। ऐसे आवरणीय के अस्तित्व का प्रतिपादन करने वाले जिन भगवान् के वचन देखे जाते हैं। तथा–‘ज्ञान और दर्शन लक्षण वाला मेरा एक आत्मा ही शाश्वत है’ इस प्रकार के अनेक उपसंहारसूत्र देखने से भी यही सिद्ध होता है, कि दर्शन है। प्रश्न 2–आगमप्रमाण से भले ही दर्शन का अस्तित्व हो, किंतु युक्ति से तो दर्शन का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता ? उत्तर–होता है, क्योंकि युक्तियों से आगम को बाधा नहीं होती। प्रश्न–आगम से भी तो उत्तम युक्ति की बाधा नहीं होनी चाहिए ? उत्तर–सचमुच ही आगम से उत्तम युक्ति की बाधा नहीं होती, किंतु प्रस्तुत युक्ति की बाधा अवश्य होती है, क्योंकि वह (ऊपर दी गयी युक्ति) उत्तम युक्ति नहीं है। 3. वह इस प्रकार है–ज्ञान द्वारा केवल विशेष का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि सामान्य विशेषात्मक होने से ही द्रव्य का जात्यंतर स्वरूप पाया जाता है (विशेष देखें दर्शन - 2.3,4)। 4. इस प्रकार आगम और युक्ति दोनों से दर्शन का अस्तित्व सिद्ध होने पर उसका अभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि दर्शन का व्यापार बाह्य वस्तु को छोड़कर अंतरंग वस्तु में होता है। (विशेष देखें दर्शन - 2.2)। 5. यहाँ यह भी नहीं कर सकते कि केवलज्ञान ही दो शक्तियों से संयुक्त होने के कारण, बहिरंग और अंतरंग दोनों वस्तुओं का परिच्छेदक है (क्योंकि इसका निराकरण पहले ही कर दिया जा चुका है) (देखें दर्शन - 5.9)। 6. इसलिए अंतरंग उपयोग से बहिरंग उपयोग को पृथक् ही होना चाहिए अन्यथा सर्वज्ञत्व की उपपत्ति नहीं बनती। अतएव आत्मा को अंतरंग उपयोग और बहिरंग उपयोग ऐसी दो शक्तियों से युक्त मानना अभीष्ट सिद्ध होता है (विशेष देखें दर्शन - 2.6)। 7. ऐसा मानने पर ‘वस्तुसामान्य का ग्राहक दर्शन है’ इस सूत्र से प्रस्तुत व्याख्यान विरुद्ध भी नहीं पड़ता है, क्योंकि उक्तसूत्र में ‘सामान्य’ शब्द का प्रयोग आत्म पदार्थ के लिए हो किया गया है (विशेष देखें दर्शन - 4.2-4)। प्रश्न 8–इस प्रकार से सामान्य से दर्शन की सिद्धि और केवलदर्शन की सिद्धि भले हो जाये, किंतु उससे शेष दर्शनों की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि (सूत्रवचनों में उनकी प्रारूपणा बाह्यार्थ विषयक रूप से की गयी है)। उत्तर–(अन्य दर्शनों की सिद्धि भी अवश्य होती है, क्योंकि वहाँ की गयी बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा भी वास्तव में अंतरंग विषय को ही बताती है–देखें दर्शन - 5.3)। - दर्शनावरण प्रकृति भी स्वरूपसंवेदन को घातती है
धवला 6/1,9-1,16/32/6 कधमेदेसिं पंचण्हं दंसणावरणववएसो। ण, चेयणमवहरंतस्स सव्वदंसणविरोहिणो दंसणावरणत्तपडिविरोहाभावा। किं दर्शनम् ? ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविषयोपयोग इत्यर्थ:। =प्रश्न–इन पाँचों निद्राओं को दर्शनावरण संज्ञा कैसे है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, आत्मा के चेतन गुण को अपहरण करने वाले और सर्वदर्शन के विरोधी कर्म के दर्शनावरणत्व के प्रति कोई विरोध नहीं है। =प्रश्न–दर्शन किसे कहते हैं ? उत्तर–ज्ञान को उत्पादन करने वाले प्रयत्न से संबद्ध स्व-संवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं। धवला 7/5,5,85/355/2 एदासिं पंचण्णपयडीणं बहिरंतरंगत्थगहणपडिकूताणं कधं दंसणावरणसण्णा दोण्णमावारयाणमेगावारयत्तविरोहादो। ण, एदाओ पंच वि पयडीओ दंसणावरणीयं चेव, सगसंवेयणविणासणकारणादो। बहिरंगत्थगहणाभावो वि ततो चेव होदि त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, दंसणाभावेण तव्विणासादो। किमट्ठं दंसणाभावेण णाणाभावो। णिद्दाए विणासिद बज्झत्थगहणजणणसत्तितादो। ण च तज्जणणसत्ती णाणं, तिस्से दंसणप्पयजीवत्तादो। =प्रश्न–ये पाँचों (निद्रादि) प्रकृतियाँ बहिरंग और अंतरंग दोनों ही प्रकार के अर्थ के ग्रहण में बाधक हैं, इसलिए इनकी दर्शनावरण संज्ञा कैसे हो सकती है, क्योंकि दोनों को आवरण करने वालों को एक का आवरण करने वाला मानने में विरोध आता है ? उत्तर–नहीं, ये पाँचों ही प्रकृतियाँ दर्शनावरणीय ही हैं, क्योंकि वे स्वसंवेदन का विनाश करती हैं ( धवला 5/11/9/1 ) प्रश्न–बहिरंग अर्थ के ग्रहण का अभाव भी तो उन्हीं से होता है ? उत्तर–ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उसका विनाश दर्शन के अभाव से होता है। प्रश्न–दर्शन का अभाव होने से ज्ञान का अभाव क्यों होता है ? उत्तर–कारण कि निद्रा बाह्य अर्थ के ग्रहण को उत्पन्न करने वाली शक्ति (प्रयत्न विशेष) की विनाशक है। और यह शक्ति ज्ञान तो हो नहीं सकती, क्योंकि, वह दर्शनात्मक जीव स्वरूप है (देखें दर्शन - 1.3.3)। - सामान्य ग्रहण व आत्मग्रहण का समन्वय
द्रव्यसंग्रह टीका/44/192/2 किं बहुना यदि कोऽपि तर्कार्थं सिद्धार्थं च ज्ञात्वैकांतदुराग्रहत्यागेन नयविभागेन मध्यस्थवृत्त्या व्याख्यानं करोति, तदा द्वयमपि घटत इति। कथमिति चेत्–तर्के मुख्यवृत्त्या परसमयव्याख्यानं, तत्र यदा कोऽपि परसमयी पृच्छति जैनागमे दर्शनं ज्ञानं चेति गुणद्वयं जीवस्य कथ्यते तत्कथं घटत इति। तदा तेषामात्मग्राहकं दर्शनमिति कथिते सति ते न जानंति। पश्चादाचार्यैस्तेषां प्रतीत्यर्थं स्थूलव्याख्यानेन बहिर्विषये यत्सामान्यपरिच्छेदनं तस्य सत्तावलोकनदर्शनसंज्ञा स्थापिता, यच्च शुक्लमिदमित्यादिविशेषपरिच्छेदनं तस्य ज्ञानसंज्ञा स्थापितेति दोषो नास्ति। सिद्धांते पुन: स्वसमयव्याख्यानं मुख्यवृत्त्या। तत्र सूक्ष्मव्याख्यानं क्रियमाणे सत्याचार्यैरात्मग्राहकं दर्शनं व्याख्यातमित्यत्रापि दोषो नास्ति। =अधिक कहने से क्या–यदि कोई भी तर्क और सिद्धांत के अर्थ को जानकर, एकांत दुराग्रह को त्याग करके, नयों के विभाग से मध्यस्थता धारण करके, व्याख्यान करता है तब तो सामान्य और आत्मा ये दोनों ही घटित होते हैं। सो कैसे?–तर्क में मुख्यता से अन्यमत को दृष्टि में रखकर कथन किया जाता है। इसलिए उसमें यदि कोई अन्यमतावलंबी पूछे कि जैन सिद्धांत में जीव के ‘दर्शन और ज्ञान’ ये जो दो गुण कहे जाते हैं, वे कैसे घटित होते हैं? तब इसके उत्तर में यदि उसे कहा जाये कि ‘आत्मग्राहक दर्शन है’ तो वह समझेगा नहीं। तब आचार्यों ने उनको प्रतीति करने के लिए विस्तृत व्याख्यान से ‘जो बाह्य विषय में सामान्य जानना है उसका नाम ‘दर्शन’ स्थापित किया और जो ‘यह सफेद है’ इत्यादि रूप से बाह्य में विशेष का जानना है उसका नाम ‘ज्ञान’ ठहराया, अत: दोष नहीं है। सिद्धांत में मुख्यता से निजसमय का व्याख्यान होता है, इसलिए सिद्धांत में जब सूक्ष्म व्याख्यान किया गया तब आचार्यों ने ‘आत्मग्राहक दर्शन है’ ऐसा कहा। अत: इसमें भी दोष नहीं है।
- आत्म ग्रहण अनध्यवसाय रूप नहीं है