प्रदेश
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- Space Point, ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र. 107) ।
- Location, Points or Place as decimal Place. ( धवला 5/ प्र.27) ।
आकाश के छोटे-से-छोटे अविभागी अंशका नाम प्रदेश है, अर्थात् एक परमाणु जितनी जगह घेरता है उसे प्रदेश कहते हैं । जिस प्रकार अखंड भी आकाश में प्रदेशभेद की कल्पना करके अनंत प्रदेश बताये गये हैं, उसी प्रकार सभी द्रव्यों में पृथक्-पृथक् प्रदेशों की गणना का निर्देश किया गया है । उपचार से पुद्गल परमाणु को भी प्रदेश कहते हैं और इस प्रकार पुद्गल कर्मों केप्रदेशों का जीवके प्रदेशों के साथ बंध होना प्रदेशबंध कहा जाता है ।
- प्रदेश व प्रदेशबंध निर्देश
- प्रदेश का लक्षणः -
- परमाणु के अर्थ में;
- आकाश का अंश;
- पर्याय के अर्थ में ।
- स्कंध के भेद प्रभेद- देखें स्कंध - 1.2
- पृथक्-पृथक् द्रव्यों में प्रदेशों का प्रमाण - देखें वह वह द्रव्य ।
- द्रव्यों में प्रदेश-कल्पना संबंधी युक्ति - देखें द्रव्य - 4.2
- लोक के आठ मध्य प्रदेश-देखें लोक - 2.5
- जीव के चलिताचलित प्रदेश - देखें जीव - 4।
- प्रदेशबंध का लक्षण ।
- प्रदेशबंध के भेद ।
- कर्म प्रदेशों में रूप, रस व गंधादि - देखें ईर्यापथ - 3
- अनुभाग व प्रदेश में परस्पर संबंध-देखें अनुभाग - 2.4
- स्थितिबंध व प्रदेशबंध में संबंध -देखें स्थिति - 3.1
- प्रदेश का लक्षणः -
- प्रदेश बंध संबंधी नियम व प्ररूपणाएँ
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि संबंधी नियम ।
- एक समयप्रबद्ध में प्रदेशों का प्रमाण ।
- समयप्रबद्ध वर्गणाओं में अल्पबहुत्व विभाग ।
- * पाँचों शरीरों में बद्ध प्रदेशों में व विस्रसोपचयों में अल्प बहुत्व - देखें अल्पबहुत्व ।3/4/3,6
- * प्रदेशबंधका निमित्त योग है । -देखें बंध - 5.1
- * प्रदेशबंध में योग संबंधी शंकाएँ -देखें योग - 2
- * योगस्थानों व प्रदेशबंध में संबंध -देखें योग - 5 ।
- योग व प्रदेश बंध में परस्पर संबंध ।
- स्वामित्व की अपेक्षा प्रदेशबंध प्ररूपणा ।
- प्रकृतिबंध की अपेक्षा स्वामित्व प्ररूपणा ।
- एक योग निमित्तक प्रदेशबंध में अल्पबहुत्व क्यों ?
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की अंतिम फालि में प्रदेशों संबंधी दो मत ।
- अन्य प्ररूपणाओं संबंधी विषय सूची ।
- मूलोत्तर प्रकृति, पंच शरीर, व 23 वर्गणाओं के प्रदेशों संबंधी संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन काल अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप प्ररूपणाएँ - देखें वह वह नाम ।
- प्रदेश सत्त्व संबंधी नियम । -देखें सत्त्व - 2.7
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि संबंधी नियम ।
- प्रदेश व प्रदेशबंध निर्देश
- प्रदेश का लक्षण
- परमाणु के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/2/38/192/6 प्रदिश्यंत इति प्रदेशाः परमाणवः । = प्रदेश शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्रदिश्यंते’ होती है । इसका अर्थ परमाणु है । ( सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/7 ) ( राजवार्तिक/2/38/1/147/28 ) ।
- आकाश का अंश
प्रवचनसार/140 आगासमणुणिविट्ठं आगासपदेससण्णया भणिदं । सव्वेसिं च अणूणं सक्कदि तं देदुमवगासं ।140। = एक परमाणु जितने आकाश में रहता है उतने आकाश को ‘आकाश प्रदेश’ के नाम सेकहा गया है और वह समस्त परमाणुओं को अवकाश देने में समर्थ है ।140। ( राजवार्तिक/5/1/8/432/33 ) ( नयचक्र बृहद्/141 )( द्रव्यसंग्रह/27 ) ( गोम्मटसार जीवकांड मू./591/1029) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/35-36 ) ।
कषायपाहुड़/2/2,2/12/7/10 निर्भाग आकाशावयवः (प्रदेश:) = जिसका दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता ऐसे आकाश के अवयव को प्रदेश कहते हैं ।
- पर्याय के अर्थ में
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/5 प्रदेशाख्याः परस्परव्यतिरेकित्वात्पर्यायाः उच्यंते । = प्रदेशनाम के उनके जो अवयव हैं वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होने से पर्याय कहलाती हैं ।
- परमाणु के अर्थ में
- प्रदेशबंध का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/8/24 नामप्रत्ययाः सर्वतोयोगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशाः ।24। = कर्मप्रकृतियों के कारणभूत प्रति समय योग विशेष से सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही और स्थित अनंतानंत पुद्गलपरमाणु सब आत्म प्रदेशों में (संबंध को प्राप्त) होते हैं ।24। (मू.आ./1241), (विशेष विस्तार देखें [[ ]] सर्वार्थसिद्धि/8/24/402 ), ( पंचाध्यायी x`/ उ/933) .
सर्वार्थसिद्धि 8/3/379/7 इयत्तावधारणं प्रदेशः । कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कंधानां परमाणुपरिच्छेदेनावधारणं प्रदेशः । = इयत्ता (संख्या) का अवधारण करना प्रदेश है । ( पंचसंग्रह / प्राकृत/4/514 ) । अर्थात् कर्मरूप से परिणत पुद्गलस्कंधों का परमाणुओं की जानकारी करके निश्चय करना प्रदेशबंध है । ( राजवार्तिक/8/3/7/567/12 ) ।
- प्रदेशबंध के भेद
(प्रदेश बंध चार प्रकार का होता है - उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य ।)
- प्रदेश का लक्षण
- प्रदेश बंध संबंधी नियम व प्ररूपणाएँ
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि संबंधी नियम
षट्खंडागम 14/5,6/ सू. 520-528/438-444 विस्सासुवचयपरूवणदाए एक्केवकम्हि जीवपदेसे केवडिया विस्सासुवचया उवचिदा ।520। अणंता विस्सासुवचया उवचिदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा ।521। ते च सव्वलोगागदेहि बद्धा ।522। तेसिं चउब्विहा हाणी-दव्वहाणी खेत्तहाणी कालहाणी भावहाणी चेदि ।523। दव्वहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।524। जे दुपदेसियवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।525। एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय- छप्पदेसिय-सत्तपदेसिय- अट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-अणंतपदेसिय-अणंताणंतपदेसियवग्गणाए दब्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।526। तदो अंगलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूणं तेसिं पंचविहा हाणी- अणंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणीअसंखेज्जगुणहाणी ।527। (टीका- तत्थ एक्केक्किस्से हाणीए अद्धाणमंगुलस्स असंखेज्जदिभागो ।) एवं चदुण्णं सरीराणं ।528। = चार शरीरों में बंधी नोकर्म वर्गणाओं की अपेक्षा - विस्रसोपचय प्ररूपणाकी अपेक्षा एक-एक जीव प्रदेश पर कितने विस्रसोपचय उपचित हैं ।520। अनंत विस्रसोपचय उपचित हैं जो कि सब जीवों से अनंत गुणे हैं ।521। वे सबलोक में से आकर बद्ध हुए हैं ।522। उनकी चार प्रकार की हानि होती है - द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि ।523। द्रव्यहानि प्ररूपणा की अपेक्षा औदारिक शरीर की एक प्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं वे बहुत हैं जो कि अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।524। जो द्विप्रदेशी वर्गणा के द्रव्य हैं वे विशेषहीन हैं जो अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।525। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी, छहप्रदेशी, सातप्रदेशी, आठप्रदेशी, नौप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनंतप्रदेशी और अनंतानंतप्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं विशेषहीन हैं जो प्रत्येक अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।526। उसके बाद अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उनकी पाँचप्रकार की हानि होती है - अनंत भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भाग हानि , संख्यात गुणहानि और असंख्यात गुणहानि ।527। (टीका-उनमें से एक-एक हानि का अध्वान अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । ) उसी प्रकार चार शरीरों की प्ररूपणा करनी चाहिए ।528।
नोट - बिलकुल इसी प्रकार अन्य तीन हानियों का कथन करना चाहिए । ( षट्खंडागम 14/5,6/ सू. 529-543/445-493) ।
- एक समयप्रबद्ध में प्रदेशों का प्रमाण
पंचसंग्रह / प्राकृत/4/495 पंचरस-पंचवण्णेहिं परिणयदुगंध चदुहिं फासेहिं । दवियमणंतपदेसं जीवेहि अणंतगुणहीणं ।495। = पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध और शीतादि चार स्पर्श से परिणत, सिद्ध जीवों से अनंतगुणितहीन, तथा अभव्य जीवों से अनंतगुणित अनंत प्रदेशी पुद्गल द्रव्य को यह जीव एक समय में ग्रहण करता है । 495। (गो., क./मू./191), ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/94/1 ), (पं.सं./सं./4/337) ।
- समयबद्ध वर्गणाओं में अल्पबहुत्व विभाग
धवला 6/1,9-7,43/201/6 ते च कम्मपदेसा जहण्णवग्गणाए बहुआ, तत्तो उवरि वग्गणं पडि विसेसहीणा अणंतभागेण । भागहारस्स अर्द्ध गंतूण दुगुणहीणा । एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । एवं चत्तारि य बंधा परूविदा होंति । = वे कर्मप्रदेश जघन्य वर्गणा में बहुत होते हैं उससे ऊपर प्रत्येक वर्गणा के प्रति विशेषहीन अर्थात् अनंतवें भाग से हीन होते जाते हैं । और भागाहार के आधे प्रमाण दूर जाकर दुगुनेहीन अर्थात् आधे, रह जाते हैं । इस प्रकार यह क्रम अंतिम वर्गणा तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्रकृति बंध के द्वारा यहाँ चारों ही बंध प्ररूपित हो जाते हैं ।
- योग व प्रदेशबंध में परस्पर संबंध
म.बं. 6/92-134 का भावार्थ - उत्कृष्ट योग से उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा जघन्य योग से जघन्य प्रदेशबंध होता है .
- स्वामित्व की अपेक्षा प्रदेशबंध प्ररूपणा
पंचसंग्रह / प्राकृत/4/502 -512), ( गोम्मटसार कर्मकांड/210-216/256 ) ।
संकेत -- संज्ञी = संज्ञी, पर्याप्त, उत्कृष्ट योग से युक्त, अल्प प्रकृति का बंधक उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है ।
- असंज्ञी = असंज्ञी, अपर्याप्त, जघन्य योग से युक्त, अधिक प्रकृतिका बंधक, जघन्य प्रदेशबंध करता है ।
- सू.ल./1 = सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त, जघन्य योग से युक्त जीव के अपनी पर्याय का प्रथम समय ।
- सू.ल./2 = सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त की आयु बंध के त्रिभाग प्रथम समय ।
- सू. ल./च = चरम भवस्थ तथा तीन विग्रह में से प्रथम विग्रह में स्थित निगोदिया जीव ।
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि संबंधी नियम
उत्कृष्ट प्रदेश बंध |
उघन्य प्रदेशबंध |
||
गुणस्थान |
प्रकृतिका नाम |
गुणस्थान वस्वामित्व |
प्रकृतिका नाम |
1.मूल प्रकृति प्ररूपणा |
|||
1,2,4-6 |
आयु |
सू.ल./1 |
आयु के बिना |
1-9 |
मोह |
|
|
10 |
ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, नाम, गोत्र, अंतराय |
सू.ल./2 |
आयु |
2. उत्तर प्रकृति प्ररूपणा |
|||
1. |
स्त्यान., निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, अनंतानु. चतु., स्त्री वन.पुं. वेद, नरकतिर्यग् व देवगतिपंचेंद्रियादि पाँच जाति, औदारिक, तैजस, व कार्मणशरीर, न्यग्रोधादि 5 संस्थान,वज्रनाराचआदि 5 संहनन,औदारिक अंगोपांग, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, नरकानुपूर्वी, तिर्यगानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहा., त्रस, स्थावर,बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयश,निर्माण, नीचगोत्र = 66 |
अविरतसम्य.
अप्रमत्त |
देवगति, व आनुपूर्वी, वैक्रियक शरीर, व अंगोपांग, तीर्थंकर=5
आहारक द्वय |
1-9 |
असाता, देव व मनुष्यायु, देव- गति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियकनाराचसंहनन = 13 |
|
|
4 |
अप्रत्याख्यान चतुष्क =4 |
|
|
4-9 |
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, निद्रा, प्रचला,तीर्थंकर =9 |
|
|
5 |
प्रत्याख्यान चतुष्क =4 |
|
|
7 |
आहारक द्विक |
|
|
9 |
पुरुष वेद, संज्वलन चतुष्क =5 |
|
|
10 |
ज्ञानावरणकी 5, दर्शनावरणकी चक्षु आदि 4, अंतराय5,साता, यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र = 17 |
|
|
- प्रकृतिबंध की अपेक्षा स्वामित्व प्ररूपणा
प्रमाण तथा संकेत - (देखें पूर्वोक्त प्रदेशबंध प्ररूपणा नं - 10)।
नं. |
प्रकृतिका नाम |
स्वमित्व व गुणस्थान |
|||
उत्कृष्ट |
जघन्य |
||||
1 |
ज्ञानावरण– |
||||
|
पाँचों |
10 |
सू.ल./च |
||
2 |
दर्शनावरण– |
||||
1-4 |
चक्षु, अचक्षु अवधि व केवलदर्शन |
10 |
सू.ल./च |
||
5 |
निद्रा |
10 |
सू.ल./च |
||
6 |
निद्रानिद्रा |
1 |
सू.ल./च |
||
7 |
प्रचला |
10 |
सू.ल./च |
||
8 |
प्रचलाप्रचला |
1 |
सू.ल./च |
||
3 |
वेदनीय– |
||||
1 |
साता |
10 |
सू.ल./च |
||
2 |
असाता |
1-9 |
सू.ल./च |
||
4 |
मोहनीय– |
||||
1 |
मिथ्यात्व |
1 |
सू.ल./च |
||
2-5 |
अनंता. चतु. |
1 |
सू.ल./च |
||
6-10 |
अप्रत्या. चतु. |
4 |
सू.ल./च |
||
11-14 |
प्रत्या.चतु. |
5 |
सू.ल./च |
||
14-17 |
संज्वलन चतु. |
9 |
सू.ल./च |
||
17-23 |
हास्य,रति, अरति, शोक,भय, जुगुप्सा |
4-9 |
सू.ल./च |
||
24 |
स्त्री वेद |
1 |
सू.ल./च |
||
25 |
पुरुष |
10 |
सू.ल./च |
||
26 |
नपुं. |
1 |
सू.ल./च |
||
5 |
आयु– |
||||
1 |
नरकायु |
1 |
असंज्ञी |
||
2 |
तिर्यग् |
1 |
सू.ल./च |
||
3 |
मनुष्य |
1-9 |
|
||
4 |
देवायु |
1-9 |
|
||
6 |
नामकर्म– |
||||
1 |
गति– |
||||
|
नरक |
1 |
असंज्ञी |
||
|
तिर्यग् |
1 |
सू.ल./च |
||
|
मनुष्य |
1 |
सू.ल./च |
||
|
देव |
1-9 |
अविरति सम्य. |
||
2 |
जाति– |
|
|
||
|
एकेंद्रियादि पाँचों |
1 |
सू.ल./च |
||
3 |
शरीर– |
||||
|
औदारिक |
1 |
सू.ल./च |
||
|
वैक्रियक |
1-9 |
अविरति सम्य. |
||
|
आहारक |
7 |
अप्रमत्त |
||
|
तैजस |
1 |
सू.ल./च |
||
|
कार्मण |
1 |
सू.ल./च |
||
4 |
अंगोपांग– |
||||
|
औदारिक |
1 |
|
||
|
वैक्रियक |
1-9 |
अविरति |
||
|
आहारक |
7 |
अप्रमत्त |
||
5 |
निर्माण |
1 |
सू.ल./च |
||
6 |
बंधन |
1 |
सू.ल./च |
||
7 |
संघात |
1 |
सू.ल./च |
||
8 |
संस्थान– |
||||
|
समचतुरस्र |
1-9 |
सू.ल./च |
||
|
शेष पाँचों |
1 |
सू.ल./च |
||
9 |
संहनन– |
||||
|
वज्र वृषभ नाराच |
1-9 |
सू.ल./च |
||
|
शेष पाँचों |
1 |
सू.ल./च |
||
10-13 |
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण |
1 |
सू.ल./च |
||
14 |
आनुपूर्वी– |
||||
|
नरक |
1 |
असंज्ञी |
||
|
तिर्यग व मनुष्य |
1 |
सू.ल./च |
||
|
देव |
1-9 |
अविरत सम्य. |
||
15 |
अगुरुलघु |
1 |
सू.ल./च |
||
16 |
उपघात |
1 |
सू.ल./च |
||
17 |
परघात |
1 |
सू.ल./च |
||
18 |
आतप |
1 |
सू.ल./च |
||
19 |
उद्योत |
1 |
सू.ल./च |
||
20 |
उच्छ्वास |
1 |
सू.ल./च |
||
21 |
विहायोगति– |
||||
|
प्रशस्त |
1-9 |
सू.ल./च |
||
|
अप्रशस्त |
1 |
सू.ल./च |
||
22 |
प्रत्येक |
1 |
सू.ल./च |
||
23 |
त्रस |
1 |
सू.ल./च |
||
24 |
सुभग |
1-9 |
सू.ल./च |
||
25 |
सुस्वर |
1 |
सू.ल./च |
||
26 |
शुभ |
1 |
सू.ल./च |
||
27 |
सूक्ष्म |
1 |
सू.ल./च |
||
28 |
पर्याप्त |
1 |
सू.ल./च |
||
29 |
स्थिर |
1 |
सू.ल./च |
||
30 |
आदेय |
1-9 |
सू.ल./च |
||
31 |
यश:कीर्ति |
10 |
सू.ल./च |
||
32 |
साधारण |
1 |
सू.ल./च |
||
33 |
स्थावर |
1 |
सू.ल./च |
||
34 |
दुर्भग |
1 |
सू.ल./च |
||
35 |
दु:स्वर |
1 |
सू.ल./च |
||
36 |
अशुभ |
1 |
सू.ल./च |
||
37 |
बादर |
1 |
सू.ल./च |
||
38 |
अपर्याप्त |
1 |
सू.ल./च |
||
39 |
अस्थिर |
1 |
सू.ल./च |
||
40 |
अनादेय |
1 |
सू.ल./च |
||
41 |
अयश:कीर्ति |
1 |
सू.ल./च |
||
42 |
तीर्थंकर |
|
|
||
7 |
गोत्र– |
||||
1 |
उच्च |
10 |
सू.ल./च |
||
2 |
नीच |
1 |
सू.ल./च |
||
8 |
अंतराय– |
|
|
||
1 |
पाँचों |
10 |
सू.ल./च |
- एक योग निमित्तक प्रदेश बंध में अल्पबहुत्व क्यों ?
धवला 10/4,2,4,213,511/3 जदि जोगादो पदेसबंधो होदि तो सव्वकम्माणं पदेसपिंडस्स समाणत्तं पावदि, एगकारणत्तादो । ण च एवं, पुव्विल्लप्पाबहुएण सह विरोहादो त्ति । एवं पच्चवट्ठिदसिस्सत्थमुत्तरसुत्तावयवो आगदो ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ त्ति । पयडी णाम सहाओ, तस्स विसेसो भेदो, तेण पयडिविसेसेण कम्माणं पदेसबंधट्ठाणाणि समाणकारणत्ते वि पदेसेहि विसेसाहियाणि । = प्रश्न - यदि योग से प्रदेशबंध होता है तो सब कर्मोंके प्रदेश समूह के समानता प्राप्त होती है, क्योंकि उन सबके प्रदेशबंध का एक ही कारण है । उत्तर-परंतु ऐसा है नहीं क्योंकि, वैसा होने पर पूर्वोक्त अल्पबहुत्व के साथ विरोध आता है । इस प्रत्यवस्था युक्त शिष्य के लिए उक्त सूत्र के ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ इस उत्तर अवयव का अवतार हुआ है । प्रकृति का अर्थ स्वभाव है, उसके विशेष से अभिप्राय भेद का है । उस प्रकृति विशेष से कर्मों के प्रदेश बंधस्थान एक कारण के होने पर भी प्रदेशों से विशेष अधिक है ।
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की अंतिम फालि में प्रदेशों संबंधी दो मत
कषायपाहुड़ 4/3,22/639/334/11 जइवसहाइरिएण उवलद्धा वे उवएसा । सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली असंखे. गुणहीणा त्ति एगो उवएसो । अवरेगो सम्मामिच्छत्तचारिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति । एत्थ एदेसिं दोण्हं पि उवएसाणं णिच्छयं काउमसमत्थेण जइवसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदो अवरेगो ट्ठिदिसंकमे । तेणेदं वे वि उपदेसा थप्पं कादूण वत्तव्वा त्ति । = यतिवृषभाचार्य को दो उपदेश प्राप्त हुए । सम्यक्त्व की अंतिम फालि से सम्यग्मिथ्यात्व की अंतिमफालि असंख्यातगुणी हीन है यह पहला उपदेश है । तथा सम्यग्मिथ्यात्व की अंतिम फालि उससे (सम्यक्त्व की अंतिम फालि से ) विशेष अधिक है यह दूसरा, उपदेश है । इन दोनों ही उपदेशों का निश्चय करने में असमर्थ यतिवृषभाचार्य ने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति संक्रम में लिखा, अतः इन दोनों ही उपदेशों को स्थगित करके उपदेश करना चाहिए ।
- अन्य प्ररूपणाओं संबंधी विषय सूची
(म.बं.6/... पृ.)
नं.मूल उत्तरविषयज.उ.पदभुजगारादि पदज.उ.षट्
गुण
वृद्धि
ओघ व आदेश से अष्ट कर्म प्ररूपणा
1.मूलसमुत्कीर्तना6/10-1026/146-
53-54147-79
भंगविचय6/125-126
/65-66
जीवस्थान व6/154-156/83स
अध्यवसाय- 84
स्थान
उत्तरसन्निकर्ष6/269-565/178
भंग विचय6/566-569/350-354
पुराणकोष से
आकाश द्रव्य का सबसे छोटा भाग । हरिवंशपुराण 7.17