श्रावक
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
विवेकवान विरक्तचित्त अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहते हैं। ये तीन प्रकार के हैं - पाक्षिक, नैष्ठिक व साधक। निज धर्म का पक्ष मात्र करने वाला पाक्षिक है और व्रतधारी नैष्ठिक। इसमें वैराग्य की प्रकर्षता से उत्तरोत्तर 11 श्रेणियाँ हैं, जिन्हें 11 प्रतिमाएँ कहते हैं। शक्ति को न छिपाता हुआ वह निचली दशा में क्रमपूर्वक उठता चला जाता है। अंतिम श्रेणी में इसका रूप साधु से किंचित् न्यून रहता है। गृहस्थ दशा में भी विवेकपूर्वक जीवन बिताने के लिए अनेक क्रियाओं का निर्देश किया गया है।
- भेद व लक्षण
- पृथक्-पृथक् 11 प्रतिमाएँ। - देखें दर्शन_प्रतिमा ; व्रत_प्रतिमा ; सामायिक ; प्रोषधोपवास ; सचित्तत्यागप्रतिमा ; रात्रिमृत्तित्याग ; ब्रह्मचर्य ; आरंभ_त्याग_प्रतिमा ; परिग्रह_त्याग_व्रत_व_प्रतिमा ; अनुमतित्यागप्रतिमा ; उदिष्ट त्याग प्रतिमा ।
- श्रावक सामान्य निर्देश
- गृहस्थ धर्म की प्रधानता।
- श्रावक धर्म के योग्य पात्र।
- विवकी गृहस्थ को हिंसा का दोष नहीं।
- श्रावक को भव धारण की सीमा।
- श्रावक के मोक्ष निषेध का कारण।
- श्रावक के पढ़ने न पढ़ने योग्य शास्त्र। - देखें श्रोता 6 ।
- श्रावक में विनय व नमस्कार योग्य व्यवहार। - देखें विनय - 3।
- सम्यग्दृष्टि भी श्रावक पूज्य नहीं - देखें विनय - 4.9।
- गृहस्थाचार्य - देखें आचार्य - 2।
- श्रावक ही वास्तव में ब्राह्मण है - देखें ब्राह्मण 4 ।
- श्रावक को गुरु संज्ञा नहीं - देखें गुरु - 1.3।
- प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में श्रावकों का प्रमाण - देखें तीर्थंकर - 5.3.6।
- पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश
- संयतासंयत गुणस्थान - देखें संयतासंयत ।
- सम्यग्दृष्टि श्रावक मिथ्यादृष्टि साधु से ऊँचा है - देखें साधु - 4।
- सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के व्यवहार धर्म में अंतर - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- क्षुल्लका - देखें क्षुल्लक ।
- ग्यारह प्रतिमाओं में उत्तरोत्तर व्रतों की तरतमता।
- पाक्षिक श्रावक सर्वथा अविरति नहीं।
- पाक्षिक श्रावक की दिनचर्या।
- पाँचों व्रतों के एक देश पालन करने से व्रती होता है।
- पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक में अंतर।
- श्रावक के योग्य लिंग - देखें लिंग - 1।
- श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश
- अष्ट मूलगुण विशेष व उनके अतिचार - देखें मद्य ; मांस ; मधु ; अहिंसाणुव्रत ; सत्याणुव्रत , अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्य , परिग्रहपरिमाणुव्रत ।
- श्रावक के 12 व्रत। - देखें व्रत - 1.3।
- अष्ट मूलगुण व्रती व अव्रती दोनों को होते हैं।
- मूलगुण साधु को पूर्ण व श्रावक को एक देश होते हैं।
- श्रावक के अनेकों उत्तरगुण
- श्रावक के दो कर्तव्य।
- श्रावके के 4 कर्तव्य।
- श्रावक के 5 कर्तव्य।
- श्रावक के 6 कर्तव्य।
- श्रावक को 53 क्रियाएँ।
- श्रावक की 25 क्रियाएँ। - देखें क्रिया 3 ।
- गर्भान्वय आदि 10 या 53 क्रियाएँ - देखें संस्कार - 2।
- श्रावक के अन्य कर्तव्य।
- श्रावक की स्नान विधि - देखें स्नान -4 ।
- दान देना ही गृहस्थ का प्रधान धर्म है - देखें दान - 3।
- वैयावृत्य करना गृहस्थ का प्रधान धर्म है - देखें वैयावृत्त्य 8।
- सावद्य होते भी पूजा व मंदिर आदि निर्माण की आज्ञा - देखें धर्म - 5.2।
- श्रावकों को सल्लेखना धारने संबंधी - देखें सल्लेखना - 1 ; सल्लेखना#3 |
- अणुव्रतों में भी कथंचित् महाव्रतत्व - देखें व्रत - 3.8।
- सामायिक के समय श्रावक भी साधु - देखें सामायिक - 3.4।
- साधु व श्रावक के धर्म में अंतर - देखें धर्म - 6।
- साधु व श्रावक के ध्यान व अनुभव में अंतर - देखें अनुभव - 5.7।
- श्रावक को भी समिति गुप्ति आदि का पालन करना चाहिए। - देखें व्रत - 2.4।
- श्रावक को स्थावर वध आदि की भी अनुमति नहीं है - देखें व्रत - 3।
- भेद व लक्षण
- श्रावक सामान्य के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/45/458/8 स एव पुनश्चारित्रमोहकर्मविकल्पाप्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमनिमित्तपरिणामप्राप्तिकाले विशुद्धिप्रकर्षयोगात् श्रावको...। = वह ही (अविरत सम्यग्दृष्टि ही) चारित्र मोह कर्म के एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की प्राप्ति के समय विशुद्धि का प्रकर्ष होने से श्रावक होता हुआ...।
सागार धर्मामृत/1/15-16 मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पंचगुरुपदशरण्य:। दानयजनप्रधानो, ज्ञानसुधां श्रावक: पिपासु: स्यात् ।15। रागादिक्षयतारतम्यविकसच्छुद्धात्मसंवित्सुख स्वादात्मस्वबहिर्बहिस्त्रसवधाद्यं होव्यपोहात्मसु। सद्दृग् दर्शनिकादिदेशविरतिस्थानेषु चैकादश-स्वेकं य: श्रयते यतिव्रतरतस्तं श्रद्दधे श्रावकम् ।16। = पंच परमेष्ठी का भक्त ,प्रधानता से दान और पूजन करने वाला, भेद ज्ञान रूपी अमृत को पीने का इच्छुक, तथा मूलगुण और उत्तरगुणों को पालन करने वाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है।15। अंतरंग में रागादिक के क्षय की हीनाधिकता के अनुसार प्रगट होने वाली आत्मानुभूति से उत्पन्न सुख का उत्तरोत्तर अधिक अनुभव होना ही है स्वरूप जिनका ऐसे, और बहिरंग में त्रस हिंसा आदिक पाँचों पापों से विधि पूर्वक निवृत्ति होना है स्वरूप जिनका, ऐसे ग्यारह देशविरत नामक पंचम गुणस्थान के दार्शनिक आदि स्थानों - दरजों में मुनिव्रत का इच्छुक होता हुआ जो सम्यग्दृष्टि व्यक्ति किसी एक स्थान को धारण करता है उसको श्रावक मानता हूँ अथवा उस श्रावक को श्रद्धा की दृष्टि से देखता हूँ।
सागार धर्मामृत/ स्वोपज्ञ-टीका/1/15 शृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावक:। = जो श्रद्धा पूर्वक गुरु आदि से धर्म श्रवण करता है वह श्रावक है।
द्रव्यसंग्रह टीका/13/34/5 स पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावको भवति।=पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक होता है। - श्रावक के भेद
- पाक्षिकादि तीन भेद
चारित्रसार/41/3 साधकत्वमेवं पक्षादिभिस्त्रिभिर्हिंसाद्युपचितं पापम् अपगतं भवति। =इस प्रकार पक्ष, चर्या और साधकत्व - इन तीनों से गृहस्थी के हिंसा आदि के इकट्ठे किये हुए पाप सब नष्ट हो जाते हैं।
सागार धर्मामृत/1/20 पाक्षिकादिभि त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिक:। ...नैष्ठिक: साधक:...।20। =पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक के भेद से श्रावक तीन प्रकार के होते हैं।
सागार धर्मामृत/3/6 प्रारब्धो घटमानो निष्पन्नाश्चार्हतस्य देशयम:। योग इव भवति यस्य त्रिधा स योगीव देशयमी।6। =जिस प्रकार प्रारब्ध आदि तीन प्रकार के योग से योगी तीन प्रकार का होता है, उसी प्रकार देशसंयमी भी प्रारब्ध (प्राथमिक), घटमानो (अभ्यासी) और निष्पन्न के भेद से तीन प्रकार के हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/725 किं पुन: पाक्षिको गूढो नैष्ठिक: साधकोऽथवा।725। =पाक्षिक, गूढ, नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक तो कैसे। - नैष्ठिक श्रावक के 11 भेद
बारस अणुवेक्खा/69 दंसण-वय-सामाइय पोसह सच्चित्त राइभत्ते य। वंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदेदे।136। =दार्शनिक, व्रतिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तविरत, ब्रह्मचारी, आरंभविरत, परिग्रह विरत, अनुमति विरत और उद्दिष्टविरत ये (श्रावक के) ग्यारह भेद होते हैं।136। ( चारित्तपाहुड़/मूल/22); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/136 ), ( धवला 1/1,1,2/ गाथा 74/102), ( धवला 1/1,1,123/ गाथा 193/373), ( धवला 9/4,1,45/ गाथा 78/201), ( गोम्मटसार जीवकांड/477/884 ), ( वसुनंदी श्रावकाचार/4 ), ( चारित्रसार/3/3 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/34 पर उद्धृत), (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/14)।
द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/5 दार्शनिक ...व्रतिक:...त्रिकालसामयिके प्रवृत्त:, प्रोषधोपवासे, सचित्तपरिहारेण पंचम:, दिवाब्रह्मचर्येण षष्ठ:, सर्वथा ब्रह्मचर्येण सप्तम:, आरंभनिवृत्तोऽष्टम:...परिग्रहनिवृत्तो नवम:... अनुमतनिवृत्तो दशम: उद्दिष्टाहारनिवृत्त एकादशम:। =दार्शनिक, व्रती, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, और सचित्त विरत तथा दिवामैथुन विरत, अब्रह्म विरत, आरंभविरत और परिग्रह विरत, अनुमति विरत और उद्दिष्ट विरत श्रावक के ये 11 स्थान हैं ( सागार धर्मामृत/3/2-3 )। - ग्यारहवीं प्रतिमा के 2 भेद
वसुनंदी श्रावकाचार/301 एयोरसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविओ। वत्थेक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ।301। = ग्यारहवें अर्थात् उद्दिष्ट विरत स्थान में गया हुआ मनुष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं - प्रथम एक वस्त्र रखने वाला (क्षुल्लक), दूसरा कोपीन (लंगोटी) मात्र परिग्रह वाला (ऐलक) ( गुणभद्र श्रावकाचार/184 ), ( सागार धर्मामृत/7/38-39 )।
- पाक्षिकादि तीन भेद
- पाक्षिकादि श्रावकों के लक्षण
- पाक्षिक श्रावक
चारित्रसार/40/4 असिमषिकृषिवाणिज्यादिभिर्गृहस्थानां हिंसासंभवेऽपि पक्ष:। = असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि आरंभों कर्मों से गृहस्थों के हिंसा होना संभव है तथापि पक्ष चर्या और साधकपना इन तीनों से हिंसा का निवारण किया जाता है। इनमें से सदा अहिंसा रूप परिणाम करना पक्ष है।
सागार धर्मामृत/2/2,16 तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्युज्झेत्, पंच क्षीरिफलानि च।2। स्थूल हिंसानृतस्तेयमैथुनग्रंथवर्जनम् । पापभीरुतयाभ्यस्येद्-बलवीर्यनिगूहक:।16। =उस गृहस्थ धर्म में जिनेंद्र देव संबंधी आज्ञा को श्रद्धान करता हुआ पाक्षिक श्रावक हिंसा को छोड़ने के लिए सबसे पहले मद्य, मांस, मधु को और पंच उदंबर फलों को छोड़ देवे।2। शक्ति और सामर्थ्य को नहीं छिपाने वाला पाक्षिक श्रावक पाप के डर से स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल कुशील और स्थूल परिग्रह के त्याग का अभ्यास करे।16। (पाक्षिक श्रावक, गुरु उपासना आदि कार्य को शक्त्यनुसार नित्य करता है - देखें देवपूजा ; गुरुपास्ति ; स्वाध्याय ; संयम ; तप ; दान ) सदाव्रत खुलवाना (देखें पूजा - 1) मंदिर में फुलवाड़ी आदि खुलवाना कार्य करता है (देखें चैत्य चैत्यालय )। रात्रि भोजन का त्यागी होता है, परंतु कदाचित् रात्रि को इलाइची आदि का ग्रहण कर लेता है - देखें रात्रि भोजन -2.2 । पर्व के दिनों में प्रोषधोपवास को करता है - देखें प्रोषधोपवास 3.1। व्रत खंडित होने पर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है ( सागार धर्मामृत/2/79 )। आरंभादि में संकल्पी आदि हिंसा नहीं करता - (देखें श्रावक - 3) इस प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि को पाता प्रतिमाओं को धारण करके एक दिन मुनि धर्म पर आरूढ़ होता है।
मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ समस्त हिंसा का त्याग करना जैनों का पक्ष है। देखें पक्ष -2 । - चर्या श्रावक
चारित्रसार/40/4 धर्मार्थं देवतार्थमंत्रसिद्धयर्थमौषधार्थमाहारार्थं स्वभोगाय च गृहमेधिनो हिंसां न कुर्वंति। हिंसासंभवे प्रायश्चित्तविधिना विशुद्ध: सन् परिग्रहपरित्यागकरणे सति स्वगृहं धर्मं च वेश्याय समर्प्य यावद् गृहं परित्यजति तावदस्य चर्या भवति। = धर्म के लिए, किसी देवता के लिए, किसी मंत्र को सिद्ध करने के लिए, औषधि के लिए और अपने भोगोपभोग के लिए, कभी हिंसा नहीं करते हैं। यदि किसी कारण से हिंसा हो गयी हो तो विधिपूर्वक प्रायश्चित्त कर विशुद्धता धारण करते हैं। तथा परिग्रह का त्याग करने के समय अपने घर, धर्म और अपने वंश में उत्पन्न हुए पुत्र आदि को समर्पण कर जब तक वे घर को परित्याग करते हैं तब तक उनके चर्या कहलाती है। (यह चर्या दार्शनिक से अनुमति विरत प्रतिमा पर्यंत होती है ( सागार धर्मामृत/1/19 )। - नैष्ठिक श्रावक
सागार धर्मामृत/3/1 देशयमघ्नकषाय-क्षयोपशमतारतम्यवशत: स्यात् । दर्शनिकाद्येकादश-दशावशो नैष्ठिक: सुलेश्यतर:।1। = देश संयम का घात करने वाली कषायों के क्षयोपशम की क्रमश: वृद्धि के वश से श्रावक के दार्शनिक आदिक ग्यारह संयम स्थानों के वशीभूत और उत्तम लेश्या वाला व्यक्ति नैष्ठिक कहलाता है।1। - साधक श्रावक
महापुराण/39/149 ...जीवितांते तु साधनम् । देहादेर्हितत्यागात् ध्यानशुद्धात्मशोधनम् ।149। = जो श्रावक आनंदित होता हुआ जीवन के अंत में अर्थात् मृत्यु समय शरीर, भोजन और मन, वचन काय के व्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मा की शुद्धि की साधन करता है वह साधक कहा जाता है। ( सागार धर्मामृत/1/19-20/8/1 )।
चारित्रसार/41/2 सकलगुणसंपूर्णस्य शरीरकंपनोच्छ्वासनोन्मीलनविधिं परिहरमाणस्य लोकाग्रमनस: शरीरपरित्याग: साधकत्वम् । = इसी तरह जिसमें संपूर्ण गुण विद्यमान हैं, जो शरीर का कंपना, उच्छ्वास लेना, नेत्रों का खोलना आदि क्रियाओं का त्याग कर रहा है और जिसका चित्त लोक के ऊपर विराजमान सिद्धों में लगा हुआ है ऐसे समाधिमरण करने वाले का शरीर परित्याग करना साधकपना कहलाता है।
श्रावक सामान्य निर्देश
1. गृहस्थ धर्म की प्रधानता
कुरल काव्य/6,8 गृही स्वस्यैव कर्माणि पालयेद् यत्नतो यदि। तस्य नावश्यका धर्मा भिन्नाश्रमनिवासिनाम् ।6। यो गृही नित्यमुद्युक्त: परेषां कार्यसाधने। स्वयं चाचारसंपन्न: पूतात्मा स ऋषेरपि।8। =यदि मनुष्य गृहस्थ के समस्त कर्तव्यों को उचित रूप से पालन करे, तब उसे दूसरे आश्रमों के धर्मों के पालने की क्या आवश्यकता ?।6। जो गृहस्थ दूसरे लोगों को कर्तव्य पालन में सहायता देता है, और स्वयं भी धार्मिक जीवन व्यतीत करता है, वह ऋषियों से अधिक पवित्र है।8।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/12 संत: सर्वसुरासुरेंद्रमहितं मुक्ते: परं कारणं रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति। वृत्तिस्तस्य यदुन्नत: परमया भक्त्यार्पिताज्जायते तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रिय:।12। =जो रत्नत्रय समस्त देवेंद्रों एवं असुरेंद्रों से पूजित है, मुक्ति का अद्वितीय कारण है तथा तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला है उसे साधुजन शरीर के स्थित रहने पर ही धारण करते हैं। उस शरीर की स्थिति उत्कृष्ट भक्ति से दिये गये जिन सद्गृहस्थों के अन्न से रहती है उन गुणवान् सद्गृहस्थों का धर्म भला किसे प्रिय न होगा ? अर्थात् सर्व को प्रिय होगा।
2. श्रावक धर्म के योग्य पात्र
सागार धर्मामृत/1/11 न्यायोपात्तधनो, यजन्गुणगुरून्, सद्गीस्त्रिवर्गं भजन्नन्योन्यानुगुणं, तदर्हगृहिणी-स्थानालयो ह्रीमय:। युक्ताहारविहारआर्यसमिति:, प्राज्ञ: कृतज्ञो वशी, शृण्वंधर्मविधिं, दयालुरघभी:, सागारधर्मं चरेत् ।11। =न्याय से धन कमाने वाला, गुणों को, गुरुजनों को तथा गुणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजने वाला, हित मित और प्रिय का वक्ता, त्रिवर्ग को परस्पर विरोधरहित सेवन करने वाला, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकानसहित लज्जावान शास्त्र के अनुकूल आहार और विहार करने वाला, सदाचारियों की संगति करने वाला, विवेकी, उपकार का जानकार, जितेंद्रिय, धर्म की विधि को सुनने वाला दयावान् और पापों से डरने वाला व्यक्ति सागार धर्म को पालन कर सकता है।11।
3. विवेकी गृहस्थ को हिंसा का दोष नहीं
महापुराण/39/143-144,150 स्यादारेका च षट्कर्मजीविनां गृहमेधिनाम् । हिंसादोषोऽनुषंगो स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम् ।143। इत्यत्र ब्रूमहे सत्यं अल्पसावद्यसंगति:। तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धि: शास्त्रदर्शिता।144। त्रिष्वेतेषु न संस्पर्शो वधेनार्हद्द्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्यान्निराकृति:।150। =यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि जो असि-मषी आदि छह कर्मों से आजीविका करने वाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसा का दोष लग सकता है परंतु इस विषय में हम यह कहते हैं कि आपने जो कहा है वह ठीक है, आजीविका के करने वाले जैन गृहस्थों के थोड़ी सी हिंसा की संगति अवश्य होती है, परंतु शास्त्रों में उन दोषों की शुद्धि भी तो दिखलायी गयी है।143-144। अरहंतदेव को मानने वाले को द्विजों का पक्ष, चर्या और साधन इन तीनों में हिंसा के साथ स्पर्श भी नहीं होता...।150।
4. श्रावक को भव धारण की सीमा
वसुनन्दि श्रावकाचार/539 सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्ठमए। भुंजिवि सुर-मणुयसुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं।539। = (उत्तम रीति से श्रावकों का आचार पालन करने वाला कोई गृहस्थ) तीसरे भव में सिद्ध होता है। कोई क्रम से देव और मनुष्यों के सुखों को भोगकर पाँचवें, सातवें या आठवें भव में सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं।539।
5. श्रावक को मोक्ष निषेध का कारण
मोक्षपाहुड़/12/313 पर उद्धृत-खंडनी पेषणी चुल्ली उदकुंभ प्रमार्जनी। पंच सूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति। = गृहस्थों के उखली, चक्की, चूल्ही, घड़ा और झाडू ये पंचसूना दोष पाये जाते हैं। इस कारण उनको मोक्ष नहीं हो सकता।
पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश
1. नैष्ठिक श्रावक में सम्यक्त्व का स्थान
धवला 1/1,1,13/175/4 सम्यक्त्वमंतरेणापि देशयतयो दृश्यंत इति चेन्न, निर्गतमुक्तिकांक्षस्यानिवृत्तविषयपिपासस्याप्रत्याख्यानानुपपत्ते:। =प्रश्न - सम्यग्दर्शन के बिना भी देशसंयमी देखने में आते हैं ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, जो जीव मोक्ष की आकांक्षा से रहित हैं और जिनको विषय पिपासा दूर नहीं हुई है, उनके अप्रत्याख्यान संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
वसुनंदी श्रावकाचार/5 एयारस ठाणाइं सम्मत्त विवज्जिय जीवस्स। जम्हा ण संति तम्हा सम्मत्तं सुणह वोच्छामि।5। = (श्रावक के) ग्यारह स्थान चूँकि सम्यग्दर्शन से रहित जीवों के नहीं होते, अत: मैं सम्यक्त्व का वर्णन करता हूँ। हे भव्यो ! तुम सुनो।5।
द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/3 सम्यक्त्वपूर्वकेन...दार्शनिकश्रावको भवति। = सम्यक्त्वपूर्वक...दार्शनिक श्रावक होता है। ( लाटी संहिता/2/6 )।
2. ग्यारह प्रतिमाओं में उत्तम मध्यमादि विभाग
चारित्रसार/40/3 आद्यास्तु षट् जघन्या: स्युमध्यमास्तदनु त्रय:। शेषौ द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने। = जिनागम में ग्यारह प्रतिमाओं में से पहले की छह प्रतिमा जघन्य मानी जाती है, इनके बाद की तीन अर्थात् सातवीं, आठवीं और नौवीं प्रतिमाएँ मध्यम मानी जाती हैं। और बाकी की दशवीं, ग्यारहवीं प्रतिमाएँ उत्तम मानी जाती हैं। ( सागार धर्मामृत/3/2-3 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/45/1/95/11 ); ( दर्शनपाहुड़/ टीका/18/17)।
3. ग्यारह प्रतिमाओं में उत्तरोत्तर व्रतों की तरतमता
चारित्रसार/3/4 इत्येकादेशनिलया जिनोदिता: श्रावका: क्रमश: व्रतादयो गुणा दर्शनादिभि: पूर्वगुणै: सह क्रमप्रवृद्धा भवंति। =जिनेंद्रदेव ने अनुक्रम से इन ग्यारह स्थानों में रहने वाले ग्यारह प्रकार के श्रावक बतलाये हैं। इन श्रावकों के व्रतादि गुण सम्यग्दर्शनादि अपने पहले के गुणों के साथ अनुक्रम से बढ़ते रहते हैं।
सागार धर्मामृत/3/5 तद्वद्दर्शनिकादिश्च, स्थैर्यं स्वे स्वे व्रतेऽव्रजन् । लभते पूर्वमेवार्थाद्, व्यपदेशं न तूत्तरम् ।5। = नैष्ठिक श्रावक की तरह अपने-अपने व्रतों में स्थिरता को प्राप्त नहीं होने वाले दर्शनिक आदि श्रावक भी वास्तव में पूर्व-पूर्व की ही संज्ञा को पाता है, किंतु आगे की संज्ञा को नहीं।5।
4. पाक्षिक श्रावक सर्वथा अव्रती नहीं
लाटी संहिता/2/47-49 नेत्थं य: पाक्षिकं कश्चिद् व्रताभावादस्त्यव्रती। पक्षमात्रावलंबी स्याद् व्रतमात्रं न चाचरेत् ।47। यतोऽस्य पक्षग्राहित्वमसिद्धं बाधसंभवात् । लोपात्सर्वविदाज्ञाया: साध्या पाक्षिकता कुत:।48। आज्ञा सर्वविद: सैव क्रियावान् श्रावको मत:। कश्चित्सर्वनिकृष्टोऽपि न त्यजेत्स कुलक्रिया:।49। = प्रश्न - 1. पाक्षिक श्रावक किसी व्रत को पालन नहीं करता, इसलिए वह अव्रती है। वह तो केवल व्रत धारण करने का पक्ष रखता है, अतएव रात्रिभोजन त्याग भी नहीं कर सकता ? उत्तर - ऐसी आशंका ठीक नहीं क्योंकि रात्रिभोजनत्याग न करने से उसका पाक्षिकपना सिद्ध नहीं होता। सर्वज्ञदेव द्वारा कही रात्रिभोजनत्याग रूप कुलक्रिया का त्याग न करने से उसके सर्वज्ञदेव की आज्ञा के लोप का प्रसंग आता है, और सर्वज्ञ की आज्ञा का लोप करने से उसका पाक्षिकपना भी किस प्रकार ठहरेगा?।47-48।
2. सर्वज्ञ की आज्ञा है कि जो क्रियावान् कुलक्रिया का पालन करता है वह श्रावक माना गया है। अतएव जो सबसे कम दर्जे के अभ्यासमात्र मूलगुणों का पालन करता है उसे भी अपनी कुलक्रियाएँ नहीं छोड़नी चाहिए।49।लाटी संहिता/3/129,131 एवमेव च सा चेत्स्यात्कुलाचारक्रमात्परम् । विना नियमादि तावत्प्रोच्यते सा कुलक्रिया।129। दर्शनप्रतिमा नास्य गुणस्थानं न पंचमम् । केवलं पाक्षिक: स: स्याद्गुणस्थानादसंयत:।131। 3. यदि ये उपरोक्त (अष्टमूलगुण व सप्तव्यसनत्याग) क्रियाएँ बिना किसी नियम के हों तो उन्हें व्रत नहीं कहते बल्कि कुलक्रिया कहते हैं।129। ऐसे ही इन कुलक्रियाओं का पालन करने वाला न दर्शन प्रतिमाधारी है और न पंचम गुणवर्ती। वह केवल पाक्षिक है और उसका गुणस्थान असंयत है।131।
देखें श्रावक - 4.3 [अष्ट मूलगुण तथा सप्त व्यसन त्याग के बिना नाममात्र को भी श्रावक नहीं।]
देखें श्रावक - 4.4 [ये अष्ट मूलगुण व्रती व अव्रती दोनों को यथायोग्य रूप में होते हैं।]
देखें श्रावक - 1.3.1 [अष्ट मूलगुण धारण और स्थूल अणुव्रतों का शक्त्यनुसार पालन पाक्षिक श्रावक का लक्षण है।]
5. पाक्षिक श्रावक की दिनचर्या
सागार धर्मामृत/6/1-44 ब्राह्ये मुहूर्त्त उत्थाय, वृत्तपंचनमस्कृति:। कोऽहं को मम धर्म: किं, व्रतं चेति परामृशेत् ।1। = ब्रह्य मुहूर्त में उठ करके पढ़ा है नमस्कार मंत्र जिसने ऐसा श्रावक मैं कौन हूँ, मेरा धर्म कौन है, और मेरा व्रत कौन है, इस प्रकार चिंतवन करे।1। श्रावक के अति दुर्लभ धर्म में उत्साह की भावना।2। स्नानादि के पश्चात् अष्ट प्रकार अर्हंत भगवान् की पूजा तथा वंदनादि कृतिकर्म (3-4) ईर्या समिति से (6) अत्यंत उत्साह से (7) जिनालय में निस्सही शब्द के उच्चारण के साथ प्रवेश करे (8) जिनालय को समवशरण के रूप में ग्रहण करके (10) देव शास्त्र गुरु की विधि अनुसार पूजा करे (11-12) स्वाध्याय (13) दान (14) गृहस्थ संबंधित कार्य (15) मुनिव्रत की धारण की अभिलाषा पूर्वक भोजन (17) मध्याह्न में अर्हंत भगवान् की आराधना (21) पूजादि (23) तत्त्व चर्चा (26) संध्या में भाव पूजादि करके सोवे (27) निद्रा उचटने पर वैराग्य भावना भावे (28-33)। स्त्री की अनिष्टता का विचार करे (34-36) समता व मुनिव्रत की भावना करे (34-43)। आदर्श श्रावकों की प्रशंसा तथा धन्य करे (44)। ( लाटी संहिता/6/162-188 )।
6. पाँचों व्रतों के एकदेश पालन करने से व्रती होता है
सर्वार्थसिद्धि/7/19/358/3 अत्राह किं हिंसादोनामन्यतमस्माद्य: प्रतिनिवृत्त: स खल्वागारी व्रती। नैवम् । किं तर्हि। पंचतय्या अपि विरतेर्वैकल्येन विवक्षित:। = प्रश्न - जो हिंसादिक में से किसी एक से निवृत्त है वह क्या अगारी व्रती है ? उत्तर - ऐसा नहीं है। प्रश्न - तो क्या है? उत्तर - जिसके एक देश से पाँचों की विरति है वह अगारी है। यह अर्थ यहाँ विवक्षित है। ( राजवार्तिक/7/19/4/547/1 )।
राजवार्तिक/7/19/3/546/31 यथा गृहापवरकादिनगरदेशैर्निवासस्यापि नगरावास इति शब्द्यते, तथा असकलव्रतोऽपि नैगमसंग्रहव्यवहारनयविवक्षापेक्षया व्रतीति व्यपदिश्यते। = जैसे - घर के एक कोने या नगर के एकदेश में रहने वाला भी व्यक्ति नगरवासी कहा जाता है उसी तरह सकल व्रतों को धारण न कर एक देशव्रतों को धारण करने वाला भी नैगम संग्रह और व्यवहार नयों की अपेक्षा व्रती कहा जायेगा।
7. पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक में अंतर
सागार धर्मामृत/3/4 दुर्लेश्याभिभवाज्जातु, विषये क्वचिदुत्सुक:। स्खलन्नपि क्वापि गुणे, पाक्षिक: स्यान्न नैष्ठिक:।4। = कृष्ण, नील व कापोत इन लेश्याओं में से किसी एक के वेग से किसी समय इंद्रिय के विषय में उत्कंठित तथा किसी मूलगुण के विषय में अतिचार लगाने वाला गृहस्थ पाक्षिक कहलाता है नैष्ठिक नहीं।
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- श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश
- अष्ट मूलगुण अवश्य धारण करने चाहिए
- अष्ट मूलगुण निर्देश का समन्वय
- अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसनों के त्याग के बिना नाम से भी श्रावक नहीं
- अष्ट मूलगुण व्रती अव्रती दोनों को होते हैं
- साधु को पूर्ण और श्रावक को एकदेश होते हैं
- श्रावक के अनेकों उत्तर गुण
- श्रावक के अन्य कर्तव्य
- आवश्यक क्रियाओं का महत्त्व
- कुछ निषिद्ध क्रियाएँ
- सब क्रियाओं में संयम रक्षणीय है
श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश
1. अष्ट मूलगुण अवश्य धारण करने चाहिए
रत्नकरंड श्रावकाचार/66 मद्यमांसमधुत्यागै: सहाणुव्रतपंचकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा:।66। =मद्य, मांस और मधु के त्याग सहित पाँचों अणुव्रतों को श्रेष्ठ मुनिराज गृहस्थों के मूलगुण कहते हैं।66। ( सागार धर्मामृत )
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/61 मद्यं मांसं क्षौद्रं पंचोदुंबरफलानि यत्नेन। हिंसा व्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव।61। =हिंसा त्याग की कामना वाले पुरुषों को सबसे पहले शराब, मांस, शहद, ऊमर, कठूमर आदि पंच उदुंबर फलों का त्याग करना योग्य है।61। (पंद्मनन्दि पंचविंशतिका /6/23), ( सागार धर्मामृत/2/2 )।
चारित्रसार/30/4 पर उद्धृत - हिंसासत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मांसानमद्याद्विरतिर्गृहिणोऽष्ट संत्यमी मूलगुणा:। =स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्म व स्थूल परिग्रह से विरक्त होना तथा जूआ, मांस और मद्य का त्याग करना ये आठ गृहस्थों के मूलगुण कहलाते हैं। ( चारित्रसार/30/3 ), ( सागार धर्मामृत/2/3 )।
सागार धर्मामृत/2/18 मद्यपलमधुनिशाशन-पंचफलीविरति-पंचकाप्तनुती। जीवदयाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणा:।18। =किसी आचार्य के मत में मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन व पंच उदंबर फलों का त्याग, देववंदना, जीव दया करना और पानी छानकर पीना ये मूलगुण माने गये हैं।18। ( सागार धर्मामृत/ पं.लाल राम/फुट नोट पृष्ठ 82)।
2. अष्ट मूलगुण निर्देश का समन्वय
राजवार्तिक हिंदी /7/20/558कोई शास्त्र में तो आठ मूलगुण कहे हैं, तामें पाँच अणुव्रत कहे, मद्य, मांस, शहद का त्याग कहा, ऐसे आठ कहे। कोई शास्त्र में पाँच उदुंबर फल का त्याग, तीन मकार का त्याग, ऐसे आठ कहे। कोई शास्त्र में अन्य प्रकार भी कहा है। यह तो विवक्षा का भेद है, तहाँ ऐसा समझना जो स्थूलपने पाँच पाप ही का त्याग है। पंच उदुंबर फल में तो त्रस भक्षण का त्याग भया, शिकार के त्याग में त्रस मारने का त्याग भया। चोरी तथा परस्त्री त्याग में दोऊ व्रत भए। द्यूत कर्मादि अति तृष्णा के त्याग तै असत्य का त्याग तथा परिग्रह की अति चाह मिटी। मांस, मद्य, और शहद के त्याग तै त्रस कूं मार करि भक्षण करने का त्याग भया।
3. अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसनों के त्याग के बिना नाम से भी श्रावक नहीं
देखें दर्शन प्रतिमा - 2.5 पहली प्रतिमा में ही श्रावक को अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसन का त्याग हो जाता है।
सागार धर्मामृत/ टिप्पणी/पृष्ठ 82 एतेऽष्टौ प्रगुणा गुणा गणधरैरागारिणां कीर्तिता। एकेनाप्यमुना विना यदि भवेद्भूतो न गेहाश्रमी। = आठ मूलगुण श्रावकों के लिए गणधरदेव ने कहे हैं, इनमें से एक के भी अभाव में श्रावक नहीं कहा जा सकता।
पंचाध्यायी उत्तरार्ध/724-728 निसर्गाद्वा कुलाम्नायादायातास्ते गुणा: स्फुटम् । तद्विना न व्रतं यावत्सम्यक्त्वं च तथांगिनाम् ।724। एतावता विनाप्येष श्रावको नास्ति नामत:। किं पुन: पाक्षिको गूढो नैष्ठिक: साधकोऽथवा।725। मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुंबरपंचक:। नामत: श्रावक: ख्यातो नान्यथाऽपि तथा गृही।726। यथाशक्ति विधातव्यं गृहस्थैर्व्यसनोज्झनम् । अवश्यं तद्व्रतस्थैस्तैरिच्छद्भि: श्रेयसीं क्रियाम् ।727। त्यजेद्दोषांस्तु तत्रोक्तान् सूत्रोऽतीचारसंज्ञकान् । अन्यथा मद्यमांसादीन् श्रावक: क: समाचरेत् ।728। = आठों मूलगुण स्वभाव से अथवा कुल परंपरा से भी आते हैं। यह स्पष्ट है कि मूलगुण के बिना जीवों के सब प्रकार का व्रत और सम्यक्त्व नहीं हो सकता।724। मूलगुणों के बिना जीव नाम से भी श्रावक नहीं हो सकता तो फिर पाक्षिक, गूढ नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक कैसे हो सकता है।725। मद्य, मांस मधु व पंच उदुंबर फलों का त्याग करने वाला गृहस्थ नाम से श्रावक कहलाता है, किंतु मद्यादि का सेवन करने वाला गृहस्थ नाम से भी श्रावक नहीं है।726। गृहस्थों को यथाशक्ति व्यसनों का त्याग करना चाहिए, तथा कल्याणप्रद क्रियाओं के करने की इच्छा करनी चाहिए। व्रती गृहस्थ को अवश्य ही व्यसनों का त्याग करना चाहिए।727। और मूलगुणों के लगने वाला अतिचार नामक दोषों को भी अवश्य छोड़ना चाहिए अन्यथा साक्षात् रूप से मद्य, मांस आदि को कौन-सा श्रावक खाता है।728। ( लाटी संहिता/2/6-9 ), ( लाटी संहिता/3/129-130 )।
4. अष्ट मूलगुण व्रती अव्रती दोनों को होते हैं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/723 तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम् । क्वचिदव्रतिनां यस्मात् सर्वसाधारणा इमे।723। = उनमें जिस कारण से व्रती गृहस्थों के जो आठ मूलगुण हैं वे कहीं-कहीं पर अव्रती गृहस्थों के भी पाये जाते हैं इसलिए ये आठों ही मूलगुण साधारण हैं।723। ( लाटी संहिता/3/127-128 )।
5. साधु को पूर्ण और श्रावक को एकदेश होते हैं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/722 मूलोत्तरगुणा: संति देशतो वेश्मवर्तिनाम् । तथानगारिणां न स्यु: सर्वत: स्यु: परेऽथ ते।722। = जैसे गृहस्थों के मूल और उत्तरगुण होते हैं वैसे मुनियों के एकदेश रूप से नहीं होते हैं किंतु वे मूलगुण तथा उत्तरगुण सर्व देश रूप से ही होते हैं। (विशेष देखें व्रत - 2.4)।
6. श्रावक के अनेकों उत्तर गुण
1. श्रावक के 2 कर्तव्य
रयणसार/11 दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। = चार प्रकार का दान देना और देवशास्त्र गुरु की पूजा करना श्रावक का मुख्य कर्तव्य है, इनके बिना वह श्रावक नहीं है।
2. श्रावक के 4 कर्तव्य
कषायपाहुड़/82/100/2 दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो। = दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावक के धर्म हैं। ( अमितगति श्रावकाचार/9/1 ), ( सागार धर्मामृत/7/51 ), ( सागार धर्मामृत/पं.लालाराम/फुटनोट पृष्ठ 95 )।
3. श्रावक के 5 कर्तव्य
कुरल काव्य/5/3 गृहिण: पंच कर्माणि स्वोन्नतिर्देवपूजनम् । बंधु साहाय्यमातिथ्यं पूर्वेषां कीर्तिरक्षणम् ।3। = पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, देवपूजन, अतिथि सत्कार, बंधु-बांधवों की सहायता और आत्मोन्नति ये गृहस्थ के पाँच कर्तव्य हैं।3।
4. श्रावक के 6 कर्तव्य
चारित्रसार/43/1 गृहस्थस्येज्या, वार्ता, दत्ति:, स्वाध्याय:, संयम:, तप इत्यार्यषट्कर्माणि भवंति। = इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, और दान ये छह गृहस्थों के आर्य कर्म कहलाते हैं।
पंद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/7 देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तप:। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने।7। = जिनपूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह कर्म गृहस्थ के लिए प्रतिदिन के करने योग्य आवश्यक कार्य हैं।7।
अमितगति श्रावकाचार/8/29 सामायिकं स्तव: प्राज्ञैर्वंदना सप्रतिक्रमा। प्रत्याख्यानं तनूत्सर्ग: षोढावश्यकमीरितम् ।29। = सामायिक, स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ऐसे छह प्रकार के आवश्यक पंडितों के द्वारा कहे गये हैं।29।
5. श्रावक की 53 क्रियाएँ
रयणसार/153 गुणवयतवसमपडिमादाणं जलगालण अणत्थमियं। दंसणणाणचरित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिया।153। = गुणव्रत 3, अणुव्रत 5, शिक्षाव्रत 4, तप 12, ग्यारह प्रतिमाओं का पालन 11, चार प्रकार का दान देना 4, पानी छानकर पीना 1, रात में भोजन नहीं करना 1, रत्नत्रय को धारण करना 3, इनको आदि लेकर शास्त्रों में श्रावकों की तिरेपन क्रियाएँ निरूपण की हैं उनका जो पालन करता है वह श्रावक है।153।
7. श्रावक के अन्य कर्तव्य
तत्त्वार्थसूत्र/7/22 मारणांतिकीं सल्लेखनां जोषिता।22। = तथा वह (श्रावक) मारणांतिक सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला होता है।22। ( सागार धर्मामृत/7/57 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/319 विणओ विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं। सत्तीए जहजोग्गं कायव्वं देसविरएहिं।319। = देशविरत श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन विधान करना चाहिए।319।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/25,29,42,59 पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तप:। वस्त्रपूतं पिबेतोयं...।25। विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्य: परमेष्ठिषु। दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितै:।29। द्वादशापि चिंत्या अनुप्रेक्षा महात्मभि:...।42। आद्योत्तमक्षमा यत्र यो धर्मो दशभेदभाक् । श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।59। = पर्व के दिनों में यथाशक्ति भोजन के त्यागरूप अनशनादि तपों को करना चाहिए। तथा वस्त्र से छना जल पीना चाहिए।25। श्रावकों को जिनागम के आश्रित होकर पंच परमेष्ठियों तथा रत्नत्रय के धारकों की यथायोग्य विनय करनी चाहिए।29। महात्मा पुरुषों को अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन करना चाहिए।42। श्रावकों को भी यथाशक्ति और आगम के अनुसार दशधर्म का पालन करना चाहिए।59।
सागार धर्मामृत/ टिप्पणी/2/24/पृष्ठ 95 आराध्यंते जिनेंद्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिके प्रीतिरुच्चै:। पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया। तत्त्वाभ्यास: स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यम् । तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दु:खदो मोहपाश:। = जिनेंद्रदेव की आराधना, गुरु के समीप विनय, धर्मात्मा लोगों पर प्रेम, सत्पात्रों को दान, विपत्तिग्रस्त लोगों पर करुणा, बुद्धि से दुख दूर करना, तत्त्वों का अभ्यास, अपने व्रतों में लीन होना और निर्मल सम्यग्दर्शन का होना, ये क्रियाएँ जहाँ त्रिकरण से चलती हैं वही गृहस्थधर्म विद्वानों को मान्य है, इससे विपरीत गृहस्थ लोक और परलोक में दुख देने वाला है।
सागार धर्मामृत/7/55,59 स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यादनुप्रेक्षाश्च भावयेत् । यस्तु मंदायते तत्र, स्वकार्ये स: प्रमाद्यति।55। यत्प्रागुक्तं मुनींद्राणां, वृत्तं तदपि सेव्यताम् । सम्यङ्निरूप्य पदवीं, शक्तिं च स्वामुपासकै:।59। = श्रावक आत्महितकारक स्वाध्याय को करे, बारह भावनाओं को भावे। परंतु जो श्रावक इन कार्यों में आलस्य करता है वह हित कार्यों में प्रमाद करता है।55। पहले अनगार धर्मामृत में कथित मुनियों का जो चारित्र, उसको भी अपनी शक्ति व पद को समझकर श्रावकों के द्वारा सेवन किया जाय।59।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/736-740 जिनचैत्यगृहादीनां निर्माणे सावधानतया। यथासंपद्विधेयास्ति दूष्या नावद्यलेशत:।736। अथ तीर्थादियात्रासु विदध्यात्सोद्यतं मन:। श्रावक: स तत्रापि संयमं न विराधयेत् ।738। संयमो द्विविधश्चैवं विधेयो गृहमेधिभि:। विनापि प्रतिमारूपं व्रतं यद्वा स्वशक्तित:।740। = अपनी संपत्ति के अनुसार मंदिर बनवाने में भी सावधानता करनी चाहिए, क्योंकि थोड़ा सा भी पाप इन कार्यों में निंद्य है।736। और वह श्रावक तीर्थादिक की यात्रा में भी मन को तत्पर करे, परंतु उस यात्रा में अपने संयम को विराधित न करे।738। गृहस्थों को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिमा रूप से वा बिना प्रतिमारूप से दोनों प्रकार का संयम पालन करना चाहिए।740।
लाटी संहिता/5/185 यथा समितय: पंच संति तिस्रश्च गुप्तय:। अहिंसाव्रतरक्षार्थं कर्तव्या देशतोऽपि तै:।185। = अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों का भी एकदेशरूप से पालन करना चाहिए।185।
देखें व्रत - 2.4 महाव्रत की भावनाएँ भानी चाहिए।
देखें पूजा - 2.1 अर्हंतादि पंच परमेष्ठी की प्रतिमाओं की स्थापना करावें। तथा नित्य जिनबिंब महोत्सव आदि क्रियाओं में उत्साह रखे।
देखें चैत्य_चैत्यालय 2.7 औषधालय, सदाव्रतशालाएँ तथा प्याऊ खुलवावे। तथा जिनमंदिर में सरोवर व फुलवाड़ी आदि लगवावे।
8. आवश्यक क्रियाओं का महत्त्व
देखें दान - 4 चारों प्रकार का दान अत्यंत महत्त्वशाली है।
रयणसार/12-13 दाणुण धम्मुण चागुण भोगुण बहिरप्पो पयंगो सो। लोहकसायग्गिमुहे पडिउमरिउण संदेहो।12। जिण पूजा मुणिदाणं करेइ जो देइ सत्तिरूवेण। सम्माइट्ठी सावय धम्मी सो होइ मोक्खमग्गरओ।13। = जो श्रावक सुपात्र को दान नहीं देता, न अष्टमूलगुण, गुणव्रत, संयम पूजा आदि धर्म का पालन करता है, न नीतिपूर्वक भोग भोगता है वह मिथ्यादृष्टि है। जैन धर्म धारण करने पर भी लोभ की तीव्र अग्नि में पतंगे के समान उड़कर मरता है। जो श्रावक अपनी शक्ति अनुसार प्रतिदिवस देव, शास्त्र, गुरु पूजा तथा सुपात्र में दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि श्रावक इससे मोक्षमार्ग में शीघ्र गमन करता है।12-13।
महापुराण/39/99-101 ततोऽधिगतसज्जाति: सद्गृहित्वमसौ भजेत् । गृहमेधी भवनार्यषट्कर्माण्यनुपालयन् ।99। यदुक्तं गृहचर्यायाम् अनुष्ठानं विशुद्धिमतम् । तदाप्तविहितं कृत्स्नम् अतंद्रालु: समाचरेत् ।100। जिनेंद्राल्लब्धसज्जंमा गणेंद्ररनुशिक्षित:। स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तम:।101। = जिसे सज्जाति क्रिया प्राप्त हुई है ऐसा वह भव्य सद्गृहित्व क्रिया को प्राप्त होता है। इस प्रकार जो सद्गृहित्व होता हुआ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन करता है, गृहस्थ अवस्था में करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं अरहंत भगवान् के द्वारा कहे गये उन-उन समस्त आचरणों का जो आलस्य रहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेंद्रदेव से उत्तम जन्म प्राप्त किया है, गणधर देव ने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज-आत्मतेज को धारण करता है।99-101।
9. कुछ निषिद्ध क्रियाएँ
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/77 स्तोकैकेंद्रियघाताद्गृहिणां संपन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।77। = इंद्रियों के विषयों को न्याय पूर्वक सेवन करने वाले श्रावकों को कुछ आवश्यक एकेंद्रिय के घात के अतिरिक्त अवशेष स्थावर-एकेंद्रिय जीवों के मारने का त्याग भी अवश्यमेव करने योग्य होता है।77।
देखें सावद्य - 5 खर कर्म आदि सावद्य कर्म नहीं करने चाहिए।
वसुनंदी श्रावकाचार/312 दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेषु णत्थि अहियारो। सिद्धंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं।312। = दिन में प्रतिमा-योग धारण करना अर्थात् नग्न होकर कायोत्सर्ग करना, त्रिकालयोग-गर्मी में पर्वतों के ऊपर, बरसात में वृक्ष के नीचे, सर्दी में नदी के किनारे ध्यान करना, वीरचर्या–मुनि के समान गोचरी करना, सिद्धांत ग्रंथों का-केवली श्रुतकेवली कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध और अभिन्न दशपूर्वी साधुओं से निर्मित ग्रंथों का अध्ययन करना और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र का भी अध्ययन करना, इतने कार्यों में देश विरतियों का अधिकार नहीं है।312। ( सागार धर्मामृत/7/50 )।
सागार धर्मामृत/4/16 गवाद्यैर्नैष्ठिको वृत्तिं, त्यजेद् बंधादिना विना। भोग्यान् वा तानुपेयात्तं, योजयेद्वा न निर्दयम् ।16। = नैष्ठिक श्रावक गौ बैल आदि जानवरों के द्वारा अपनी आजीविका को छोड़ें अथवा भोग करने के योग्य उन गौ आदि जानवरों को बंधन ताड़न आदि के बिना ग्रहण करें, अथवा निर्दयता पूर्वक बंधन आदि को नहीं करें।16।
लाटी संहिता/5/224,265 अश्वाद्यारोहणं मार्गे न कार्यं व्रतधारिणाम् । ईर्यासमितिसंशुद्धि: कुत: स्यात्तत्र कर्मणि।224। छेद्यो नाशादिछिद्रार्थ: काष्ठसूलादिभि: कृत:। तावन्मात्रातिरिक्तं तन्निविधेयं प्रतिमान्वितै:।265। = अणुव्रती श्रावक को घोड़े आदि की सवारी पर चढ़कर चलने में उसके इर्या समिति की शुद्धि किस प्रकार हो सकती है।224। प्रतिमा रूप अहिंसा अणुव्रत को पालन करने वाले श्रावकों को नाक छेदने के लिए सूई, सूआ वा लकड़ी आदि से छेद करना पड़ता है, वह भी उतना ही करना चाहिए जितने से काम चल जाये, इससे अधिक छेद नहीं करना चाहिए।265।
10. सब क्रियाओं में संयम रक्षणीय है
देखें श्रावक - 4.7 में पंचाध्यायी –वह श्रावक तीर्थयात्रादिक में भी अपने मन को तत्पर करे, परंतु उस यात्रा में अपने संयम को विराधित न करे।
पुराणकोष से
पांच अणुव्रत, तीन गुणवत तथा चार शिक्षाव्रतों का धारी गृहस्थ । उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से भी श्रावक तीन प्रकार के कहे हैं । इनमें पहली से छठी प्रतिमा के धारी जघन्य श्रावक, सातवीं से नौवीं प्रतिमा के धारी मध्यम और दसवीं एवं ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्तम श्रावक कहे गये हैं । समवसरण में श्रावकों का निश्चित स्थान होता है । श्रावक के व्रतों को मोक्षमहल की दूसरी सीढ़ी कहा है । दान, पूजा, तप और शील श्रावकों का बाह्य धर्म है । महापुराण 39.143-150, 67.69, हरिवंशपुराण 3.63, 10. 7-8, 12.78 वीरवर्द्धमान चरित्र 17.82, 18. 36-37, 60-70
- पाक्षिक श्रावक
- श्रावक सामान्य के लक्षण