ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 41
From जैनकोष
अथानंतर जिन्हें दक्षिण समुद्र देखने की इच्छा थी तथा जो निरंतर सुख भोगते आते थे ऐसे श्रीमान् राम-लक्ष्मण सीता के साथ नगर और ग्रामों से व्याप्त बहुत देशों को पार कर नाना प्रकार के मृगों से व्याप्त महावन में प्रविष्ट हुए ॥1-2॥ ऐसे सघन वन में प्रविष्ट हुए जिसमें मार्ग ही नहीं सूझता था, उत्तम मनुष्यों के द्वारा सेवित एक भी स्थान नहीं था, वनचारी भीलों के लिए भी जहाँ चलना कठिन था, जो पर्वतों से व्याप्त था, नाना प्रकार के वृक्ष और लताओं से सघन था, जिसमें अत्यंत विषम गर्त थे, जो गुहाओं के अंधकार से गंभीर जान पड़ता था, और जहाँ झरने तथा अनेक नदियाँ बह रही थीं ॥3-4॥ उस वन में वे जानकी के कारण धीरे-धीरे एक कोश ही चलते थे । इस तरह भय से रहित तथा क्रीड़ा करने में उद्यत दोनों भाई उस कर्णरवा नदी के पास पहुँचे ॥5॥ जिसके कि किनारे अत्यंत रमणीय, बहुत भारी तृणों से व्याप्त, समान, लंबे-चौड़े और सुखकारी स्पर्श को धारण करने वाले थे ॥6॥ उस कर्ण रवानदी के समीपवर्ती पर्वत, किनारे के उन वृक्षों से सुशोभित थे जो ज्यादा ऊँचे तो नहीं थे पर जिनकी छाया अत्यंत घनी थी तथा जो फल और फूलों से युक्त थे ॥7॥ यह वन तथा नदी दोनों ही अत्यंत सुंदर हैं ऐसा विचार कर वे एक वृक्ष की मनोहर छाया में सीता के साथ बैठ गये ॥8॥ क्षण-भर वहाँ बैठकर तथा मनोहर किनारों पर अवगाहन कर वे सुंदर क्रीड़ा के योग्य जलावगाहन करने लगे अर्थात् जल के भीतर प्रवेश कर जलक्रीड़ा करने लगे ॥9।। तदनंतर परस्पर सुखकारी कथा करते हुए उन सबने वन के पके मधुर फल तथा फूलों का इच्छानुसार उपभोग किया ॥10॥ वहाँ लक्ष्मण ने नाना प्रकार की मिट्टी, बांस तथा पत्तों से सब प्रकार के बरतन तथा उपयोगी सामान शीघ्र ही बना लिया ॥11॥ इन सब बरतनों में राजपुत्री सीता ने स्वादिष्ट तथा सुंदर फल और वन की सुगंधित धान के भोजन बनाये ॥12॥
किसी एक दिन अतिथि प्रेक्षण के समय सीता ने सहसा सामने आते हुए सुगुप्ति और गुप्ति नाम के दो मुनि देखे । वे मुनि आकाशांगण में विहार कर रहे थे, कांति के समूह से उनके शरीर व्याप्त थे, वे बहुत ही सुंदर थे, मति-श्रुत-अवधि इन तीन ज्ञानी से सहित थे, महाव्रतों के धारक थे, परम तप से युक्त थे, खोटी इच्छाओं से उनके मर रहित थे, उन्होंने एक मास का उपवास किया था, वे धीर-वीर थे, गुणों से सहित थे, शुभ चेष्टा के धारक थे, बध और चंद्रमा के समान नेत्रों को आनंद प्रदान करते थे और यथोक्त आचार से सहित थे ॥13-16॥ तदनंतर हर्ष के भार से जिसके नेत्रों की शोभा विकसित हो रही थी तथा जिसके शरीर में रोमांच उठ रहे थे ऐसी सीता ने राम से कहा कि हे नरश्रेष्ठ ! देखो-देखो, तप से जिनका शरीर कृश हो रहा है तथा जो अतिशय थके हुए मालूम होते हैं, ऐसे दिगंबर मुनियों का यह युगल देखो ।। 17-18॥ राम ने संभ्रम में पड़कर कहा कि हे प्रिये ! हे साध्वि ! हे पंडिते ! हे सुंदरदर्शने ! हे गुणमंडने ! तुमने निर्ग्रंथ मुनियों का युगल कहाँ देखा ? कहाँ देखा ? ॥19॥ वह युगल कि जिसके देखने से हे सुंदरि ! भक्त मनुष्यों का चिरसंचित पाप क्षण-भर में नष्ट हो जाता है ॥20॥ राम के इस प्रकार कहने पर सीता ने संभ्रम पूर्वक कहा कि ये हैं, ये हैं । उस समय राम कुछ आकुलता को प्राप्त हुए ॥21॥
तदनंतर युग प्रमाण पृथिवी में जिनकी दृष्टि पड़ रही थी, जिनका गमन अत्यंत शांति पूर्ण था और जिनके शरीर प्रमाद से रहित थे, ऐसे दो मुनियों को देखकर दंपती अर्थात् राम और सीता ने उठकर खड़े होना, सम्मुख जाना, स्तुति करना, और नमस्कार करना आदि क्रियाओं से उन दोनों मुनियों को पुण्यरूपी निर्झर के झराने के लिए पर्वत के समान किया था ।। 22-23॥ जिसका शरीर पवित्र था, तथा जो अतिशय श्रद्धा से युक्त थी ऐसी सीता ने पति के साथ मिलकर दोनों मुनियों के लिए भोजन परोसा-आहार प्रदान किया ॥24॥ वह आहार वन में उत्पन्न हुई गायों और भैंसों के ताजे और मनोहर घी, दूध तथा उनसे निर्मित अन्य मावा आदि पदार्थों से बना था ॥25॥ खजूर, इंगुद, आम, नारियल, रसदार बेर तथा भिलामा आदि फलों से निर्मित था ॥26॥ इस प्रकार शास्त्रोक्त शुद्धि से सहित नाना प्रकार के खाद्य पदार्थों से उन मुनियों ने पारणा की । उन मुनियों के चित्त भोजन विषयक गृध्रता के संबंध से रहित थे ॥27॥ इस प्रकार समस्त भावों से मुनियों का सन्मान करने वाले राम इन दोनों मुनियों की सेवा कर सीता के साथ बैठे ही थे कि उसे समय आकाश में अदृष्टजनों से ताड़ित दुंदुभि बाजे बजने लगे, घ्राण इंद्रिय को प्रसन्न करने वाल वायु धीरे-धीरे बहने लगी, ‘धन्य, धन्य’ इस प्रकार देवों का मधुर शब्द होने लगा, आकाश पाँच वर्ण के फूल बरसाने लगा और पात्रदान के प्रभाव से आकाश को व्याप्त करने वाली, महाकांति की धारक, सब रंगों को दिव्य रत्न वृष्टि होने लगी॥28-31॥
अथानंतर वन के इसी स्थान में सघन महावृक्ष के अग्रभाग पर एक बड़ा भारी गृध्र पक्षी स्वेच्छा से बैठा ॥32॥ सो अतिशय पूर्ण दोनों मुनिराजों को देखकर कर्मोदय के प्रभाव से उसे अपने अनेक भव स्मृत हो उठे । वह उस समय इस प्रकार विचार करने लगा ॥33॥ कि यद्यपि मैं पूर्व पर्याय में विवे की था तो भी मैंने प्रमादी बनकर मनुष्य भव में करने योग्य तपश्चरण नहीं किया अतः मुझ अविवेकी को धिक्कार हो ॥34॥ हे हृदय ! अब क्यों संताप कर रहा है ? इस समय तो इस कुयोनि में आकर पाप चेष्टाओं में निमग्न हूँ अतः क्या उपाय कर सकता हूँ ? ॥35॥ मित्र संज्ञा को धारण करने वाले तथा अनुकूलता दिखाने वाले पापी बैरियों से प्रेरित हो मैंने सदा धर्मरूपी रत्न का परित्याग किया है ॥36 ।। मोहरूपी अंधकार से व्याप्त होकर मैंने गुरुओं का उपदेश न सुन जिस अत्यधिक पाप का आचरण किया है उसे आज स्मरण करता हुआ ही जल रहा हूँ ॥37॥ अथवा इस विषय में बहुत विचार करने से कुछ भी प्रयोजन नहीं है क्योंकि दुःखों का क्षय करने के लिए लोक में मेरी दूसरी गति नहीं है-अन्य उपाय नहीं है । मैं तो सब जीवों को सुख देने वाले इन्हीं दोनों मुनियों की शरण को प्राप्त होता हूँ । इनसे निश्चित ही मुझे परमार्थ की प्राप्ति होगी ॥38-39।। इस प्रकार पूर्वभव का स्मरण होने से जो परम शोक को प्राप्त हुआ था तथा महामुनियों के दर्शन से जो अत्यधिक हर्ष को प्राप्त था ऐसा शीघ्रता से सहित, अश्रुपूर्ण नेत्रों का धारक, एवं विनयपूर्ण चेष्टाओं से सहित वह गृध्र पक्षी दोनों पंख फड़फड़ाकर वृक्ष के शिखर से नीचे आया ॥40-41॥ यहाँ इस अत्यधिक कोलाहल से हाथी तथा सिंहादिक बड़े-बड़े जंतु तो भाग गये पर यह दुष्ट नीच पक्षी क्यों नहीं भागा । हा मातः ! इस पापी गृध्र की धृष्टता तो देखो; इस प्रकार विचारकर जिसका चित्त क्रोध से आकुलित हो रहा था तथा जिसने कठोर शब्दों का उच्चारण किया था ऐसी सीता ने यद्यपि प्रयत्नपूर्वक उस पक्षी को रोका था तथापि वह बड़े उत्साह से मुनिराज के चरणोदक को पीने लगा ॥42-44॥ चरणोदक के प्रभाव से उसका शरीर उसी समय रत्नराशि के समान नाना प्रकार के तेज से व्याप्त हो गया ॥45॥ उसके दोनों पंख सुवर्ण के समान हो गये, पैर नीलमणि के समान दिखने लगे, शरीर नाना रत्नों की कांति का धारक हो गया और चोंच मूंगा के समान दिखने लगी ॥46॥ तदनंतर अपने आपको अन्यरूप देख वह अत्यंत हर्षित हुआ और मधुर शब्द छोड़ता हुआ नृत्य करने के लिए उद्यत हुआ ॥47॥ उस समय जो देव-दुंदुभि का नाद हो रहा था वही उस तेजस्वी की अपनी वाणी से मिलता-जुलता अत्यंत सुंदर साज का काम दे रहा था ॥48॥ दोनों मुनियों की प्रदक्षिणा देकर हर्षाश्रु को छोड़ता हुआ वह नृत्य करने वाला गृध्र पक्षी वर्षा ऋतु के मयूर के समान सुशोभित हो रहा था ।। 49 ।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! जिनका यथोचित सत्कार किया गया था ऐसे दोनों मुनिराज विधिपूर्वक पारणा कर वैडूर्यमणि के समान जो शिलातल था उस पर विराजमान हो गये ॥50॥ और पद्म राग मणि के मान नेत्रों का धारक गृध्र पक्षी भी अपने पंख संचित कर तथा मुनिराज के चरणों में प्रणाम कर अंजली बाँध सुख से बैठ गया ॥51॥ विकसित कमल के समान नेत्रों को धारण करने वाले राम, क्षणभर में तेज से जलती हुई अग्नि के समान उस गृध्र पक्षी को देखकर परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥52॥ उन्होंने पक्षी पर बार-बार नेत्र डालकर तथा गुण और शीलरूपी आभूषण को धारण करने वाले मुनिराज के चरणों में नमस्कार कर उनसे इस प्रकार पूछा कि हे भगवन् ! यह पक्षी पहले तो अत्यंत विरूप शरीर का धारक था पर अब क्षण-भर में सवर्ण तथा रत्नराशि के समान कांति का धारक कैसे हो गया ? ॥53-54॥ महाअपवित्र, सब प्रकार का मांस खाने वाला तथा दुष्ट हृदय का धारक यह गृध्र आपके चरणों में बैठकर अत्यंत शांत कैसे हो गया है ? ॥55 ।।
तदनंतर सुगुप्ति नामक मुनिराज बोले कि हे राजन् । पहले यहाँ नाना जनपदों से व्याप्त एक बहुत बड़ा सुंदर देश था ॥56 ।। जो पत्तन, ग्राम, संवाह, मटंब, पुटभेदन, घोष और द्रोण मुख आदि रचनाओं से सुशोभित था ॥57 ।। इसी देश में एक कर्णकुंडल नाम का मनोहर नगर था जिसमें यह परम प्रतापी राजा था । यह तीव्र पराक्रम से युक्त, शत्रुरूपी कंटकों को भग्न करने वाला, महामानी एवं साधन संपन्न दंडक नाम का धारक था ॥58-59।। हे रघुनंदन ! धर्म की श्रद्धा से युक्त इस राजा ने पापपोषक शास्त्र को समझकर बुद्धिपूर्वक धारण किया सो मानो इसने घृत की इच्छा से जल का ही मंथन किया ॥60॥ राजा दंडक की जो रानी थी वह परिव्राजकों की बड़ी भक्त थी क्योंकि परिव्राजकों के स्वामी के द्वारा वह उत्तम भोग को प्राप्त हुई थी ॥61॥ राजा दंडक रानी के वशीभूत था इसलिए यह भी उसी दिशा का आश्रय लेता था, सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रियों का चित्त हरण करने में उद्यत मनष्य क्या नहीं करते हैं ? ।।62 ।। एक दिन राजा नगर से बाहर निकला वहाँ उसने एक ऐसे साधु को देखा जो अपनी भुजाएँ नीचे लटकाये हुए थे, वीतराग लक्ष्मी से सहित थे तथा जिनका मन ध्यान में रु का हुआ था ॥63 ।। पाषाण के समान कठोर चित्त के धारक राजा ने उन मुनि के गले में, विषमिश्रित लार से जिसका शरीर व्याप्त था ऐसा एक मरा हुआ काला साँप डलवा दिया ।। 64।। ‘जब तक इस साँप को कोई अलग नहीं करता है तब तक मैं योग को संकुचित नहीं करूँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा कर वह मुनि उसी स्थानपर खड़े रहे ॥65॥ तदनंतर बहुत रात्रियाँ व्यतीत हो जाने के बाद उसी मार्ग से निकले हुए राजा ने उन महामुनि को उसी प्रकार ध्यानारूढ़ देखा ॥66 ।। उसी समय कोई मनुष्य मुनिराज के गले से सांप अलग कर रहा था । राजा मुनिराज को सरलता से आकृष्ट हो उनके पास गया और साँप निकालने वाले मनुष्य से पूछता है कि यह क्या है ?इसके उत्तर में वह मनुष्य कहता है कि राजन् ! देखो, नरक की खोज करने वाले किसी मनुष्य ने इन ध्यानारूढ़ मुनिराज के गले में सांप डाल रखा है ॥67-68।। जिस सांप के संपर्क से इनके शरीर की आकृति श्याम, खेदखिन्न, दुर्दशनीय तथा अत्यंत भयंकर हो गयी है ॥69।। कुछ भी प्रतिकार नहीं करने वाले मुनि को उसी प्रकार ध्यानारूढ़ देख राजा ने प्रणाम कर उनसे क्षमा माँगी और तदनंतर वह यथास्थान चला गया ॥70॥ उस समय से राजा दिगंबर मुनियों की उत्तम भक्ति करने में तत्पर हो गया और उसने मुनियों के सब उपद्रव― कष्ट दूर कर दिये ॥71॥ रानी के साथ गुप्त समागम करने वाले परिव्राजकों के अधिपति ने जब राजा के इस परिवर्तन को जाना तब क्रोध से युक्त होकर उसने यह करने की इच्छा की ॥72॥ दूसरे प्राणियों को दुःख देने में जिसका हृदय लग रहा था ऐसे उस परिव्राजकने जीवन का स्नेह छोड़ निर्ग्रंथ मुनि का रूप धर रानी के साथ संपर्क किया ॥73॥ जब राजा को इस कार्य का पता चला तब वह अत्यंत क्रोध को प्राप्त हुआ । मंत्री आदि अपने उपदेश में निर्ग्रंथ मुनियों की जो निंदा किया करते थे वह सब इसकी स्मृति में झूलने लगा ꠰꠰74।। उसी समय मुनियों से द्वेष रखने वाले अन्य दुष्ट लोगों ने भी राजा को प्रेरित किया जिससे उसने अपने सेवकों के लिए समस्त मुनियों को घानी में पेलने को आज्ञा दे दी ॥75 ।। जिसके फलस्वरूप गणनायक के साथ-साथ जितना मुनियों का समूह था वह सब, पापी मनुष्यों के द्वारा धानी में पिलकर मृत्यु को प्राप्त हो गया ॥76 ।। उस समय एक मुनि कहीं बाहर गये थे जो लोटकर उसी नगरी की ओर आ रहे थे । उन्हें किसी दयालु मनुष्य ने यह कहकर रो का कि हे निर्गंथ ! हे दिगंबरमुद्रा के धारी ! तुम अपने पहले का निर्ग्रंथ वेष धारण करते हुए नगरी में मत जाओ, अन्यथा घानी में पेल दिये जाओगे, शीघ्र ही यहाँ से भाग जाओ ॥77-78।। राजा ने ऋद्ध होकर समस्त निर्ग्रंथ मुनियों को घानी में पिलवा दिया है तुम भी इस अवस्था को प्राप्त मत होओ, धर्म का आश्रय जो शरीर है उसकी रक्षा करो ।।79।।
तदनंतर समस्त संघ की मृत्यु के दुःख से जिन्हें शल्य लग रही थी ऐसे वे मुनि क्षण-भर के लिए व्रज के स्तंभ की नाईं अकंप-निश्चल हो गये । उस समय उनकी चेतना अव्यक्त हो गयी थी अर्थात् यह नहीं जान पड़ता था कि जीवित है या मृत ? ꠰꠰80॥ अथानंतर उन निर्ग्रंथ मुनिरूपी पर्वत को शांतिरूपी गुफा से सैकड़ों दुःखों से प्रेरित हुआ क्रोधरूपी सिंह बाहर निकला ।।81॥ उनके नेत्र के अशोक के समान लाल-लाल तेज से आकाश ऐसा व्याप्त हो गया मानी उसमें संध्या ही व्याप्त हो गयी हो ॥82॥ क्रोध से तपे हुए मुनिराज के समस्त शरीर में स्वेद की बूंदें निकल आयीं और उनमें लोक का प्रतिबिंब पड़ने लगा ।। 83 ꠰꠰ तदनंतर उन मुनिराज ने मुख से ‘हाँ’ शब्द का उच्चारण किया उसी के साथ मुख से धुआँ निकला जो कालाग्नि के समान अत्यधिक कुटिल और विशाल था ॥84॥ उस धुआँ के साथ ऐसी ही निरंतर अग्नि निकली कि जिसने इंधन के बिना ही समस्त आकाश को देदीप्यमान कर दिया ॥85।। क्या यह लोक उल्काओं से व्याप्त हो रहा है ? या ज्योतिष्क देव नीचे गिर रहे हैं ? या महाप्रलय काल आ पहुँचा है ? या अग्निदेव कुपित हो रहे हैं ? हाय माता ! यह क्या है ? यह ताप तो अत्यंत दुःसह है, ऐसा लगता है जैसे वेगशाली बड़ी-बड़ी संडासियों से नेत्र उखाड़े जा रहे हों, यह अमूर्तिक आकाश ही घोर शब्द कर रहा है, मानो प्राणों के खींचने में उद्यत बाँसों का वन ही जल रहा है, इस प्रकार अत्यंत व्याकुलता से भरा यह शब्द जब तक लोक में गूंजता है तब तक उस अग्नि ने समस्त देश को भस्म कर दिया ॥86-89।। उस समय न अंतःपुर, न देश, न नगर, न पर्वत, न नदियाँ, न जंगल और न प्राणी ही शेष रह गये थे ॥90॥ महान् संवेग से युक्त मुनिराज ने चिरकाल से जो तप संचित कर रखा था यह सबका शब्द क्रोधाग्नि में दग्ध हो गया― जल गया फिर दूसरी वस्तुएँ तो बचती ही कैसे ? ।। 21 ।। यह दंडक देश था तथा दंडक ही यहाँ का राजा था इसलिए आज भी यह स्थान दंडक नाम से ही प्रसिद्ध है ॥92।। बहुत समय बीत जाने बाद यहाँ की भूमि कुछ सुंदरता को प्राप्त हुई है और ये वृक्ष, पर्वत तथा नदियाँ दिखाई देने लगी हैं ॥93॥ उन मुनि के प्रभाव से यह वन देवों के लिए भी भय उत्पन्न करने वाला है फिर विद्याधरों की तो बात ही क्या है ? ॥94॥ आगे चलकर यह वन सिंह-अष्टापद आदि क्रूर जंतुओं, नाना प्रकार के पक्षि-समूहों तथा अत्यधिक जंगली धान्यों से युक्त हो गया ।। 95 ।। आज भी इस वन की प्रचंड दावानल का शब्द सुनकर मनुष्य पिछली घटना का स्मरण कर भयभीत होते हुए काँपने लगते हैं ꠰꠰96॥ राजा दंडक बहुत समय तक संसार में भ्रमण कर दुःख उठाता रहा अब गृध्र पर्याय को प्राप्त हो इस वन में प्रीति को प्राप्त हुआ है ॥97।। इस समय इस वन में आये हुए अतिशय युक्त हम दोनों को देखकर पापकर्म की मंदता होने से यह पूर्वभव के स्मरण को प्राप्त हुआ है ।।98॥ जो दंडक राजा पहले परम शक्ति से युक्त था वह देखो, आज पापकर्मों के कारण कैसा हो गया है? ॥99।। इस प्रकार पापकर्म का नीर सफल जानकर धर्म में क्यों नहीं लगा जाये और पाप से क्यों नहीं विरक्त हुआ जाये ? ॥100॥ दूसरे का उदाहरण भी शांति का कारण हो जाता है फिर यदि अपनी ही खोटी बात स्मरण आ जावे तो कहना ही क्या है ? ॥101 ।। राम से इतना कहकर मुनिराज ने गृध्र से कहा कि हे द्विज ! अब भयभीत मत होओ, रोओ मत, जो बात जैसी होने वाली है उसे अन्यथा कौन कर सकता है ? ॥102॥ धैर्य धरो, निश्चिंत होकर कँपकँपी छोड़ो, सुखी होओ, देखो यह महा अटवी कहाँ ? और सीता सहित राम कहाँ ? ॥103॥ हमारा पड़गाहन कहाँ ? और आत्मकल्याण के लिए दुःख का अनुभव करते हुए तुम्हारा प्रबुद्ध होना कहाँ ? कर्मों की ऐसी ही चेष्टा है ॥104 ।। कर्मों की विचित्रता के कारण यह संसार अत्यंत विचित्र है । जैसा मैंने अनुभव किया है, सुना है, अथवा देखा है वैसा ही मैं कह रहा हूँ ॥105॥ पक्षी को समझाने के लिए राम का अभिप्राय जान सुगुप्ति मुनिराज अपनी दीक्षा तथा शांति का कारण कहने लगे ॥106॥
उन्होंने कहा कि वाराणसी नगरी में एक अचल नाम का प्रसिद्ध राजा था । उसकी गुणरूपी रत्नों से विभूषित गिरिदेवी नाम की स्त्री थी ॥107।। किसी दिन त्रिगुप्त इस सार्थक नाम को धारण करने वाले तथा शुद्ध चेष्टाओं के धारक मुनिराज ने आहार के लिए उसके घर प्रवेश किया ॥108॥ सो विधिपूर्वक परम श्रद्धा को धारण करने वाली गिरिदेवी ने अन्य सब कार्य छोड़ स्वयं ही उत्तम आहार देकर उन्हें संतुष्ट किया ॥109॥ जब मुनिराज आहार कर चुके तब उसने उनके चरणों में मस्तक झुकाकर किसी दूसरे के बहाने अपने पुत्र उत्पन्न होने की बात पूछी ॥110॥ उसने कहा कि हे नाथ ! मेरा यह गृहवास सार्थक होगा या नहीं ? इस बात का निश्चय कराकर प्रसन्नता कीजिए ॥111॥ तदनंतर मुनि यद्यपि तीन गुप्तियों के धारक थे तथापि रानी की भक्ति के अनुरोध से वचनगुप्ति को तोड़कर उन्होंने कहा कि तुम्हारे दो सुंदर पुत्र होंगे ॥112॥ तदनंतर उन त्रिगुप्त मुनिराज के कहे अनुसार दो पुत्र उत्पन्न हुए सो माता-पिता ने उनके ‘सुगुप्ति’ और ‘गुप्त’ इस प्रकार नाम रखे ॥113॥ वे दोनों ही पुत्र सर्व कलाओं के जानकार, कुमार लक्ष्मी से सुशोभित, अनेक भावों से रमण करते तथा लोगों के अत्यंत प्रिय थे ॥114॥
उसी समय यह दूसरा वृत्तांत हुआ कि गंधवती नाम की नगरी के राजा के सोम नामक पुरोहित था उसकी स्त्री के सुकेतु और अग्निकेतु नाम के दो पुत्र थे । उन दोनों ही पुत्रों में अत्यधिक प्रेम था, उस प्रेम के कारण बड़े होनेपर भी वे एक ही शय्या पर सोते थे । समय पाकर सुकेतु का विवाह हो गया । जब स्त्री घर आयी तब सुकेतु यह विचार कर बहुत दुःखी हुआ कि इस स्त्री के द्वारा अब हम दोनों भाइयों की शय्या पृथक्-पृथक् की जा रही है ।। 115-117॥ इस प्रकार शुभ कर्म के प्रभाव से प्रतिबोध को प्राप्त हो सुकेतु अनंतवीर्य मुनि के पास दीक्षित हो गया ॥118॥ भाई के वियोग से अग्निकेतु भी बहुत दुःखी हो धर्म संचय करने की भावना से वाराणसी में उग्र तापस हो गया ॥119॥ स्नेह के बंधन में बँधे सुकेतु ने जब भाई के तापस होने का समाचार सुना तब वह उसे समझाने के अर्थ जाने के लिए उद्यत हुआ ।। 120॥ जब वह जाने लगा तब गुरु ने उससे कहा कि । हे सुकेतो ! तुम अपने भाई से यह वृत्तांत कहना जिससे वह शीघ्र ही उपशांत हो जायेगा ।। 12 ।। हे नाथ ! वह कौन सा वृत्तांत है? इस प्रकार सुकेतु के कहने पर गुरु ने कहा कि दुष्ट भावना को धारणा करने वाला तेरा भाई तेरे साथ वाद करेगा ॥122॥ सो जिस समय तुम दोनों वाद कर रहे होओगे उस समय गौरवर्ण शरीर को धारणा करने वाली एक सुंदर कन्या तीन स्त्रियों के साथ गंगा आवेगी । वह दिन के पिछले प्रहर में आवेगी तथा विचित्र वस्त्र को धारण कर रही होगी । इन चिह्नों से उसे जानकर तुम अपने भाई से कहना कि यदि तुम्हारे धर्म में कुछ ज्ञान है तो बताओ इस कन्या का क्या शुभ-अशुभ होने वाला है ? ॥123-125॥ तब वह अज्ञानी तापसी लज्जित होता हुआ तुम से कहेगा कि अच्छा तुम जानते हो तो कहो । यह सुन तुम निश्चय से सुदृढ़ हो कहना कि इसी नगर में एक संपत्तिशाली प्रवर नाम का वैश्य रहता है यह उसी की लड़की है तथा रुचिरा नाम से प्रसिद्ध है ॥126-127।। यह बेचारी आज से तीसरे दिन मर जायेगी और कंबर नामक ग्राम में विलास नामक वैश्य के यहाँ बकरी होगी । भेड़िया उस बकरी को मार डालेगा जिससे गाडर होगी फिर मरकर उसी के घर भैस होगी और उसके बाद उसी विलास के पुत्री होगी । वह विलास इस कन्या के पिता का मामा होता है ॥128-129 ।। ऐसा ही हो इस प्रकार कहकर तथा गुरु को प्रणाम कर हर्ष से भरा सुकेतु क्रम-क्रम से तापसों के आश्रम में पहुँचा ॥130॥ गुरु ने जिस प्रकार कहा था उसी प्रकार उस कन्या को देखकर सुकेतु ने अपने भाई अग्निकेतु से कहा और वह सबका सब वृत्तांत उसी प्रकार अग्निकेतु के सामने आ गया अर्थात् सच निकला ॥131॥
तदनंतर वह कन्या जब मरकर चौथे भव में विलास के विधुरा नाम की पुत्री हुई तब प्रवर नामक सेठ ने उस सुंदरी को याचना की और वह उसे प्राप्त भी हो गयी ॥132॥ जब विवाह का समय आया तब अग्निकेतु ने प्रवर से कहा कि यह कन्या भवांतर में तुम्हारी पुत्री थी । ॥133 ।। यह कहकर उसने कन्या के वर्तमान पिता विलास के लिए भी उसके वे सब भव कह सुनाये । उन भवों को सुनकर कन्या को जातिस्मरण हो गया ॥134॥ जिससे संसार से भयभीत हो उसने दीक्षा धारण करने का विचार कर लिया । इधर प्रवर ने समझा कि विलास किसी छल के कारण मेरे साथ अपनी कन्या का विवाह नहीं कर रहा है इसलिए दुषित अभिप्राय को धारण करने वाले प्रवर ने हमारे पिता को सभा में विलास के विरुद्ध अभियोग चलाया परंतु अंत में प्रवर को हार हुई, कन्या आर्यिका पद को प्राप्त हुई और अग्निकेतु तापस दिगंबर मुनि बन गया ॥135-136॥ वृत्तांत को सुनकर हमने भी विरक्त हो अनंतवीर्य नामक मुनिराज के समीप जिनेंद्र दीक्षा धारण कर ली ॥137 ।। इस प्रकार मोही जीवों से संसार की संतति को बढ़ाने वाले अनेक खोटे आचरण हो जाया करते हैं ।। 138॥ यह जीव अपने किये हुए कर्मों के अनुसार ही माता, पिता, स्नेही मित्र, स्त्री, पुत्र तथा सुख-दुःखादिक को भव-भव में प्राप्त होता है ॥139 ।।
यह सुनकर वह गृध्र पक्षी संसार संबंधी दुःखों से अत्यंत भयभीत हो गया और धर्म ग्रहण करने की इच्छा से बार-बार शब्द करने लगा ।।140।। तब मुनिराज ने कहा कि हे भद्र ! भय मत करो । इस समय व्रत धारण करो जिससे फिर यह दुःखो की संतति प्राप्त न हो ।। 141 ।। अत्यंत शांत हो जाओ, किसी भी प्राणी को पीड़ा मत पहुँचाओ, असत्य वचन, चोरी और परस्त्री का त्याग करो अथवा पूर्ण ब्रह्मचर्य धारण कर उत्तम क्षमा से युक्त हो रात्रि भोजन का त्याग करो, उत्तम चेष्टाओं से युक्त होओ, बड़े प्रयत्न से रात-दिन जिनेंद्र भगवान् को हृदय में धारण करो, शक्त्यनुसार विवेकपूर्वक उपवासादि नियमों का आचरण करो, प्रमादरहित होकर इंद्रियों को व्यवस्थित कर आत्मध्यान में उत्सुक करो और साधुओं की भक्ति में तत्पर होओ ॥ 142-145 ।। मुनिराज के इस प्रकार कहने पर गृध्र पक्षी ने अंजलि बाँध बार-बार शिर हिलाकर तथा मधुर शब्द का उच्चारण कर मुनिराज का उपदेश ग्रहण किया ॥146।। विनीत आत्मा को धारण करने वाला यह श्रावक हम लोगों का विनोद करने वाला हो गया यह कहकर मंद हास्य करने वाली सीता ने उस पक्षी का दोनों हाथों से स्पर्श किया ॥147॥ तदनंतर दोनों मुनियों ने राम आदि को लक्ष्य कर कहा कि अब आप लोगों को इसकी रक्षा करना उचित है क्योंकि शांत चित्त को धारण करने वाला यह बेचारा पक्षी कहाँ जायेगा? ॥148।। क्रूर प्राणियों से भरे हुए इस सघन वन में तुम्हें इस सम्यग्दृष्टि पक्षी की सदा रक्षा करनी चाहिए ।। 149 ।। तदनंतर गुरु के वचन प्राप्त कर अतिशय स्नेह से भरी सीता ने उसके पालन की चिंता अपने ऊपर ले उसे अनुगृहीत किया अर्थात् अपने पास ही रख लिया ॥150॥ पल्लव के समान कोमल स्पर्श वाले हाथों से उसका स्पर्श करती हुई सीता ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो गरुड़ का स्पर्श करती हुई उसकी माँ विनता ही हो ॥ 151 ।।
तदनंतर जिनका भ्रमण अनेक जीवों का उपकार करने वाला था ऐसे दोनों निर्ग्रंथ साधु, राम आदि के द्वारा स्तुति पूर्वक नमस्कार किये जाने पर अपने योग्य स्थानपर चले गये ॥152 ।। आकाश में उड़ते हुए वे दोनों महामुनि ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो दानधर्म रूपी समुद्र की दो बड़ी लहरें ही हों ।। 153॥ उसी समय एक मदोन्मत्त हाथी को वश कर तथा उस पर सवार हो लक्ष्मण शब्द सुनकर कुछ व्यग्र होते हुए आ पहुँचे ॥154॥ नाना वर्ण की प्रभाओं के समूह से जिसमें इंद्रधनुष निकल रहा था ऐसी पर्वत के समान बहुत बड़ी रत्न तथा सुवर्ण की राशि देखकर जिनके नेत्रकमल विकसित हो रहे थे तथा जो अत्यधिक कौतुक से युक्त थे ऐसे लक्ष्मण को प्रसन्न हृदय राम ने सब समाचार विदित कराया ॥155-156॥ जिसे रत्नत्रय को प्राप्ति हुई थी तथा जो मुनिराज के समस्त वचनों का बड़ी तत्परता से पालन करता था ऐसा वह पक्षी राम और सीता के बिना कहीं नहीं जाता था ।।157।। अणुव्रताश्रम में स्थित सीता जिसे बार-बार मुनियों के उपदेश का स्मरण कराती रहती थी ऐसा वह पक्षी राम-लक्ष्मण के मार्ग में रमण करता हुआ पृथ्वी पर भ्रमण करता था ।। 158॥ अहो ! धर्म का माहात्म्य देखो कि जो पक्षी इसी जन्म में शाकपत्र के समान निष्प्रभ था वही कमल के समान सुंदर हो गया ॥159।। पहले जो अनेक प्रकार के मांस को खाने वाला, दुर्गंधित एवं घृणा का पात्र था वही अब सुवर्ण कलश में स्थित जल के समान मनोज्ञ एवं सुंदर हो गया ॥160॥ उसका आकार कहीं तो अग्नि की शिखा के समान था, कहीं नीलमणि के सदृश था, कहीं स्वर्ण के समान कांति से युक्त था और कहीं हरे मणि के तुल्य था ॥16॥ राम लक्ष्मण के आगे बैठा तथा अनेक प्रकार के मधुर शब्द कहने वाला वह पक्षी सीता के द्वारा निर्मित उत्तम भोजन ग्रहण करता था ॥162॥ जिसका शरीर चंदन से लिप्त था, जो स्वर्ण निर्मित छोटी-छोटी घंटियों से अलंकृत था तथा जो रत्नों की किरणों से व्याप्त शिर को धारण कर रहा था ऐसा वह पक्षी अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।। 163 ।। यतश्च उसके शरीर पर रत्न तथा स्वर्ण निर्मित किरणरूपी जटाएँ सुशोभित हो रही थी इसलिए राम आदि उसे जटायु इस नाम से बुलाते थे । वह उन्हें अत्यंत प्यारा था ॥164॥ जिसने हंस की चाल को जीत लिया था, जो स्वयं सुंदर था और सुंदर विलासों से जो युक्त था ऐसे उस जटायु को देखकर अन्य पक्षी भयभीत होते हुए आश्चर्यचकित रह जाते थे ।। 165 ।। वह भक्ति से नम्रीभूत होकर तीनों संध्याओं में सीता के साथ अरहंत, सिद्ध तथा निर्ग्रंथ साधुओं को नमस्कार करता था ॥166 ।। धर्म से स्नेह करने वाली दयालु सीता बड़ी सावधानी से उसकी रक्षा करती हुई सदा उस पर बहुत प्रेम रखती थी ॥167 ।। इस प्रकार वह पक्षी अपनी इच्छानुसार शुद्ध तथा अमृत के समान स्वादिष्ट फलों को खाता और जंगल में उत्तम जल को पीता हुआ निरंतर उत्तम आचरण करता था ॥168।। जब सीता ताल का शब्द देती हुई धर्ममय गीतों का उच्चारण करती थी और पति तथा देवर उसके स्वर में स्वर मिलाकर साथ-साथ गाते थे तब सूर्य के समान कांति को धारण करने वाला वह जटायु हर्षित हो नृत्य करता था ॥169 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में जटायु का वर्णन
करने वाला इकतालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥41॥
बयालीसवां पर्व
अथानंतर पात्रदान के प्रभाव से सीता सहित राम-लक्ष्मण इसी पर्याय में रत्न तथा सुवर्णादि संपत्ति से युक्त हो गये ॥1॥ तदनंतर जो स्वर्णमयी अनेक बेल-बूटों के विन्यास से सुंदर था, जो उत्तमोत्तम खंभों, वेदि का तथा गर्भगृह से सहित था, ऊँचा था, जिसके झरोखे बड़े-बड़े मोतियों की माला से सुशोभित थे, जो छोटे-छोटे गोले, दर्पण, फन्नूस, तथा खंडचंद्र आदि सजावट की सामग्री से अलंकृत था, शयन, आसन, वादित्र, वस्त्र तथा गंध आदि से भरा था, जिसमें चार हाथी जुते थे और जो विमान के समान था ऐसे रथ पर सवार होकर ये सब बिना किसी बाधा के जटायु पक्षी के साथ-साथ धैर्यशाली मनुष्यों के मन को हरण करने वाले वन में विचरण करते थे ॥2-5।। वे उस मनोहर वन में इच्छानुसार क्रीड़ा करते हुए कहीं एक दिन, कहीं एक पक्ष और कहीं एक माह ठहरते थे ॥6॥ हम यहाँ निवास करेंगे यहाँ ठहरेंगे इस प्रकार कहते हुए वे किसी बड़े बैल की नयी घास खाने की इच्छा के समान वन में सुखपूर्वक विचरण करते बड़े-बड़े निर्झरों से गंभीर थे तथा जिन में ऊंचे-ऊँचे वृक्ष लग रहे थे ऐसे कितने ही ऊँचे-नीचे प्रदेशों को पार कर वे धीरे-धीरे जा रहे थे ।। 8॥ सिंहों के समान निर्भय हो स्वेच्छा से घूमते हुए वे, भीरु मनुष्यों को भय देने वाले दंडक वन के उस मध्य भाग में प्रविष्ट हुए जहाँ हिमगिरि के समान विचित्र पर्वत थे तथा मोतियों के हार के समान सुंदर निर्झर और नदियाँ स्थित थीं ॥9-10॥ जहाँ का वन, पीपल, इमली, बैरी, बहेड़े, शिरीष, केले, राल, अक्षरोट, देवदारु, धौ, कदंब, तिलक, लोध, अशोक, नील और लाल रंग को धारण करने वाले जामुन, गुलाब, आम, अंवाडा, चंपा, कनेर, सागौन, ताल, प्रियंगु, सप्तपर्ण, तमाल, नागकेशर, नंदी, कौहा, बकौली, चंदन, नीप, भोजपत्र, हिंगुलक, बरगद, सफेद तथा काला अगुरु, कुंद, रंभा, इंगुआ, पद्मक, मुचकुंद, कुटिल, पारिजातक, दुपहरिया, केतकी, महुआ, खैर, मैनार, खदिर, नीम, खजूर, छत्रक, नारंगी, बिजौरे, अनार, असन, नारियल, कथा, रसोंद, आँवला, शमी, हरड, कचनार, करंज, कुष्ट, कालीय, उत्कच, अजमोद कंकोलदालचीनी लौंगमिरच, चमेली, चव्य, आँवला, कृर्षक, अतिमुक्तक, सुपारी पान, इलायची, लालचंदन, बेंत, श्यामलता, मेढासिंगी, हरिद्र, पलाश, तेंदू, बेल, चिरोल, मेथी चंदन, अरडूक, सेंम, बीजसार, इनसे तथा इनके सिवाय अन्य वृक्षों से सुशोभित था ॥11-21।। उस वन के लंबे-चौड़े प्रदेश स्वयं उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के धान्यों तथा रसीले पौंडों और ईखों से व्याप्त थे ॥22॥ नाना प्रकार की लताओं से युक्त विविध वृक्षों के समूह से वह वन ठीक दूसरे नंदनवन के समान सुशोभित हो रहा था । ॥23॥ मंद-मंद वायु से हिलते हुए अत्यंत कोमल किसलयों से वह अटवी ऐसी जान पड़ती थी मानो राम आदि के आगमन से उत्पन्न हर्ष से नृत्य ही कर रही हो । ॥24॥ वायु के द्वारा हरण की हुई पराग से वह अटवी ऊपर उठी हुई-सी जान पड़ती थी और उत्तम गंध को धारण करने वाली वायु मानो उसका आलिंगन कर रही थी ।। 25 ।। वह भ्रमरों की झंकार से ऐसी जान पड़ती थी मानो मनोहर गान ही गा रही हो और पहाड़ी निर्झरों के उड़ते हुए जल कणों से ऐसे विदित होती थी मानो शुक्ल एवं सुंदर हास्य ही कर रही हो ॥26॥ चकोर, भेरुंड, हंस, सारस, कोकिला, मयूर, बाज, कुरर, तोता, उलूक, मैना, कबूतर, भृंगराज, तथा भारद्वाज आदि पक्षी मनोहर शब्द करते हुए उस अटवी में क्रीड़ा करते थे ।।27-28॥ पक्षियों के उस मधुर कोलाहल से वह वन ऐसा जान पड़ता था मानो प्राप्त कार्य में निपुण होने से संभ्रम के साथ सबका स्वागत ही कर रहा हो ।।29।। कलरव करते हुए पक्षी कोमल वाणी से मानो यही कह रहे थे कि हे साध्वि ! राजपुत्रि ! तुम कहाँ से आ रही हो और कहाँ आयी हो ॥30॥ सफेद, नीले तथा लाल कमलों से व्याप्त अतिशय निर्मल सरोवरों से वह वन ऐसा जान पड़ता था मानो कुतूहलवश देखने के लिए उद्यत ही हुआ हो ॥31।। फलों के भार से झुके हुए अग्र भागों से वह वन ऐसा जान पड़ता था मानो बड़े आदर से राम आदि को नमस्कार ही कर रहा हो और सुगंधित वायु से ऐसा सुशोभित होता था मानो आनंद के श्वासोच्छ्वास ही छोड़ रहा हो ॥32॥
तदनंतर सौमनसवन के समान सुंदर वन को देख-देखकर राम ने विकसित कमल के समान खिले हुए नेत्रों को धारण करने वाली सीता से कहा कि हे प्रिये ! इधर देखो, ये वृक्ष लताओं तथा निकटवर्ती गुल्मों और झाड़ियों से ऐसे जान पड़ते हैं मानो कुटुंब सहित ही हों ॥33-34॥ वकुल वृक्ष के वक्षस्थल से लिपटी हुई इस प्रियंगु लता को देखो । यह ऐसी जान पड़ती है मानो पति के वक्षःस्थल से लिपटी प्रेम भरी सुंदरी ही हो ॥35।। यह माधवी लता हिलते हुए पल्लव से मानो सौहार्द के कारण ही आम का स्पर्श कर रही है ॥36॥ हे सीते ! जिसके नेत्र मद से आलस हैं, हस्तिनी जिसे प्रेरणा दे रही है और जिसने कलिकाओं के समूह को भ्रमरों से रहित कर दिया है ऐसा यह हाथी कमल वन में प्रवेश कर रहा है ॥37।। जो अत्यधिक गर्व को धारण कर रहा है, जो लीला से सहित है, तथा जिसके खुरों के अग्रभाग सुशोभित हैं ऐसा यह अत्यंत नील भैंसा वज्र के समान सींग के द्वारा वामी के उच्च शिखर को भेद रहा है ॥38॥ इधर देखो, इस साँप के शरीर का बहुत कुछ भाग बिल से बाहर निकल आया था फिर भी यह सामने इंद्रनील मणि के समान नीलवर्ण वाले मयूर को देखकर भयभीत हो फिर से उसी बिल में प्रवेश कर रहा है ॥39॥ हे सिंह के समान नेत्रों को धारण करने वाली तथा फैलती हुई कांति से युक्त प्रिये ! इस मनोहर पर्वत पर गुहा के अग्रभाग में स्थित सिंह की उदात्त चेष्टा को देखो जो इतना दृढ़ चित्त है कि रथ का शब्द सुनकर क्षणभर के लिए निद्रा छोड़ता है और कटाक्ष से उसकी ओर देखकर तथा धीरे से जमुहाई लेकर फिर भी उसी तरह निर्भय बैठा है ॥40॥ इधर नाना मृगों का रुधिर पान करने से जिसका मुख अत्यंत लाल हो रहा है, जो अहंकार से फूल रहा है, जिसका मुख नेत्रों की पीली-पीली कांति से युक्त है, तथा चमकीले बालों से युक्त जिसकी पूँछ पीछे से घूमकर मस्तक के समीप आ पहुँची है ऐसा यह व्याघ्र नाखूनों के द्वारा वृक्ष के मूलभाग को खोद रहा है ॥41॥ जिन्होंने स्त्रियों के साथ-साथ अपने बच्चों के समूह को बीच में कर रखा है, जिनके चंचल नेत्र बहुत दूर तक पड़ रहे हैं, जो अत्यधिक सावधान हैं, जो कुछ-कुछ दूर्वा के ग्रहण करने में चतुर हैं और कौतुकवश जिनके नेत्र अत्यंत विशाल हो गये हैं ऐसे ये हरिण समीप में आकर तुम्हें देख रहे हैं ॥42॥ हे सुंदरि ! धीरे-धीरे जाते हुए उस वराह को देखो, जिसकी दाँढों में मोथा लग रहा है, जिसका बल अत्यंत उन्नत है, जिसने अभी हाल नयी कीचड़ अपने शरीर में लगा रखी है, तथा जिसकी नाक बहुत लंबी है ।। 43।। हे सुलोचने ! प्रयत्न के बिना ही जिसका शरीर नाना प्रकार के वर्गों से चित्रित हो रहा है ऐसा यह चीता इस तृण बहुल वन के एकदेश में अपने बच्चों के साथ अत्यधिक क्रीड़ा कर रहा है ।। 44॥ इधर जिसके पंख जल्दी घूम रहे हैं ऐसा यह तरुण बाज-पक्षी दूर से ही सब ओर देखकर सोते हुए शरभ के मुख से बड़ी शीघ्रता के साथ मांस को छीन रहा है ।। 45॥ इधर जिसका मस्तक कमल जैसी आवर्त से सुशोभित है; जो कुछ-कुछ हिलती हुई ऊँची काँदौर को धारण कर रहा है, जो विशाल शब्द कर रहा है तथा जो उत्तम विभ्रम से सहित है ऐसा यह बैल सुशोभित हो रहा है ॥46॥ कहीं तो यह वन उत्तमोतम सघन वृक्षों से युक्त है, कहीं छोटे-छोटे अनेक प्रकार के तृणों से व्याप्त है, कहीं निर्भय मृगों के बड़े-बड़े झुंडों से सहित है, कहीं अत्यंत भयभीत कृष्ण मृगों के लिए सघन झाड़ियों से युक्त है ॥47॥ कहीं अतिशय मदोन्मत्त हाथियों के द्वारा गिराये हुए वृक्षों से सहित है, कहीं नवीन वृक्षों के समूह से युक्त है, कहीं भ्रमर-समूह की मनोहारी झंकार से सुंदर है, कहीं अत्यंत तीक्ष्ण शब्दों से भरा हुआ है ॥48॥ कहीं प्राणी भय से इधर-उधर घूम रहे हैं, कहीं निश्चिंत बैठे हैं, कहीं गुफाएँ जल से रहित हैं, कहीं गुफाओं से जल बह रहा है ॥49॥ कहीं यह वन लाल है, कहीं सफेद है, कहीं पीला है, कहीं हरा है, कहीं मोड़ लिये हुए है, कहीं निश्चल है, कहीं शब्दसहित है, कहीं शब्दरहित है, कहीं विरल है, कहीं सघन है, कहीं नीरस-शुष्क है, कहीं तरुण-हराभरा है, कहीं विशाल है, कहीं विषम है, और कहीं अत्यंत सम है ॥50॥ हे प्रिये जानकि ! देखो यह प्रसिद्ध दंडकवन कर्मों के प्रपंच के समान अनेक प्रकार का हो रहा है ॥51॥ हे सुमुखि ! शिखरों के समूह से आकाशरूपी आँगन को व्याप्त करने वाला यह दंडक नाम का पर्वत है जिसके नाम से ही यह वन दंडक वन कहलाता है ॥52॥ इस पर्वत के शिखर पर गेरू आदि-आदि धातुओं से उत्पन्न हो ऊँची उठने वाली लाल-लाल कांति से आच्छादित हुआ आकाश ऐसा जान पड़ता है मानो लाल फूलों के समूह से ही व्याप्त हो रहा हो ॥53 ।। इधर इस पर्वत की गुफाओं में दूर से ही अंधकार के समूह को नष्ट करने वाली देदीप्यमान औषधियों की बड़ी-बड़ी शिखाएँ वायुरहित स्थान में स्थित दीपकों के समान जान पड़ती हैं ॥54।। इधर पाषाण-खंडों के बीच अत्यधिक शब्द के साथ बहुत ऊँचे से पड़ने वाले ये झरने मोतियों के समान जलकणों को छोड़ते हुए सूर्य को किरणों के साथ मिलकर सुशोभित हो रहे हैं ॥55॥ हे कांते ! इस पर्वत के कितने ही प्रदेश सफेद हैं, कितने ही नील हैं, कितने ही लाल हैं, और कितने ही वृक्षावली से व्याप्त होकर अत्यंत सुंदर दिखाई देने हैं ।। 56 ।। हे वरोष्ठि ! सघन वन में वायु से हिलते हुए वृक्षों के अग्रभाग पर कहीं-कहीं सूर्य को किरणें ऐसी सुशोभित होती हैं मानो उसके खंड ही हों ।। 57।। हे सुमुखि ! जो कहीं तो फलों के भार से झुके हुए वृक्षों के समूह से युक्त है; कहीं पड़े हुए पुष्परूपी वस्त्रों से सुशोभित है, और कहीं कलरव करने वाले पक्षियों से व्याप्त है ऐसा यह दंडकवन अत्यधिक सुशोभित हो रहा है ।। 58 ।। इधर, जिसे अपनी पूँछ अधिक प्यारी है, जिसके वल्लभ पीछे-पीछे दौड़े चले आ रहे हैं, जो चंद्रमा के समान सफेद कांति का धारक है, और जो अपने बच्चों पर चंचल दृष्टि डाल रहा है ऐसा यह चमरी मृगों का समूह दुष्ट जीवों के द्वारा उपद्रुत होने पर भी अपनी मंदगति को नहीं छोड़ रहा है तथा बाल टूट जाने के भय से कठोर एवं सघन झाड़ी में प्रवेश नहीं कर रहा है ।। 59।। हे कांते ! इधर इस पर्वत की गुफाओं के आगे यह क्या नील शिला रखी है ? अथवा अंधकार का समुह व्याप्त है ? इधर यह वृक्षों के मध्य में आकाश स्थित है अथवा स्फटिकमणि की शिला विद्यमान है ? और इधर यह काली चट्टान है या कोई बड़ा हाथी गाढ़ निद्रा का सेवन कर रहा है इस तरह अत्यंत सादृश्य के कारण इस पर्वत के भूभागों पर चलना कठिन जान पड़ता है ॥60॥ हे प्रिये । यह वह क्रौंचरवा नाम की जगत्-प्रसिद्ध नदी है कि जिसका जल तुम्हारी चेष्टा के समान अत्यंत उज्ज्वल है ॥61।। हे सुकेशि ! जो मंद-मंद वायु से प्रेरित होकर लहरा रहा है, जो तट पर स्थित वृक्षों के पुष्प समूह को धारण कर रहा है और जो कैलास के समान शुक्ल रूप से सुंदर है ऐसा इस नदी का जल अत्यंत सुशोभित हो रहा है ॥62॥ यह जल कहीं तो हंस समूह के समान उज्ज्वल फेन समूह से युक्त है, कहीं टूट-टूटकर गिरे हुए फूलों के समूह से सहित है, कहीं भ्रमरों के समूह से इसका कमलवन पूरित है और कहीं यह बड़े-बड़े सघन पाषाणों के समूह से उपलक्षित है ॥63।। यह नदी कहीं तो हजारों मगरमच्छों के संचार से विषम है, कहीं इसका जल अत्यंत वेग से सहित है और कहीं यह घोर तपस्वी-साधुओं की चेष्टा के समान अत्यंत प्रशांत भाव से बहती है ।।64॥ हे शुक्ल दाँतों को धारण करने वाली सीते ! इस नदी का जल एक ओर तो अत्यंत नील शिला समूह की किरणों से मिश्रित होकर नीला हो रहा है तो दूसरी ओर समीप में स्थित सफेद पाषाण खंडों की किरणों से मिलकर सफेद हो रहा है । इस तरह यह परस्पर मिले हुए हरिहर-नारायण और महादेव के शरीर के समान अत्यंत सुशोभित हो रहा है ।। 65 ।। लाल-लाल शिलाखंडों की किरणों से व्याप्त यह निर्मल नदी, कहीं तो सूर्योदय कालीन पूर्व दिशा के समान सुशोभित हो रही है और कहीं हरे रंग के पाषाणखंड की किरणों के समूह से जल के मिश्रित होने से शेवाल की शंका से आने वाले पक्षियों को विरस कर रही है ॥66।। हे कांते ! इधर निरंतर चलने वाली वायु के संग से हिलते हुए कमल-समूह पर जो इच्छानुसार अत्यंत मधुर शब्द कर रहा है, निरंतर भ्रमण कर रहा है और उसकी पराग से जो लाल वर्ण हो रहा है ऐसा भ्रमरों का समूह तुम्हारे मुख से निकली सुगंधि के समान उत्कृष्ट सुगंधि से उन्मत्त हुआ अत्यधिक सुशोभित हो रहा है ॥67॥ हे दयिते ! जो अतिशय स्वच्छ है तथा बहाव छोड़कर पाताल तक भरा है ऐसा इस नदी का जल कहीं तो तुम्हारे मन के समान परम गांभीर्य को धारण कर रहा है और कहीं भ्रमरों से व्याप्त तथा कुछ-कुछ हिलते हुए नील कमलों से उत्तम स्त्री के देखने से समुत्पन्न नेत्रों की शोभा धारण कर रहा है ।। 68॥ इधर कहीं जो नाना प्रकार के कमल वनों में विचरण कर रहा है, प्रेम से युक्त है, उच्च शब्द कर रहा है और तीन मद से विवश हो जो परस्पर कलह कर रहा है ऐसा पक्षियों का समूह सुशोभित हो रहा है ॥69 ।। मेघरहित आकाश में विद्यमान चंद्रमा के समान उज्ज्वल मुख को धारण करने वाली हे प्रिये ! इधर जिस पर स्त्रियों सहित क्रीड़ा करने वाले पक्षियों के समूह ने अपने चरण-चिह्न बना रखे हैं ऐसा इस नदी का यह बालुमय तट तुम्हारे नितंबस्थल की सदृशता धारण कर रहा है ॥70 ।। जिस प्रकार अनेक उत्तम विलासों-हावभावरूप चेष्टाओं से सहित तरंग के समान उत्तम भौंहों से युक्त एवं उत्तम शील को धारण करने वाली सुभद्रा सुंदर एवं विस्तृत गुणसमूह से युक्त, शुभ चेष्टाओं के धारक तथा संसार में सर्वसुंदर भरत चक्रवर्ती को प्राप्त हुई थी उसी प्रकार अनेक विलासों पक्षियों के संचार से युक्त जल को धारण करने वाली, भौंहों के समान उत्तम तरंगों से युक्त, अतिशय मनोहर यह नदी, अत्यंत सुंदर तथा विस्तृत गुणसमूह से सहित शुभ चेष्टा से युक्त एवं जगत् सुंदर लवणसमुद्र को प्राप्त हुई है ॥71॥ हे प्रिये ! जो फल और फूलों से अलंकृत हैं, नाना प्रकार के पक्षियों से व्याप्त हैं, निरंतर हैं तथा जल से भरे मेघ-समूह के समान जान पड़ते हैं ऐसे ये किनारे के वृक्ष हम दोनों को प्रीति उत्पन्न करने के लिए ही मानो इस नदी कूल में प्राप्त हुए हैं ॥72 ।। इस प्रकार जब राम ने अत्यंत विचित्र शब्द तथा अर्थ से सहित वचन कहे तब हर्षित होती हुई सीता ने आदरपूर्वक कहा ॥73 ।। कि हे प्रियतम ! यह नदी विमल जल से भरी है, लहरों से रमणीय है, हंसादि पक्षियों के समूह इसमें इच्छानुसार क्रीड़ा कर रहे हैं और आपका मन भी इसमें लग रहा है तो इसके जल में हम लोग भी क्यों नहीं क्षण-भर क्रीड़ा करें ॥4॥
तदनंतर छोटे भाई लक्ष्मण के साथ-साथ राम ने सीता के वचनों का समर्थन किया और सब रथरूपी घर से उतरकर मनोहर भूमि पर आये ।।75।। सर्वप्रथम लक्ष्मण ने नवीन पकड़े हुए हाथी को जंगली मार्गों के बीच चलने से उत्पन्न हुई थकावट को दूर करने वाला स्नान कराया । उसके बाद उसे नाना प्रकार के स्वादिष्ट उत्तमोत्तम कोमल पत्ते और फूलों का समूह इकट्ठा किया तथा उसकी योग्य परिचर्या की ॥76॥ तदनंतर जिनका मन नाना प्रकार के गुणों की खान था ऐसे लक्ष्मण ने राम के साथ-साथ नदी में स्नान करना प्रारंभ किया । वे कभी जल के प्रवाह में आगे बढ़े हुए वृक्षों के समूह पर चढ़कर जल में कूदते थे, कभी अनुपम चेष्टाएँ करते थे और कभी नाना प्रकार की जलक्रीड़ा संबंधी उत्तमोत्तम विधियों का प्रयोग करते थे ॥77।। जो फेन के वलय अर्थात् समूह अथवा फेनरूपी चूड़ियों से सहित थी, जो प्रकट उठती हुई तरंगरूपी मालाओं से युक्त थी, जो मसले हुए सफेद -नीले और लाल कमलपत्रों से व्याप्त थी, जिसमें मधुर शब्द उत्पन्न हो रहा था और जो एकांत समागम से सेवित थी ऐसी वह नदीरूपी स्त्री ऐसी जान पड़ती थी मानो रघुकुल के चंद्र-रामचंद्र के साथ उपभोग ही कर रही हो ॥78॥ रामचंद्रजी पानी में गोता हत दूर लंबे जाकर कमल वन में छिप गये तदनंतर पता चलने पर शीघ्र ही सीता उनके पास जाकर क्रीड़ा करने लगी ॥79॥ पहले जो हंसादि पक्षी अपनी स्त्रियों के साथ जल में क्रीड़ा कर रहे थे और कमलों के वन में विचरण करने से उत्पन्न पराग से जिनके पंख सुशोभित हो रहे थे वे अब शीघ्र ही किनारों पर आकर नाना प्रकार के मधुर शब्द करने लगे तथा नाना कार्यों की आसक्ति छोड़कर तथा मन को विषयांतर से रहित कर राम-लक्ष्मण-सीता की श्रेष्ठ जलक्रीड़ा देखने लगे, सो ठीक ही है क्योंकि ये तिर्यंच भी कोमल चित्त के धारक मनुष्यों की मनोहर चेष्टा को समझते हैं― जानते हैं ।। 80-81 ।। तदनंतर राम ने सीता के साथ-साथ उत्तम गीत गाते हुए हथेलियों के आघात से जल का बाजा बजाया । उस जलवाद्य का शब्द मृदंग के शब्द से भी अधिक मधुर, सुंदर और विचित्र था ।। 82॥ उस समय राम का चित्त जलक्रीड़ा में आसक्त था तथा वे स्वयं नाना प्रकार की उत्तम चतुर चेष्टाओं के करने में तत्पर थे । भाई के स्नेह से भरे एवं समुद्रघोष धनुष से सहित लक्ष्मण उनके चारों ओर चक्कर लगा रहे थे । यद्यपि लक्ष्मण अत्यंत वेग से युक्त थे तो भी उस समय वेग को दूर कर सुंदर चाल के चलने में तत्पर थे ॥83 ।। इस प्रकार उज्ज्वल लीला को धारण करने वाले राम भाई और स्त्री के साथ, तट पर स्थित मृगों को हर्ष उपजाने वाली जलक्रीड़ा इच्छानुसार कर गजराज के समान किनारे पर आने के लिए उद्यत हुए ।।84।। स्नान के बाद वन में उत्पन्न हुई अतिशय श्रेष्ठ वस्तुओं के द्वारा शरीर वृत्ति अर्थात् भोजन कर वे अनेक प्रकार की कथाएँ करते हुए जहाँ लताओं के मंडप से सूर्य का संचार रुक गया था ऐसे दंडक वन में देवों के समान आनंद से बैठ गये ॥85॥ तदनंतर जटायु के मस्तक पर हाथ रखे हुई सीता जिनके पास बैठी थी ऐसे राम निश्चिंत चित्त हो इस प्रकार बोले ॥86॥ कि हे भाई ! यहाँ स्वादिष्ट फलों से युक्त नाना प्रकार के वृक्ष हैं, स्वच्छ जल से भरी नदियाँ हैं और लताओं से निर्मित नाना मंडप हैं ।। 87 ।। यह दंडक नाम का महापर्वत अनेक रत्नों से परिपूर्ण तथा उत्तम क्रीड़ा के योग्य नाना प्रदेशों से युक्त है ॥88॥ हम लोग इस पर्वत के समीप अत्यंत मनोहर नगर बनायें और वन में उत्पन्न हुई पोषण करने वाली अनेक भैंसें रख लें ॥89॥ जहाँ दूसरों का आना कठिन है ऐसे इस अत्यंत सुंदर वन में हम लोग देश बसायें क्योंकि यहाँ मुझे बड़ा संतोष हो रहा है॥90॥ जिनका चित्त हम लोगों में लग रहा है और जो निरंतर शोक के वशीभूत रहती हैं ऐसी अपनी माताओं को, अपना हित करने वाले समस्त परिकर एवं परिवार के साथ, जाओ शीघ्र ही ले आओ अथवा नहीं-नहीं ठहरो, यह ठीक नहीं है इसमें मेरा मन शुद्धता को प्राप्त नहीं हो रहा है ॥91-92।। ऋतु आने पर मैं स्वयं जाऊँगा, तुम सीता के प्रति सावधान रहकर यत्न सहित यहीं ठहरना ॥93॥ तदनंतर राम की पहली बात सुनकर लक्ष्मण बड़ी नम्रता से जाने लगे थे पर दूसरी बात सुनकर रुक गये । उसी समय जिनका चित्त प्रेम से आर्द्र हो रहा था ऐसे राम ने पुनः कहा कि देदीप्यमान सूर्य से दारुण यह ग्रीष्मकाल तो व्यतीत हुआ अब यह अत्यंत भयंकर वर्षाकाल उपस्थित हुआ है ।।94-95॥ जो क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान गर्जना कर रहे हैं तथा जो चलते-फिरते अंजनगिरि के समान जान पड़ते हैं ऐसे बिजली से युक्त ये मेघ दिशाओं को अंधकार से युक्त कर रहे हैं ।।96॥ जिस प्रकार जिनेंद्र भगवान् के जन्म के समय देव रत्नराशि की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार मेघों का शरीर धारण करने वाले देव निरंतररूप से आकाश को आच्छादित कर जल छोड़ रहे हैं― पानी बरसा रहे हैं ॥97॥ जो स्वयं महान् है, अत्यधिक गर्जना करने वाले हैं, जो अपनी मोटी धाराओं से पर्वतों को और भी अधिक उन्नत कर रहे हैं, जो आकाशांगण में निरंतर विचरण कर रहे हैं तथा जिनमें बिजली चमक रही है ऐसे ये मेघ अत्यधिक सुशोभित हो रहे हैं ।।98॥ वेगशाली वायु के द्वारा प्रेरित ये कितने ही सफेद मेघ असंयमी मनुष्यों के तरुण हृदयों के समान इधर-उधर घूम रहे हैं ॥99॥ जिस प्रकार विशेषता का निश्चय नहीं करने वाला धनाढ̖य मनुष्य कुपात्र के लिए धन देता है उस प्रकार यह मेघ धान्य की भूमि छोड़कर पर्वत पर पानी बरसा रहा है ।।100꠰। इस समय बड़े वेग से नदियां बहने लगी हैं, अत्यधिक कीचड़ से युक्त हो जाने के कारण पृथिवी पर विहार करना दुर्भर हो गया है और जल के संबंध से शीतल तीक्ष्ण वायु चलने लगी है इसलिए हे भद्र ! तुम्हारा जाना ठीक नहीं है ॥101॥ इस प्रकार राम के कहने पर लक्ष्मण बोले कि आप स्वामी हो जैसा कहते हो वैसा ही मैं करता हूँ । इस तरह अपने सुंदर निवास स्थल में वे नाना प्रकार को स्नेहपूर्ण कथाएं करते हुए सूर्य के परिचय से रहित वर्षाकाल तक सुख से रहे ॥102॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में दंडक वन में निवास का वर्णन करने वाला बयालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥42॥