योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 114
From जैनकोष
मिथ्यात्व-रक्षक परिणाम -
मयीदं कार्मणं द्रव्यं कारणेsत्र भवाम्यहम् ।
यावदेषा मतिस्तावन्मिथ्यात्वं न निवर्तते ।।११४।।
अन्वय :- इदं कार्मणं द्रव्यं मयि (अस्ति) । अत्र कारणे अहं (निमित्त:) भवामि । (इत्थं) यावत् (जीवस्य) एषा मति: (भवति) तावत् मिथ्यात्वं न निवर्तते ।
सरलार्थ :- कर्मजनित ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, मोह-राग-द्वेषादि भावकर्म और शरीरादि नोकर्मरूप पदार्थसमूह मुझ में है, इन द्रव्यकर्मादिक का कारण मैं हूँ; यह बुद्धि जबतक जीव की बनी रहती है, तबतक मिथ्यात्व नहीं छूटता ।
भावार्थ :- आत्मा मात्र ज्ञाता ही है; यह स्वीकृति ही मिथ्यात्व को भगाने का मूलभूत उपाय है । ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, मोहादि भावकर्म और शरीरादि नोकर्मो का मैं ज्ञाता ही हूँ । इनका आत्मा कर्ता-हर्ता अथवा कारण नहीं है, ऐसा निर्णय आवश्यक है । इस विषय का खुलासा समयसार गाथा १९ एवं उसकी टीका तथा भावार्थ में आया है, वहाँ से अवश्य देखें । आचार्य अमृतचन्द्र भी पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक १४ में लिखते हैं - ``एवमयं कर्मकृतैर्भावैरसमाहितोsपि युक्त इव । प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभास: स खलु भवबीजम् ।। श्लोकार्थ :- इसप्रकार यह आत्मा कर्मकृत रागादि अथवा शरीरादि भावों से संयुक्त न होने पर भी अज्ञानी जीवों को संयुक्त जैसा प्रतिभासित होता है और वह प्रतिभास ही निश्चय से संसार का बीज है ।