योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 526
From जैनकोष
वीतरागभाव ही धर्म है -
राग-द्वेष-निवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा ।
राग-द्वेष-प्रवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा ।।५२७।।
अन्वय : - राग-द्वेष-निवृत्तस्य (साधकस्य) प्रत्याख्यानादिकं वृथा (भवति) । च रागद्वेष- प्रवृत्तस्य (असाधकस्य) प्रत्याख्यानादिकं वृथा (भवति) ।
सरलार्थ :- जो साधक मुनिराज राग-द्वेष से रहित हैं, उनके प्रत्याख्यानादिक षट्कर्म व्यर्थ अर्थात् कुछ काम के नहीं हैं और जो मुनिराज राग-द्वेषादि विभाव भावों में प्रवृत्त हैं, उनके भी प्रत्याख्यानादिक षट्कर्म व्यर्थ अर्थात् कुछ काम के नहीं है ।