कार्मण
From जैनकोष
जीव के प्रदेशों के साथ बन्धे अष्ट कर्मों के सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध के संग्रह का नाम कार्माण शरीर है। बाहरी स्थूल शरीर की मृत्यु हो जाने पर भी इसकी मृत्यु नहीं होती। विग्रहगति में जीवों के मात्र कार्माण शरीर का सद्भाव होने के कारण कार्माण काययोग माना जाता है, और उस अवस्था में नोकर्मवर्गणाओं का ग्रहण न होने के कारण व अनाहारक रहता है।
- कार्माण शरीर निर्देश
- कार्मण शरीर का लक्षण
ष.खं. १४/५,६/सू.२४१/३२८ सव्वकम्माणं परूहणुप्पादयं सुहदुक्खाणं बीजमिदि कम्मइयं।२४१।=सब कर्मों का प्ररोहण अर्थात् आधार, उत्पादक और सुख-दुःख का बीज है इसलिए कार्माण शरीर है।
स.सि./२/३६/१९१/९ कर्मणां कार्यं कार्मणम् । सर्वेषां कर्मनिमित्तत्वेऽपि रूढिवशाद्विशिष्टविषये वृत्तिरवसेया। =कर्मों का कार्य कार्माण शरीर है। यद्यपि सर्व शरीर कर्म के निमित्त से होते हैं तो भी रूढि से विशिष्ट शरीर को कार्माण शरीर कहा है। (रा.वा./२/२६/३/१३७/६); (रा.वा./२/३६/९/१४६/१३); (रा.वा./२/४९/८/१५३/१८)
ध.१/१,१,५७/१६६/२९५ कम्मेव च कम्म-भवं कम्मइयं तेण...।...।१६६।=ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के ही कर्म स्कन्ध को कार्माण शरीर कहते हैं, अथवा जो कार्माण शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न होता है उसे कार्माण शरीर कहते हैं। (ध.१/१,१,५७/२९५/१); (गो.जी./मू./२४१)
ध.१४/५,६,२४१/३२८/११ कर्माणि प्ररोहन्ति अस्मिन्निति प्ररोहणं कार्मणशरीरम् ।...सकलकर्माधारं... तत एव सु:ख-दुखानां तद्बीजमपि...एतेन नामकर्मावयवस्य कार्मणशरीरस्य लक्षणप्रतिपादकत्वेन सूत्रमिदं व्याख्यायते। तद्यथा—भविष्यत्सर्वकर्मणां प्ररोहणमुत्पादकं त्रिकालगोचरा शेषसुख-दु:खानां बीजं चेति अष्टकर्मकलापं कार्मणशरीरम् । कर्मणि भवं वा कार्मणं कर्मैव वा कार्मणमिति कार्मणशब्दव्युत्पत्ते:।=कर्म इसमें उगते हैं इसलिए कार्मण शरीर प्ररोहण कहलाता है...सर्व कर्मों का आधार है...सुखों और दुःखों का बीज भी है...इसके द्वारा नामकर्म के अवयव रूप कार्मण शरीर की प्ररूपणा की है। अब आठों कर्मों के कलाप रूप कार्माण शरीर के लक्षण के प्रतिपादकपने की अपेक्षा इस सूत्र का व्याख्यान करते हैं। यथा—आगामी सर्व कर्मों का प्ररोहण, उत्पादक और त्रिकाल विषयक समस्त सुख-दुःख का बीज है, इसलिए आठों कर्मों का समुदाय कार्मणशरीर है, क्योंकि कर्म में हुआ इसलिए कार्मण है, अथवा कर्म ही कार्मण है, इस प्रकार यह कार्मण शब्द की व्युत्पत्ति है।
- कार्मण शरीर के अस्तित्व सम्बन्धी शंका समाधान
रा.वा./२/३६/१०-१५/१४६/१६ सर्वेषां...कार्मणत्वप्रसङ्ग इति चेत्...औदारिकशरीरनामादीनि हि प्रतिनियतानि कर्माणि सन्ति तदुदयभेदाद्भेदो भवति। तत्कृतत्वेऽप्यन्यत्वदर्शनाद् घटादिवत्...अत: कार्यकारणभेदान्न सर्वेषां कार्मणत्वम् ।...कार्मणेऽप्यौदारिकादीनां वैस्रसिकोपचयेनावस्थानमिति नानात्वं सिद्धम् । कार्मणमसत् निमित्ताभावादिति चेत्...तन्न; किं कारणं। तस्यैव निमित्तभावात् प्रदीपवत् ।...मिथ्यादर्शनादिनिमित्तत्वाच्च। =प्रश्न–(कर्मों का समुदाय कार्माण शरीर है) ऐसा लक्षण करने से औदारिकादि सब ही शरीरों को कार्मणत्वपने का प्रसंग आ जायेगा? उत्तर–औदारिकादि शरीर कर्मकृत् है, तथा मिट्टी से उत्पन्न होनेवाले घट, घटी आदि की भाँति फिर भी उसमें संज्ञा, लक्षण, आकार और निमित्त आदि की दृष्टि से भिन्नता है।...कारण कार्य की अपेक्षा भी कार्मण और औदारिकादि भिन्न हैं।...कार्मण शरीर पर ही औदारिकादि शरीरों के योग्य परमाणु जिन्हें विस्रसोपचय कहते हैं, आकर जमा होते हैं, इस दृष्टि से भी कार्मण और औदारिकादि भिन्न है। प्रश्न—निर्निमित्त होने से कार्मण शरीर असत् है? उत्तर—ऐसा नहीं है। जिस प्रकार दीपक स्पपरप्रकाश है, उसी तरह कार्मणशरीर औदारिकादि का भी निमित्त है, और अपने उत्तर कार्मण का भी। फिर मिथ्यादर्शन आदि कार्मण शरीर के निमित्त हैं।
- नोकर्मों के ग्रहण के अभाव में भी इसे कायपना कैसे प्राप्त है
ध.१/१,१,४/१३८/३ कार्मणशरीरस्थानां जीवानां पृथिव्यादिकर्मभिश्चितनोकर्मपुद्गलाभावादकायत्वं स्यादिति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रापि सत्त्वतस्तद्व्यपदेशस्य न्याय्यत्वात् ।=प्रश्न–कार्मणकाययोग में स्थित जीव के पृथिवी आदि के द्वारा संचित हुए नोकर्म पुद्गल का अभाव होने से अकायपना प्राप्त हो जायेगा? उत्तर–ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि नोकर्म रूप पुद्गलों के संचय का कारण पृथिवी आदि कर्म सहकृत औदारिकादि नामकर्म का सत्त्व कार्मणकाययोगरूप अवस्था में भी पाया जाता है, इसलिए उस अवस्था में भी कायपने का व्यवहार बन जाता है।
- अन्य सम्बन्धित विषय
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- कार्मण शरीर का लक्षण
- कार्मण योग निर्देश
- कार्मण काययोग का लक्षण
पं.सं./प्रा./१/९९ कम्मेव य कम्मइयं कम्मभवं तेण जो दु संजोगो। कम्मइयकायजोगो एय-विय-तियगेसु-समएसु।९९।=कर्मों के समूह का अथवा कार्मण शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले काय को कार्मणकाय कहते हैं, और उसके द्वारा होने वाले योग को कार्मणकाययोग कहते हैं। यह योग निग्रहगति में अथवा केवलिसमुद्घात में, एक दो अथवा तीन समय तक होता है।९९। (ध.१/१,१,५७/१६६/२९५) (गो.जी./मू./२४१) (पं.सं./सं./१/१७८)
ध.१/१,१,५७/२९५/२ तेन योग: कार्मणकाययोग:। केवलेन कर्मणा जनितवीर्येण सह योग इति यावत् ।=उस (कार्मण) शरीर के निमित्त से जो योग होता है, उसे कार्मण काययोग कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अन्य औदारिकादि शरीर वर्गणाओं के बिना केवल एक कर्म से उत्पन्न हुए वीर्य के निमित्त से आत्मप्रदेश परिस्पन्द रूप जो प्रयत्न होता है उसे कार्मण काययोग कहते हैं।
गो.जी.जी./२४१/५०४/१ कर्माकर्षशक्तिसंगतप्रदेशपरिस्पन्दरूपो योग: स: कार्मणकाययोग इत्युच्यते। कार्मणकाययोग: एकद्वित्रिसमयविशिष्टविग्रहगतिकालेषु केवलिसमुद्धातसंबन्धिप्रतरद्वयलोकपूरणे समयत्रये च प्रवर्तते शेषकाले नास्तीति विभाग: तुशब्देन सूच्यते।=तीहिं (कार्मण शरीर) कार्मण स्कंधसहित वर्तमान जो संप्रयोग: कहिये आत्मा के कर्म ग्रहण शक्ति धरै प्रदेशनिका चंचलपना सो कार्मणकाययोग है, सो विग्रहगति विषैं एक, दो, अथवा तीन समय काल मात्र हो है, अर केवल समुद्धातविषैं प्रतरद्विक अर लोकपूरण इन तीन समयनि विषैं हो है, और समय विषैं कार्मणयोग न हो है।
- कार्मण काययोग का स्वामित्व
ष.खं.१/१,१/सू॰६०,६४/२९८-३०७ कम्मइयकायजोगो विग्गहगई समावण्णाणं केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं।६०। कम्मइयकायजोगो एइंदिय-प्पहुडि जीव सजोगिकेवलि त्ति।६४।=विग्रहगति को प्राप्त चारों गतियों के जीवों के तथा प्रतर और लोकपूरण समुद्धात को प्राप्त केवली जिनके कार्मणकाययोग होता है।६०। कार्मण काययोग एकेन्दिय जीवों से लेकर सयोगिकेवली तक होता है। (रा.वा./१/७/१४/३९/२४) (त.सा./२/६७) विशेष देखें - उपरला शीर्षक।
त.सू./२/२५ विग्रहगतौ कर्मयोग:।२५। विग्रहगति में कर्मयोग (कार्मणयोग) होता है।२५।
ध.४/विशेषार्थ/१,३,२/३०/१७ आनुपूर्वी नामकर्म का उदय कार्मणकाययोगवाली विग्रहगति में होता है। ऋजुगति में तो कार्मण काययोग न होकर औदारिक मिश्र व वैक्रियकमिश्र काययोग ही होता है।
- विग्रहगति में कार्मण ही योग क्यों
गो.क./जी.प्र./३१८/४५१/१३ ननु अनादिसंसारे विग्रहाविग्रहगत्योर्मिथ्यादृष्टयादिसयोगान्तगुणस्थानेषु कार्मणस्य निरन्तरोदये सति ‘विग्रहगतौ कर्मयोग:’ इति सूत्रारम्भ: कथं? सिद्धे सत्यारम्भमाणो विधिर्नियमायेति विग्रहगतौ कर्मयोग एव नान्यो योग: इत्यवाधरणार्थ:।=प्रश्न–जो अनादि संसारविषै विग्रहगति अविग्रहगति विषै मिथ्यादृष्टि आदि सयोग पर्यन्त सर्व गुणस्थान विषैं कार्माण का निरन्तर उदय है, ‘विग्रहगतौ कर्मयोग:’ ऐसैं सूत्र विषैं कार्माणयोग कैसें कह्या ? उत्तर–‘सिद्धे सत्यारम्भो नियमाय’ सिद्ध होतैं भी बहुरि आरम्भ सो नियम के अर्थि है तातैं इहाँ ऐसा नियम है जो विग्रहगतिविषैं कार्मण योग ही है और योग नाहीं।
- कार्मण योग अपर्याप्तकों में ही क्यों
ध./१/१,१,९४/३३४/३ अथ स्याद्विग्रहगतौ कार्मणशरीराणां न पर्याप्तिस्तदा पर्याप्तीनां षण्णां निष्पतेरभावात् । न अपर्याप्तास्ते आरम्भात्प्रभृति आ उपरमादन्तरालावस्थायामपर्याप्तिव्यपदेशात् । न चानारम्भकस्य स व्यपदेश: अतिप्रसङ्गात् । ततस्तृतीयमप्यवस्थान्तरं वक्तव्यमिति नैष दोष:; तेषामपर्याप्तेष्वन्तर्भावात् । नातिप्रसङ्गोऽपि।...ततोऽशेषसंसारिणामवस्थाद्वयमेव नापरमिति स्थितम् ।=प्रश्न–विग्रहगति में कार्मण शरीर होता है, यह बात ठीक है। किन्तु वहाँ पर कार्मण शरीरवालों के पर्याप्ति नहीं पायी जाती है, क्योंकि विग्रहगति के काल में छह पर्याप्तियों की निष्पत्ति नहीं होती है। उसी प्रकार विग्रहगति में वे अपर्याप्त भी नहीं हो सकते हैं; क्योंकि पर्याप्तियों के आरम्भ से लेकर समाप्ति पर्यन्त मध्य की अवस्था में अपर्याप्ति यह संज्ञा दी गयी है। परन्तु जिन्होंने पर्याप्तियों का आरम्भ ही नहीं किया है ऐसे विग्रहगति सम्बन्धी एक दो और तीन समयवर्ती जीवों को अपर्याप्त संज्ञा नहीं प्राप्त हो सकती है, क्योंकि ऐसा मान लेने पर अतिप्रसंग दोष आता है। इसलिए यहाँ पर पर्याप्त और अपर्याप्त से भिन्न कोई तीसरी अवस्था ही होनी चाहिए? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ऐसे जीवों का अपर्याप्तों में ही अन्तर्भाव किया गया है। और ऐसा मान लेने पर अतिप्रसंग दोष भी नहीं आता है...अत: सम्पूर्ण प्राणियों की दो अवस्थाएँ ही होती हैं। इनसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था नहीं होती है।
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- मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणा इष्ट है। तहाँ आय के अनुसार व्यय होता है।–देखें - मार्गणा
- कार्मण काययोग सम्बन्धी गुणस्थान, जीव समास, मार्गणास्थानादि २० प्ररूपणाएँ।
- कार्मण काययोग विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।–दे० वह वह नाम
- कार्मण काययोग में काय का लक्षण कैसे घटित हो– देखें - काय / २
- कार्मण काययोग का लक्षण
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