वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-7
From जैनकोष
अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरा लोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिंतनमनुप्रेक्षा: ।। 9-7 ।।
संवर के हेतुभूत अनुप्रेक्षाओं का निर्देश―संवर के कारणों में धर्म के बाद अनुप्रेक्षा बताई गई है । अनुप्रेक्षा का अर्थ है अनु प्र ईक्षा । आत्मा के स्वभाव में जिस प्रकार उपयोग लगे उसके अनुसार प्रकृष्ट रूप से ईक्षण करना, निरखना, चिंतन मनन करना अनुप्रेक्षा कहलाता है । अनुप्रेक्षा के 12 भेद हैं―(1) अनित्यानुप्रेक्षा (2) अशरणानुप्रेक्षा (3) संसारानुप्रेक्षा (4) एकत्वानुप्रेक्षा (5) अन्यत्वानुप्रेक्षा (6) अशुच्यानुप्रेक्षा (7) आश्रवानुप्रेक्षा (8) संवरानुप्रेक्षा (9) निर्जरागुप्रेक्षा (10) लोकानुप्रेक्षा (11) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा और (12) धर्मानुप्रेक्षा । इन सब अनुप्रेक्षावों में जैसे अपना आत्मा प्रसिद्ध हो उस प्रकार से चिंतन चलता है । अनुप्रेक्षा का दूसरा नाम भावना भी है, जिसका अर्थ है कि बार-बार इन 12 प्रकारों में गुण दोष का चिंतन कर गुण की भावना करना ।
संवर तत्त्व की कारणभूत अनित्यानुप्रेक्षा का वर्णन―अनित्यानुप्रेक्षा―जो भी पदार्थ प्राप्त है, चाहे वह निकट प्राप्त है चाहे वह दूर प्राप्त है, उन सब पदार्थों के संयोग वियोग का स्वभाव विचारना, उनके स्वयं परिणमन का, अनित्यपने का विचार करना अनित्यानुप्रेक्षा है । कितने ही पुद्गल द्रव्य तो आत्मा के द्वारा रागादिक परिणाम के कारण कर्म रूप से और नोकर्मरूप से ग्रहण किए गए होते हैं और कितने ही पदार्थ अग्रहीत हैं अर्थात् इस आत्मा का शरीर रूप से या कर्म रूप से नहीं ग्रहण किया गया किंतु समक्ष मौजूद है । जैसे अनेक ये स्कंध या पशु पक्षी मनुष्यादिक प्राणी इन सबका विचार करना कि ये सब द्रव्य रूप से तो नित्य हैं, किंतु पर्यायरूप से सतत् नवीन-नवीन पर्याय होने के कारण अनित्य हैं । अपने आपके बारे में भी विचार किया जाना चाहिये कि यह मैं आत्मा अपनी द्रव्य दृष्टि से तो नित्य हूँ और पर्यायदृष्टि से अनित्य हूँ । यद्यपि मेरे पर्याय प्रतिक्षण नये-नये होते रहते है, किंतु यह मैं आत्मा अपने द्रव्य स्वभाव से सदैव रहने वाला नित्य पदार्थ हूँ । इसी प्रकार सभी पदार्थों की बात है कि वह द्रव्य स्वरूप से तो नित्य है और पर्याय स्वरूप से अनित्य है । यह शरीर इंद्रिय, विषय उपभोग और मिले हुए धन वैभव आदिक सभी पदार्थ जल के बबूले की तरह अनवस्थित स्वभाव वाले हैं । जैसे घर के ऊपर से गिरने वाले पानी के कारण बरसात में बबूले उठा करते हैं, वे बबूले आधा मिनट भी नहीं ठहर पाते । यदि वे बबूले कुछ एक आधा मिनट ठहरते हैं तो उस पर लोगों का आश्चर्य होता है या बालक लोग उस ठहरे बबूले पर एक हर्ष व्यक्त करते हैं कि देखो यह बबूला हमारा कितनी देर ठहर गया वह अधिक ठहरता ही नहीं है, इसी प्रकार ये सभी पदार्थ इन आकार और अवस्थावों में अधिक ठहरते नहीं है । गर्भादिक अवस्थावों में जो कुछ दशा थी वह दशा आज नहीं है । इस प्रकार पदार्थ विनश्वर हैं, किंतु अज्ञानी जीव मोहवश होकर इनमें नित्यपना समझते हैं, पर संसार में कुछ भी चीज ध्रुव नहीं है, केवल चैतन्य सामान्य स्वरूप ध्रुव है और उसके लिए अपना ज्ञान दर्शन स्वभाव ही ध्रुव है, अन्य कुछ ध्रुव नहीं है, ऐसा चिंतवन करना अनित्यानुप्रेक्षा है । यहाँ एक बात और भी अधिक स्मरणीय है कि केवल पदार्थ का अनित्य-अनित्य रूप ही विचार किया जाये तो इसमें उद्वेग होता है । वह कभी तो लाभदायक भी है । इससे उपेक्षा करके अपने ध्रुव स्वभाव की दृष्टि बना लीजिए और कभी अनित्य ही अनित्य विचारने से ऐसा उद्वेग हो सकता है जिसमें घबड़ाहट भी हो जाये और धर्म भाव न जग सके । तो अनित्यानुप्रेक्षा में अपने आपके नित्य स्वरूप में याद होना आवश्यक है । मैं अनित्य नहीं हूँ और यह सारा समागम और पर्याय यह ही विनाशीक है । इस कारण पर्यायों में विश्वास दृष्टि न रखकर अपने ध्रुव अंतस्तत्व में आस्था रखना चाहिये ।
संवर तत्त्व की कारणभूत अशरणानुप्रेक्षा का वर्णन―अशरणानुप्रेक्षा―जैसे कि कोई भूखे सिंह के पंजे के बीच आये हुए हिरण के बच्चे को कोई सहाय नहीं है इसी प्रकार जन्म जरा मरण रोगादिक के बीच होने वाले दुःखों से विघात को बचाने के लिए कोई मुझे शरण नहीं है, ऐसा चिंतन करना अशरणानुप्रेक्षा है । शरण दो प्रकार के हुआ करते हैं―(1) लौकिक शरण और (2) लोकोत्तरशरण, ये दोनों ही प्रकार के शरण तीन-तीन प्रकार से हुआ करते हैं―(1) जीवशरण (2) अजीवशरण और (3) मिश्रशरण, इस प्रकार 6 प्रकार के शरण हो गए जिनमें पहला है लोकजीवशरण । राजा, देवता, सेठ, बंधुजन ये लोकजीवशरण हैं । तो लोक व्यवहार में आजीविका आदिक के साधनों में इन सबसे सहयोग प्राप्त होता है । यद्यपि यहाँ भी वास्तविक कारण अपने-अपने पुण्य का उदय है तो भी व्यवहार में यह उस समय बाह्य निमित्त होता है इस कारण यह लोक जीव शरण है । कोर्ट महल आदिक अजीव शरण हैं, जिनमें रहकर जीव मनुष्य अपने को सुरक्षित अनुभव करता है । ग्राम नगर आदि मिश्रशरण क्योंकि ग्राम केवल मकान और स्थान का नाम नहीं किंतु जिन मकान स्थानों पर मनुष्य रहते हैं वह ग्राम शरण कहलाता है । (4) लोकोत्तरजीवशरण―पंचपरमेष्ठी लोकोत्तरशरण हैं इनमें लौकिकता की कुछ बात ही नहीं है । यह तो केवल आत्मधर्म की साधना में उपयोगी होता है, याने इस कारण यह लोकोत्तर जीव शरण है । (5) लोकोत्तर अजीवशरण―अरहंत प्रभु के प्रतिबिंब आदि ये अजीव शरण हैं । चैत्यालय, प्रतिमा, जिनके आश्रय धर्मसाधना होती है वे अजीव शरण हैं । (6) लोकोत्तर मिश्रशरण जैसे उपकरण सहित साधुवर्ग शास्त्र आदिक उपकरण साथ हैं, कमंडल पिछी आदिक भी हैं, ये तो अजीव हैं किंतु साधु का आत्मा जीव है, सो उपकरण सहित साधुवर्ग लोकोत्तर मिश्रशरण कहलाते हैं । यह सब बाह्य शरण की बात कही गई है, परमार्थ से अपने आत्मस्वभाव का आलंबन ही शरण है । इतने बाह्य शरण होते हुए भी लौकिक शरण का तो यहाँ प्रकरण नहीं है, पर लोकोत्तर बाह्य शरण होने पर भी यदि परमार्थत: अपने आपके स्वभाव की दृष्टि रूप शरण है तो वह भी व्यवहार से शरण कहा जाता है । कहीं पंच परमेष्ठी अपने में राग बढ़ाकर भक्तों को शरण नहीं दिया करते । वे तो धर्म के स्थान हैं । उनका सत्संग पाकर जो विवेकीजन हैं वे स्वयं अपने परमार्थ धर्म का शरण पा लेते हैं ।
अशरणानुप्रेक्षा में अनुप्रेक्ष्य तथ्य―अशरण भावना में यह विचार किया गया है कि इस संसार में परिभ्रमण करते हुए मुझ जीव को इस लोक में कोई शरण नहीं है । जैसे एकांत वन में बलवान भूखे मांसभक्षी सिंह के द्वारा कोई मृग का बच्चा पकड़ लिया गया, अब उसके लिए कौन शरण हो सकता है? इसी प्रकार जन्म जरा मरण रोग, इष्टवियोग अनिष्ट संयोग, इष्ट का लाभ न होना, मन खोंटा होना, इन घटनावों से जो जीव को दुःख उत्पन्न होता है उस दुःख से आक्रांत इस जंतु को संसारी प्राणियों को बाहर कुछ भी शरण नहीं है । इस मनुष्य का यह परिपुष्ट शरीर भी किसी दुःख को मेटने के लिए शरण नहीं होता । हाँ वह तो भोजन के लिए सदैव तैयार रहता है । भोजन में तो भले ही सहाई हो जाये यह शरीर, पर कोई दुःख आ पड़ने पर यह शरीर दुःख से छुटाने के लिए शरण नहीं होता । बड़े प्रयत्न से धन कमाया गया हो वह भी तो अन्य भव में साथ नहीं जाता, और भले ही किसी समय यह लौकिकशरण बन जाये, पर यह ही कमाया हुआ धन कभी अपने प्राण के भी विनाश का कारण बन जाता है । जैसे डाकू आयें, धन भी छीन जाये, प्राण भी हर लें, तो बाहर में इस जीव को ये समागम कुछ भी शरण नहीं हैं । ऐसे बड़े-बड़े मित्र जो हमारे सुख-दुःख में साथी रहे वे भी मरणकाल में रक्षा कर सकने वाले नहीं हैं । कुटुंब के परिजन, बंधुजन, मित्रजन सबके सब मिलकर भी वेदना को नहीं हर सकते हैं । कोई रोग हो गया तो भले ही रोगवश परिजन चिकित्सा करने में उद्यमी रहें, पर रोग से उत्पन्न हुए दुःख को वे बाँट नहीं सकते । तो जगत में इस जीव का कुछ भी शरण नहीं है । हाँ शरण है तो केवल अपने द्वारा आचरण किया गया धर्म इस विपत्ति रूप समुद्र से तिरने का उपाय है । वही वास्तव में शरण है । मृत्यु समय भी जिन जीवों के आत्मस्वभाव की दृष्टि रहती है उनके कोई दुःख ही नहीं है । तो स्वयं ही अपने आपके लिए उस समय भी शरण बन गए । तो इस संसार के संकटों से बचाने के लिए धर्म ही शरण है, अन्य कुछ भी शरण नहीं, ऐसी भावना करना अशरण अनुप्रेक्षा है । जो पुरुष अशरण भावना भाते हैं―मैं सदैव अशरण हूँ, ऐसी भावना के कारण उनको संसार का उद्वेग होता है और सांसारिक भवों में ममत्व नहीं रहता है । भगवान अरहंत सर्वज्ञ देव द्वारा उपदेशे गए वचनों में भी विश्वास होता है । इस अशरणानुप्रेक्षा में मूल आधार अपने आत्मा की स्वभावदृष्टि है और जिसने अपने अंतस्तत्व को शरण माना है उन्हीं को इन बाहरी पदार्थों की अशरणता का भाव धर्म मार्ग में ले जाता है, और इससे कर्मों का संवर होता है ।
संवर तत्त्व की कारणभूत संसारानुप्रेक्षा में संसार असंसार नोसंसार और विलक्षण अवस्थावों का वर्णन―संसारानुप्रेक्षा―कर्मोंदय के निमित्त से इस आत्मा को जो अनेक भवों में भ्रमण करना पड़ता है इसका नाम संसार है । यह संसार असार है, दुःख रूप है, इस प्रकार की भावना करना संसारानुप्रेक्षा है । आत्मा की अवस्थायें चार प्रकार की होती हैं―(1) संसार, (2) असंसार ( 3) नोसंसार और (4) इन तीनों से विलक्षण । संसार नाम तो चारों गतियों में जहाँ कि नाना योनि और जन्म भेद हैं उन गतियों में परिभ्रमण करना इसे कहते हैं संसार । असंसार संसार के भ्रमण से छूट जाना और फिर कभी भी इस संसार में न आना, किंतु मोक्ष पद के विरुद्ध अमूर्त आनंद का ही अनुभव रहना यह असंसार कहलाता है । नोसंसार सयोग केवली अरहंत भगवान के बतायी गई है । अब उनके चारों गतियों में भ्रमण न रहा, इस कारण से संसार नहीं कह सकते । और मोक्ष की प्राप्ति न हुई इस कारण असंसार नहीं कह सकते, किंतु वहाँ ईसत संसार है । थोड़े ही समय बाद उनकी मुक्ति होने वाली है । उनकी अवस्थावों को नोसंसार कहते हैं । अयोग केवली भगवान के ये तीनों ही स्थितियाँ नहीं हैं । संसार तो चतुर्गति भ्रमण न होने के कारण नहीं है । मुक्त अवस्था न होने से असंसार भी नहीं है और प्रदेशों का परिस्पंद न रहने से नोसंसार अवस्था भी नहीं है । इस कारण अयोग केवली भगवान के इन तीनों से विलक्षणता है । यहाँ संसारी प्राणियों के कदाचित शरीर का हलन चलन भी न हो तो भी अंतर में सतत् प्रदेश का हलन चलन रहता है । चाहे समाधि दशा में हो, विग्रह गति में हो या कैसा ही बेहोश पड़ा हो, जब तक घातिया कर्मों का नाश नहीं हुआ तब तक तो निरंतर प्रदेश चलन है और घातिया कर्मों का नाश होने पर भी संसार तो रहा नहीं, पर सयोग अवस्था जब तक रहती है तब तक योग है सो वह नोसंसार कहलाता है । सिद्ध भगवान के प्रदेश परिस्पंद नहीं और अयोग केवली के भी नहीं है । अब यहाँ संसार अवस्था पर विचार कीजिए, यह संसार अनादि परंपरा से चला आया है, सो अभव्य जीव के तो अनादि अनंत संसार है । और भव्य जीवों की सामान्य दृष्टि से देखें तो उनका भी अनादि अनंत संसार है, क्योंकि संसार में भव्य सदा रहेंगे, भव्यों से खाली न हो जायेगा संसार, पर विशेष रूप से देखें तो कोई भव्य मुक्ति को प्राप्त करेंगे इस कारण वे अनादि सांत कहलाते हैं । असंसार अवस्था सादि अनंत है, मुक्ति की आदि तो है पर वे मुक्त सदैव रहेंगे इसलिए वे अनंत हैं । नोसंसार अवस्था सादिसांत है । सयोग केवली हुए तो उनकी आदि तो है और सयोग केवली अनंत काल रहेंगे नहीं, उसके बाद अयोग केवली बनेंगे, मुक्ति पायेंगे । तो सयोग केवली का सदा काल रहना नहीं है । इस कारण से सांत है और इन तीनों से विलक्षण अयोग केवली का काल अंतर्मुहूर्त का है ।
संसार विषयक विस्तृत विचार में द्रव्य व क्षेत्र की अपेक्षा से विचार―अब यहाँ संसार विषयक भेदपूर्वक विचार कीजिए । यह संसार चार प्रकार का है―(1) कर्मरूप संसार, (2) नोकर्मरूप संसार (3) वस्तु रूप संसार और (4) विषयरूप संसार । यह चार प्रकार का संसार द्रव्य अपेक्षा से विचारिये । यहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव पांच के निमित्त से होने वाले संसार का लक्षण बताया जा रहा है । 8 प्रकार के कर्म बँधते हैं और उनके वशीभूत होकर संसार में भ्रमण होता है, यह कर्म संसार है । शरीर के आश्रय से भावनायें बिगड़ती हैं और संसार में भ्रमण होता है और शरीर की अनेक स्थितियाँ बनती हैं यह नोकर्म संसार है । वस्तु के आश्रय से जो संसरण चलता है वह वस्तु संसार है । विषयों का आश्रय करने से जो संसरण होता है और विषयों में ही उपयोग का भ्रमण होता रहता है यह विषय संसार है । क्षेत्र के निमित्त से होने वाला संसार दो प्रकार का है―स्वक्षेत्र संसार और परक्षेत्र संसार । स्वक्षेत्र संसार तो अपने पाये हुए शरीर प्रमाण क्षेत्र में अवगाह होना और नये-नये शरीर मिले तो उन शरीर प्रमाण क्षेत्र में संसरण करना स्वक्षेत्र संसार है । यह आत्मा लोकाकाश के प्रमाण प्रदेश वाला है । लोकाकाश में जितने असंख्यात प्रदेश हैं उतने ही प्रदेश जीव में हैं, सो उन कर्मों के उदय काल में यह आत्मा जिसके कि प्रदेश संकुचित होते और फैलते रहते हैं ऐसे संकोच और विसर्पण के धर्म वाले आत्मा का शरीरादिक के भेदों से हीनाधिक पुरुषों के परिमाण में रहना और इस प्रकार संसरण होना स्वक्षेत्र संसार है, और बाह्य क्षेत्र में परिभ्रमण होना सम्मूर्छन, जन्म, गर्भ, उपपादन आदि 9 प्रकार की योनियाँ हैं, इनका आलंबन लेकर जो परक्षेत्र में संसरण होता है वह परक्षेत्र संसार है ।
काल व भव की अपेक्षा से संसार का वर्णन―काल दो प्रकार का कहा गया है―(1) परमार्थकाल और (2) व्यवहार काल । परमार्थ काल तो काल द्रव्य है । जो समय समय रूप परिणमन है उसका निमित्त पाकर जो योगपरिस्पंद या भावपरिवर्तन रूप जो तीन काल में परिभ्रमण हो रहा, है वह काल संसार है । भवनिमित्तक संसार―जीवसमासों में परिभ्रमण रूप है । जीव समास 14 बताये गए हैं और इनसे भी अधिक विकल्प किया जा सकता है । 32 प्रकार के भी भव कहे गए हैं―पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ये चारों सूक्ष्म भी होते, वादर होते, पर्याप्त होते, अपर्याप्त होते, इस प्रकार 16 भेद ये हुए । वनस्पतिकाय दो तरह के है―(1) प्रत्येक शरीर और (2) साधारण शरीर । प्रत्येक शरीर दो तरह के हैं―(1) पर्याप्त और (2) अपर्याप्त, साधारण शरीर 4 तरह के हैं―(1) सूक्ष्म (2) बादर (3) पर्याप्त और (4) अपर्याप्त । इस प्रकार 6 भेद ये हुए । दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय और चारइंद्रिय ये पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं । इस प्रकार 6 भेद ये हुए । पंचेंद्रिय जीव सैनी पर्याप्त, सैनी अपर्याप्त, असंज्ञी पर्याप्त, असंज्ञी अपर्याप्त, चार भेद ये हुए, ये सब मिलकर 32 प्रकार के होते हैं । इनके संसरण को भव संसार कहते हैं ।
भावनिमित्तक संसार व संसारानुप्रेक्षा का उपसंहार―भावनिमित्तक संसार दो प्रकार का है―(1) स्वभाव संसार और (2) विभाव संसार । स्वभाव संसार तो आत्मा के मिथ्यादर्शन आदिक परिणाम हैं । और यही जीव का वास्तविक संसरण है कि जो वह अपने विकार भावों में प्रवर्तित होता रहता है । परभाव संसार है ज्ञानावरणादिक कर्मों के रस अनुभाग आदिक । इस प्रकार यह जीव इन अनेक योनियों में, कुलों में भ्रमण करता हुआ कर्मरूपी यंत्र से प्रेरित होकर पैदा होकर भाई पुत्र, पौत्र हो जाता है । माता होकर बहिन, भार्या, पुत्री आदि हो जाता है । और की तो बात क्या, स्वयं ही अपने आपका पुत्र हो जाता है । जैसे कि भोग के अनंतर ही मर गया वह भोगने वाला और तुरंत उस ही स्त्री के पेट में जन्म ले ले तो स्वयं का ही पुत्र बन जाता है, इस प्रकार यह संसार एक विकट गहन वन है । यहाँ दुःख ही दुःख है । सार का कोई नाम नहीं है, संसार की प्रत्येक स्थिति में कष्ट ही कष्ट है, ऐसा चिंतन करना संसारानुप्रेक्षा है । जो महाभाग संसारानुप्रेक्षा की भावना करता है वह संसार के दुःख के भय से विरक्त हो जाता है और विरक्त होकर इस ही संसार के नष्ट करने के लिए उद्यमी होता है, तो वह उद्यम क्या है जिसके द्वारा यह संसार नष्ट हो? वह उद्यम है अपने स्वभाव की दृष्टि करना और स्वभाव अपने आपको अनुभवना यह है उसका उपाय जिससे कि संसार से छूटकर मोक्ष में पहुँच सकेंगे । सारभूत केवल आत्मा का स्वभाव सहज परमात्मतत्त्व, उसका आलंबन ही सारभूत है, शेष क्रियायें ये सब बाहरी बातें हैं । इनसे जीव को मोक्षमार्ग नहीं मिलता ।
संवर की कारणभूत एकात्वानुप्रेक्षा का वर्णन―एकत्वभावना―जन्म, बुढ़ापा, मरण होते रहना कि महान् दुःख के अनुभवन करने के प्रति कोई सहाय नहीं है । केवल एक इस जीव को ही अपनी परिणतियां भोगनी पड़ती हैं । इस प्रकार का चिंतन करना एकत्वानुप्रेक्षा है । इस जीव के संबंध में यहाँ एकत्व है या अनेकत्व, इन दोनों तत्त्वों का विचार किया जा रहा है । एकत्व है यह भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से सिद्ध होता है और अनेकत्व, यह बात भी आत्मा के गुण पर्याय की दृष्टि से सिद्ध होता है । जीव में द्रव्य का एकत्व क्या है कि जितने जगत के पदार्थ हैं उन समस्त जीवादिक पदार्थों में एक स्वयं के द्रव्य का विचार चल रहा है । तो यह एक जीव तो स्वतंत्र सत् है और पूर्ण है, एक है, अखंड है, यों द्रव्य को एक रूप में निरखना यह द्रव्य का एकत्व है, क्षेत्र का एकत्व क्या है? एक परमाणु के उतने क्षेत्र को जितना घिरा सके वह एक प्रदेश मात्र है, वह क्षेत्र का एकत्व है, अथवा यह समस्त असंख्यातप्रदेशी आत्मा अखंड ही तो है । उसमें विस्तार है, सो प्रदेश कल्पना हुई है, पर वस्तुत: तो एक अखंड क्षेत्र वाला है । काल का एकत्व क्या है? एक समय का परिणमन और उस ही परिणमनरूप अपने भावों को निरखना यह काल का एकत्व है । भाव का एकत्व है मोक्षमार्ग । अब इस ही आत्मा के बारे में अनेकत्व भी देखना चाहें तो व्यवहार से अनेकत्व भी परख लीजिए । यह अनेकत्व भेद विषयक है । गुण पर्यायों का समूह यह द्रव्य है । ऐसे उसमें अनंत गुण और अवस्थायें निरखने में दृष्टि से भेद नजर आता है । असंख्यात प्रदेशी है, इस विस्तार को देखने से इसके भेद दृष्टगत होते हैं । सर्वथा भेद कुछ नहीं है । आत्मवस्तु तो प्रत्येक अखंड-अखंड है मगर दृष्टि में एक विशेष आता है, इस कारण से अनेकपना विदित होता है । काल की अपेक्षा अनेकपना, समय-समय में पर्यायें होती है और ऐसी अनंत पर्यायें हुई हैं, अनंत पर्यायें होंगी और वर्तमान में कोई एक पर्याय है । तो यों पर्यायों पर दृष्टि देने से काल की अपेक्षा जीव का एकत्व ज्ञात होता है, भाव की अपेक्षा अनेकत्व कैसे ज्ञात होता है, भाव मायने गुण, उन गुणों की अपेक्षा अनेकपना नजर आया है । जैसे यही जीव ज्ञानी है, चारित्रवान है आदिक अनेक भेद नजर आयेंगे, सो वस्तु में यह एक ही है या अनेक ही हैं यह कुछ निश्चित नहीं किया जाता । जब अभेद निश्चय से देखा जाये तो एकपना है, भेद व्यवहार से देखा जाये तो अनेकपना है । एक भी वस्तु सामान्य की अपेक्षा एक नजर आयेगी तो विशेष की अपेक्षा अनेक रूप नजर आयेगी । तो यहाँ तो उद्देश्य होना चाहिए भाव एकत्व का । अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र की एकता हो जाना । जब इस भव्य आत्मा को यथाख्यात चारित्र प्राप्त होता है तो उस ही में इसकी एकत्ववृत्ति बनती है । उसका उपाय क्या है? सर्व प्रथम तत्त्वज्ञान करना, वस्तु का स्वरूप जानना, उससे अपने आत्मा की रुचि बनेगी, फिर आत्मकरुणा के कारण यह बाह्य और अंतरंग उपाधियों का त्याग करेगा । उसके सम्यग्ज्ञान होगा, अपने आपके एकत्व का निश्चय करेगा, ऐसा अपने आपके ज्ञानस्वरूप एकत्व में रहने वाले भव्य आत्मा के यथाख्यात चारित्र की वृत्ति बनती है । वह है मोक्ष मार्ग और भावएकत्व ।
सर्वत्र अपने आत्मा के एकाकित्व की निरख―मोक्ष मार्ग की प्राप्ति के लिए यह मैं एक ही हूँ, इसे कोई दूसरा न करेगा । अन्य कुछ भी मेरा स्व नहीं है, और वर्तमान में भी जो हालत हो रही है वहाँ भी एक मैं ही तो भव धारण करता हूँ । दूसरा मिलकर नहीं करता । मरता भी मैं अकेला ही हू, मेरे कोई स्वजन परिजन मित्र, कुटुंब कोई भी मेरे रोग बुढ़ापा, मरण आदिक दुःखों को नहीं बाँट सकते हैं । बंधु मित्र भी अधिक से अधिक श्मशान तक चले जायेंगे । मरण के बाद इस अचेतन शरीर को वे लोग जलाते ही हैं या और कुछ करेंगे, पर इसके आगे उनका और क्या संबंध रहा जीव से? तो कुछ संबंध न रहा । केवल एक मृतक देह इसका ऊपरी संबंध अगर सोचा जाये तो श्मशान तक है । कोई पुरुष मेरा साथी नहीं है । मैं अकेला ही सर्वत्र अपने परिणामों को भोगता हूँ । धर्म ही मेरा सहायक है । धर्म ही मेरे को विनाश से बचाता है और वह मुझ में अविनश्वर है, सदैव है, उसकी दृष्टि करना यह मेरे को लाभदायक है । ऐसा चिंतन करने को एकत्वानुप्रेक्षा कहते हैं । जो आत्मा इस एकत्व की भावना करता है उसके फिर स्वजनों में भी, कुटुंब में भी प्रीति का संबंध नहीं रहता और परिजनों में द्वेष बुद्धि नहीं होती । मैं सर्वत्र एक हूँ, मेरा दूसरा न कोई शत्रु है, न मित्र है, न उपकारक है, उपकार में भले ही उदयानुसार निमित्त होते हैं दूसरे लोग, मगर जो कुछ गुजरता है, जो अनुभव बनता है वह सब मुझ एक में ही बनता है । इस तरह एकत्व भावना भाने वाला जीव निसंगता को, निष्परिग्रहता को प्राप्त होता हुआ मोक्ष के लिए पौरुष करता है ।
संवर तत्त्व की कारणभूत अन्यत्वानुप्रेक्षा का विवरण―अन्यत्व भावना―मैं शरीर से, निराला हूँ, शरीर मुझसे निराला है । मैं अमूर्तिक चैतन्यमात्र हूँ । ऐसा यह मैं शरीर से अन्य हूँ । मुझसे शरीर अन्य है, ऐसे लक्षण भेद से अपने अन्यत्व का चिंतन करना, पर पदार्थों के अन्यत्व की भावना करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है । अन्यपना चार प्रकार से सिद्ध होता है―(1) नाम, (2) स्थापना, ( 3) द्रव्य ओर (4) भाव । इन चार दृष्टियों से भेद निरखिये आत्मा है, जीव है, जितने शब्द हैं उन शब्दों से नाम भेद ज्ञात होता है । अन्य-अन्य द्रव्यों के भी नाम लीजिए तो नाम की दृष्टि से भेद पड़ना नाम भेद कहलाता है । काष्ठ की प्रतिमा है, पाषाण की प्रतिमा है, इस प्रकार का भेद होना यह स्थापना भेद कहलाता है । यह जीव द्रव्य है, यह अजीव द्रव्य है, इस प्रकार का भेद जानना यह द्रव्य भेद कहलाता है । एक ही जीव में, एक ही मनुष्य में यह बालक है, जवान है, वृद्ध है, मनुष्य है, इस प्रकार के भावों का भेद करना भाव भेद कहलाता है । तो यहाँ देखिये इस समय यह जीव कर्मों से बँधा है, शरीर से बँधा है, तो बंध के प्रति एकत्व होने पर भी लक्षण के भेद से इनमें जुदा-जुदापन ज्ञात होता है । कर्म पौद्गलिक कार्माणवर्गणायें हैं, जीव के विकार का निमित्त पाकर उन कार्माण वर्गणावों में कर्मत्व आता है । सो यह कर्मत्व भी कर्म की चीज हैं कर्म पौद्गलिक हैं, देह प्रकट पौद्गलिक है, इसका रूप, रस, गंध, स्पर्श सब नजर आ रहा, उसका आकार मूर्तिक नजर आ रहा, किंतु जीव आकाश की तरह अमूर्त पदार्थ है । जीव ज्ञानमय है, प्रतिभास स्वरूप है, सर्व पदार्थों से जुदा है । ऐसा जीव को शरीर से भिन्न देखना यह अन्यत्वानुप्रेक्षा है ।
परमार्थ अन्यत्व की प्राप्ति के लिये अन्यत्वानुप्रेक्षा में अनुप्रेक्ष्य तथ्य―किसी भव्यात्मा के सम्यक्त्व जगा, चारित्र बना, चारित्र में वृद्धि हुई तो उसके शरीर से अत्यंत भिन्न रूप से वहां स्वाभाविक ज्ञानादिक अनंत गुण प्रकट होते हैं । उन गुणों में अवस्थित होने का नाम मुक्ति है । तो इस मुक्ति को ही अन्यत्व कह लीजिए, याने अब यह शरीर और कर्म से अन्य हो गया, निराला हो गया, इसी का नाम है मोक्षपद । यह तो एक परम अन्यत्व है । जैसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता एकत्व है ऐसे ही शरीर कर्म से भिन्न हो जाना यह अन्यत्व है इस अन्यत्व की प्राप्ति के लिए क्या-क्या चिंतन करना चाहिए? शरीर इंद्रिय का पिंड है । सारा शरीर स्पर्शनइंद्रिय है, रसना, घ्राण, चक्षु वर्ण में इन्हीं के बीच कुछ थोड़े से क्षेत्र हैं । समग्र इंद्रिय का पिंड यह शरीर है, किंतु मैं तो इंद्रिय रहित हूँ । इंद्रियाँ शरीर में हैं मुझ आत्मा में इंद्रियाँ नहीं । यह मैं आत्मा तो प्रतिभास स्वरूप अखंड सत् है । शरीर अज्ञ है, अचेतन है, मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, शरीर विनाशीक है, जीर्ण शीर्ण होने वाला है, मैं नित्य हूँ । शरीर आदि अंत से सहित हैं । मैं अनादि अनंत हूँ । यद्यपि अब तक लाखों शरीर धारण किए गए हैं, अनंत शरीर धारण किए गए हैं, किंतु मैं उनसे भिन्न एक चेतन ही रहा । और चेतत ही हूँ । तो जब शरीर से ही मैं निराला हूँ तो बाह्य धन वैभव परिग्रह की तो बात ही क्या है? मैं समग्र परद्रव्यों से निराला हूँ और कर्मोंदय जन्म विकार से भी मैं निराला हूँ । ऐसा अन्यत्व का चिंतन करने से शरीर आदिक में आसक्ति स्पृहा नहीं होती और ऐसा भव्य आत्मा फिर मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने लगता है ।
संवरतत्त्व की कारणभूत अशुचित्वानुप्रेक्षा का वर्णन―अशुचित्वभावना―अपने शरीर के अशुचिपने का चिंतन करना । यह मनुष्य देह हाड़, मांस, खून, चमड़ी आदिक का पिंड है, इसमें कोई सारभूत तत्त्व नहीं है, ऐसा शरीर की अशुचिता का चिंतन करना अशुचित्वानुप्रेक्षा है । शुचिपना दो प्रकार से हुआ करता है । (1) लौकिक शुचि (2) अलौकिक शुचि । अलौकिक शुचिपना क्या है कि कर्ममल कलंक को धोकर आत्मा को आत्मा में ही अवस्थित हो जाना, ज्ञान का इस ज्ञान स्वभाव में ही एक रूप हो जाना, ज्ञानस्वभाव का ही जाननहार ज्ञान रहे, यह है अलौकिक पवित्रता, जहाँ किसी प्रकार का विकार नहीं, खेद नहीं । तो अलौकिक पवित्रता प्राप्त करने का कारण है सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र और इस रत्नत्रय के धारण करने वाले साधुजन और ऐसे साधुजन जहाँ निवास करते हों ऐसा तीर्थ क्षेत्र, वे जहाँ से निर्वाण को प्राप्त हुए हों ऐसा सिद्ध क्षेत्र ये सब मोक्ष प्राप्ति के उपाय करने वाले के साधन बनते हैं । लौकिक पवित्रतायें 8 तरह की हैं, कोई चीज समय गुजरते ही पवित्र होने लगती है । जैसे कोई स्त्री एक चटाई के आसन पर बैठी है, उसके उठने के बाद थोड़े समय तक कुछ कल्पनायें रहती हैं, वहाँ साधुजन नहीं बैठते । कुछ समय गुजरने के बाद फिर उसी आसन पर साधुजन बैठ जाते हैं । कई चीजें ऐसी हैं कि कुछ काल व्यतीत हो जाने पर वे अपने आप शुद्ध कहलाती हैं । कोई चीज अग्नि से शुद्ध होती हैं, कोई बर्तन अछूत हो गया तो उसे अग्नि से शुद्ध कर लिया, कोई चीज भस्म से शुद्ध होती है । साधारण जूठा हो उसे माँज लिया, कोई चीज मिट्टी से शुद्ध होती है, शौच हो आये, हाथ से मिट्टी को धो लिया । हाथ तो वही है जिससे शौच शुद्धि की थी, पर मिट्टी से धोने के बाद बिल्कुल पवित्र मान लिया जाता । कोई चीज गोबर से ही शुद्ध होती । जैसे कोई बच्चा किसी जगह टट्टी कर दे तो उस जगह गोबर लीप देने से फिर वहाँ पवित्रता मानी जाती । कोई चीज पानी से ही शुद्ध हो जाती । पानी से चीज को धो लिया, लो चीज शुद्ध हो गई । कोई चीज ज्ञान से, कल्पना से शुद्ध होती । अनेक बातें ऐसी हैं जो ग्लानिरहित होने से ही शुद्ध होतीं । उस वस्तु के प्रति किसी बात ग्लानि न रहे तो उसे शुद्ध मान लिया, पर यह शरीर न तो लौकिक दृष्टि से शुद्ध है और न अलौकिक दृष्टि से शुद्ध है ।
शरीर की अशुचिता का चिंतन―भैया कोई भी उपाय नहीं हैं ऐसा जो कि इस शरीर को पवित्र कर सकता है । मानो नहा लिया तो उसने अनुभव कर लिया कि मैं ठीक हो गया हूँ, मैं अब प्रभु भक्ति करुँगा, भोजन करुँगा, सो वह करता है, व्यवहार भी ऐसा करना चाहिए, मगर वास्तविकता देखो कि क्या शरीर पवित्र बन गया? शरीर में रहने वाले हड्डी खून आदिक क्या बदल गए? यह शरीर अत्यंत अशुचि है । इस शरीर का कारण भी अशुचि है, इस शरीर का कार्य भी अशुचि है । शरीर का कारण क्या है? माता पिता का रजवीर्य, वह भी अशुचि है । शरीर का कार्य क्या है? भोजन किया, मल बना, पसेव निकला, ये शरीर के कार्य हैं, वे भी अपवित्र हैं । जब शरीर में भोजन पहुँच जाता है तो पहले तो उसे चबाकर खाया, तो शरीर का कार्य यहीं देख लो कि वह चबाया हुआ, मुख में रखा हुआ भोजन कैसा ग्लानि के योग्य होता है? वह भोजन पेट में पहुँचा, वहाँ कफ जैसा पतला वह अशुचि बन जाता है । पित्ताशय में पहुंचा तो खट्टा बन जाता है, वाताशय में पहुँचा तो वायु विभक्त होकर फल और रस रूप से विभाजित हो जाता है । खल भाग से मल, पसीना आदिक विकार बनते हैं, रस भाग से खून, मांस, हड्डी आदिक धातुवें बनती हैं, तो ये सारे शरीर के कार्य अपवित्र ही तो हैं । इन सब अशुचि पदार्थों का स्थान यह शरीर है, जैसे कि सड़कों पर मैला इकट्ठा करने का स्थान मैलाघर है ऐसे ही सारी अपवित्र चीजों का यह शरीर मैलाघर है । इसकी अपवित्रता हटाने का कोई उपाय नहीं है । कोई लेप किया जाये, स्नान किया जाये, धूप खेकर सुगंधित बनाया जाये, माला पहिनाई जाये, इत्र लगाया जाये, किसी भी उपाय से शरीर की अपवित्रता दूर नहीं होती । अंगारे की तरह अपने संपर्क में आये हुए पदार्थ को यह शरीर अपनी तरह बना लेता है । जैसे अग्नि का संपर्क जिस ईंधन से हो जाये उस ईंधन को आग बना लेगी ऐसे ही शरीर का जिससे भी संपर्क हो जाये, यह उस वस्तु को अपवित्र बना देगा । कोई पुरुष पानी से नहा ले तो उस नहाये हुए पानी से कोई नहाना पसंद नहीं करता, वह अपवित्र माना जाता । तो शरीर अत्यंत अशुचि है ।
आत्मस्वरूप की शुचिता का निरखन व अशुचित्वानुप्रेक्षा की उपयोगिता―अपने आत्मा को निरखिये तो वह तो पवित्र है । अमूर्तिक है, ज्ञान दर्शन आदिक सहज गुणों का पिंड है । समस्त विश्व का जाननहार है, और ऐसे आत्मस्वभाव का आलंबन करके बराबर इस ही स्वभाव की भावना करके जो आत्मा में सम्यक्त्वादिक गुण प्रकट होते हैं वे आत्मा को प्रकट पवित्र बना देते हैं । इस प्रकार आत्मा की तो पवित्रता निरखना है और शरीर की अपवित्रता निरखना है । यह अशुचि भावना है । जो भव्य जीव ऐसी अशुचित्व की भावना करते हैं, स्मरण करते हैं, पुन: पुन: चिंतवन करते हैं उनको शरीर से वैराग्य हो जाता है । एक बहुत मोटे रूप में शरीर को निरखकर सोचना है कि यह शरीर कुछ ही वर्षों बाद मित्रों द्वारा श्मशान में जला दिया जायेगा । ऐसा जो निरंतर भाव रखेगा शरीर के प्रति उसे शरीर में आसक्ति नहीं होने की । यद्यपि कर्मबंधन में बँधे होने से, कर्म विपाक उदय में होने से कुछ पीड़ा आदिक का अनुभव करता है, फिर भी शरीर की अशुचिता, विनाशीकता जानने वाले पुरुष के शरीर में आसक्ति नहीं होती । जिस जीव को शरीर से विरक्ति है वह पूर्ण विरक्त हो सकता है । वैराग्य में बाधक यह शरीर का प्रेम है । जिसका शरीर से ही प्रेम हट गया उसको दुनिया की किसी भी वस्तु से प्रेम न होगा । तो ऐसी अशुचि भावना भाने के फल में यह भव्यात्मा परम विरक्त होकर जन्म समुद्र से पार उतरने के लिए अपना पौरुष करता है । सो यह अशुचि भावना सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में लगने की प्रेरणा करता है, और इस प्रकार यह अपने स्वरूप के अभिमुख होता है । यो यह जीव इन भावनावों के प्रताप से कर्म का संवर करता है, कर्मों का क्षय करता है और मुक्ति पद को प्राप्त होता
संवर की कारणभूत आस्रवानुप्रेक्षा का वर्णन―आस्रवानुप्रेक्षा―आत्मा के जिन विकारभावों का निमित्त पाकर पौद्गलिक कार्माण शरीर कर्मत्वरूप परिणमते हैं उन विकारभावों को आस्रव कहते हैं, इस आस्रव के संबंध में चिंतन करना कि ये दुःखदायी हैं, आत्मा के स्वभाव नहीं है, इनसे जुदा होने में ही कल्याण है । ऐसे इन चिंतनों को आस्रवभावना कहते हैं । यहाँ शंकाकार कहता है कि आस्रव के स्वरूप का वर्णन छठे अध्याय में हो ही चुका है, फिर उसका ग्रहण यहाँ क्यों किया गया? समाधान―यद्यपि आस्रव तत्त्व का निरूपण हो चुका है । फिर भी यहाँ अनुप्रेक्षा में आस्रव का ग्रहण किया, वह आस्रव के गुण और दोष का विचार करने के लिए है । आस्रव के दोष का विचार करना आस्रवानुप्रेक्षा है । आस्रव में गुण तो होते ही नहीं, पर आस्रव भावना में गुण होते हैं । आस्रव तो स्वयं दोषयुक्त है । आस्रव इस लोक में और परलोक में विनाश का कारण है । आस्रव में इंद्रिय कषाय आदिक भाव ही तो प्रधान हैं । सो इंद्रिय आदिक का उन्माद इस जीव को महानदी के प्रवाह की तरह बड़ा तीक्ष्ण है, जैसे स्पर्शन इंद्रिय का उन्माद वन के हाथी को आता है तो उस मद में अंधा होकर कृत्रिम हथिनियों को देखकर मत्त होकर गड्ढे में गिरकर मनुष्यों के आधीन हो जाता है । तब बंध बंधन, बोझा लादना, अंकुश सहना महावत के आधीन रहना आदि अनेक तीव्र दुःख भोगने पड़ते हैं और ये कर्म के दुःख जो हैं सो तो हैं ही, पर पहले जो स्वच्छंद फिरते थे वह स्वच्छंदता छिन जाने से पराधीनता की बात का ख्याल कर करके वह निरंतर दुःखी रहता है । रसना इंद्रिय के वश होकर मरे हुए हाथी के मदजल में डुबकी लगाने वाले पक्षियों की तरह अनेक प्राणी आपत्तियों के शिकार होते हैं । और इसमें मांस लोलुपी मछली का दृष्टांत प्रसिद्ध ही है । जिह्वाइंद्रिय के वश होकर वह अपने प्राण गवां देती है । घ्राणेंद्रिय के वशीभूत होकर प्राणी अपने प्राण गवां देते हैं, जैसे जड़ी के गंध से लुब्ध साँप नाश को प्राप्त होता है । नेत्रइंद्रिय के वशीभूत हुए पतिंगे दीपक पर आ आकर मरते हुए देखे ही गए, ऐसे ही सभी जीव चतुरिंद्रिय के वश होकर आपत्तियों के सागर में पड़कर दुःख उठाते हैं, श्रोत्रेंद्रिय के वश होकर प्राणी के गायन की ध्वनि सुनने से तृणों को चरने वाले हिरण भी अपना कर्त्तव्य भूलकर जाल में फंस जाते हैं उसी प्रकार अनेक प्राणी इन इंद्रियों के वश होकर अनर्थ के शिकार होते हैं । ऐसे आस्रव के कारण इस लोक में कष्ट तो होता ही है पर परलोक में भी अनेक दुःखों से भरी हुई अनेक योनियों में परिभ्रमण करना पड़ता है, इस प्रकार आस्रव के दोष का विचार आस्रवानुप्रेक्षा में होता है, और इस अनुप्रेक्षा से उत्तम क्षमा आदिक धर्मों में यह श्रेयस्कर है इस प्रकार की बुद्धि बन जाती है ।
संवर की कारणभूत संवरानुप्रेक्षा का वर्णन―संवरानुप्रेक्षा―आस्रव का निरोध होना संवर है, जिन भावों के द्वारा आस्रव रूक जाता है, कार्माण वर्गणाओं में कर्मत्व नहीं आता है वह भावसंवर तत्त्व कहलाता है, यद्यपि संवर तत्त्व का स्वरूप भी पहले बता दिया गया है और खासकर इस 9वें अध्याय में संवर का स्वरूप विस्तार पूर्वक कहा जा रहा है, फिर भी अनुप्रेक्षावों में संवर का ग्रहण इस कारण किया है कि संवर तत्त्व के गुणों का विचार करने से संवर तत्त्व प्रकट होता है । संवर ही इस जीव का शरण है, जैसे किसी नाव में छिद्र हो और पानी आ जाये, नाव डूबने को हो सके तो उसका सर्वप्रथम उपाय छिद्र को बंद करना है । उसमें नया पानी न आये फिर पुराने पानी को उलीच दिया जाये तो नाव सुगमता से किनारे पहुँच जायेगी ऐसे ही इस जीव के आस्रव भावों के छिद्र से पानी आ रहा है, कर्म आ रहे हैं, उन कर्मों को पहले रोकना आवश्यक है । तो आस्रव का निरोध करना संवर है । उन दुर्भावों के छिद्र बंद कर दिये जायें तो अब नये कर्म नहीं आते । नवीन आये कर्मों को तपश्चरण से अलग कर दिया तो यो मुक्ति के निकट पहुँचते हैं । संवर तत्त्व इस जीव का परम शरण है, और यहाँ तक कि सिद्ध भगवान के सदा कर्मों का संवर रहता है । कभी कर्म आ ही नहीं सकते । यद्यपि वहाँ संवर तत्त्व का प्रयोग नहीं किया गया, क्योंकि गुप्ति आदिक साधनों की आवश्यकता क्या, लेकिन वहाँ आत्मा का जो शुद्ध पूर्ण विकास है सो कर्म स्वयं आते ही नहीं हैं । ऐसा संवर के गुणों का विचार करना संवरानुप्रेक्षा है ।
संवर की कारणभूत निर्जरानुप्रेक्षा का वर्णन―निर्जरानुप्रेक्षा―निर्जरा नाम है वेदना विपाक का । अर्थात् कर्मों का विपाक आना, झड़ना निर्जरा है । यह निर्जरा दो प्रकार की होती है―(1) अबुद्धिपूर्वक निर्जरा और कुशलमूला निर्जरा । नारकादिक गतियों के कर्मफल मिलते हैं, फल भी भोगा जाता है और उस विपाक के भोग से जो कर्म दूर होते हैं वह अबुद्धिपूर्ण निर्जरा है । इस निर्जरा से आत्मा का उद्धार नहीं है । फिर पाप का बंध होगा । फिर संसार में रुलना चलेगा । हाँ कुशलमूला निर्जरा से आत्मा का उद्धार है । परिषहविजय और तप आदिक करने से कुशलमूला निर्जरा होती है । इस निर्जरा के समय या शुभ प्रकृतियों का बंध होता है या बंध बिल्कुल हट जाता है । अथवा दोनों ही होते रहते हैं । इस तरह निर्जरा के गुण और दोष का चिंतन करना निर्जरानुप्रेक्षा है । यहाँ अबुद्धिपूर्ण अथवा सविपाक निर्जरा का दोष विचार में लाया गया है और कुशलमूला अथवा अविपाक निर्जरा का यहाँ गुण विचार किया है । वद्ध कर्मों में यदि अविपाक निर्जरण न हो, उन कर्मों में शिथिलता न की जा रही हो तो कर्मों का पूर्ण क्षय किस प्रकार हो सकेगा? बल्कि निर्जरा होती है । कर्मों का क्षय नहीं हो पाता, सो निर्जरा तत्त्व के गुणों का विचार करना यह आत्मा का पुरुषार्थ है और इससे मुक्ति प्राप्त होती हे ।
संवर की कारणभूत लोकानुप्रेक्षा का वर्णन―लोकानुप्रेक्षा―लोक संबंधी आराधना का चिंतन करना लोकभावना है । लोक के स्वरूप का चिंतन करने से वैराग्य और अनुराग होता है । तत्त्वज्ञानादिक की शुद्धि हो जाती है । चित्त में रागद्वेष दूर होते हैं । सो लोक संबंधी आकार का चिंतन करना लोकानुप्रेक्षा संवर का हेतुभूत है । लोक तीन भागों में बँटा है―(1) अधोलोक (2) मध्यलोक और (3) अर्द्धलोक । यह लोक नीचे से ऊपर तक 14 राजू है । और इसका विस्तार एक ओर से एक-एक राजू है और भीतर गहराई की ओर 7-7 राजू है । त्रसनाली से बाहर नीचे त्रसनाली समेत 7 राजू है, ऊपर एक राजू है । और ऊपर बीच में 5 राजू है । सर्वोपर एक राजू है । यह सारा क्षेत्र 343 घनराजू प्रमाण होता है । एक राजू का प्रमाण बहुत अधिक है । केवल एक प्रस्तार ही रूप में जंबूद्वीपादिक असंख्याते द्वीप समुद्र जो एक दूसरे से दुगुने विस्तार वाले हैं एक राजू के अंतर्गत समा गए हैं उतने विशाल लोक में यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र के कारण अनादि काल से भ्रमण करता चला आया है, और इसको स्वयं में संतोष होगा ही क्यों, क्योंकि कषाय की अग्नि से धधक रहा है, यह जीव बड़े दुःख में पड़ा हुआ है । यदि अपने आत्मस्वरूप का भान करे तो यह लोक के भ्रमण से दूर हो सकता है । सो लोक का इतना विशाल स्वरूप चिंतन करने से वैराग्य होगा, धर्म में अनुराग होगा और आत्ममग्नता के उपाय भी मिलेंगे । यह तो लोकानुप्रेक्षा इसी कारण संवर का हेतुभूत है ।
संवरतत्त्व की कारणभूत बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा का वर्णन―बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा―बोधि कहते हें रत्नत्रय को । रत्नत्रय का प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ है । उस दुर्लभ रत्नत्रय के स्वरूप का चिंतन करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है । यह जीव अनादिकाल से बहुत समय तक निगोद में रहा । जहाँ एक सेकेंड में 22-23 बार जन्म मरण करते रहना पड़ा । बहुत निकृष्ट दशा है । वहाँ से यह जीव किसी प्रकार निकला तो यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु प्रत्येक वनस्पति में जन्म लेता रहा । त्रस पर्याय का पाना बड़ा दुर्लभ रहा । सुयोग से त्रस पर्याय प्राप्त की, तो वहाँ भी श्रेष्ठ मनुष्यादिक होना दुर्लभ रहा । संज्ञी पंचेंद्रिय जीव भी हुए तो सम्यक्त्व का पाना दुर्लभ रहा । सम्यक्चारित्र तो मनुष्यभव के सिवाय अन्य कहीं होता ही नहीं है । मनुष्य होना, निर्ग्रंथवाद धारण करना, आत्मचिंतन करना ये सब उत्तरोत्तर दुर्लभ है । ऐसे इस दुर्लभ बोधि का चिंतन करना बोधि दुर्लभानुप्रेक्षा है । आगम में बताया गया कि एक निगोद शरीर से जीवों की संख्या सिद्धों की संख्या से अनंत गुनी है । अथवा यों कहो कि अतीत काल के समय की संख्या से अनंत गुनी है । ऐसे इन अनंत स्थावरों में से कोई जीव त्रस पर्याय पा ले यह इतना दुर्लभ है जैसे अनंत रेत कणों के समुद्र में गिरे हुए हीरे की कनी मिल सके फिर त्रस में भी अगर यह जीव आया तो दो इंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय रहा, पंचेंद्रियपना पाना दुर्लभ है, और वह ऐसा दुर्लभ है जैसे गुणों में कृतज्ञता का मिलना दुर्लभ है । सर्व गुणों में श्रेष्ठ कृतज्ञता का गुण है, जो मनुष्य कृतज्ञ नहीं हो सकता उसमें कोई गुण नहीं पनप सकते । वह तो विषयों का लोलुपी मोही ही अधिक है जो दूसरे के किए हुए उपकार को जान नहीं सकता, मान नहीं सकता । तो जैसे गुणों में कृतज्ञता का मिलना दुर्लभ है ऐसे ही पंचेंद्रियपना पाना दुर्लभ है । पंचेंद्रिय में पशु बना, पक्षी बना, ये पर्याय मिले तो भी क्या विशेष लाभ पाया । तो वहाँ भी मनुष्य पर्याय का पाना ऐसा दुर्लभ है जैसे चौराहे पर रखा हुआ रत्न किसी को मिल जाये वह दुर्लभ है । यदि कोई मनुष्य पर्याय पाले और उसे विषयों में गवा दे तो फिर मनुष्यपर्याय पाना उतना कठिन है जैसे जले हुए पेड़ में से अंकुर निकलना कठिन है । मनुष्य पर्याय पुन: मिल भी जाये तो भी हित अहित के विचार से रहित असंख्याते मनुष्य पाये जाते हैं । एक समय में असंख्याते नहीं तो संख्याते पाये जाते हैं पर्याप्तक । वह खोंटा देश, खोंटा कुल मिलने से बेकार हैं । मनुष्य भी हुए और उत्तम देश मिले, उत्तम कुल मिले, यह उत्तरोत्तर कठिन है । किसी को देश अच्छा मिल रहा, कुल भी उत्तम मिल गया, जिसमें कि शील, विनय, सदाचार की परंपरा रहती हो, ऐसा कुल मिल जाने पर भी लंबी आयु मिलना इंद्रिय का बल मिलना, शरीर नीरोग रहना यह उत्तरोत्तर दुर्लभ है । इतनी भी बातें मिल जायें तो भी सद्धर्म की प्राप्ति तो नहीं हुई । सम्यक्त्व का लाभ यदि नहीं हुआ तो वह मनुष्य भव ऐसा व्यर्थ है जैसे कि नेत्रहीन मुख व्यर्थ है । कितने ही मनुष्य ऐसे दुर्लभ धर्म को पाकर भी विषय सुखों में समय बितायें तो वे मानों राख पाने के लिए चंदन वन को जलाने की तरह मूर्खतापूर्ण बात है । सो विषयों से विरक्त होना कठिन है । कोई पुरुष विषयों से विरक्त भी हो गया तो तप में भावना रहना, अपने धर्म की प्रभावना रहना, समाधिपूर्वक मरण होना यह बहुत कठिन है । तो जो मनुष्य भव पाकर उत्तम धर्म की साधना करते हैं, तपश्चरण और धर्म में प्रगति करते हैं और अंत में समाधिभाव प्राप्त करते हैं उनका बोधिदुर्लभ सफल कहा जा सकता है । इस बोधिधर्म से ही जीव का संकटों से छूटना होता है, ऐसा चिंतन करना बोधि दुर्लभ भावना है । इस चिंतन से बोधि को प्राप्त करके भव्य जीव प्रमादरहित होकर अपने कल्याण में लगे रहते हैं ।
संवर की हेतुभूत धर्मानुप्रेक्षा का वर्णन―धर्मानुप्रेक्षा―धर्म आत्म स्वभाव को कहते हैं । आत्मा का स्वभाव है चैतन्य, (सहज ज्ञान, सहज दर्शन) तथा उसकी दृष्टि होना, उसका उपयोग होना, उस ही में रमण करना यह धर्मपालन कहलाता है । इस आत्मस्वभावरूप धर्म का परिचय पाने के लिए आत्मा की अवस्थावों का परिचय किया जाता है ताकि उन पर्यायों से जीव का बाह्य परिचय ज्ञात हो और यह भान हो जाये कि इन सब अवस्थावों में जीव का एक स्वरूप चैतन्य भाव सदा अंत: प्रकाशमान होता है । जैसे मनुष्यपना समझने के लिए बालक कुमार, जवान, वृद्ध आदिक मनुष्य का परिचय किया जाता है, ऐसे ही आगम में जीव समास गुणस्थान मार्गणावों का वर्णन करके जीव का परिचय कराया गया है । उन सब गुणस्थान मार्गणावों में आत्मस्वरूप की खोज की जाती है । यद्यपि वहाँ प्रकट रूप में पर्याय से ही परिचय है, परंतु पर्याय स्वयं तो असत् है, पर्याय रूप में जीव ही है, सो इस उपाय से पर्याय को गौणकर जीव के अंत: स्वरूप का परिचय हो जाया करता है ।
चतुर्दश मार्गणाओं में गति, इंद्रिय जाति, काय, योग, वेद, कषाय की मार्गणाओं में भावों का संघटन―मार्गणायें 14 कही गई हैं―(1) गति (2) इंद्रिय ( 3) काय, (4) योग (5) वेद (6) कषाय (7) ज्ञान (8) संयम (9) दर्शन (10) लेश्या (11) भव्यत्व (12) सम्यक्त्व (13) संज्ञी और (14) आहारक । इन सब मार्गणावों में यह बात देखिये कि जो कर्मोपाधिजन्य अवस्था है वह तो विकृत अवस्था है और कर्मोपाधिरहित अवस्था स्वाभाविक अवस्था है । जैसे गति मार्गणा में नारकादिक चार गतियां कर्मोंदय से हुई हैं किंतु मोक्ष अवस्था गतिरहित स्थिति कर्मों के क्षय से हुई है । इंद्रिय मार्गणावों में एकेंद्रिय आदिक गतियाँ कर्मकृत हैं, पर आत्मा की अतींद्रिय दशा यह क्षायिक है, कायमार्गणा में 6 प्रकार के कायिक त्रस और स्थावर नाम कर्म के उदय से होते हैं, पर कायरहित दशा नामकर्म का अत्यंत विनाश होने पर होती है । योग मार्गणा में योग वाली स्थितियाँ कर्मोंदय जन्य हैं, पर योगरहित अवस्था योग के हेतुभूत कर्म के हटने से होती है । वेदमार्गणा वेद के उदय से स्त्री वेद, पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद होते हैं । पर वेदरहित अवस्था उपशम श्रेणी में औपशमिक है । क्षपक श्रेणी में क्षायिक है । कषाय मार्गणा में जो कषाय बतायी गई है वह चारित्र पर्याय को कसती है । घात करती है । इसी कारण वह कषाय कहलाती है । ये कषाय कर्मोंदय जन्य हैं, पर कषायरहित अवस्था उपशम श्रेणी में औपशमिक है, क्षपक श्रेणी में और ऊपर के गुणस्थानों में क्षायिक है ।
ज्ञान संयम, दर्शन, लेश्या व भव्यतत्त्व की मार्गणा में भावों का संघटन―तत्वार्थ का बोध करना ज्ञान कहलाता है । ज्ञान 5 प्रकार के होते हैं―तीन खोंटे ज्ञान भी होते हैं । मिथ्यादर्शन के उदय से मति, श्रुत, अवधिज्ञान कुज्ञान हो जाते हैं और मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ये ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होते हैं, किंतु केवल ज्ञान ज्ञानावरण के क्षय से होता है । तो जो स्वभाव पर्याय है वह तो कर्मोपाधि के दूर होने से प्रकट होती है । जो विकृत पर्याय है वह कर्मोदयजन्य होती है । संयम नाम है व्रत, समिति, कषाय विग्रह, दंड त्याग और इंद्रियजंय । इन वृत्तियों से होने वाला संयम 5 प्रकार का बताया गया है और जो कि चारित्र मोह के उपशम, क्षय व क्षयोपशम से होता है, संयमासंयम क्षयोपशम से होता है, असंयम कर्मोंदय होता है, पर इन सबसे अतीत जो सिद्धत्व अवस्था है वह कर्म के क्षय से होती है । दर्शन मार्गणा में जो स्वाभाविक स्थिति है केवल दर्शन वह तो कर्मों के क्षय से होता है । शेष दर्शन क्षयोपशम से होता है । कषाय से अनुरंजित योग परिणाम को लेश्या कहते हैं । ये छहों प्रकार की लेश्यायें कर्मोंदयजन्य हैं, पर लेश्यारहित स्थिति कर्म के हटने से मिलती है, जो निर्वाण पाने की योग्यता है, यह योग्यता जिसके प्रकट हो सकती है वह भव्य कहलाता है । जिसमें निर्वाणपने की योग्यता प्रकट न हो सके वह अभव्य कहलाता है । ये दोनों पारिणामिक भाव हैं, पर सिद्ध भगवान सिद्ध स्थिति भव्य और अभव्य से अतीत है ।
सम्यक्त्व, संज्ञी, आहारक की मार्गणावों का संघटन व जीव समासों का संक्षिप्त निर्देशन― सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दर्शन, दर्शन मोह के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से होता है । इसके विपरीत मिथ्याभाव मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होता है । सासादन सम्यक्त्व अनंतानुबंधी के उदय से होता है इस कारण यह औदयिक है । सम्यग्मिथ्यात्व यद्यपि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होता है तो भी सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति स्वयं एक शिथिल प्रकृति जैसी है, जिससे वह क्षयोपशम की तरह है और इस कारण से सम्यग्मिथ्यात्व को क्षायोपशमिक कहा गया है । संज्ञी मार्गणा में संज्ञी उसे कहते हैं जो शिक्षा क्रिया और वचन व्यवहार आदिक को ग्रहण कर सके, और जो शिक्षा, क्रिया, वचन व्यवहार को ग्रहण न कर सके वह असंज्ञी है । संज्ञीपना क्षायोपशमिक है क्योंकि वह नोइंद्रियावरण के क्षयोपशम से होता है, और असंज्ञीपना औदयिक है, जो न संज्ञी है न असंज्ञी है, उनकी अवस्था क्षायिक है । आहारक मार्गणा में आहारक उसे कहते हैं कि जो उपभोग के योग्य, शरीर के योग्य पुद्गल को ग्रहण करें । सो पुद्गल का ग्रहण करना आहार है और ग्रहण न कर सकना अनाहार है । आहार होता है तब जब शरीर नामकर्म का उदय हो और विग्रह गति नाम कर्म का उदय न हो । और अनाहार तब होता है जब औदयिक वैक्रियक शरीर इन तीन नाम कर्मों का उदय न हो, और विग्रहगति नाम कर्म का उदय हो, इस प्रकार धर्मभावना के बीच वस्तु के स्वरूप का परिचय हुआ करता है और तत्त्व का ध्यान किया जाता है । मार्गणास्थानों में जीवस्थान घटना घटाना तो बहुत ही आसान है । जीवस्थान अर्थात् जीवसमास 14 कहे गए हैं । कहीं अन्य प्रकार भी कहा गया है । एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, पंचेंद्रिय जीव, इनमें से एकेंद्रिय के दो भेद करके बादर और सूक्ष्म तथा पंचेंद्रिय दो भेद करके संज्ञी और असंज्ञी इन 7 भेदों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक यों 14 जीवसमास होते है, सो यह बहुत ही स्पष्ट है और मार्गणा स्थानों में सुगमतया घटित किया जा सकता है।
मार्गणाओं में गुणस्थानों के घटन के प्रसंग में गतिमार्गणा में गुणस्थानों का घटन―अब इस ही परिचय के बीच मार्गणास्थान में गुणस्थानों की सत्ता देखिये गुणस्थान कहते हैं जघन्य दशा से लेकर सम्यक्त्व और चारित्र गुणों की प्रगति के स्थानों को । नरकगति में नारकी जीव जो पर्याप्तक हैं उनमें चार गुणस्थान होते हैं―मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र और अविरत सम्यक्त्व । सातों ही पृथ्वियों में, पर्याप्तकों में चार गुणस्थान पाये जा सकते हैं । अब विशेष की अपेक्षा देखिये पहले नरक में जो अपर्याप्तक जीव हैं अर्थात् अन्य भव से आकर पहले नरक में जो जन्म ले रहे हैं, व पर्याप्त नहीं हो पाये हैं उनमें दो ही गुणस्थान होते हैं, मिथ्यात्व और अविरत सम्यक्त्व । दूसरे गुणस्थान में मरण करने वाला जीव किसी भी नरक में उत्पन्न नहीं हो सकता । इस कारण अपर्याप्त में दूसरा गुणस्थान कहीं न मिलेगा । तीसरे गुणस्थान में मरण नहीं होता तो जन्म कैसे होगा? अत: अपर्याप्त में तीसरा गुणस्थान भी न मिलेगा । दूसरे आदि शेष नरकों में, अपर्याप्त को में केवल एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है, इसका कारण है कि सम्यक्त्व में मरण करने वाला जीव दूसरे आदि नरकों में नहीं जा सकता । प्रथमोपशम सम्यक्त्व में तो मरण होगा नहीं । क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव यदि नरक जायेगा तो उसका सम्यक्त्व छूट जायेगा । केवल क्षायिक सम्यक्त्व ही है ऐसा कि जिसमें मरकर यह जीव पहले नरक तक जा सकता है । तिर्यन्च गति में पर्याप्तक तिर्यंचों में आदि के 5 गुणस्थान ही होते हैं, वहाँ उनके अपर्याप्तकों में 3 गुणस्थान ही पाये जायेंगे । मिथ्यात्व, सासादन सम्यक्त्व और अविरत सम्यक्त्व । तिर्यन्चों में जो तिर्यंचिनी हैं पर्याप्ति का हैं उनमें आदि के 5 गुणस्थान होंगे, किंतु अपर्याप्तक तिर्यंचनियों में आदि के दो ही गुणस्थान होते हैं । (1) अविरत सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रीभव नहीं पाता । मनुष्यगति में पर्याप्तक मनुष्य में 14 ही गुणस्थान होते हैं, अपर्याप्तकों में तीन गुणस्थान होते हैं । पहला, दूसरा, चौथा, क्योंकि तीसरे गुणस्थान में मरण ही नहीं है । जो पर्याप्ति का मानुषी है याने स्त्री आदिक भाववेद की अपेक्षा तो भावस्त्री में 14 ही गुणस्थान हो जाते हैं । असल में तो भाव स्त्रीवेद 9वें गुणस्थान तक ही हो पाता है और 9 वें गुणस्थान में ही मिट जाता है । ऊपर तो कोई सा भी वेद नहीं रहता । न भाव पुरुषवेद रहता, न भाव स्त्रीवेद रहता, न भाव नपुंसक वेद रहता फिर भी जिसका भाव स्त्रीवेद था वही तो वेद से रहित होकर क्षपक श्रेणी में ऊपर चढ़कर मोक्ष गया है इस दृष्टि से कहा जाता है । द्रव्यलिंग की अपेक्षा पर्याप्तिकामानुषी में याने स्त्री में आदि के 5 गुणस्थान होते हैं, जो मानुषी अपर्याप्तिका है उनमें दो ही गुणस्थान होते हैं, क्योंकि सम्यक्त्व के साथ जो मरण करे वह स्त्रीभव में उत्पन्न नहीं होता । देवगति में भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देव जो अपर्याप्तक हैं उनमें आदि के 4 गुणस्थान ही होते हैं और इन भवनत्रिकों में अपर्याप्त को में आदि के दो ही गुणस्थान हैं, क्योंकि सम्यक्त्व में मरण कर भवनत्रय में उत्पन्न नहीं हो सकते । इसी प्रकार उन भवनत्रिकों की देवियों में और पहले दूसरे स्वर्ग के कल्पवासी देवियों में, पर्याप्तकों में चार गुणस्थान और अपर्याप्तकों में आदि के दो गुणस्थान होते है । सौधर्म, ईसान आदिक नवग्रैवयक पर्यंत देवों में आदि के चार गुणस्थान होते हें । और इसी अपर्याप्त को में मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यक्त्व ये तीन गुणस्थान होते हैं । नवग्रैवयक से ऊपर अर्थात् अनुदिश और अनुत्तर विमान वाले देवों में चाहे वे पर्याप्त हों अथवा अपर्याप्त हों उनमें अविरत सम्यक्त्व नाम का एक ही गुणस्थान है ।
इंद्रिय जाति व काय की मार्गणा में गुणस्थानों का घटन―इंद्रियजाति मार्गणा में एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चौइंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय और पर्याप्त को में मिथ्यात्व गुणस्थान ही है । किंतु अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान हो सकते हैं । लेकिन सूक्ष्म एकेंद्रिय अपर्याप्त और अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक पर्याप्त व अपर्याप्त इनमें दूसरा गुणस्थान नहीं होता । संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों में 14 ही गुणस्थान होते हैं, पर सैनी पंचेंद्रिय अपर्याप्तकों में पहला, दूसरा, चौथा गुणस्थान तो मरण की अपेक्षा है । छठवां गुणस्थान मिश्र काय योग की अपेक्षा है और 16 वां गुणस्थान केवली समुद्धात की अपेक्षा है । यद्यपि सयोग केवली भगवान संज्ञी नहीं हैं, किंतु अभी पंचेंद्रिय कहा जाता है । इस कारण यहाँ शामिल किया है । काय मार्गणा में पृथ्वीकाय, जलकाय, वनस्पतिकाय इन तीन में अपर्याप्तकों में शुरू के दो गुणस्थान हैं और अग्निकाय तथा वायु काय में अपर्याप्त को में पहला ही गुणस्थान है तथा इन पाँचों ही में पर्याप्त का पहला ही गुणस्थान होता है । त्रसकाय में 14 ही गुणस्थान हैं ।
योग, वेद व कषाय की मार्गणा में गुणस्थानों का घटन―योग मार्गणा में सत्य मनोयोग और अनुभय मनोयोग में 13 गुणस्थान होते हैं । सत्य वचन योग, और अनुभय वचनयोग के प्रारंभ से 13 गुणस्थान हैं । किंतु यहाँ इतनी विशेषता जानना कि अनुभय वचन योग तीन इंद्रिय आदिक विकलत्रयों के भी होते हैं । वहाँ इस अनुसार गुणस्थान हैं । असत्य वचन योग और उभय वचनयोग में प्रारंभ से 12 गुणस्थान तक है । औदारिक काय योग में प्रारंभ से 13 गुणस्थान हैं । औदारिक मिश्र काययोग में 4 गुणस्थान इस प्रकार हैं―(1) मिथ्यात्व (2) सासादन (3) अविरत सम्यक्त्व और (4) सयोगकेवली । वैक्रियक काययोग में मिथ्यात्व, सासादन, अविरत सम्यक्त्व ये तीन गुणस्थान हैं । आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग में सिर्फ प्रमत्त संयम नाम का छठा ही गुणस्थान है । कार्माण काय योग में मिथ्यात्व, सासादन, अविरत सम्यक्त्व और सयोग केवली ये चार गुणस्थान हैं । जिनके योग नहीं है उनमें एक 14 वाँ ही गुणस्थान है, और योग रहित सिद्ध भी होते हैं, वे गुणस्थान से अतीत हैं । वेद मार्गणा में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इसमें असंज्ञी पंचेंद्रिय मिथ्यात्व से लेकर 9 अनवृत्तिकरण नामक 9 तक गुणस्थान हैं, नपुंसक वेद में एकेंद्रिय से लेकर प्रारंभ से 9 गुणस्थान तक हैं । एकेंद्रिय में नपुंसक होते ही हैं और वे पर्याप्त की अपेक्षा प्रथम गुणस्थान में अपर्याप्त हैं । अपर्याप्त की अपेक्षा दूसरा गुणस्थान भी संभव है । नारकी जीव तो वे सब नपुंसक ही होते हैं, तिर्यन्च जीव एकेंद्रिय से लेकर चौइंद्रिय तक नपुंसक ही होते हैं । इस असंज्ञी पंचेंद्रिय में तीनों ही वेद संभव हैं और वे 5 वें गुणस्थान तक हो सकते हैं । मनुष्य तीनों ही वेदों में रहकर शुरू के 99 गुणस्थानों में रह सकते हैं । 9वें गुणस्थान के उत्तरार्द्ध में और इससे ऊपर सब मनुष्य अपगतवेद होते हैं । देव स्त्रीवेद और पुरुषवेद दोनों वेदों में होता है और उनमें चारों गुणस्थान हो सकते हैं । कषायमार्गणा में क्रोध, मान माया, इन तीन कषायों में तो पहले गुणस्थान से लेकर 9वाँ गुणस्थान तक हो सकता है, पर लोभ कषाय में 10 वां गुणस्थान भी होता है । 10वें गुणस्थान से ऊपर के जीव सब कषायरहित होते हैं ।
ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या व भव्यत्व की मार्गणा में गुणस्थानों का घटन―ज्ञान मार्गणा में कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान, इनमें मिथ्यात्व और सासादन दो ही गुणस्थान हैं, इसी प्रकार कुअवधिज्ञान में भी मिथ्यात्व और सासादन दो ही गुणस्थान हैं । मिश्र गुणस्थान में कुमति और सुमति मिलवा मिश्र ज्ञान हुआ करता है, किंतु वह मिश्रज्ञान यदि खोंटे और सच्चे इन 2 ज्ञानों में से किसी में भी सम्मिलित करने बैठें तो सम्यग्ज्ञान में तो सम्मिलित नहीं हो सकते, वे कुज्ञान में सम्मिलित होंगे । इसलिए यह भी कह सकते हैं कि कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान में तीन गुणस्थान होते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान में चौथे गुणस्थान से लेकर 12 वें गुणस्थान तक के जीव होते हैं । मनःपर्यय ज्ञान में छठे गुणस्थान से लेकर 12वें गुणस्थान तक होते हैं । केवल ज्ञान में सयोग केवली और अयोग, केवली ये दो गुणस्थान हैं, और केवलज्ञान सिद्ध के भी होता है । संयम मार्गणा में सामयिक और छेदोपस्थापना इन दो संयमों में छठे गुणस्थान से 9 गुणस्थान होते हैं । परिसर विशुद्धि संयम छठे और 7 वें गुणस्थान में होता है । सूक्ष्म सांपराय संयम केवल 10 वें गुणस्थान में है, यथाख्यात संयम 11वें, 12वें, 13वें और 14वें गुणस्थान में होता है । संयमासंयम 5वें गुणस्थान में होता है । असंयम प्रारंभ के चार गुणस्थानों में होता है । संयम, असंयम और संयमासंयम इन तीन से रहित सिद्ध भगवान हुआ करते हैं । दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शन में मिथ्यात्व से लेकर क्षीणकषाय तक 12 गुणस्थान होते हैं । अचक्षुदर्शन में भी प्रारंभ के 12 गुणस्थान होते हैं । यहाँ विशेष यह जानना कि चक्षुदर्शन तो चौइंद्रिय और पंचेंद्रिय में होता है और अचक्षुदर्शन एकेंद्रिय, दोइंद्रिय आदिक सभी में होता है । पर गुणस्थान योग्यता के अनुसार जानना । अवधिदर्शन में चौथे गुणस्थान से लेकर 12वें गुणस्थान तक होते हैं केवल दर्शन में सयोग केवली और अयोग केवली होता है । केवल दर्शन सिद्ध के भी होता है । भव्यत्व मार्गणा में भव्य 14 गुणस्थानों में मिलेंगे, अभव्य केवल पहले गुणस्थान में ही होते हैं ।
सम्यक्त्व, संज्ञी, आहारक की मार्गणाओं में गुणस्थानों का घटन―सम्यक्त्व मार्गणा में औपशमिक सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान से लेकर 11 वें गुणस्थान तक होता है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, चौथे गुणस्थान से लेकर 7 वें गुणस्थान तक ही होता है । क्षायिक सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान से लेकर 14 वें गुणस्थान तक होता है । सिद्ध में भी क्षायिक सम्यक्त्व होता है । सम्यक्त्व मार्गणा में इतनी विशेषता है कि नरकगति में पहले नरक में जो चौथे गुणस्थान में हैं उनके तीनों सम्यक्त्व संभव हैं । किसी के कुछ किसी के कुछ । पर दूसरे आदिक नरकों में क्षायिक सम्यक्त्व कभी नहीं होता । शेष के दो सम्यक्त्व हैं । तिर्यंचगति में जिनके चौथा गुणस्थान है उनके तीनों ही सम्यक्त्व होते हैं, पर क्षायिक सम्यक्त्व भोगभूमिया के तिर्यंच में मिलेगा । जो तिर्यंच कर्मभूमि में हैं उनके क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता, क्योंकि क्षायिक समदृष्टि तिर्यंच भोगभूमि में ही हुआ करते हैं । मनुष्य के चौथे, 5वें, छठे, 7वें गुणस्थान में तीनों ही सम्यक्त्व हैं । 7वें गुणस्थान से ऊपर उपशम श्रेणी के 8वें, 9वें, 10वें गुणस्थान में औपशमिक सम्यक्त्व भी हो सकता है और क्षायिक सम्यक्त्व भी हो सकता है । क्षपक श्रेणी में और उससे भी ऊपर केवल क्षायिक सम्यक्त्व होता है । इसी प्रकार देवगति में भवनत्रिक और उनकी देवियाँ और पहले दूसरे स्वर्ग की देवियाँ इनके क्षायिक सम्यक्त्व नहीं है । शेष दो ही सम्यक्त्व संभव हैं और सौधर्म स्वर्ग से लेकर नवग्रैवयक तक तीनों प्रकार के सम्यक्त्व संभव हैं । अनुदिश और अनुत्तर विमान के देवों में क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व दो ही सम्यक्त्व संभव हैं । संज्ञी मार्गणा में प्रारंभ के 12 गुणस्थान संभव हैं संज्ञी में । किंतु असंज्ञी जीवों में केवल दो ही गुणस्थान संभव हैं । और जो न संज्ञी हैं न असंज्ञी है अनुभय है, उनमें 13वाँ और 14वाँ गुणस्थान है और ऐसा अनुभय सिद्ध भी होता है । आहारक मार्गणा में पहले गुणस्थान से 13 वें गुणस्थान तक होता है । अनाहारक में विग्रह गति की अपेक्षा पहला, दूसरा और चौथा गुणस्थान होता है और केवली समुद्धात वर्ती सयोग केवली गुणस्थान होता है और अयोग केवली तो सदा अनाहारक होता है । सिद्ध भगवान गुणस्थान से अतीत हैं । वे भी अनाहारक हैं । इस प्रकार वस्तु स्वरूप का जहाँ परिचय है, ऐसे ज्ञानी पुरुष के द्वारा जो आत्मधर्म की साधना चलती है वह मोक्ष का कारण है, यही भगवंत अरहंत देव ने कहा है । ऐसा चिंतवन करना धर्मानुप्रेक्षा है ।
धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिंतन शब्द के विषय में विवृत्ति―12 वीं भावना का नाम धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिंतन है । तो यहाँ स्वाख्यात शब्द के संबंध में कुछ जिज्ञासा हुई है कि यह शब्द किस प्रकार बना? तो यहाँ स्व आख्यात ऐसी संधि नहीं है किंतु सु आख्यात ऐसी संधि है । सु का अर्थ है उत्तम और आख्यात का अर्थ है प्रसिद्धि होना, प्रकट होना । धर्मभाव के प्रकट होने के विषय में चिंतन होना यह 12वीं अनुप्रेक्षा का अर्थ है । यहाँ अनुप्रेक्षा शब्द चूंकि भावसाधन है, इस कारण बहुवचन न होना चाहिए । ऐसी आशंका होती है । भावप्रधान शब्दों में एकवचन हुआ करता है, क्योंकि भाव में एकत्व, होता है । यदि कोई यह समाधान करना चाहे कि हम अनुप्रेक्षा को कर्म साधन मान लेंगे तो कर्मस्थान मान लेने पर फिर समान अधिकरण्य न बनेगा, क्योंकि अनुप्रेक्षा अन्य हो गई । और अनुचिंतन अन्य हो गया । यदि यहाँ यह हठ किया जाये कि अनुचिंतन ही तो अनुप्रेक्षा है तो ऐसा अगर विशेष्य विशेषण बनाया जाये तब फिर दूसरा लिंग न होना चाहिये । दूसरा वचन न होना चाहिए । इस प्रकार की जिज्ञासा में शंका हुई है । दोनों का उत्तर इस प्रकार है कि चूंकि अनुप्रेक्षा शब्द में जो प्रत्यय लगा है वह कृदंत प्रत्यय लगकर बना है । सो भले ही भाव साधन में निरुक्ति की जाये तो भी कृदंत में जो भावसाधक प्रत्यय लगा करते हैं उनका द्रव्य की तरह अर्थ होता है । तद्धित के भाव के लिए प्रत्यय लगना और बात है और कृदंत में जीवस्थान का प्रत्यय लगना और बात है । तो कृदंत के भावसाधक शब्द द्रव्य की तरह प्रयुक्त होते हैं इस कारण 12 अनुप्रेक्षा होने से अनुप्रेक्षा शब्द में बहुवचन को दिया गया है । अब कर्मसाधन की बात सुनिये । चूंकि कर्मसाधन दोनों शब्द हैं, अनुचिंतन भी हैं और अनुप्रेक्षा भी हैं । जो चिंता जाये सो अनुचिंतन है, जो परखा जाये सो अनुप्रेक्षा है, सो दोनों ही कर्मसाधन होने से दोनों समान अधिकरण्य बन जायेंगे ।
द्वितीय सूत्र में धर्म व परीषहविजय के मध्य अनुप्रेक्षा शब्द रखने का कारण―इस प्रसंग में जो कि संवर के हेतुवों का वर्णन कर रहा है उसमें धर्म और परीषहजय इन दो के बीच अनुप्रेक्षा शब्द कहा गया है । उसका एक रहस्य है । वह रहस्य यह है कि अनुप्रेक्षा धर्म और परिषह दोनों में साधक निमित्त है । अनुप्रेक्षा में भावनायें होती हैं । तो बार-बार तत्त्व की भावना होने से यह जीव परिषहों को जीतने के लिए समर्थ होता है । तो चूंकि परीषहजय धर्मपालन और परिषहविजय दोनों कार्यों के लिए एक उत्साह और भाव भरता है इस कारण दोनों के बीच अनुप्रेक्षा शब्द रखा है । जैसा कि इस नवम अध्याय के दूसरे सूत्र में कहा गया है । जो मुनि बारबार आत्मा के विषय में अनित्यादिक प्रक्रियावों से भावना भरते हैं उन भावनाओं के प्रसाद से अंतःप्रकाशमान सामान्य कारण समयसार की बार-बार दृष्टि बनाते हैं तो उससे उत्पन्न हुए सहज आनंद के अनुभव से तृप्त होता हुआ यह मुनि परीषहों के जीतने में सुगमतया सफल हो जाता है । अंतरंग के शुद्ध तत्त्व की भावना का इतना उत्कृष्ट प्रभाव है कि मुनियों को यह पता भी नहीं पड़ता कि मेरे को कोई उपसर्ग या परीषह हुआ है । और कदाचित किन्हीं मुनियों को ज्ञात भी हो जाये तो ज्ञानबल के प्रसाद से समता से परीषहों पर विजय प्राप्त करते है । इस प्रकार अध्यात्म चिंतन में उत्तम क्षमा आदिक धर्मों का पालन सुगमतया और समीचीन प्रकार से हो जाता है, अतएव अनुप्रेक्षा का महत्त्व बताने के लिए धर्म और परीषहजय के बीच अनुप्रेक्षा का कथन किया गया है । यहाँ तक अनुप्रेक्षावों का वर्णन किया गया । अब संवर के हेतुवों में अनुप्रेक्षा के बाद परीषह विजय का नंबर आता है । इस कारण परीषहजय का व्याख्यान होगा, फिर भी व्याख्यान से पहले यह जिज्ञासा होती है कि परीषहों का सहन किसलिए किया जाता है । दूसरी बात―परिषह यह संज्ञा अव्यर्थ है या रूढ़ है, इसका समाधान करने के लिए सूत्र कहते हैं ।