वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1282
From जैनकोष
म्लेच्छाधमजनैर्जुष्टं दुष्टभूपालपालितम्।
पाषंडिमंडलाक्रांतं महामिथ्यात्ववासितम्।।1282।।
कौलकापालिकावासं रुद्रक्षुद्रादिमंदिरम्।
उद्भ्रांतभूतवेतालं चंडिकाभवनाजिरम्।।1283।।
पण्यस्त्रीकृतसंकेतं मंदचारित्रमंदिरम्।
क्रूरकर्माभिचाराढयं कुशास्त्राभ्यासवंचतम्।।1284।।
क्षेत्रजातिकुलोत्पन्नशक्तिस्वीकारदर्पितम्।
मिलितानेकदु:शीलकल्पिताचिंत्यसाहसम्।।1285।।
द्यूतकारसुरापानविटबंदिवजांवितम्।
पापिसत्त्वसमाक्रांतं नास्तिकासारसेवितम्।।1286।।
क्रव्यादकामुकाकीर्ण व्याधविध्वस्तश्र्वापदं।
शिल्पिकारुकविक्षिप्तमग्निजीविजनांचितम्।।1287।।
प्रतिपक्षशिर:शूले प्रत्यनीकावलंबितं।
आत्रेयीखंडितव्यंगसंसृतं च परित्यजेत्।।1288।।
जिस स्थान में क्लेच्छ अधम जन रहा करते हैं ऐसे स्थान में ध्यानार्थी पुरुष नहीं रहते, क्योंकि वहाँ ध्यान के योग्य वातावरण नहीं है। जो दुष्ट राजा से पाला गया स्थान हो वह स्थान ध्यानार्थी के योग्य नहीं है, क्योंकि दुष्ट राजा के कारण कुछ बात न हो तब भी विचित्र उपसर्ग आ सकते हैं। हाँ उपसर्ग यदि आ जायें तो उनको समता से सहा जाता है पर जानबूझकर ऐसे उपसर्ग वाले स्थान में धर्मध्यान की सिद्धि नहीं होती है। अत: धर्मार्थी को ऐसे स्थान में रहना योग्य नहीं है। जो स्थान पाखंडी साधुवों के समूह से आक्रांत हों वह स्थान भी ध्यान के योग्य नहीं है। जिसके ज्ञान नहीं, वैराग्य नहीं और ऐसे ही किसी प्रयोजन से भेष धारण कर लिया है, जो प्रकट भी कुमत हैं और अंतरंग में भी विरक्त नहीं हैं ऐसे पाखंडियों के समूह से भरा हुआ जो स्थान है वह ध्यान के योग्य नहीं है, क्योंकि उनकी चर्या और भाँति की है और धर्मार्थी की चर्या है और प्रकार की, इस कारण ध्यानार्थी पुरुष पाखंडी साधु जनों के बीच में नहीं रह सकते, अतएव पाखंडियों के समूह से भरा हुआ स्थान ध्यान के योग्य नहीं कहा गया है। और जो स्थान महामिथ्यात्व से वासित हो, जहाँ मिथ्यात्व का संचार हो, प्रचार हो ऐसे स्थान भी ध्यान के योग्य नहीं बताये गए। चाहे वह जैन स्थान भी हो, जिन मंदिर की भी जगह हो लेकिन जहाँ लोग अपने स्वार्थ के लिए, विषयसाधनों के लिए जाया करते हों, बोली बोलकर मुकदमें की जीत हो, मेरे धन अधिक बढ़े आदि, ऐसे स्थान में भी ध्यानार्थी का ध्यान नहीं बनता। चाहे वह जैन मंदिर के नाम से भी हो लेकिन जहाँ आवागमन केवल विषयवासना के साधनों के लिए ही होता हो वह स्थान भी मिथ्यामार्ग से वासित है, और मिथ्यामार्ग से वासित स्थान में ध्यानार्थी को ध्यान की सिद्धि नहीं हो पाती। अत: ध्यानार्थी को ऐसे स्थान में रहना योग्य नहीं है। इसी प्रकार जहाँ मौलिक आपालिक रहा करता हो, कुलदेवता अथवा योगिनीयों का जो स्थान हो वह भी ध्यान के योग्य नहीं है। कुलदेवता उसे कहते हैं जिसके कुल में किसी ब्याह संस्कार आदि काम के लिए जिस देवता की मान्यता बना रखी हो वह कुलदेवता कहलाता है। जैसे भिन्न-भिन्न लोगों के भिन्न-भिन्न स्थान ऐसे निश्चित हैं कि विवाह शादी आदिक प्रसंगों में मीठा, पत्तल आदिक चढ़ाने जाते हैं। वे सारे कुलदेवता हैं। ऐसे कुलदेवता का स्थान ध्यानार्थी की ध्यानसाधना के लिए योग्य नहीं है। इसी प्रकार जो चंडिका का, मंडिका का चौक हो जहाँ पशु वध करके मनौती मानायी जाती हो ऐसा स्थान भी ध्यानार्थी के ध्यान के योग्य नहीं है। जिस स्थान पर वेश्याएँ रह रही हों, जहाँ उनका आवागमन हो वह स्थान भी ध्यानार्थी के ध्यान के योग्य नहीं कहा गया है। जो छुटपुट देवताओं के मंदिर हैं, जहाँ वीतरागता का कोई पक्ष नहीं मिलता, जिसकी मुद्रा भी राग और द्वेष का संकेत करने वाली है ऐसा स्थान भी ध्यानार्थी पुरुषों के ध्यान के योग्य नहीं कहा गया। जहाँ किसी प्रकार का गृहीत मिथ्यात्व का बसा हुआ है, जहाँ गृहीत मिथ्यात्व का पोषण होता है वह स्थान भी ध्यानार्थी के ध्यान के योगय नहीं है।
जहाँ वीतराग का पक्ष मिले वह ही स्थान ध्यान के योग्य है। चाहे वह वीतराग प्रभु का मंदिर हो, चाहे वह जंगल हो, कोई सा भी स्थान हो, जहाँ वीतरागता का शिक्षण मिले, राग का शिक्षण न हो ऐसा ध्यान ही स्थान के योग्य कहा गया है। जो स्थान निश्चरित्रों का घर हो वह घर भी ध्यानार्थी के ध्यान करने योग्य नहीं है, जहाँ चारित्रहीन पुरुषों का निवास हो वह स्थान भी ध्यान करने योग्य नहीं है क्योंकि वहाँ की चर्चा, वहाँ का वातावरण कुछ और ही तरह का है। ध्यान करना है इस अद्भुत ज्ञानस्वरूप आत्मा में। यह ज्ञान समा जाय, कोई विकल्प न रहे और एक ज्ञानप्रकाश के अनुभव का ही आनंद लेते रहें ऐसा चाहिए ध्यान ध्यानार्थी को, पर ऐसा ध्यान वहाँ बनेगा जहाँ संयमशील पुरुष रहते हैं, जहाँ मंद चारित्र वाले पुरुष रहते हैं ऐसे स्थान में ध्यान की सिद्धि नहीं बनती। ध्यान की सिद्धि करना है अपने आपमें, अर्थात् मैं सबसे निराला केवल ज्ञानस्वरूप हूँ ऐसी भावना में अंतरलीन होना है। उस ध्यान की सिद्धि वहाँ नहीं होती जहाँ चारित्रहीन लोग रहते हैं और चारित्रग्राह्यता की चर्या बनती है ऐसा स्थान जहाँ क्रूर कर्म करने वालों का व्यवहार चलता हो वह स्थान भी ध्यान के योग्य नहीं कहा गया। जहाँ रौद्र आशय है, जहाँ हिंसा विषय आदिक प्रवर्तन जहाँ हैं ऐसे पुरुषों का जहाँ निवास है, वह स्थान भी ध्यान के योग्य नहीं कहा है। जहाँ खोटे शास्त्रों का अध्ययन चलता है, खोटे शास्त्रों के अध्ययन से ठगाई चलती है वह स्थान भी ध्यानार्थी के योग्य नहीं है। जहाँ पाप की शिक्षा दी जाय, रागद्वेष बढ़ने का शिक्षण दिया जाय वह स्थान धर्मार्थी के योग्य नहीं है। जगत में कोई भी पदार्थ इस आत्मा की प्राप्ति करने के योग्य नहीं है। सभी पदार्थ भिन्न हैं, आत्मा से पृथक हैं, अस्पष्टभूत हैं, हित का उनमें नाम नहीं है प्रत्युत हानि ही हानि है। तो ऐसा स्थान जहाँ पर खोटी बात का शिक्षण हो, परिग्रह के जुटाने की बात कही जाय, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदिक में लगाने की बात कही जाय अथवा धर्म का रूप देकर खोटे पापों में लगने की प्रेरणा दी जाय ऐसा स्थान ध्यानार्थी के योग्य नहीं है।
देखिये आत्मा का हित है मुक्ति में, और मुक्ति मिलती है तब जब पहिले यह श्रद्धा में बसा हो कि मैं स्वभावत: उन समस्त परआपदाओं से छूटा हुआ ही हूँ, अपने मुक्त स्वरूप की श्रद्धा न हो तो मुक्ति के मार्ग में लग नहीं सकता। जो मुक्ति का स्वरूप है ऐसा मैं यह हो सकता हूँ क्योंकि ऐसा ही मेरा स्वरूप है, स्वभाव है। मैं अपने ही स्वरूप में तन्मय हूँ, समस्त परपदार्थों से न्यारा हूँ ऐसी बात पहिले समझ में न आये, जब मुक्त स्वरूप अपने को विदित न हो तो मुक्ति के मार्ग में लगा नहीं जा सकता। मैं परमात्मा हूँ, योग्य हूँ ऐसा अपने को विश्वास न हो तो बनेगा क्या? तो जहाँ पापों में लगने की बात न कही जाती हो, रागद्वेष मोह से हटाने का निवास हो वह ही स्थान ध्यान के योग्य कहा गया है। जो स्थान किसी अहंकारयुक्त पुरुष के अधिकार के पोषण से पूरित हो वह स्थान भी धर्मार्थी के योग्य नहीं है। किसी की जिम्मेदारी है, किसी के कुल का प्रताप है, और किसी को उत्तम जाति मिली हे, किसी को इज्जत पोजीशन बड़ा मिला है, उन सब बातों के कारण जिसके ऐसा गर्व बढ़ गया, जिस स्थान में अपनी शक्ति का दबाव करता है लोगों को अपना बल दिखाता है, ऐसे घमंडी के वातावरण वाला स्थान ध्यानार्थी के योग्य नहीं है। जहाँ पर अनेक शील रहित पुरुषों से मिलकर कोई अपनी अचिंत्य महिमा का प्रभाव बना रखे हो, ढोंग किए हुए हो वह ध्यान भी ध्यानार्थी के योग्य नहीं है। ध्यानार्थी तो उस स्थान में जाना चाहेगा जहाँ किसी भी प्रकार से अपने आपको विकल्पों में लगाने का भाव नहीं बनाता। ध्यानार्थी को तो अचिंत्य वीतरागता के वातावरण वाला स्थान चाहिए निवास के लिए। जिस स्थान में जुवा खेलने वाले, मदिरापान करने वाले अथवा खोटे कार्य करने वाले लोग रह रहे हों वह स्थान ध्यान के योग्य नहीं है। जो पुरुष स्वयं विषयकषायों से जुदे रहकर एकांत में निवास करते हैं उनके संग में उसी स्थान में रहना ध्यानार्थी को योग्य है। जो पुरुष स्वयं रागद्वेष से मलिन हैं उनके संग में रहना योग्य नहीं है। जहाँ नास्तिक लोगों का निवास हो, जिनको आत्मा परमात्मा आदि में श्रद्धा नहीं हे जो जन्म मरण को नहीं मानते ऐसे पुरुषों के बीच निवास करना योग्य नहीं है। जैसे कोई स्वस्थ पुरुष ही है और लोग आ आकर उससे यों ही कहें कि आप बडे दुर्बल हो गये, आपका शरीर अब कुछ नहीं रहा, आप उदास हैं, आप कुछ पीले से पड़ गये हैं, लगता है कि आपके कोई रोग है, ऐसी ही बातें कोई स्वस्थ पुरुष जब कई पुरुषों के द्वारा सुनता है तो वह अपने आपको वैसा ही अनुभव कर लेता और वह वैसा ही रोगी बन जाता है, ऐसे ही नास्तिक पुरुषों के बीच में रहने वाला व्यक्ति भी अपने को अनुभव करके वैसा ही बन जाता है। तो नास्तिक पुरुषों का जहाँ निवास हो उस स्थान में ध्यानार्थी को रहना योग्य नहीं है। ध्यानार्थी को तो श्रद्धा और चारित्र बढ़ाने वाली बात ही चाहिए। श्रद्धा और चारित्र ये दो गुण ऐसे पवित्र हैं कि जिनके विकास के द्वारा समस्त संकटों का विनाश होता है। अत: ध्यानार्थी पुरुष को उत्तम स्थान में ध्यान करना चाहिए।
ध्यानार्थी पुरुष को किस स्थान से दूर रहना चाहिए? उसका यह वर्णन चल रहा है। जहाँ शिकारी लोग रहते हों, शिकारियों का आवागमन हो, शिकारियों ने जहाँ जीव वध किया हो वह स्थान ध्यान के साधक पुरुषों को योग्य नहीं है। जहाँ कारीगर मोची आदिक का स्थान हो, वे जहाँ रह गए हों, जहाँ लोहार ठठेर आदिक रहते हों वह स्थान ध्यान साधना के योग्य नहीं है क्योंकि ऐसी स्थितियों में शोरगुल और अशुद्ध वातावरण रहता है। जहाँ सेना हो, समृद्धि हो अथवा शत्रु की सेना का स्थान हो, भ्रष्ट चारित्र वाले विडरूपजन जहाँ रहते हों वह स्थान भी ध्यान करने वालों के योग्य नहीं है।