वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1643
From जैनकोष
क्षेत्राणि रमणीयानि सर्वर्तुसुखदानि च।
कामभोगास्पदान्युच्चै: प्राप्य सौख्यं निषेव्यते।।1643।।
यह प्राणी सर्व ऋतुवों में सुख देने वाले ऐसे क्षेत्रों को प्राप्त करके सुख का अनुभव करता है। ऐसी जगह जन्ममिले या जानकर ऐसा जगह बस जाय जहाँ गर्मी के दिनों में अधिक गर्मी न पड़े और जाड़े के दिनों में अधिक जाड़ा न पड़े। जहाँ कोई प्रकार का कष्ट न हो, सभी ऋतुवों में सुख दे, ऐसे क्षेत्र को पाकर सुखी मानते हैं, जहाँकाम भोगों के साधन हों ऐसी जगहों में ये प्राणी मौज मानते हैं। ये तो बताये हैं संसार पुण्य के फल। अब कुछ पापकर्म के भी फल सुनें। कर्म हैं पाप और पुण्य। धर्म दृष्टि हो तो कभी तो पाप का फल भोगते हुए भी यह मार्ग में लग सकता है और प्राय: करके पुण्य का फल भोगते हुए लोग धर्म दृष्टि के मार्ग में लगे हैं।