वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1663
From जैनकोष
गोत्राख्यं जंतुजातस्य कर्म दत्ते स्वकं फलम्।
शस्ताशस्तेषु गोत्रेषु जन्म निष्पाद्य सर्वथा।।1663।।
गोत्र नाम का कर्म इन दो कर्मों में एक 7 वें नंबर का भेद है। यह गोत्र कर्म इन प्राणियों को अपना फल क्या देता है कि प्रशंसनीय गोत्रों में जन्म होता है और निंद्य गोत्रों में जन्म होता है। चाहे उच्च गोत्र में जन्म हो और चाहे नीच गोत्र में जन्म हो―वह गोत्र नामकर्म का उदय है। यहाँ इतना देखना हे कि जो नीच जाति के लोग हैं वे स्वयं अपने को हल्का मानते हैं। किसी का प्रशंसनीय कुल में जन्म होता है, किसी का अप्रशंसनीय कुल में जन्म होता है। यह सब गोत्र आयु नामकर्म का उदय है। बड़ा हुआ तो क्या, छोटा हुआ तो क्या, ये सब कर्मफल हैं। धनी हुआ तो क्या हुआ, निर्धन हुआ तो क्या हुआ, ये सब कर्मफल हैं। आत्मा का स्वरूप तो सबमें एक है। जो दृष्टि उसे ग्रहण कर ले उसका तो संसार पार है और जो ग्रहण नहीं करता वह संसार में ही रुलता रहता है। इन गोत्रों में जन्म किस भाव से होता है? इस विषय में तत्त्वार्थ सूत्र में दो सूत्रों में बताया है।
परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य,
तद्विपर्ययौ नीचैर्वृत्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य।
दूसरे की निंदा करना, अपनी प्रशंसा करना, इसमें क्या हुआ कि इसमें खुद को नीच कुल में जन्म लेना पड़ता। कितनी खराब बात है दूसरे की निंदा करना। परनिंदा से मिलता क्याहै, बल्कि नीच गोत्र का बंध होता है। सभी लोग कितना-कितना तो धर्म करते, कितनी-कितनी यात्राएँ करते? कम से कम एक बार तो अपने जीवन में उतार लेना चाहिए कि कैसी ही स्थिति आये―हम दूसरे की निंदा न करें। पड़ौसियों में गाँवों में अनेकझगड़े इसी बात में हो जाते हैं। तो दूसरे की निंदा करने से नीच गोत्र में जन्म होता है और दूसरों की प्रशंसा करने से उच्च गोत्र में जन्म होता है। अपने में गुण भी नहीं हैं तो भी अपने गुण बखानना और दूसरे में गुण हैं तो भी उसकी निंदा करना अथवा उसका कुछ प्रकरण पाकर दूसरे के गुणों को ढाकना और ऐसा वातावरण बनाना, ऐसी कोई कथनी छोड़ना कि दूसरे के गुणों को बखानने का मौका ही न मिलेगा तो यह परिणाम नीच गोत्र में जन्म लेने का कारण है। और इससे उल्टी बात करे तो वह उच्च गोत्र में जन्म लेने का कारण होता है। गुण तो हर एक में हैं। जैसे जो मनुष्य क्रोधी जँच रहे हैं उनमें सारे ऐब ही ऐब हों ऐसी बात नहीं है, उनमें कुछ गुण भी होते हैं। दूसरे के गुणों पर दृष्टि ही न जाय, केवल उसके दोषों पर ही दृष्टि जाय तो वह तो स्वयं दोषी हो गया। उसकी आदत हे कि दूसरों के दोष ही दोष देखे। पर ज्ञानी जीव की प्रकृति ऐसी बन जाती है कि वह अपनी तो निंदा करता है―मैं बड़ा मायाचारी हूँ, पापी हूँ आदि। और दूसरों की प्रशंसा करता है―देखो ये कितने अच्छे हैं, कितना धर्म कर्म में तत्पर रहा करते हैं आदि। तो इस भावना से वह ज्ञानी पुरुष अगले भव में उच्च कुल पायगा। हाँ उस ज्ञानी पुरुष को अगर दूसरे के दोष छुटाना है वह उससे ही धीरे से कहकर छुटा सकता है। दूसरों के समक्ष उसके दोषों को प्रकट करना योग्य नहीं है। कोई मनुष्य अपने गुण यदि ढाके रहे, प्रकट न करे तो अपने में एक ऐसा भीतरमें गौरव रहता है कि जिससे उसके गुणों में वृद्धि होती है और अपने कुछ भी गुण हों उन्हें मुख से कोई बखाने तो उसके गुणों की वह स्पीड खतम हो जाती है। गुणों में वृद्धि नहीं होती। किसी भी चीज का फल एक बार मिलता है। हममें अगर गुण आ गए और वही हम चार आदमियों में बखानने लगें तो फल मिल चुका। अब आगे फल नहीं मिलने का। जैसे कोई दान दे नामवरी के लिए तो उसका फल उसको मिल चुका, अब आगे फल की आशा न करे। तो इस प्रकार ऐसा जो परिणाम है और भी जो गिरावट के हैं वे नीच गोत्र के जन्म के कारण बनते हैं और जो उत्कृष्टता की है उनके फल में यह उच्च गोत्र में जन्म लेता है।