वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1665
From जैनकोष
अपक्वपाक: क्रियतेऽस्ततंद्रैस्तपोभिरुग्रैर्वरशुद्धियुक्तै:।
क्रमाद्गुणश्रेणिसमाश्रयेण सुसंवृतांत:करणैर्मुनींद्रै:।।1665।।
जिन महापुरुषों का प्रमाद नष्ट हुआ है और सम्वर सुख परिणाम हुआ है ऐसे मुनींद्र अपने विरुद्ध उत्कृष्ट तपश्चरण के बल से, अंत: विशुद्धि के बल से क्रम से गुण श्रेणी निर्जरा का आश्रय करके बिना पगे हुए जिनकी स्थिति आगे बहुत लंबी है उन कर्मों की भी निर्जरा कर देता है। विभाव परिणाम में ऐसा बल है कि असंख्यात वर्षों की स्थिति वाले कर्मों को बाँध दे और स्वभाव परिणति स्वभाव आश्रय के परिणाम में इतना बल हे कि असंख्याते भव में बांधे हुए कर्मों की निर्जरा कर सकता है। हम इस बात पर तो बड़ा बल देते हैं कि मोह बड़ा प्रबल है, इसके आगे किसी की नहीं चलती मोह बड़ा बलवान है, जो चीज अपनी नहीं, कर्मों के उदय का निमित्त पाकर होता है। विभावरूप है, हमारे स्वभाव से स्वरूप से मेल खाता नहीं है। उस ममता परिणाम को तो महत्त्व दे रहे हैं कि मोह बड़ा बलवानहै। और जो अपनी चीज है, अपना स्वरूप हे अपने सत्त्व के कारण अपने आपमें है ऐसे ज्ञानगुण पर बल नहीं देते, ज्ञान बड़ा बलवान होता है। सम्यग्ज्ञान का विकास होवे तो असंख्याते भवों के बांधे हुए कर्म भी क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं, धुनि है मोह की। निर्मोह होने की धुनि नहीं है। जिसे समझ रखा हे कि घर अच्छा बन जाय, धनवैभव बढ़ जाय, पुत्र स्त्री आदिक सब बड़े ऊँचे व्यवहार वाले बनें और बड़े-बड़े लोगों में मेरा नाम हो―यह जो धुनि बना रखी है इससे अधिक धुनि यह बनानी चाहिए कि मेरा उपयोग समस्त बाह्य से उठा हुआ हो, अपने आपके स्वरूप में लगा हुआ हो, अपने आपके स्वरूप का यह ज्ञान करता रहे, उसी की धुन बनी रहे, वहाँ ही मैं रमा करूँ, अकेला बसूँ इस ही निजतत्त्व का मैं हो जाऊँ, सब कुछ भूल जाऊँ, इस प्रकार अपने आपमें लगन बनाने की धुनि नहीं जगती। है यह मोह का ही माहात्म्य। लेकिन यह धुनि बन सके उसका कारण भी तो नहीं जुटाना चाहते। उसका कारण है तत्त्व का अभ्यास और सत्संगति। ये दो खास चीजें हैं, सो अपने जीवन को देख लीजिए कि शास्त्र के अभ्यास में हम कितना समय बिताते हैं और गप्पों में कितना समय लगाते हैं? बिना अभ्यास के कुछ भी काम बनता नहीं है। कुछ काम ऐसे होते हैं कि जो यों ही सिखाने से नहीं आते, प्रक्टिकल करके आते हैं।
एक लड़का अपनी माँसे कहने लगा―माँमुझे तैरना सिखा दे और इस तरह से सिखा दे जैसे कि अमुक तैर लेता है।......हा बेटा सिखा देंगे।......मगर माँमुझे पानी में तैरना न पड़े। बिना तैरे वह तैरना आ जाय।.....भला बतलावो तो सही कि वह प्रयोगात्मक काम बिना प्रयोग करके सीखे हुए कैसे आ सकता है? अभी आप लोग ही जीवन भर से देखते आ रहे हैं कि आटा इस तरह से साना जाता है, रोटियाँ इस तरह से बनाकर पकायी जाती हैं―मगर आपके सामने यदि आटा धर दिया जाय और कहा जाय कि रोटियाँ बनाओ तो आप रोटियाँबना न सकेंगे। उसका कारण क्याहै? कारण यह है कि अपने जीवन में कभी भी प्रयोग करके रोटियाँ नहीं बनाया है। रोटियाँ बनाना, तैरना आदि यों ही बातों से सीखने से नहीं आ जाते हैं। ये तो प्रयोगात्मक कार्य हैं, प्रयोग की विधि से सीखने पर आयेंगे। यह वैभव विनाशीक है, यह सदा रहने वाली चीज नहीं है, स्वप्नवत् है, मायाजाल है। अपना कुछ भी नहीं है, मानने-मानने की बात हे और तत्त्व इसमें कुछ भी नहीं। इनको त्यागकर ही तीर्थंकरों ने शांति प्राप्त की है। जिस तरह से बालक लोग रेत में मिट्टी का भिदोना बनाते हैं, उसको देखकर खुश होते हैं, कुछ भी देर बाद उस भिदोना को खुद ही मिटाकर या दूसरे बालक मिटाकर अपने घर चले जाते हैं। ऐसे ही ये सांसारिक समागम हैं। जो कुछ भी दृश्यमान पदार्थ हैं उनका संग्रह विग्रह लोग करते हैं, खुशी मानते हैं और अंत में उसे छोडकर चले जाते हैं। तो इन सांसारिक समागमों को असार समझकर तीर्थंकरों ने इनको त्यागा। यदि इन सांसारिक चीजों में ममता का परिणाम जगा तो मरण के समय में इसका फल बुरा भोगना पड़ता है। मरण के समय में वह विकल होगा। और उस विकलता के कारण उसे नीच गति में जन्म लेना होगा। तो अपने पूर्ण जीवन में अपने परिणामों की सम्हाल रखना अत्यंत आवश्यक है।