वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1668
From जैनकोष
इति विविधविकल्पं कर्म चित्रस्वरूपम्, प्रतिसमयमुदीर्ण जन्मवत्र्त्यंगभाजाम्।
स्थिरचरविषयाणां भावयंनस्ततंद्रो दहति दुरितकक्षं संयमी शांतमोह:।।1668।।
ज्ञानी की ऐसी लीला है कि क्षण-क्षण में बदल-बदलकर सामने आये तत्त्व श्रद्धान को निरखता रहता है। अभी अंत: वैभव को देख रहा था, अब जरा विचारकर जाल को भी देखने लगा। है तो चीज, जब देखते हैं नाना भेद पड़े हुए हैं इन कर्मों में, इन औपाधिक भावों में से समस्त बाह्य रचनाओं में, और दूसरे विपाक में देखो ये सब त्रस स्थावर रूप रचनाएँ पड़ी हुई हैं। ये सब दिख रहे हैं, ये सब भी निमित्तभूत उपाधि संबंध की योग्यता, यह सारी बातों का समर्थन तो कर रहा है, ऐसे ही यह कर्मों का जैसा प्रति समय उदय चल रहा है कठिन है। अपनी चाही हुई बात भी हम न प्राप्त कर सकें तो वह भी तो कठिन सी लग रही है इससे बढ़कर कठिन इस जीव लोक में है वह कठिन उदय क्षण है, उदयरूप है, उनको भी संयमी मुनि निर्णीत होकर निज अंत:स्वरूप में विहार करके इन समस्त पापजंगलों को अंतर ज्ञानबल से अथवा अंत: ध्यान अग्नि से इस समस्त अज्ञान वन को दग्ध कर देता है। कितना कर्मसमूह है, कैसा शरीरजाल है, कैसी अन्य-अन्य औपाधिकताएँ हैं, कितने पर प्रसंग है, पर उस प्रसंग से हटकर अपने-अपने नीचे आकर अपने में समाकर ज्ञानानुभव किया कि ये सारे के सारे पापवन जल जाते हैं और इस पर दृष्टि करके इसको नष्ट करने के लिए कोई यत्न की बात करे तो वह मूर्खता कर रहा है। नष्ट न होगा बल्कि और बढ़ता जाता है। नदी में तैरने वाला कछुवा जरा सिर निकालकर तैर रहा हो नौ बीसों पक्षी उसे पकड़ने के लिए उद्यत रहते हैं और वह कछुवा घबड़ाकर इधर-उधर भागता रहता है। अरे कोई उस कछुवे को समझा दे―रे कछुवे तू क्यों व्यर्थ में दु:खी हो रहा है? तेरे में तो वह कला है कि एक भी संकट तेरे ऊपर न रहेंगे। वह क्या कलाहै? अरे पानी में 4-6 अंगुल डूब जा, फिर सारे पक्षी तेरा क्या बिगाड़ कर सकेंगे? ऐसे ही ये संसार के प्राणी अपनी उपयोग चोंच को बाहर निकालकर बाह्य के अभिमुख करके चल रहे हैं तो राजा, चोर, डाकू, परिजन, मित्रजन आदिक सभी आक्रमण कर रहे हैं। ये प्राणी घबड़ा रहे हैं, अपने उपयोग को बदल रहे हैं, कोई इन्हें समझा दे, रे प्राणी ! तू क्यों अपने उपयोग को बदलने का कष्ट कर रहा है। तेरे में तो एक कला ऐसी है कि ये सब उपद्रव एक साथ शांत हो सकते हैं। वह क्या कला तेरे में है कि तू अपने आधारभूत उस ज्ञानसागर में डुबकी लगा ले, अपने स्वरूप में अपने उपयोग को लगा दे, अन्य सबसे मुख मोड़ ले तो फिर तुझे कौन सताने वाला है? वह तो अपनी अलौकिक दुनिया में पहुँच जाता है। ऐसे आत्मस्पर्श में यह सामर्थ्य है कि भव-भव के बांधे हुए कर्म पूर्ण नष्ट हो जाते हैं।
इत्थं कर्मकटुप्रपाककलिता: संसारघोरार्णवे,जीवा दुर्गतिदु:खवाडवशिखासंतानसंतापिता:।
मृत्युत्पत्तिमहोमिजालनिचितामिथ्यात्ववातेरता:,क्लिश्यंते तदिदं स्मरंतु नियतं धन्या: स्वसिद्धयार्थिन:।।1669।।
इस संसाररूपी घोर समुद्र में यह प्राणी कर्मों के कटुक विपाक से सहित है। अनादि से जगत के प्राणी कर्मबंध रागभाव इनकी परंपरा की बातें चली आ रही हैं। इन दोनों में से हम किसको आदि में रखें? कर्मबंध पहिले था या रागभाव पहिले था? किसी को भी हम आदि में नहीं रख सकते, क्योंकि जिसे आदि में रखेंगे वह अहेतुक बनेगा मायने कल्पना कीजिए कि सर्वप्रथम जीव में रागभाव था उससे कर्मबंध हुआ, फिर उदयकाल में राग हुआ, यों परंपरा चल उठी तो सर्वप्रथम जो रागभाव था वह कैसे हो गया? यह आटोमैटिक है तो वह राग जीव में आदि से है और स्वभावरूप हुआ। जो उपाधि सन्निधान बिना हो वह सब स्वभाव है, सो रागभाव को प्रथम नहीं कह सकते, कर्मबंध को भी प्रथम नहीं कह सकते। क्योंकि, कर्म का यह संबंध रागविभाव के निमित्त बिना हुआ यह युक्ति में ही नहीं आ सकता। तो यों कर्मबंध रागादिक विभाव ये अनादि परंपरा से जीव के चले आ रहे हैं। उस परंपरा को छोड देने का पुरुषार्थ निकट भव्य जीव कर लेता है। वही सबसे महान कार्य है। संसार में सभी बातें सुगम हैं, सुलभ हैं, धनिक बनना, राजा बनना, यशस्वी बनना आदि पर ऐसा बोध होना दुर्लभ है जिसके प्रताप से यह कर्मबंध की परंपरा, यह राग विभाव की परंपरा खतम हो जाय।यही महान कार्य है। इस हित कार्य को उत्पन्न करने के लिए जीव को सावधान गुप्त निष्प्रमाद होने की आवश्यकता है। लोक में बड़प्पन चाहना कि इस लोक में मैं कुछ हूँ ऐसी बात बैठालने की चाह होना यह एक बहुत बड़ा कलंक लगा हुआ है व्यर्थ का। किनमें चाह करते हो? जिनकी चाह करते हो वे सब अनित्य हैं। ये लोग मेरे को समझें, अरे ये लोग खुद अनित्य हैं। और मेरे को समझें ऐसा सोचने में जो मेरे में आया वह भी अनित्य है। और समझें जो कुछ वह समझ भी अनित्य है, यश भी अनित्य है, लेकिन यह अनित्य जीव अनित्य जीवों में अनित्य यश की अनित्य चाह कर रहा है। कितनी विडंबना की बात है। लेकिन नित्य जीव है, परमार्थ स्वरूप है, उसकी तो न स्वयं को सुध है, न दूसरों को सुध है, उसकी महिमा की बात तो मन में आ नहीं रही। तो ऐसा एक विकट बंधन बन गया है। किसी ने बाँधा नहीं, यह जीव स्वयं अपनी इच्छा से स्नेह से अपने आप बंधन में बना है। स्वतंत्र होकर परतंत्र हुआ है। तो ऐसी स्थिति में हम आपकी जितनी जिम्मेदारी हित के लिए आज है यदि उस जिम्मेदारी को न निभाया तो दुर्गति ही समझिये।
इस जीव का आदि स्थान निगोद था। जरा यह ध्यान में लायें कि हम आप कितनी निम्न दुर्गतियों से उठकर आज कितनी अच्छी स्थिति में हैं? यह बात समझने के लिए कहा जा रहा हे कि इस जीव का आदि स्थान निगोद था जब कभी भी निकलना हुआ उसके बाद। जहाँ एक श्वास में 18 बार जन्म मरण का प्रसंग हुआ करता था। एक श्वास का गणित आजकल के हिसाब से एक सेकेंड की लीजिए―एक सेकेंड में 23 बार जन्मा मरा व्यवहार में। निगोद से निकालकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पति बना। साधारण वनस्पति तो था ही। निगोद शरीर ही वनस्पति का नाम है, सो स्थावरों के दु:ख देख लीजिए―पृथ्वी खोदी जाती है।पहाड़ों में सुरंग लगाई जाती है। ये पृथ्वी के दु:ख हैं। जल के दु:ख क्या हैं? जल गरम किया जाता है, हवा को रबड़ के ट्यूब आदि में भर दिया जाता है, पंखा आदि से हवा को बिलोया जाता है और वनस्पति के दु:ख सामने देख रहे हैं, पत्तियाँ तोड़ते, साग बनाते, पकाते। तो ऐसे नाना दु:ख एकेंद्रिय में रहकर इस जीव ने भोगा। कदाचित् दो इंद्रिय जीव हुआ तो अब रसना इंद्रिय के ज्ञान का और विकास बढ़ गया। इन एकेंद्रिय जीवों के तो यह ज्ञान था ही नहीं। ये केंचुवा, जोंक आदि जीव मिट्टी में ही रहते, मिट्टी ही खाते, क्या जीवन है? मछली मारने लोग कांटे में केंचुवा फँसाकर पानी में डाल देते हैं, मछली उसे चोंटती है, वह केंचुवा भी मारा गया और वह मछली भी उसमें फँसकर अपने प्राण गवाँ देती है। तो ये एकेंद्रिय जीव भी बुरी तरह मारे जाते हैं। तीनइंद्रिय जीवों में एकेंद्रिय का और विकास हो गया। घ्राणेंद्रिय का ज्ञान भी वह करने लगा, आहार संज्ञा ही बनी रहा करती है, उन्हें भी लोग मार डालते हैं। कोई उन पर दया नहीं करते। बिच्छू आदिक जीवों को देखते ही लोग मार डालते हैं। चारइंद्रिय जीव हुआ तो एकेंद्रिय का और विकास हो गया। अब आँखों से देखने लगा। रूप रंग दिखने में आने लगें, विकास बढ़ गया मगर क्या स्थिति है? मन है नहीं, उपदेश शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते अपने कल्याण की बात बना नहीं सकते। वे सब दु:खी हैं। अब पंचेंद्रिय जीव में एकेंद्रिय का और विकास हुआ, कर्म भी हो गए, पर मन बिना ये जीव हैं सो उनकी भी हालत उन ही जीवों जैसी समझिये। वे भी कोई हित की बात नहीं ग्रहण कर सकते हैं। उन मन वाले जीवों में बहुत से तो पशु है, पक्षी है, लेकिन वे तो इतनी निम्न दशा में है कि अपने मन की बात दूरों से कह भी नहीं सकते, दूसरें के मन की बात को समझ नहीं सकते। उनमें साक्षरात्मक वाणी नहीं है। नरकों से, देवों से, उन सबसे बढ़कर यह मनुष्य का जन्म है।
जहाँ दु:ख है वहाँ दु:ख से छूटने का उपाय भी मिलता है। जहाँदु:ख नहीं आता है वहाँ दु:ख से छूटने का उपाय भी नहीं मिलता।जैसे भोगभूमिया जीव, देवगति के जीव इन्हें क्लेश नहीं आ रहे जिसे संसारी जन क्लेश कहा करते, न उन्हें आजीविका करनी पड़ती, न ठंड गरमी का दु:ख भोगना पड़ता, मनचाही चीज उन्हें कल्पवृक्ष से प्राप्त होती है। इतना सुख में है ये भोगभूमिया जीव। तो ये मरकर ज्यादा से ज्यादा दूसरे स्वर्ग में उत्पन्न हो गए, इससे ऊँची गति नहीं मिलती। देव तो मरकर फिर देव हो नहीं सकते, उन्हें तो नीचे जन्म लेना ही पड़ता है और ये कर्मभूमिया मनुष्य जिन्हें नाना दु:ख लगे हैं, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग और अपनी-अपनी कल्पनाएँ बना-बनाकर और भी नाना प्रकार के क्लेश, जहाँ लगे हुए हैं इस ही मनुष्य को तो यह अवसर हे कि रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त कर सकता है, संयम धारण कर सकता है, निर्वाण प्राप्त कर सकता है। मनुष्य के नाते बात कही जा रही है। यहाँ वहाँ का भेद नहीं बताया जा रहा है। इतना श्रेष्ठ यह मनुष्यजन्म है। जरा उपयोग बदलें। सबसे भिन्न हूँ मैं ऐसी जरा समझ लेते हैं तो कितने ही क्लेश दूर हो जाते हैं। जहाँ अपनी सुध भूले, बाह्य में उपयोग किया, संबंध से निर्णय बनाया तो दु:ख चतुर्गुणा हो गया। दु:ख सुख तो ये हमारी ज्ञान कला पर निर्भर हैं। बाह्य वस्तुवों का संयोग वियोग होना यह तो एक साधन मात्र है, आश्रय है। विकल्प किए जाने से कोई परपदार्थ चित्त में रहना चाहिए, तो यों यह आश्रय भेद है। कला तो हमारी है जिसके कारण हम सुखी अथवा दु:खी होते। तो इस संसाररूपी घोर सागर में ये प्राणी कर्मविपाक भोगते चले आ रहे हैं, दुर्गतियों के महान संताप से आकुलित हैं। पर की ओर दृष्टि है ना, सो चैन नहीं है, क्योंकि यह उपयोग अपने आधार को त्यागकर केवल एक उन्मुखता की दृष्टि से यह पर की ओर लग गया है। तो जब स्थान भ्रष्ट हो गया तब इसे चैन कहाँसे मिले? अपने आपके स्थान में फिट हो जाय तब इसे शांति मिले। तो सोच लीजिए कि शांति पाने के लिए पर से कितनी दूर अपनी वृद्धि करनी है? जितने भी क्लेश हैं वे पर को अपनाने के कारण हैं, और पर अपना कभी होता नहीं। यह जीव रीता का ही रीता बना हुआ है। कुछ भी अपना नहीं बन सकता लेकिन यह मोह के उदय में इस बात पर कमर कसकर खड़ा है कि मेरे धन का संचय हो। पर के अपनाने की कला में ये जुटे हुए है। और पर होते हैं नहीं इसके। कैसे हों इसके? प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से तन्मय है। अगर अपने स्वरूप में तन्मय न हों, परस्वरूप में भी तन्मय बन जायें तो फिर सत्ता ही नहीं रह सकती। फिर तो सर्व पदार्थों का अभाव हो जायगा। इससे यह वस्तु का नियम सत्तासिद्ध अधिकार है कि प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से ही हैं पर स्वरूप से नहीं हैं।
अब सोचिये यह जीव, यह अनाथ, यह असहाय, यह अज्ञान, यह मूढ़, स्त्री, पुत्र, माता, पिता, धन, वैभव आदि परपदार्थों को कैसा अपने उपयोग में बसाये हुए हैं कि ये ही मेरे सर्वस्व हैं, बातचीत करके देख लो सभी को, सभी को ये परपदार्थ ही हितरूप प्रतीत हो रहे हैं, ये ही मेरे सब कुछ हैं, ऐसी पर में अपनायत की बुद्धि लगाये है जिसके कारण यह अपने आपमें चैन से नहीं रह सकता। मिथ्यात्व बैरी है जीव का। मोह ही बरबाद करने वाला एक बहुत कठिन बैरी है, हम आपका सबसे अधिक विरोधी है मोह। यह मोह इन जीवों को प्रिय लग रहा है, और जो परजीव हैं जिनका पर में कर्तव्य संभव ही नहीं है उन्हें अपना बैरी मानता है, विरोधी प्रतिकूल समझता है, यह सब मोह का प्रताप है। जैसे कोई दूसरा मेरा बैरी नहीं है, इसी प्रकार कोई दूसरा मेरा मित्र नहीं है। मेरा परिणमन करने वाला नहीं है, हो ही नहीं सकता, वस्तुस्वरूप ही ऐसा है। प्रत्येक पदार्थ अपने एकत्व में ही ठहरा हुआ है, अपने स्वरूप में ही बस रहा है। जो विभाव परिणमन कर रहा हो, पुद्गल और जीव विभाव परिणमन करते हुए जीव पुद्गल को लिए हुए है, वह भी इसकी परिणति बन रही है। किसी पर की परिणति को यह जीव कर नहीं सकता और न कोई पर मेरी परिणति को कर सकता। निमित्तनैमित्तिक भाव सब व्यवस्थित है, इतने पर भी कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ की परिणति से परिणमता नहीं है। तो समझ लीजिए हम स्वरक्षित हैं, लेकिन ऐसी स्वरक्षितता हमारे उपयोग में कहाँहै। अतएव घबड़ाते हैं, बेचैन होते हैं। यों संसार के प्राणी इस संसारसागर में पड़े हुए दु:खरूपी बड़वानल के संताप से संतापित हैं। इस संसार में जन्म-मरण की बड़ी-बड़ी लहरें भरी हुई हैं। संसार क्या? जन्ममरण।
अपना ही जीवन देख लो। जब बच्चे थे तब माँ-बाप, भाई-बहिन तथा पड़ौसियों का कितना प्यार मिलता था? वे भी दिन गुजर गए, कुछ बड़े होने पर विद्या पढ़कर आनंद प्राप्त किया।पढ़ने को जो पाठ मिला उसका याद करने व परीक्षा पास करने में सुख माना। वे भी दिन गुजर गए। अपनी-अपनी सभी लोग सोच लीजिए, सभी की यही बात है। फिर जो समय आया उसमें नाना प्रकार के मौज माने, वह भी समय जाता रहा। अब जो रहा-सहा समय है वह भी क्या समय है, कितना समय है। यों समय जा रहा है। यों निकल गया सब कुछ जो कुछ किया जा सकता था, बल था, बुद्धि थी, ये सब निकल गए। अब रहे-सहे थोड़े से समय में भी विषयकषायों की ही रुचि रही तो यह समय भी शीघ्र ही व्यर्थ में गुजर जाने वालाहै। क्या कर रहा है यह जीव? जन्म-मरण और बीच का दु:ख, ये ही तीन व्यवसाय हैं इस जीव के। बाकी तो इसके विषयभूत पदार्थ हैं। घर हो गया तो क्या हुआ, राग ही तो बनाया, बेचैनी ही तो बनाया। और क्या ये आगे साथ रहेंगे? पहिले भवों का कोई भी तो आज साथी नहीं है तो क्या ये लोग साथी हो जायेंगे? सर्व प्रकार से असार हैं, किनमें विश्वास लगायें, कौन पदार्थ रमणीक हैं, किनकी शरण गहे? जिनकी शरण गहा वही से धोखे की लात लगी। मिला कुछ नहीं। फुटबाल की तरह जहाँ जाय वही से लात लगी। कौन फुटबाल से प्यार रखता है, क्या एक जगह रखने के लिए फुटबाल खरीदी जाती है? नहीं। वह तो इधर से उधर पैरों से ठुकराया ही जाता है। ऐसे ही यह जीव जहाँ गया जिनके भी निकट गया अशांति ही मिली। शांति नहीं प्राप्त हुई। अरे बाहर तो सर्वत्र अशांति ही अशांति है। अपने स्वरूप के निकट तो आयें, उपयोग की ही तो बात है। एक जानने भर की ही तो समस्या है। जरा अपने इस उपयोग से अपने आपके स्वरूप को तो जानें, अपने स्वरूप में रमने का साहस तो करें, पर के विकल्पों को तो तोड़ें, अपने आपकी मग्नता से जो आनंद होता है वह विशुद्ध आत्मीय आनंद है। सारभूत बात यही हे―बाहर में कहीं भी उपयोग को रमाया तो उसमें शांति प्राप्त नहीं होती ये संसार के जीव इस घोर समुद्र में जन्म मरण की तरंगों में जो बहे जा रहे हैं और मिथ्यात्वरूपी पवन की प्रेरणा जो मिली है जिसमें तरंग और लंबी चौडी हो गई है। ऐसा है यह संसार दु:ख का घर। जो आज अनुकूल है पाप का उदय आने पर ही त्योरी बदल देता है और अतिपरिचित भी अपरिचित होने लगते हैं।
इस जीव का सहाय अपना-अपना परिणाम है। जो लोक व्यवहार में भी एक दूसरे की मदद करता है वह मदद तभी तक तो की जा रही है जब तक वह कुछ अच्छा है, सदाचारी है। तो फिर दूसरे लोग मददगार हुए या उसका सदाचार मददगार हुआ? जीवों का अपना-अपना सदाचार अपने आपका साथी है, दूसरा कोई साथी नहीं है। ऐसे दु:ख से परिपूर्ण इस संसार घोर सागर को जो अपने ज्ञानबल से अपने भुज-बल से तैर लेते हैं वे पुरुष धन्य हैं। अपने आपके निर्णय में जैसे चला आया चलता जाय। जो कही राग अटका कि बस वह अटक गया, उसकी उन्नति समाप्त हो गई। राग आग है, यह राग आग इन संसारी जीवों को जला रही है, इसके बुझाने में समर्थ सम्यग्ज्ञानरूपी मेघ की जल वर्षा है, सर्व अग्नि शांत हो जाय।जीव में विकल्पों से जो संताप बंध गए हैं सब दूर हो जाते हैं सम्यग्ज्ञान की भावना से। हमारा धन सम्यग्ज्ञान है, हमारा शरण सम्यग्ज्ञान है, हमें शांति में ले जाने वाला सम्यग्ज्ञान है, मुझे दु:खों से बचाने वाला मेरा सम्यग्ज्ञान है दूसरा कुछ नहीं। संकट तो इतने लगे हैं कि जिन पर दृष्टि देने से ऐसी घबडाहट होती है कि फिर धीरता ही नहीं रह सकती। मैं इन संकटों के आक्रमण से कैसे बचूँ? शरीर का संबंध, नाना प्रकार के कर्मों के उदय कर्मों का बंध आक्रमण और जन्म मरण ये सब लगे हैं। अभी मनुष्य हैं, मरकर न जाने कहाँ पैदा हो जायें। कहो कीड़ामकोड़ा बन जायें। कैसे विचित्र दु:ख हैं इस जीव पर? लेकिन अपने आपके एकत्वस्वरूप की सम्हाल से ये सारे संकट, ये सारी विडंबनाएँ एकदम समाप्त हो जाते हैं। एक अपने इस उपयोग को अपनी ओर मोड़ने का ही तो काम है। बहिर्मुख न हों, स्वोन्मुख हो जायें। कितना मोड़ना है, कोई बड़ा श्रम तो नहीं करना है। यों समझिये कि एक दो सूत का भी अंतर नहीं है। अपना उपयोग बहिर्मुख हुआ था सो अंतर्मुख करने में क्या कष्ट है, क्या अंतर है? एक अपने ही प्रदेशों में रहते हुए यह उपयोग अंतर्मुख बन जाय, इसमें उसे कितना लौटना है? कुछ भी नहीं। अति निकट की बात है। यों स्व की ओर आते में जो परमविश्राम मिलता है। उस विश्राम में ही सामर्थ्य है कि भव-भव के बांधे हुए कर्म भी दूर हो जाते हैं। ऐसा कर्मों का विपाक के संबंध में चिंतन हो और नष्ट होने के चिंतन को विपाकविचय धर्मध्यान कहते हैं। सम्यग्ज्ञान करें, अपने आपमें रत हों तो हम अपना उद्धार कर सकते हैं।