वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2082
From जैनकोष
विनिर्गतमघूच्छिष्टप्रतिमे मूषिकोदरे ।
यादृग्गगन संस्थानं तदाकारं स्मरेद्विभुम् ।।2082।।
अन्य आकार होने का कारण न होने से परमात्मा की अंतिमदेहाकारता―जिस प्रकार से एक मूषिका तैयार की जाती है । उसके अंदर मोम भरा हुआ होता है और पिघला देने पर उस मूषिका का एक आकारमात्र रह जाता है । वहाँ एक आकाश का आकार मात्र रह जाता है इसी प्रकार प्रभु का जब वह शरीर उड़ गया तो वहाँ क्या रह गया? जैसा वह शरीर है बस तदाकार रह गया । दूसरी बात यह है किं आत्मा का फैलना और सिकुड़ना ये आत्मा में आत्मा के कारण' स्वभाव से नहीं हैं । किंतु उस-उस प्रकार के कर्मविपाक से यह सिकुड़ता और फैलता है । जैसा शरीर मिला उस प्रकार से यह फैल गया । अभी हाथी के शरीर में है और मरकर चींटी के शरीर में आ गया तो चींटी के शरीर बराबर आकार में फैल गया, यही उसका सिकुड़ना हुआ । और अभी चींटी के शरीर में है और मरकर हाथी के शरीर में पहुंच गया तो यह हाथी के शरीर के आकार बराबर फैल गया । यों ही जिस किसी भी जगह यह उत्पन्न हुआ उसी आकार रूप में यह फैल अथवा सिकुड़ जाता है । जब कर्मसमूह दूर हुए, शरीर विघटा तो अब क्या कारण होगा कि अन्य आकार बन जाय । फैल जाय तो उसका कारण क्या? सिकुड़ जाय तो उसका कारण क्या? जिस आकार में है उस मात्र रह गया । इसी संबंध में अब दूसरा दृष्टांत दे रहे हैं ।