वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2139
From जैनकोष
अस्याचिंत्यप्रभावस्य सामर्थ्यात्स प्रशांतधी: ।
मोहमुन्मूलयत्येव शमयत्यथवा क्षणे ।।2139।।
पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान से सकल मोहविजय―शुक्लध्यानो में प्रथम शुक्लध्यान का ऐसा अचिंत्य प्रभाव है कि उसके ध्यान की सामर्थ्य से चित्त शांत हो जाता है, और ऐसे मुनि क्षणभर में ही मोहनीय कर्मों का मूल से नाश कर देते हैं अथवा उनका उपशम कर देते हैं । जो उपशम श्रेणी में हैं वे योगीश्वर इस पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान के प्रसाद से चारित्रमोह का उपशम करते हैं और जो क्षपक श्रेणी पर हैं वे चारित्रमोह का क्षय करते हैं । कर्मों में प्रबल कर्म मोहनीय कर्म है । मोहनीय कर्म के ध्वस्त होते ही सर्व कर्म बिदा होने लगते हैं । सब कर्मों की जड़ कहो, सब कर्मों का आधार मोहनीय कर्म है । मोह राजा है और कितनी-कितनी इन्छायें रागद्वेष ये सब उसकी फौजें हैं । जहाँ मोह राजा ही जीत लिया जाता है वहाँ फिर ये रागद्वेष आदिक की फौजें काम नहीं देती ।