वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 239
From जैनकोष
अविचारितरम्याणि शासनान्यसतां जनै:।
अधमान्यपि सेव्यंते जिह्वोपस्थादिदंडितै:।।239।।
अधम पुरुषों द्वारा अविचारितम्य शासनों का सेवन―परिणामों में कलुषता को उत्पन्न करने वाली मुख्य दो इंद्रियाँ हैं, एक जिह्वा इंद्रिय और एक स्पर्शन इंद्रिय। इन दोनों इंद्रियों से दंडित होकर यह जीव अधम से भी अधम अविचारिक रमणीक शासन का सेवन करता है। अर्थात् कुछ मजहब ऐसे भी हैं जिसमें वैराग्य और ज्ञान की कुछ बात ही नहीं सिखाई वे धर्म का रूप देते हैं। इंद्रियविषयों का ही वे सेवन करते हैं। तो यह तो लोक में होता ही रहता है मिथ्यात्व के वशीभूत होकर, लेकिन जिसको कुछ भी विवेक उत्पन्न हुआ है उसे अपने विवेक का सही उपयोग तो करना चाहिए। जगत में जो कुछ भी हो रहा है वह तो एक जगत का स्वरूप है। यहाँ तो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याआचरण का ही प्रताप है उसी पर यह सारा संसार टिका हुआ है। तो बहुतायत में लोग कैसे हैं, उनकी बातें निरखकर हमें अपना निर्णय नहीं बनाना है। जैसे किसी-किसी राज्य में प्रजा की राय पर राज्याधिकारी चुने जाते हैं, ठीक है, यह लौकिक बात है लेकिन मुक्ति के प्रसंग में हम यदि बहुमत देकर अपने पग धरें तो क्या हमारे सही पग उठ सकेंगे? धर्म के लिए अपने हित की प्रवृत्ति के लिए हम लोक में यह देखें कि सब लोग जैसा करते हों वह सही है। तो सब लोग तो मोह करते हैं, राग करते हैं। पक्ष करते हैं। सरासर जिनमें राग है वह अपराधी ही है किंतु उसका समर्थन करते हैं। निरपराधों का समर्थन कौन करता है मोहवश? तो लोग जो कुछ करते हैं उसे देखकर हम यह निर्णय बनायें कि हमें क्या करना चाहिए, तो हमारा निर्णय हित का नहीं बन सकता।
स्व के अनुशासन में विवेक की आवश्यकता―यहाँ तो अपना विवेक चाहिए। उससे निर्णय करिये। दुनिया तो सब मिथ्यात्व में मोह में पगी हुई है उनके कार्यों को देखकर हम अपने कर्तव्य का क्या निर्णय बनायें? यह सारा जगत प्राय: जिह्वा इंद्रिय और स्पर्शन इंद्रिय से प्रेरित है और वह इस कारण से अधम से अधम रसों का पालन करता है। विषय कषायों से तो सारी दुनिया परेशान है। धर्म का नाम लेकर भी विषय कषायों का सेवन जहाँ बता दिया गया है वह तो एक बड़े अनर्थ की बात है। जैसे मांस खाने का तो चाव है और लोक में अपने को बड़ा जताने का भी मन में चाव है तो मांसादिक खाते रहें और लोक में धर्मात्मा भी कहाते रहें। इसका उपाय उन्होंने क्या ढूँढ़ा है, यज्ञ है, बलि है, देवी देवता के नाम पर किसी पशु का घात कर दिया, फिर उसे यह देवी का प्रसाद है, फलां देव का प्रसाद है ऐसी बातें सुनाकर उस मांस का भक्षण करते हैं और कराते हैं। तो यों विषयों का पोषण भी करते रहें और धर्मात्मा भी कहाते रहें तो ऐसी बातें होना यह सब तीव्र मिथ्यात्व का फल है ऐसे पक्षों में अज्ञानी जीव ही प्रवृत्त होते रहते हैं। एक हिंसा की ही बात नहीं, सभी प्रकार की प्रवृत्तियाँ धर्म के नाम पर सकते हैं, यह सब मिथ्यात्व का परिणाम है। जो कुछ भी अपना धर्म माना, मजहब पक्ष माना उस पक्ष का पोषण झूठ बोलकर भी करना पड़े तो वह भी धर्म है, ऐसा धर्म के नाम पर जो घोषित करते हैं यह भी धर्म के नाम पर एक अधम मत बनाया गया है। कई जगह मंदिरों में सुना, उसका नाम देवदासी रख देते हैं तो विषयों के पोषण की प्रवृत्ति जहाँ बतायी गयी हैं ऐसे अधम मतों में अज्ञानी जीव ही प्रवृत्ति करते हैं और उनकी प्रवृत्ति का कारण है यह कि वे अपनी इंद्रियों को नहीं जीत सके।