वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 824
From जैनकोष
अंतर्बाह्यभुवो: शुद्धयोगाद्योगी विशुद्धयति।
नह्येकं पत्रपालंब्य व्योम्नि पत्री विसर्पति।।
अंतरंग और बहिरंग दोनों शुद्धियों से योग में विशुद्धता- अध्यात्मयोगी संतपुरुष बाह्य और अंतरंग दोनों प्रकार की शुद्धि के योग से विशुद्ध हुई शुद्धि दो प्रकार की होती है- एक बाह्य शुद्धि और एक अंतरंग शुद्धि। दोनों शुद्धि हों तो योग विशुद्ध होता है। एक प्रकार की विशुद्धि का हठ रखकर शुद्धि नहीं हो सकती। जैसे पक्षी दोनों पंखों के आलंबन से उड़ सकता है, फुदक सकता है ऐसे ही बाह्य और आभ्यंतर दोनों प्रकार की शुद्धि किए बिना साधुपद निभ नहीं सकता। बाह्यशुद्धि क्या है? व्रत, नियम, त्याग, तपश्चरण, संयम, धारण समिति में रहना, शुद्ध व्यवहार रखना ये सब बाह्य शुद्धि हैं और अंतरंग शुद्धि क्या है? अपने आपको ज्ञानमात्र निरखना, यही है उसकी अंतरंग शुद्धि, और साथ ही विचार शुद्धि भी चलती है। जैसे सदोष स्थान में न बैठना, शौच आदिक से निवृत्त होकर हाथ पैर आदिक की शुद्धि करना यह भी रहे और अंतरंग शुद्धि का भी उपक्रम रहे तो इन दोनों शुद्धि से योग से योगविशुद्धि होती है। इसी को यों कह लीजिये- एक अंतरंगचारित्र और एक व्यवहारचारित्र। निश्चयचारित्र, व्यवहारचारित्र ये दोनों होना तो इसमें आवश्यक बताया गया है। जो योगी पुरुष हैं वे व्यवहारचारित्र की साधना करते हुए भी दृष्टि रखते हैं निश्चय चारित्र की ओर। जैसे सीढ़ियों पर हम आप जब चढ़ते हैं तो चढ़ते समय जिस सीढ़ी पर पैर रखते हैं या अब दूसरा पैर रखेंगे उसे नहीं निरखते। सभी लोग सीढ़ियों पर चढ़ते, पर जिस सीढ़ी पर पैर रखते हैं उसे ही निरखें और पैर रखें, ऐसा तो कोई नहीं करता। उसकी दृष्टि ऊपर की सीढ़ियों पर रहती है और वह सीढ़ियों पर चढ़ता रहता है। तो सीढ़ी पर चढ़े बिना ऊपर तो नहीं चढ़ सकते और ऊपर दृष्टि रखे बिना उन सीढ़ियों से भी नहीं गुजर सकते। ऐसे ही साधुसंतजन, व्रती महात्माजन व्यवहारचारित्र को पालते हैं पर व्यवहारचारित्र पर दृष्टि रखें, यह ही मुझे उपादेय है, यह ही मेरा सर्वस्व है, ढंग से बैठना उठना, पिछी कमंडल सोधकर लेना, इनसे चर्या करना, इतने पर ही जिसकी दृष्टि रहे और इतना मात्र कार्य करके अपने को संतुष्ट कर ले, मैंने व्रत खूब निभाया है, मैंने मोक्षमार्ग अच्छा निभाया है तो उसकी दृष्टि जैसे उस ही सीढ़ी पर रहे तो वह आगे नहीं बढ़ सकता। और कोई पुरुष व्यवहारचारित्र का पालन न करे। है नीची स्थिति में और केवल ऊपर निरखता ही रहे जो आत्मा का स्वरूप है, उसका ज्ञान उसकी चर्चा इसमें ही लगा रहे तो उसकी भी शुद्धि नहीं बन सकती है। जो योगी बाह्य और आभ्यंतर दोनों प्रकार की शुद्धि का योग करता है वह विशुद्ध होता है। एक प्रकार की विशुद्धि से सिद्धि नहीं होती।