वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 844
From जैनकोष
संन्यस्तसर्वसंगेभ्यो गुरुभ्योऽप्यतिशंकयते।
धनिभिर्धनरक्षार्थं रात्रावपि न सुप्यते।।
धनरक्षाभिलाषी धनिकों के गुरुजनों पर भी शंका का भाव- धनाड्य पुरुष ऐसे पुरुषों पर भी शंका करने लगते हैं जो गुरु समस्त परिग्रहों के त्यागी हैं, जिनका केवल अपने ज्ञान ध्यान से प्रयोजन है, लेकिन वे गुरु भी निकट हों किसी धन वाले के पास तो वे धनाड्य पुरुष ऐसे गुरुवों पर भी शंका कर सकते हैं। हम जा रहे हैं सामान छोड़कर जंगल दिशा, कहीं हमारी अमुक चीज साधु ले न लें, ऐसी अटपट शंकाएँ भी लोग कर डालते हैं। धनाड्य पुरुष धन की रक्षा के लिए रात्रि को सोते भी नहीं हैं, कोई मेरा धन ले न जाय ऐसी शंका उनके निरंतर बनी रही है। किसी एक सेठ को किसी चोर ने अपने घर में स्वागत से बैठाल रखा था, उस सेठ के अंगुली में एक अंगूठी थी, उस अंगूठी में एक कीमती हीरा जड़ा हुआ था। वह चोर उस अंगूठी का हीरा किसी प्रकार निकालना चाहता था। लेकिन वह सेठ भी बड़ा चतुर था। जब रात्रि को सोने चले तो उस चोर की पोटली में अपनी अंगूठी छिपाकर रख दे। रात्रि को वह सेठ खूब सोये। वह चोर सेठ के सारे कपड़े छान डाले पर कहीं वह अंगूठी न दिखे। यों कई दिन बीत गए। अंत में सेठ से कहा चोर ने कि सेठ जी अब हम तुम्हारा कुछ न करेंगे, सिर्फ एक बात बता दो कि यह क्या बात है कि तुम्हारी अंगुली में पड़ी हुई अंगूठी रात्रि में तुम्हारे पास नहीं रहती और सबेरा होते ही तुम्हारे हाथ में अंगूठी दिखती है। इसमें क्या रहस्य है? तो सेठ ने बताया कि इस अंगूठी को हम सोते समय तुम्हारी अमुक पोटली में रख देते थे। तुम अपनी पोटली में तो देखते न थे, वह रक्षित रखी रहा करती थी, हम चैन से सोते रहते थे और सबेरा होते ही झट पहिन लेते थे। तो यह धन जब तक निकट रहता है तब तक नींद नहीं आती, अनेक शंकायें बनी रहती हैं, तो इस परिग्रह के रहते हुए धर्मध्यान संभव नहीं है। अत: धर्मध्यान करने वाले को परिग्रह से पूर्ण रहित होना चाहिए।