वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 930
From जैनकोष
तत्मात्प्रशममालंब्ध क्रोधवैरी निवार्यताम्।
जिनागममहांभोधेरवगाहश्च सेव्यताम्।।930।।
प्रशम का आलंबन करके क्रोधवैरी के निवारण का अनुरोध― आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि हे आत्मन् ! शांत भाव का आलंबन कर। और, क्रोधरूपी बैरी का निवारण कर और जिन आगमरूप महासमुद्र का अवगाहन कर। सबसे प्रथम कहा कि शांतभाव का आलंबन कर। यद्यपि कहने में कुछ भी कह लें कि पहिले क्रोध को दूर करने से शांति प्राप्त होती है और ऐसा कहने के पहिले कुछ शांत परिणाम बनाये तो, क्रोध दूर होगा। यद्यपि इन दोनों बातों में कुछ भी पहिले कर सकते हैं मगर करने की चीज निवारण नहीं होता, विधिरूप होता है। क्रोध करना भी एक काम है, शांति करना भी एक काम है, क्रोध हटाना कोई काम नहीं है। क्रोध का अभाव मायने शांत परिणाम रखना। जो परिणति होती है वह तो विधिरूप होती है। हटाने रूप नहीं होती। अतएव पहिले विशेषण में यह कहा है कि शांत भाव का आलंबन करो, और क्रोध बैरी का निवारण करो और जब शांति आयगी, चित्त में क्रोध न रहेगा तब जिन आगमरूप महासमुद्र में इसका अवगाहन होगा। क्रोध निवारण करने का यही एक उपाय है। जिसके अनुभव में चित्त में यह बात समाई हो कि यह सारा संसार मायारूप है, समस्त समागम नि:सार है, इन सबसे मेरा कोई प्रयोजन सही सिद्ध नहीं होने का, ऐसा इस संसार के प्रति जिसका यथार्थ ख्याल बने वह पुरुष क्रोध को दूर कर सकता है जिसके चित्त में यह बात बैठी है कि विषय साधनों से अथवा इन कषाय के व्यवहारों से या इन लौकिकवश आदिक से हमारा हित है ऐसी प्रतीति जिनके चित्त में बैठी हो उनसे यह नहीं बन सकता कि क्रोध करना शांत कर सके। जब चाह बनी है किसी चीज की तो अन्य के प्रति द्वेष होगा। ऐसा तो होता नहीं है कि जब जिस चीज की वांछा की तब वह चीज प्राप्त ही हो जाय। ऐसा पुण्य तो चक्रवर्तियों तक के भी नहीं होता। भरत चक्रवर्ती ने यही तो चाहा था कि दिग्विजय करने के बाद बाहुबली भी हमारे हुकुम में रहें, तो उसके चाहने से वैसा हुआ क्या? बल्कि एक बहुत बड़ा विसम्वाद ही बना। बड़े-बड़े पुरुषों के भी ऐसा पुण्य नहीं होता कि जब चाहे तब तुरंत ही वह बात बन जाय। फिर क्रोध किस बात पर करना? जान लिया यह है संसार। मन चाहा यहाँ हो जाय ऐसा कुछ नियम नहीं है। और, कदाचित् हो भी जाय तो हो गया, हमने चाहा इसलिए हो गया सो बात नहीं है, क्रोध यहाँ किस बात पर करना। यह बात चित्त में समाये तो क्रोध दूर होता है। फिर अनुभव जिसके विशेष बने तो वह अनुभव विषय कषाय की निवृत्ति में बहुत साधक होती है। तो तत्त्वज्ञान का ही यह फल है कि यह क्रोध का निवारण कर सकता है और इस जैन आगमरूप महासमुद्र में अवगाहन कर सकता है। अर्थात् जो यथार्थ तत्त्व है आत्मस्वरूप है उसकी दृष्टि में अपनी वर्तना बनाये रह सकता है। तो हे आत्मन् ! शांति का आलंबन कर, क्रोध का निवारण कर और जैन आगमरूप महासमुद्र में अवगाहन कर। यही निवारण का एक उपाय है।