वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 123
From जैनकोष
अंत: क्रियाधिकरणं तप: फलं सकलदर्शिन: स्तुवते ।
तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यं ।।123।।
:अतक्रिया आधार, सो तप-फल सर्वदर्शी प्रशंसै ।
अत: सामर्थ्य प्रमाण, समाधिमरण प्रयत्न योग्य ।।
अंत: क्रिया से तपश्चरण की सफलता―जीवन में जितने भी व्रत, तप, संयम किया है और इस सदाचार के फल में विशुद्धि प्राप्त की है तो उसकी सफलता अंत में समाधिमरण से होती है । अंत: क्रिया कहते हैं समाधिमरण को । समाधिमरण में रागद्वेष दूर हों, अपने आत्मा के सहज स्वभाव की दृष्टि बने, इसका पुरुषार्थ चलता है । सो जिन्होंने इस अंत: क्रिया को किया उन्होंने ही जीवन में किए हुए व्रत, तप का फल प्राप्त किया । ऐसे सर्वज्ञ भगवान में भव्य आत्मा की प्रशंसा रहती है । इस कारण जितने भी विभव हैं समस्त विभव के अनुसार अर्थात् जो भी शक्ति विकास पाया है उस पूरी शक्ति विकास के अनुकूल समाधिमरण का प्रयत्न करना चाहिए । विभव क्या-क्या किया? समाधिमरण करने वाले श्रावक व मुनि ने प्रथम तो यह शास्त्रों का ज्ञान, तत्त्वज्ञान, नयविज्ञान, सर्व परिचय पूर्वक जिसने अपने आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट परखा है वैभव यह ही है वास्तविक । बाह्य पौद्गलिक जड़ का वैभव यह कुछ वैभव नहीं है । आत्मा के काम आत्मा की बुद्धि, आत्मतत्व का परिचय ये काम आते हैं । कितने भी संकट हों जीवन में, जहाँ यह ध्यान में आया कि बाहर में बाहरी पदार्थों का परिणमन होता रहता है । यहाँ तो इस ही के गुणों का परिणमन हो पाता है । बाहर से संकट नहीं आते । संकट तो अपनी कल्पना का नाम है । भला जगत में कौन जीव बुरा है, कौन जीव भला है?
अंत: क्रिया का भाव―सभी जीव अपनी सत्ता लिए हुए हैं, जैसे मेरे परिणमन से मेरा परिणमन बनता है ऐसे ही दूसरे जीवों के परिणमन से उनका परिणाम बनता है । वे मेरे लिए बुरे कैसे? वे अपने लिए अपना काम कर रहे हैं, मेरा कुछ कर ही नहीं सकते । वस्तु का स्वरूप ऐसा है । मैं अपने लिए अपना काम कर रहा हूँ । मैं दूसरे के लिए कुछ कर ही नहीं सकता । ऐसा स्वपरविभाग इस ज्ञानी श्रावक व मुनि के हुआ है जिसके कारण अब वह संकट नही मानता । जब बड़े-बड़े संकट सहने की वार्ता सुनते हैं कि बड़े-बड़े मुनियों ने दूसरे का उपसर्ग सहा, शेरनी ने सुकुमार के अंग चीथा और वे विचलित न हुए । बहुत से मुनि घानी में पेले गए पर वे विचलित न हुए । आग लगा दी किसी बैरी ने पर वे मुनि विचलित न हुए । ये सब बातें सुनकर अचरज होता है पर अपने आप में एक अंदाज बनाइये―जैसे प्रकट भिन्न धन वैभव आदिक में यह बुद्धि बन जाती कि इन बाह्य पदार्थों के परिणमन से यहाँ कुछ भी बिगाड़ नहीं होता तो इस दृढ़ निश्चय के कारण बाहर में कुछ होता रहे पर आप संकट नहीं मानते ऐसे ही विशेष बड़े मुनिजनों ने इस देह के प्रति अंतर्बुद्धि कर ली है, स्वरूपास्तित्त्व का ऐसा दृढ़ अभ्यास बन गया है कि उन्हें यह देह भी अत्यंत पृथक् दिखता है । हो रहा है उपद्रव देह पर, इसका ज्ञाताद्रष्टा बन रहा है, पर विचलित नहीं होता । इस जीवन में और साधना करना ही क्या है? धर्म के नाम पर तो बहुतसी बातें होती है पर जो धर्म पालन का मूल उद्देश्य है वह ध्यान में न रहे तो उन सारी क्रियावों का क्या परिणाम है? प्रत्येक धर्म के काम में यह बात दृढ़ बनाना है कि मेरे स्वरूप से अतिरिक्त जो कुछ भी परपदार्थ हैं, चेतन हो, अचेतन हों उनके परिणमन का प्रभाव उन्हीं तक ही है, मुझ में नहीं आता । इसकी आस्था बनाना है, इसको प्रायोगिक रूप देना है, यही वास्तविक धर्मसाधना है, बाकी तो जो कुछ भी किया जाता है देवदर्शन, स्वाध्याय, सामायिक, सत्संग वे सब इस ही अंतस्तत्व के अभ्यास के लिए हैं, इसे कहते है अंत: क्रिया । अपने आपके स्वरूप में प्रदेश में अपने आपकी विशुद्ध परिणति जगना यह है अंत: क्रिया ।
ज्ञानी आत्मा पर स्वरूप दर्शन के कारण बाह्यपरिणतियों का अप्रभाव―यदि कोई एक बार ऐसा ही सोच ले कि मानों मैं इस मनुष्यभव में न होता, किसी अन्य पर्याय में होता, क्या अन्य पर्यायों में थे नहीं? यदि मैं किसी अन्य पर्याय में होता, कीड़ामकोड़ा, पशुपक्षी कुछ भी होता तब मेरे लिए यहाँ का दृश्यमान समागम तो कुछ भी न था । अब मनुष्यपर्याय में आने पर यह मान लें कि ये दृश्यमान पदार्थ मेरे लिए कुछ नहीं हैं, कैसा आपने आप में दृढ़ बनना पड़ता है धर्मपालन के लिए । मैं अकिंचन हूँ, धर्मपालन की दिशा में मान, अपमान, प्रशंसा, निंदा, परिचय, नाम इनका कुछ महत्त्व नहीं है । ये कुछ भी नहीं है । चाहे लोगों की दृष्टि में मैं मूर्ख कहलाऊं, किन्हीं भी शब्दों में लोगों के द्वारा पुकारा जाऊं फिर भी वह उन लोगों का परिणमन है । उनकी योग्यता के अनुसार उनका वह परिणमन है । मैं तो अपने सहजस्वरूप को देखूँ और इस ही में प्रसन्न रहूं, यही मेरा परिणमन है और बुद्धिमानी का काम है । जो मरण के सम्मुख है, कुछ ही समय में शरीर को छोड़ देने वाला है, वह ज्ञानी पुरुष क्या बाहरी बातों में उपयोग फंसायेगा, अपने की अकिंचन अनुभव करेगा । मैं अपने आप में पूर्ण स्वच्छ हूँ । बाहरी समस्त पदार्थों में से अकिंचन हूँ । यह तो सब बड़ी विपत्ति थी जो कुटुंबीजनों में, मित्रजनों में एक स्नेह बनाया और जिस प्रेम के आगे दूसरे जीवों को तुच्छ समझा, गैर समझा, ऐसी जो उसने अपने परिणाम में कवायद की यह उसके ऊपर विपदा थी । यह सब कुछ करने योग्य न था, यह ध्यान जाता ज्ञानी पुरुष का अब इस मरणसमय में । जो ध्यान मरण समय में होता है वह ध्यान जीवन में भी सदा करना चाहिए, पर जीवन में चूँकि अन्य काम भी पड़े हुए हैं इसलिए यथाशक्ति थोड़ा-थोड़ा चलता है किंतु मरण समय में तो वह अपने को रिटायर्ड अनुभव कर रहा । सर्व कामों से मैं निवृत्त हूँ । एक शब्द दिया है वैयावृत्य का । वैयावृत्य करना साधुजनों का कार्य है, उस वैयावृत्य का अर्थ क्या है? व्यावृत पुरुष का काम । व्यावृत कहते हैं रिटायर्ड को । सर्वद्रव्यों से जो निवृत्त हो गया है उसे अब जगत के दंदफंद मायाजाल वचनालाप, इनसे क्या प्रयोजन है? मरणसमय में वह अपने को ऐसा अनुभव करता है कि अब मेरा क्या प्रयोजन रहा किसी से ।
समाधिमरण का महत्त्व―परिणामों में अत्यंत विशुद्धि बने, पवित्रता जगे उसका साधन है मरण काल । जिसको कुबुद्धि है उसको सबसे बुरा है मरणकाल । जिसको सुबुद्धि है उसके कल्याण का अवसर है मरणकाल । जन्य से मरण का महत्त्व अधिक है । जन्म के बाद मोक्ष नहीं है मरण के बाद मोक्ष है । उस मरण को नाम है निर्वाण अथवा पंडित पंडित मरण । आयु का क्षय ही तो हुआ है । मरण के बाद कल्याण है, जन्म के बाद कल्याण नहीं है अतएव मरण का महत्त्व जन्म से अधिक है । लोग शांत आनंदमय ही तो होना चाहते हैं । जिस विधि से आनंद मिले उस विधि में क्या संकोच? अपने को एकाकी केवल अपने स्वरूपमात्र निरखने में आनंद जगता है । तौ बाहरी पदार्थों में बुद्धि आने से कष्ट होता है । कर्म का उदय विचित्र है सम्हले । सम्हले मनुष्य भी कर्मविपाकवश समय-समय पर क्षुब्ध होते रहते है । बड़े-बड़े मुनिराज भी सर्व कुछ त्याग करने के बाद भी इन विकल्पों से छूट नहीं पाते, फिर भी जो भीतर आस्था है और बारबार इस आनंदमय सहज स्वरूप पर दृष्टि जाती है उसके प्रताप से संकटों को सहकर भी पार हो जाते हैं, किंतु इसके लिए चाहिए विशिष्ट ज्ञानबल, अंतःक्रिया । तो सर्वज्ञ वीतराग देव ने कहा है कि तपश्चरण आदिक का फल तो समाधिमरण में है । समता सहित उपयोग होना यह है सल्लेखना । यदि अंत में परिणाम बिगड़ा तो जीवनभर किया हुआ व्रत तप संयम आचरण ये सब फीके हो जाते है ।
सम्यक्त्व न होने पर भी तपश्चरण के प्रभाव का दिग्दर्शन―तप का फल लोक में तो सुगति में उत्पन्न होना है । मिथ्यादृष्टि भी तप करें तो तपश्चरण के प्रभाव से नवग्रैवेयक में जन्म होता है । उत्कृष्ट से उत्कृष्ट इतनी उन्नति हो सकती है मिथ्यादृष्टि की तपश्चरण के प्रभाव से, मगर होता व्यवहाररूप से जैनदर्शन अंगीकार करके और निर्ग्रंथ मुनि होकर भीतरी भाव से निष्कपट तपश्चरण करने से । इसमें भी बहुत ऊंची साधना चलती है, किंतु सिर्फ एक भीतर की कुंजी नहीं सुलझ पायी जैसे स्नान करने की बावड़ी आदिक पर एक चादर ही बिछा दो थोड़ा ऊपर तो उस ही आड़ की वजह से स्नान नहीं कर सकते ऐसे ही बहुत ज्ञान हो जाने पर भी इस चैतन्य समुद्र के ऊपर भ्रम की एक चादर पड़ी है । वह कोई मोटी पिंडरूप नहीं है, काल्पनिक उस भ्रम की चादर ओढ़े रहने से यह जीव अपने इस ज्ञानसरोवर में स्नान नहीं कर पाता, तड़फता रहता है, उस तपश्चरण का इतना ऊंचा प्रभाव है कि नवग्रैवयक तक उत्पन्न हो ले पर उसका फल क्या मिला? रहा वह 30-31 सागर तक अहमिंद्र, जिसमें अरब खरब वर्ष नहीं, कल्पना भी नहीं हो सकती, इतने असंख्याते वर्ष तक वह अहमिंद्र रह रहा मगर वे असंख्याते वर्ष भी अनंत काल के सामने बिंदु बराबर भी नहीं है । वहाँ से चलकर फिर यहीं मनुष्य होना पड़ता है, और सम्यक्त्व न होने पर तिर्यंच आदिक योनियों में भटकना पड़ता है ।
सहजात्मतत्त्व की भावना से आत्मोद्धार―यदि सम्यक्त्वसहित जीवन होता तो यहाँ भी आनंद होता और निकटकाल में सर्वसकटों से छुटकारा मिल जाता । गुणीजनों में प्रमोद हो, हर्ष हो ऐसा अपना परिणाम बनाइये, बढ़ाइये, यह है वह प्रारंभिक उपाय कि जिस उपाय के बल से हम आगे बढ़कर आत्मकल्याण करने लगेंगे, जगत की भटकना से बच लेंगे । और प्रयत्न कीजिए कि मेरे को तत्त्वज्ञान का लाभ हो । बाहरी संग प्रसंग अच्छे हों बुरे हों, मनपसंद हों, मन को अनिष्ट हों, उन सब मायाजाल में सिर रगड़ने से लाभ कुछ न मिलेगा, केवल पाप कलंक ही हाथ रहता है और एक आत्मस्वरूप का परिचय, बोध, दर्शन इनकी अभिमुखता होने से अपने आप में विशुद्धि जगती है । आनंद जगता है, शांति मिलती है और ऐसा सिलसिला बन जाता कि जितने दिन संसार में रहना है उतने समय भी यह शांत रहेगा, धार्मिक वातावरण में रहेगा और जल्दी ही निर्वाण पा लेगा । तो बाहर की बातों में क्रिया में समय व्यर्थ गया, बड़ी-बड़ी कल्पनायें कीं―मेरे लड़के अच्छे हो गए, ऐसे पढ़ लिख गए, यह काम कर रहे, अरे तुम्हारा क्या है वहां? जैसे जगत के अन्य जीव हैं, वैसे ही ये भी जीव है अत्यंत भिन्न । इस भव में ही आपकी जिम्मेदारी नहीं ले सकता कोई, तो फिर परभव की कोई क्या जिम्मेदारी लेगा? मोह बहुत कठिन विपत्ति है? मोह विपत्ति से बचना भी बहुत सुगम है, यदि मोहविनाश के उपायभूत अंतस्तत्व की धुन के लिए कमर कस लें तो, अन्यथा मोह के वश होकर संसार में रुलना ही रुलना रहेगा । साधर्मीजनों में, गुणीजनों में प्रमोद होना, प्रतीति होना यह उन्नति का सबसे प्रारंभिक उपाय है । यदि यह बात हम में न बन सके तो हम कुछ भी करने में समर्थ नहीं है । रत्नत्रय का प्रेम उसके ही संभव है जो अपने में अपने स्वरूप की आराधना करता है और उसका प्रयोग कर कुछ पाता है ।
सर्वमैत्रीभाव आत्मतत्त्वभक्ति का महत्त्व―जिस अंत: क्रिया का साधन हमें मरण समय में चाहिए वह अंत: क्रिया का अभ्यास हमारा अभी से ही जीवन में हो । अपने जीवन को इतना ही बना लें पहले कि, मेरे द्वारा किसी भी जीव को कष्ट न पहुंचे, यह बात तब संभव है जब अपने में मान कषाय न रहेगी । मानकषाय के रहने पर यह बात मुश्किल है कि मेरी प्रवृत्ति से किसी को कष्ट न पहुंचे । कषाय जगेगी, उसमें प्रवृत्ति बन जायगी । इससे आत्मरक्षा इसी में है कि मैं अपने में स्वरूप को तो देखूँ जिस स्वरूप में
कोई रूप नहीं, रस नहीं। दुनिया मुझे जाने कैसे, देखे कैसे, दुनिया के लिए मैं कुछ नहीं, मैं अपने लिए तो हूं क्योंकि मैं अपने को अनुभवता हूं, पर यह मैं दूसरे के लिए कुछ नहीं हूं। दूसरा मेरे लिए कुछ नहीं है । भले ही साधर्मी प्रेम के कारण बातें होती हैं, परस्पर सहयोग होता है, पर वस्तुस्वरूप यह बतला रहा है कि जिस वस्तु का जो परिणमन है वह उसमें ही समाप्त होता है, उससे बाहर नहीं । सल्लेखना में यह व्रती चिंतन कर रहा है कि अहो अनंत काल इन विषयकषायों में ही वृत्ति रहकर व्यतीत हुआ । अनंत जन्म पाये, अनंतानंत मरण हुए, पर एक यह रत्नत्रय धर्म प्राप्त नहीं हुआ। अपना जीवन सफल करना है, अपने आत्मा का उद्धार करना है तो आत्मा को जानें, आत्मा के सहजस्वरूप में अपना अनुभव बनावें और इस ही में मग्न होने का लक्ष्य बनायें । बाहर में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करनी पड़े तो शुद्ध हृदय से व्यवहार बने, कोई मेरा बैरी नहीं है, कोई मेरा विरोधी नहीं है, कोई मेरा अहित करने वाला नहीं है । सर्वजीव मेरे स्वरूप के समान हैं, सर्वजीवों के उस भीतरी भाव पर दृष्टि जाय तो इस नाते से सब आपके हैं, सर्व जीवों में मैत्री भाव हो, गुणी जनों में प्रमोद भाव हो । देखिये ये दो बातें अतीव आवश्यक हैं अन्यथा आत्मा की उन्नति नहीं हो सकती । तो जीवन में ये दो आधार शिलायें बना लें । भैया, किसी भी प्रसंग में चाहे खुद दु:खी हो लें, आपका दिल आपके पास है, ज्ञानबल से अपना दुःख दूर कर लेंगे, पर कोई चेष्टा ऐसी न बने कि मेरे द्वारा किसी को दुख पहुंचे तो वह बात इतनी बढ़ती है अपनी ओर से, दूसरे की ओर से हम ही खुद उल्झन में पड़ जाते है । इससे आत्मभक्ति करना प्रभु भक्ति करना, सबका भला सोचना इस प्रकार का जीवन होना चाहिए ।
अंत में सल्लेखना पाये बिना जीवनभर किये गए तपश्चरण की व्यर्थता का दृष्टांतपूर्वक समर्थन―व्रतीश्रावक मरण के अवसर पर चिंतन कर रहा है । तपश्चरण का फल अहमिंद्र होना, चक्री होना, अनेक पद्धारी होना है, पर समाधिमरण हो तो धर्म की धारा बनी रहेगी और संसार संकटों से पार होने का अवसर मिल जायगा, इसलिए स्वभाव की आराधना सहित मेरे क्षण व्यतीत हों, निशंक निर्भय रहना हो । निशंक निर्भय रहते हुए मेरा मरण हो जिससे जिसकी दृष्टि लगाकर यहां से जाऊं तो नये भव में भी उस दृष्टि का पात्र बना रहूं । ऐसा यह श्रावक सल्लेखना व्रत धारण करने वाला अपने परिणामों की विशुद्ध रखता है । यदि समाधिमरण न बने तो उसकी गति ऐसी है जैसे कि किसीने परदेश जाकर बहुत द्रव्य कमाया और सारा द्रव्य साथ लेकर चला और नगर के किनारे पहुंचते ही चोरों ने लूट लिया तो उसका द्रव्य कमाना किस काम का रहा? ऐसे ही सारे जीवनभर व्रत तप कर के परिणामों की विशुद्ध बनाया और अंत में मरण समय पर वह सारा परिणाम लुट गया, परिणाम खोटा कर लिया, विषयकषायों में उपयोग लग गया तो वह करीब व्यर्थ सा ही है । यह सब निर्णय किए हुए है यह व्रती श्रावक सो अंत समय में यह अपने को बहुत सावधान रख रहा । अब सल्लेखना करने वाला व्यक्ति प्रारंभ में क्या काम करता है यह बात बतलाते है ।