इंद्रिय प्रमाण: Difference between revisions
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< | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/10/ पृष्ठ/पंक्ति </span> <span class="SanskritText">अथ संनिकर्षे प्रमाणे सति इंद्रिये वा को दोषः । यदि संनिकर्षः प्रमाणम् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टानामग्रहणप्रसंगः । न हि ते इंद्रियैः संनिकृष्यंते । अतः सर्वज्ञत्वाभावः स्यात् । इंद्रियमपि यदि प्रमाणं स एव दोषः; अल्पविषयत्वात् चक्षुरादीनां ज्ञेयस्य चापरिमाणत्वात् । सर्वेंद्रियसंनिकर्षाभावश्च; ।96/7। संनिकर्षे इंद्रिये वा प्रमाणे सति अधिगमः फलमर्थांतरभूतं युज्यते इति तद्युक्तम् । यदि संनिकर्ष: प्रमाणं अर्थाधिगमफलं, तस्य द्विष्ठत्वात्तत्फलेनाधिगमेनापि द्विष्ठेन भवितव्यमिति अर्थादीनामप्यधिगमः प्राप्नोतीत ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> सन्निकर्ष या '''इंद्रिय को प्रमाण''' मानने में क्या दोष है । <strong>उत्तर-</strong> | ||
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<li class="HindiText"> यदि सन्निकर्षको प्रमाण माना जाता है तो सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों के ग्रहण न करने का प्रसंग प्राप्त होगा; क्योंकि इनका इंद्रियों से संबंध नहीं होता । इसलिए सर्वज्ञता का अभाव हो जाता है । </li> | |||
<li class="HindiText"> यदि इंद्रियको प्रमाण माना जाता है तो वही दोष जाता है, क्योंकि, चक्षु आदि का विषय अल्प है और ज्ञेय अपरिमित हैं ।</li> | |||
<li class="HindiText"> दूसरे सब इंद्रियों का सन्निकर्ष भी नहीं बनता, क्योंकि चक्षु और मन प्राप्यकारी नहीं है । इसलिए भी सन्निकर्ष को प्रमाण नहीं मान सकते । <strong>प्रश्न- </strong>(ज्ञान को प्रमाण मानने पर फल का अभाव है ) पर सन्निकर्ष या इंद्रिय को प्रमाण मानने पर उससे भिन्न ज्ञानरूप फल बन जाता है ?<strong> उत्तर-</strong> यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि यदि सन्निकर्ष को प्रमाण और अर्थ के ज्ञान को फल मानते हैं, तो सन्निकर्ष दो में रहने वाला होने से उसके फलरूप ज्ञान को भी दो में रहने वाला होना चाहिए इसलिए घट, पटादि पदार्थों के भी ज्ञान की प्राप्ति होती है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/10/16-22/51/5 )</span>; <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/725-733 )</span> ।<br /> | |||
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सर्वार्थसिद्धि/1/10/ पृष्ठ/पंक्ति अथ संनिकर्षे प्रमाणे सति इंद्रिये वा को दोषः । यदि संनिकर्षः प्रमाणम् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टानामग्रहणप्रसंगः । न हि ते इंद्रियैः संनिकृष्यंते । अतः सर्वज्ञत्वाभावः स्यात् । इंद्रियमपि यदि प्रमाणं स एव दोषः; अल्पविषयत्वात् चक्षुरादीनां ज्ञेयस्य चापरिमाणत्वात् । सर्वेंद्रियसंनिकर्षाभावश्च; ।96/7। संनिकर्षे इंद्रिये वा प्रमाणे सति अधिगमः फलमर्थांतरभूतं युज्यते इति तद्युक्तम् । यदि संनिकर्ष: प्रमाणं अर्थाधिगमफलं, तस्य द्विष्ठत्वात्तत्फलेनाधिगमेनापि द्विष्ठेन भवितव्यमिति अर्थादीनामप्यधिगमः प्राप्नोतीत । = प्रश्न - सन्निकर्ष या इंद्रिय को प्रमाण मानने में क्या दोष है । उत्तर-
- यदि सन्निकर्षको प्रमाण माना जाता है तो सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों के ग्रहण न करने का प्रसंग प्राप्त होगा; क्योंकि इनका इंद्रियों से संबंध नहीं होता । इसलिए सर्वज्ञता का अभाव हो जाता है ।
- यदि इंद्रियको प्रमाण माना जाता है तो वही दोष जाता है, क्योंकि, चक्षु आदि का विषय अल्प है और ज्ञेय अपरिमित हैं ।
- दूसरे सब इंद्रियों का सन्निकर्ष भी नहीं बनता, क्योंकि चक्षु और मन प्राप्यकारी नहीं है । इसलिए भी सन्निकर्ष को प्रमाण नहीं मान सकते । प्रश्न- (ज्ञान को प्रमाण मानने पर फल का अभाव है ) पर सन्निकर्ष या इंद्रिय को प्रमाण मानने पर उससे भिन्न ज्ञानरूप फल बन जाता है ? उत्तर- यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि यदि सन्निकर्ष को प्रमाण और अर्थ के ज्ञान को फल मानते हैं, तो सन्निकर्ष दो में रहने वाला होने से उसके फलरूप ज्ञान को भी दो में रहने वाला होना चाहिए इसलिए घट, पटादि पदार्थों के भी ज्ञान की प्राप्ति होती है । ( राजवार्तिक/1/10/16-22/51/5 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/725-733 ) ।
अधिक जानकारी के लिये देखें प्रमाण ।