https://www.jainkosh.org/w/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B7&feed=atom&action=historyजेनैन्द्र सिद्धांत कोष - Revision history2024-03-28T13:48:41ZRevision history for this page on the wikiMediaWiki 1.40.1https://www.jainkosh.org/w/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B7&diff=881&oldid=prevVikasnd at 16:30, 18 March 20082008-03-18T16:30:06Z<p></p>
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<tr><td colspan="2" class="diff-side-deleted"></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><p><b>(क्षु. जिनेन्द्र वर्णी)<br></ins></div></td></tr>
<tr><td colspan="2" class="diff-side-deleted"></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;">व्यापिनीं सर्वलोकेषु सर्वतत्त्वप्रकाशिनीम्।<br></ins></div></td></tr>
<tr><td colspan="2" class="diff-side-deleted"></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;">अनेकान्तनयोपेतां पक्षपातविनाशिनीम् ।। १ ।।<br></ins></div></td></tr>
<tr><td colspan="2" class="diff-side-deleted"></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;">अज्ञानतमसंहर्त्रीं मोह-शोकनिवारिणीम्।<br></ins></div></td></tr>
<tr><td colspan="2" class="diff-side-deleted"></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;">देह्यद्वैतप्रभां मह्यं विमलाभां सरस्वति! ।। २ ।।<br></ins></div></td></tr>
<tr><td colspan="2" class="diff-side-deleted"></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"></b></p></ins></div></td></tr>
<tr><td colspan="2" class="diff-side-deleted"></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><br></ins></div></td></tr>
<tr><td class="diff-marker"></td><td style="background-color: #f8f9fa; color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #eaecf0; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><p>जैनेन्द्र सिद्धांत कोश के रचयिता तथा संपादक '''श्री जिनेन्द्र वर्णी''' का जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान स्व. श्री जयभगवान् श्री जैन एडवोकेट के घर हुआ । केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया. सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं थी । अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता श्री का प्रवचन सुनने से आपका ह्रदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड गया । पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा शांत-परिणामी स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय प्रेरणा से आपने शास्त्र-स्वाध्याय प्रारंभ की और १९५८ तक सकल जैन-वाड्मय पद डाला। जो कुछ पढते थे उसके सकल आवश्यक संदर्भ रजिस्ट्रों में लिखते जातॆ थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गए। </p><br></div></td><td class="diff-marker"></td><td style="background-color: #f8f9fa; color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #eaecf0; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><p>जैनेन्द्र सिद्धांत कोश के रचयिता तथा संपादक '''श्री जिनेन्द्र वर्णी''' का जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान स्व. श्री जयभगवान् श्री जैन एडवोकेट के घर हुआ । केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया. सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं थी । अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता श्री का प्रवचन सुनने से आपका ह्रदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड गया । पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा शांत-परिणामी स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय प्रेरणा से आपने शास्त्र-स्वाध्याय प्रारंभ की और १९५८ तक सकल जैन-वाड्मय पद डाला। जो कुछ पढते थे उसके सकल आवश्यक संदर्भ रजिस्ट्रों में लिखते जातॆ थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गए। </p><br></div></td></tr>
<tr><td class="diff-marker"></td><td style="background-color: #f8f9fa; color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #eaecf0; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><p>स्वाध्याय के फलस्वरुप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा। अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपांत अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। घर छोड़कर मन्दिर के कमरे में अकेले रहने लगे। १२-१४ घण्टे प्रति दिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीने में पूरी हो गई। सन्दर्भों का संग्रह अबकी बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्ट्रों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षको में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे। सन् १९५९ में जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पा लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया। </p><br></div></td><td class="diff-marker"></td><td style="background-color: #f8f9fa; color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #eaecf0; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><p>स्वाध्याय के फलस्वरुप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा। अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपांत अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। घर छोड़कर मन्दिर के कमरे में अकेले रहने लगे। १२-१४ घण्टे प्रति दिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीने में पूरी हो गई। सन्दर्भों का संग्रह अबकी बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्ट्रों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षको में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे। सन् १९५९ में जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पा लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया। </p><br></div></td></tr>
</table>Vikasndhttps://www.jainkosh.org/w/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B7&diff=880&oldid=prevWikiSysop at 04:15, 10 March 20082008-03-10T04:15:19Z<p></p>
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<tr><td class="diff-marker"></td><td style="background-color: #f8f9fa; color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #eaecf0; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><p>जैनेन्द्र सिद्धांत कोश के रचयिता तथा संपादक '''श्री जिनेन्द्र वर्णी''' का जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान स्व. श्री जयभगवान् श्री जैन एडवोकेट के घर हुआ । केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया. सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं थी । अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता श्री का प्रवचन सुनने से आपका ह्रदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड गया । पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा शांत-परिणामी स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय प्रेरणा से आपने शास्त्र-स्वाध्याय प्रारंभ की और १९५८ तक सकल जैन-वाड्मय पद डाला। जो कुछ पढते थे उसके सकल आवश्यक संदर्भ रजिस्ट्रों में लिखते जातॆ थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गए। </p><br></div></td><td class="diff-marker"></td><td style="background-color: #f8f9fa; color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #eaecf0; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><p>जैनेन्द्र सिद्धांत कोश के रचयिता तथा संपादक '''श्री जिनेन्द्र वर्णी''' का जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान स्व. श्री जयभगवान् श्री जैन एडवोकेट के घर हुआ । केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया. सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं थी । अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता श्री का प्रवचन सुनने से आपका ह्रदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड गया । पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा शांत-परिणामी स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय प्रेरणा से आपने शास्त्र-स्वाध्याय प्रारंभ की और १९५८ तक सकल जैन-वाड्मय पद डाला। जो कुछ पढते थे उसके सकल आवश्यक संदर्भ रजिस्ट्रों में लिखते जातॆ थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गए। </p><br></div></td></tr>
<tr><td class="diff-marker" data-marker="−"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #ffe49c; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><p>स्वाध्याय के फलस्वरुप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा। अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपांत अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। घर छोड़कर मन्दिर के कमरे में अकेले रहने लगे। १२-१४ घण्टे प्रति दिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीने में पूरी हो गई। सन्दर्भों का संग्रह अबकी बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्ट्रों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षको में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे। सन् १९५९ में जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पा लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया। <<del style="font-weight: bold; text-decoration: none;">br</del>><<del style="font-weight: bold; text-decoration: none;">/p</del>></div></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><p>स्वाध्याय के फलस्वरुप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा। अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपांत अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। घर छोड़कर मन्दिर के कमरे में अकेले रहने लगे। १२-१४ घण्टे प्रति दिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीने में पूरी हो गई। सन्दर्भों का संग्रह अबकी बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्ट्रों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षको में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे। सन् १९५९ में जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पा लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया। <<ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;">/p</ins>><<ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;">br</ins>></div></td></tr>
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<tr><td class="diff-marker" data-marker="−"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #ffe49c; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>जैनेन्द्र सिद्धांत कोश के रचयिता तथा संपादक '''श्री जिनेन्द्र वर्णी''' का जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान स्व. श्री जयभगवान् श्री जैन एडवोकेट के घर हुआ । केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया. सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं थी । अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता श्री का प्रवचन सुनने से आपका ह्रदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड गया । पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा शांत-परिणामी स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय प्रेरणा से आपने शास्त्र-स्वाध्याय प्रारंभ की और १९५८ तक सकल जैन-वाड्मय पद डाला। जो कुछ पढते थे उसके सकल आवश्यक संदर्भ रजिस्ट्रों में लिखते जातॆ थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गए। <br></div></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><p></ins>जैनेन्द्र सिद्धांत कोश के रचयिता तथा संपादक '''श्री जिनेन्द्र वर्णी''' का जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान स्व. श्री जयभगवान् श्री जैन एडवोकेट के घर हुआ । केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया. सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं थी । अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता श्री का प्रवचन सुनने से आपका ह्रदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड गया । पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा शांत-परिणामी स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय प्रेरणा से आपने शास्त्र-स्वाध्याय प्रारंभ की और १९५८ तक सकल जैन-वाड्मय पद डाला। जो कुछ पढते थे उसके सकल आवश्यक संदर्भ रजिस्ट्रों में लिखते जातॆ थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गए। <ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"></p></ins><br></div></td></tr>
<tr><td class="diff-marker" data-marker="−"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #ffe49c; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>स्वाध्याय के फलस्वरुप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा। अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपांत अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। घर छोड़कर मन्दिर के कमरे में अकेले रहने लगे। १२-१४ घण्टे प्रति दिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीने में पूरी हो गई। सन्दर्भों का संग्रह अबकी बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्ट्रों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षको में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे। सन् १९५९ में जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पा लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया। <br></div></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><p></ins>स्वाध्याय के फलस्वरुप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा। अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपांत अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। घर छोड़कर मन्दिर के कमरे में अकेले रहने लगे। १२-१४ घण्टे प्रति दिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीने में पूरी हो गई। सन्दर्भों का संग्रह अबकी बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्ट्रों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षको में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे। सन् १९५९ में जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पा लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया। <br<ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;">></p</ins>></div></td></tr>
<tr><td class="diff-marker" data-marker="−"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #ffe49c; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>परचों के इस विशाल संग्रह को व्यवस्थित करने के लिए सन् १९५९ में आपने इसे एक सांगोपांग ग्रन्थके रुप में लिपिबद्ध करना प्रारंभ कर दिया, और १९६० में ’जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’ के नाम से आठ मोटे-मोटे खण्डों की रचना आपने कर डाली, जिसका चित्र शान्ति-पत प्रदर्शन के प्रथम तथा द्वितीय संस्करण मे अंकित हुआ दिखाई देता है।<br></div></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><p></ins>परचों के इस विशाल संग्रह को व्यवस्थित करने के लिए सन् १९५९ में आपने इसे एक सांगोपांग ग्रन्थके रुप में लिपिबद्ध करना प्रारंभ कर दिया, और १९६० में ’जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’ के नाम से आठ मोटे-मोटे खण्डों की रचना आपने कर डाली, जिसका चित्र शान्ति-पत प्रदर्शन के प्रथम तथा द्वितीय संस्करण मे अंकित हुआ दिखाई देता है।<br<ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;">></p</ins>></div></td></tr>
<tr><td class="diff-marker" data-marker="−"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #ffe49c; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय ने अप्रैल १९६० में ’जैनेन्द्र प्रमाण कोष’ की यह भारी लिपि, प्रकाशन की इच्छा से देहली ले जाकर, भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री लक्ष्मी चन्दजी को दिखाई। उससे प्रभावित होकर उन्होने तुरंत उसे प्रकाशन के लिए मांगा। परंतु क्योंकि यह कृति वर्णीजी ने प्रकाशन की दृष्टि से नहीं लिखी थी और इसमें बहुत सारी कमिया थी, इसलिए उन्होने इसी हालत में इसे देना स्वीकार नहीं किया,और पण्डितजी के आग्रह से बे अनेक संशोधनों तथा परिवर्धनों से युक्त करके इसका रुपांतरण करने लगे। परंतु अपनी ध्यान समाधि की शान्त साधना में विघ्न समझकर मार्च १९६२ में आपने इस काम की बीच में ही छोड़कर स्थगित कर दिया।<br></div></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><p></ins>स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय ने अप्रैल १९६० में ’जैनेन्द्र प्रमाण कोष’ की यह भारी लिपि, प्रकाशन की इच्छा से देहली ले जाकर, भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री लक्ष्मी चन्दजी को दिखाई। उससे प्रभावित होकर उन्होने तुरंत उसे प्रकाशन के लिए मांगा। परंतु क्योंकि यह कृति वर्णीजी ने प्रकाशन की दृष्टि से नहीं लिखी थी और इसमें बहुत सारी कमिया थी, इसलिए उन्होने इसी हालत में इसे देना स्वीकार नहीं किया,और पण्डितजी के आग्रह से बे अनेक संशोधनों तथा परिवर्धनों से युक्त करके इसका रुपांतरण करने लगे। परंतु अपनी ध्यान समाधि की शान्त साधना में विघ्न समझकर मार्च १९६२ में आपने इस काम की बीच में ही छोड़कर स्थगित कर दिया।<br<ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;">></p</ins>></div></td></tr>
<tr><td class="diff-marker" data-marker="−"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #ffe49c; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>पण्डितजी की प्रेरणायें बराबर चलती रही और सन् १९६४ में आपको पुनः यह काम अपने हाथ में लेना पड़ा। पहले वाले रुपान्तरण से आप अब सन्तुष्ट नहीं थे, इसलिए इसका त्याग करके दूसरी बार पुनः उसका रुपांतरण करने लगे जिसमें अनेकों नये शब्दों तथा विषयों की वृद्धि के साथ-साथ सम्पादन विधि में भी परिवर्तन किया। जैनेन्द्र प्रमाण कोष का यह द्वितीय रुपान्तरण ही आज ’जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’ के नाम से प्रसिद्ध है।<br></div></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div><ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><p></ins>पण्डितजी की प्रेरणायें बराबर चलती रही और सन् १९६४ में आपको पुनः यह काम अपने हाथ में लेना पड़ा। पहले वाले रुपान्तरण से आप अब सन्तुष्ट नहीं थे, इसलिए इसका त्याग करके दूसरी बार पुनः उसका रुपांतरण करने लगे जिसमें अनेकों नये शब्दों तथा विषयों की वृद्धि के साथ-साथ सम्पादन विधि में भी परिवर्तन किया। जैनेन्द्र प्रमाण कोष का यह द्वितीय रुपान्तरण ही आज ’जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’ के नाम से प्रसिद्ध है।<br<ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;">></p</ins>></div></td></tr>
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<tr><td class="diff-marker" data-marker="−"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #ffe49c; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>जैनेन्द्र सिद्धांत कोश के रचयिता तथा संपादक '''श्री जिनेन्द्र वर्णी''' का जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान स्व. श्री जयभगवान् श्री जैन एडवोकेट के घर हुआ । केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया. सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं थी । अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता श्री का प्रवचन सुनने से आपका ह्रदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड गया । पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा शांत-परिणामी स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय प्रेरणा से आपने शास्त्र-स्वाध्याय प्रारंभ की और १९५८ तक सकल जैन-वाड्मय पद डाला। जो कुछ पढते थे उसके सकल आवश्यक संदर्भ रजिस्ट्रों में लिखते जातॆ थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गए।</div></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>जैनेन्द्र सिद्धांत कोश के रचयिता तथा संपादक '''श्री जिनेन्द्र वर्णी''' का जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान स्व. श्री जयभगवान् श्री जैन एडवोकेट के घर हुआ । केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया. सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं थी । अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता श्री का प्रवचन सुनने से आपका ह्रदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड गया । पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा शांत-परिणामी स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय प्रेरणा से आपने शास्त्र-स्वाध्याय प्रारंभ की और १९५८ तक सकल जैन-वाड्मय पद डाला। जो कुछ पढते थे उसके सकल आवश्यक संदर्भ रजिस्ट्रों में लिखते जातॆ थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गए। <ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><br></ins></div></td></tr>
<tr><td class="diff-marker" data-marker="−"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #ffe49c; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>स्वाध्याय के फलस्वरुप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा। अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपांत अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। घर छोड़कर मन्दिर के कमरे में अकेले रहने लगे। १२-१४ घण्टे प्रति दिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीने में पूरी हो गई। सन्दर्भों का संग्रह अबकी बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्ट्रों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षको में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे। सन् १९५९ में जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पा लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया। </div></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>स्वाध्याय के फलस्वरुप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा। अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपांत अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। घर छोड़कर मन्दिर के कमरे में अकेले रहने लगे। १२-१४ घण्टे प्रति दिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीने में पूरी हो गई। सन्दर्भों का संग्रह अबकी बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्ट्रों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षको में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे। सन् १९५९ में जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पा लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया। <ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><br></ins></div></td></tr>
<tr><td class="diff-marker" data-marker="−"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #ffe49c; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>परचों के इस विशाल संग्रह को व्यवस्थित करने के लिए सन् १९५९ में आपने इसे एक सांगोपांग ग्रन्थके रुप में लिपिबद्ध करना प्रारंभ कर दिया, और १९६० में ’जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’ के नाम से आठ मोटे-मोटे खण्डों की रचना आपने कर डाली, जिसका चित्र शान्ति-पत प्रदर्शन के प्रथम तथा द्वितीय संस्करण मे अंकित हुआ दिखाई देता है।</div></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>परचों के इस विशाल संग्रह को व्यवस्थित करने के लिए सन् १९५९ में आपने इसे एक सांगोपांग ग्रन्थके रुप में लिपिबद्ध करना प्रारंभ कर दिया, और १९६० में ’जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’ के नाम से आठ मोटे-मोटे खण्डों की रचना आपने कर डाली, जिसका चित्र शान्ति-पत प्रदर्शन के प्रथम तथा द्वितीय संस्करण मे अंकित हुआ दिखाई देता है।<ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><br></ins></div></td></tr>
<tr><td class="diff-marker" data-marker="−"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #ffe49c; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय ने अप्रैल १९६० में ’जैनेन्द्र प्रमाण कोष’ की यह भारी लिपि, प्रकाशन की इच्छा से देहली ले जाकर, भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री लक्ष्मी चन्दजी को दिखाई। उससे प्रभावित होकर उन्होने तुरंत उसे प्रकाशन के लिए मांगा। परंतु क्योंकि यह कृति वर्णीजी ने प्रकाशन की दृष्टि से नहीं लिखी थी और इसमें बहुत सारी कमिया थी, इसलिए उन्होने इसी हालत में इसे देना स्वीकार नहीं किया,और पण्डितजी के आग्रह से बे अनेक संशोधनों तथा परिवर्धनों से युक्त करके इसका रुपांतरण करने लगे। परंतु अपनी ध्यान समाधि की शान्त साधना में विघ्न समझकर मार्च १९६२ में आपने इस काम की बीच में ही छोड़कर स्थगित कर दिया।</div></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय ने अप्रैल १९६० में ’जैनेन्द्र प्रमाण कोष’ की यह भारी लिपि, प्रकाशन की इच्छा से देहली ले जाकर, भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री लक्ष्मी चन्दजी को दिखाई। उससे प्रभावित होकर उन्होने तुरंत उसे प्रकाशन के लिए मांगा। परंतु क्योंकि यह कृति वर्णीजी ने प्रकाशन की दृष्टि से नहीं लिखी थी और इसमें बहुत सारी कमिया थी, इसलिए उन्होने इसी हालत में इसे देना स्वीकार नहीं किया,और पण्डितजी के आग्रह से बे अनेक संशोधनों तथा परिवर्धनों से युक्त करके इसका रुपांतरण करने लगे। परंतु अपनी ध्यान समाधि की शान्त साधना में विघ्न समझकर मार्च १९६२ में आपने इस काम की बीच में ही छोड़कर स्थगित कर दिया।<ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><br></ins></div></td></tr>
<tr><td class="diff-marker" data-marker="−"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #ffe49c; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>पण्डितजी की प्रेरणायें बराबर चलती रही और सन् १९६४ में आपको पुनः यह काम अपने हाथ में लेना पड़ा। पहले वाले रुपान्तरण से आप अब सन्तुष्ट नहीं थे, इसलिए इसका त्याग करके दूसरी बार पुनः उसका रुपांतरण करने लगे जिसमें अनेकों नये शब्दों तथा विषयों की वृद्धि के साथ-साथ सम्पादन विधि में भी परिवर्तन किया। जैनेन्द्र प्रमाण कोष का यह द्वितीय रुपान्तरण ही आज ’जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’ के नाम से प्रसिद्ध है।</div></td><td class="diff-marker" data-marker="+"></td><td style="color: #202122; font-size: 88%; border-style: solid; border-width: 1px 1px 1px 4px; border-radius: 0.33em; border-color: #a3d3ff; vertical-align: top; white-space: pre-wrap;"><div>पण्डितजी की प्रेरणायें बराबर चलती रही और सन् १९६४ में आपको पुनः यह काम अपने हाथ में लेना पड़ा। पहले वाले रुपान्तरण से आप अब सन्तुष्ट नहीं थे, इसलिए इसका त्याग करके दूसरी बार पुनः उसका रुपांतरण करने लगे जिसमें अनेकों नये शब्दों तथा विषयों की वृद्धि के साथ-साथ सम्पादन विधि में भी परिवर्तन किया। जैनेन्द्र प्रमाण कोष का यह द्वितीय रुपान्तरण ही आज ’जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’ के नाम से प्रसिद्ध है।<ins style="font-weight: bold; text-decoration: none;"><br></ins></div></td></tr>
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<p><b>New page</b></p><div>जैनेन्द्र सिद्धांत कोश के रचयिता तथा संपादक '''श्री जिनेन्द्र वर्णी''' का जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान स्व. श्री जयभगवान् श्री जैन एडवोकेट के घर हुआ । केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया. सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं थी । अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता श्री का प्रवचन सुनने से आपका ह्रदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड गया । पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा शांत-परिणामी स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय प्रेरणा से आपने शास्त्र-स्वाध्याय प्रारंभ की और १९५८ तक सकल जैन-वाड्मय पद डाला। जो कुछ पढते थे उसके सकल आवश्यक संदर्भ रजिस्ट्रों में लिखते जातॆ थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गए।<br />
स्वाध्याय के फलस्वरुप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा। अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपांत अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। घर छोड़कर मन्दिर के कमरे में अकेले रहने लगे। १२-१४ घण्टे प्रति दिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीने में पूरी हो गई। सन्दर्भों का संग्रह अबकी बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्ट्रों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षको में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे। सन् १९५९ में जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पा लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया। <br />
परचों के इस विशाल संग्रह को व्यवस्थित करने के लिए सन् १९५९ में आपने इसे एक सांगोपांग ग्रन्थके रुप में लिपिबद्ध करना प्रारंभ कर दिया, और १९६० में ’जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’ के नाम से आठ मोटे-मोटे खण्डों की रचना आपने कर डाली, जिसका चित्र शान्ति-पत प्रदर्शन के प्रथम तथा द्वितीय संस्करण मे अंकित हुआ दिखाई देता है।<br />
स्व. प. रुपचन्दजी गार्गीय ने अप्रैल १९६० में ’जैनेन्द्र प्रमाण कोष’ की यह भारी लिपि, प्रकाशन की इच्छा से देहली ले जाकर, भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री लक्ष्मी चन्दजी को दिखाई। उससे प्रभावित होकर उन्होने तुरंत उसे प्रकाशन के लिए मांगा। परंतु क्योंकि यह कृति वर्णीजी ने प्रकाशन की दृष्टि से नहीं लिखी थी और इसमें बहुत सारी कमिया थी, इसलिए उन्होने इसी हालत में इसे देना स्वीकार नहीं किया,और पण्डितजी के आग्रह से बे अनेक संशोधनों तथा परिवर्धनों से युक्त करके इसका रुपांतरण करने लगे। परंतु अपनी ध्यान समाधि की शान्त साधना में विघ्न समझकर मार्च १९६२ में आपने इस काम की बीच में ही छोड़कर स्थगित कर दिया।<br />
पण्डितजी की प्रेरणायें बराबर चलती रही और सन् १९६४ में आपको पुनः यह काम अपने हाथ में लेना पड़ा। पहले वाले रुपान्तरण से आप अब सन्तुष्ट नहीं थे, इसलिए इसका त्याग करके दूसरी बार पुनः उसका रुपांतरण करने लगे जिसमें अनेकों नये शब्दों तथा विषयों की वृद्धि के साथ-साथ सम्पादन विधि में भी परिवर्तन किया। जैनेन्द्र प्रमाण कोष का यह द्वितीय रुपान्तरण ही आज ’जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’ के नाम से प्रसिद्ध है।</div>WikiSysop