भद्रबाहु
From जैनकोष
- मूल श्रुतावार के अनुसार (देखें - इतिहास ) ये पाँचवें श्रुतकेवली थे। १२ वर्ष के दुर्भिक्ष के कारण इनको उज्जैनी छोड़कर दक्षिण की ओर प्रस्थान करना पड़ा था। सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य भी उस समय उनसे दीक्षा लेकर उनके साथ ही दक्षिण देश को चले गये थे। श्रवणबेलगोल में चन्द्रगिरि पर्वत पर दोनों की समाधि हुई है। १२००० साधुओं के संघ का बहुभाग यद्यपि इनके साथ दक्षिण की ओर चला गया था। तदपि कुछ भाग ऐसा भी था जो प्रमादवश नहीं गया अथवा बीच में ही अटक गया। परिस्थितिवश शैथिल्य को अपना लेने के कारण वह धीरे-धीरे आगे जाकर वि. १३६ में श्वेताम्बर संघ के रूप में परिणत हो गया (विशेष देखें - श्वेताम्बर / २ ) इस प्रकार श्वेताम्बर तथा दिगम्बर संघ भेद की नींव भी इन्हीं के काल में पड़ी थी। मूलसंघ की पट्टावली में इनका काल वी.नि. १३३-१६२ (ई.पू. ३९४-३६५) दिया गया है, परन्तु दूसरी ओर चन्द्रगुप्त मौर्य का काल विद्वान् लोग ई पू. ३२६-३०२ (वी.नि. २०१-२२५) निर्धारित करते हैं। इन दोनों के मध्य लगभग ६० वर्ष का अन्तर है जिसे पाटने के लिये पं. कैलाशचन्द्र जी ने सुयुक्तियुक्त ढंग से इनके काल को ६० वर्ष नीचे उतार लिया है। तदनुसार इनका काल वी.नि. १८०-२२२ (ई.पू. ३४७-३०५) प्राप्त होता है। (विशेष देखें - कोश परिशिष्ट २ / १ / ३ )।
- दूसरे भद्रबाहु वे हैं जिन्हें मूलसंघ की पट्टावली में अष्टांगधर अथवा आचारांगधर कहा गया। नन्दीसंघ की पट्टावली में चरम निमित्तधर कहकर परम्परा गुरु के रूप में इन्हें नमस्कार किया गया है। इनकी शिष्य परम्परा में क्रमश: लोहचार्य, अर्हद्वली, माघनन्दि तथा जिनचन्द्र ये चार आचार्य प्राप्त होते हैं। यहाँ इन जिनचन्द्र को कुन्दकुन्द का गुरु बताया गया है। दूसरी ओर आ० देवसेन ने अपने भावसंग्रह में इनका नाम भद्रबाहु गणी बताकर द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष तथा दिगम्बर श्वेताम्बर संघ भेद के साथ इनका सम्बन्ध स्थापित किया है। तदनुसार इनके शिष्य शान्त्याचार्य और उनके शिष्य जिनचन्द्र थे। जो अपने गुरु को मारकर संघ के नायक बन गए थे। इन्होंने ही शैथिल्य-पोषण के अर्थ उसे श्वेताम्बर संघ के रूप में परिणत किया था। यद्यपि दोनों ही स्थानों में जिनचन्द्र को भद्रबाहु की शिष्य-परम्परा में बताया गया है और दोनों के कालों में भी केवल ३९ वर्ष का अन्तर है, परन्तु दोनों के जीवनवृत्तों इतना बड़ा अन्तर है कि इन्हें एक व्यक्ति मानने को जी नहीं चाहता। तथापि यदि जिस-किस प्रकार इन्हें एक व्यक्ति घटित कर दिया जाय तो दोनों के प्रगुरु अथवा परम्परा गुरु भद्रबाहु भी एक व्यक्ति सिद्ध हो जाते हैं। इतना होने पर भी इनकी एकता या द्वितता के विषय में सन्देह बना ही रहता है। मूलसंघ की पट्टावली तथा नन्दिसंघ की पट्टावली दोनों के अनुसार इनका काल वी.नि. ४९२-५१५ (वि. २२-४५) माना गया है। (विशेष देखें - कोष / १/परिशिष्ट २/४)।
- श्वेताम्बर संघाधिपति जिनचन्द्र (वि. १३६) के प्रगुरु भद्रबाहु गणी को यदि स्वतन्त्र व्यक्ति माना जाय तो उन्हें वि.श. १ के चरम पाद पर स्थापित किया जा सकता है।