योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 276
From जैनकोष
अप्रमादी पापों से छूटते हैं -
सर्वत्र प्राप्यते पापै: प्रमाद निलयीकृत: ।
प्रमाददोषनिर्मुक्त: सर्वत्रापि हि मुच्यते ।।२७६।।
अन्वय :- प्रमाद-निलयीकृत: सर्वत्र पापै: प्राप्यते । हि प्रमाद-दोष-निर्मुक्त: सर्वत्र अपि (पापै:) मुच्यते ।
सरलार्थ :- जिन्होंने प्रमाद का आश्रय लिया है अर्थात् जो सदा प्रमाद से घिरे/प्रमादी बने रहते हैं; वे सर्वत्र पापकर्मो से गृहीत होते हैं अथवा पापों से बंधते रहते हैं । जो प्रमाद के दोष से रहित अप्रमादी हो जाते हैं, वे सदा एवं सर्वत्र पापों से मुक्त होते रहते हैं ।