शंभव: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p id="1"> (1) भरतेश एवं सौधर्मेन्द्र द्वारा | <p id="1"> (1) भरतेश एवं सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 24.36, 25. 74, 100 </span></p> | ||
<p id="2">(2) कृष्ण और उनकी पटरानी जाम्बवती का पुत्र । महापुराण 72. 174 देखें [[ शंब ]]</p> | <p id="2">(2) कृष्ण और उनकी पटरानी जाम्बवती का पुत्र । <span class="GRef"> महापुराण 72. 174 </span>देखें [[ शंब ]]</p> | ||
<p id="3">(3) अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में तीसरे तीर्थंकर । जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र को श्रावस्ती नगरी के राजा दृढ़राज इनके पिता और रानी सुषेणा माँ थी । ये सोलह | <p id="3">(3) अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में तीसरे तीर्थंकर । जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र को श्रावस्ती नगरी के राजा दृढ़राज इनके पिता और रानी सुषेणा माँ थी । ये सोलह स्वप्नपूर्वक फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन प्रात: वेला और मृगशिर नक्षत्र में गर्भ में आये थे । कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पौर्णमासी के दिन मृगशिर नक्षत्र और सौम्ययोग में इन्होंने जन्म लिया था । जन्मोत्सव के समय इन्द्र ने इनका नाम शम्भव रखा था । ये दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ के बाद तीस लाख करोड़ सागर समय व्यतीत हो जाने पर उत्पन्न हुए थे । इनकी आयु साठ लाख पूर्व काल की थी । शरीर चार सौ धनुष ऊँचा था । आयु का चौथाई काल बीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था । चवालीस लाख पूर्व और चार पूर्वाङ्ग काल तक राज्यशासन करने के उपरान्त एक दिन ये मेघों का विलय देखकर संसार से विरक्त हुए और इन्होंने पुत्र को अपना राज्य सौंप दिया । इसके पश्चात् सिद्धार्थ नाम की पालकी में बैठकर ये सहेतुक वन गये । वहाँ इन्होंने एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया । दीक्षा लेते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान हो गया । श्रावस्ती के राजा सुरेन्द्रदत्त ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । ये चौदह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में मौन रहे । शाल्मलि वृक्ष के नीचे कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन मृगशिर नक्षत्र में शाम के समय इन्हें केवलज्ञान हुआ । इसी दिन इन्होंने अनन्त चतुष्टयों को प्राप्त किया । इनके साथ चारुषेण आदि एक सौ पाँच गणधर, दो हजार एक नौ पचास मन:पर्ययज्ञानी और बारह हजार वादी मुनि थे । संघ में धर्मा आर्यिका सहित तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक और श्राविकाएँ भी थी । ये चौंतीस अतिशय और अष्ट प्रातिहार्यों के स्वामी थे । अन्त में एक माह की आयु शेष रह जाने पर विहार करते हुए थे सम्मेदाचल आये । यहाँ इन्होंने एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण किया । चैत्र शुक्ल षष्ठी के दिन सूर्यास्त बेला में ये मुक्त हुए । दूसरे पूर्वभव में ये राजा विमलवाहन और प्रथम पूर्वभव में अहमिन्द्र थे । <span class="GRef"> महापुराण 49.2-56, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 1. 4, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1. 5, 60. 138, 156-184, 341-346, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 1. 13, 18.105 </span></p> | ||
Revision as of 21:48, 5 July 2020
(1) भरतेश एवं सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.36, 25. 74, 100
(2) कृष्ण और उनकी पटरानी जाम्बवती का पुत्र । महापुराण 72. 174 देखें शंब
(3) अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में तीसरे तीर्थंकर । जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र को श्रावस्ती नगरी के राजा दृढ़राज इनके पिता और रानी सुषेणा माँ थी । ये सोलह स्वप्नपूर्वक फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन प्रात: वेला और मृगशिर नक्षत्र में गर्भ में आये थे । कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पौर्णमासी के दिन मृगशिर नक्षत्र और सौम्ययोग में इन्होंने जन्म लिया था । जन्मोत्सव के समय इन्द्र ने इनका नाम शम्भव रखा था । ये दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ के बाद तीस लाख करोड़ सागर समय व्यतीत हो जाने पर उत्पन्न हुए थे । इनकी आयु साठ लाख पूर्व काल की थी । शरीर चार सौ धनुष ऊँचा था । आयु का चौथाई काल बीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था । चवालीस लाख पूर्व और चार पूर्वाङ्ग काल तक राज्यशासन करने के उपरान्त एक दिन ये मेघों का विलय देखकर संसार से विरक्त हुए और इन्होंने पुत्र को अपना राज्य सौंप दिया । इसके पश्चात् सिद्धार्थ नाम की पालकी में बैठकर ये सहेतुक वन गये । वहाँ इन्होंने एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया । दीक्षा लेते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान हो गया । श्रावस्ती के राजा सुरेन्द्रदत्त ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । ये चौदह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में मौन रहे । शाल्मलि वृक्ष के नीचे कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन मृगशिर नक्षत्र में शाम के समय इन्हें केवलज्ञान हुआ । इसी दिन इन्होंने अनन्त चतुष्टयों को प्राप्त किया । इनके साथ चारुषेण आदि एक सौ पाँच गणधर, दो हजार एक नौ पचास मन:पर्ययज्ञानी और बारह हजार वादी मुनि थे । संघ में धर्मा आर्यिका सहित तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक और श्राविकाएँ भी थी । ये चौंतीस अतिशय और अष्ट प्रातिहार्यों के स्वामी थे । अन्त में एक माह की आयु शेष रह जाने पर विहार करते हुए थे सम्मेदाचल आये । यहाँ इन्होंने एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण किया । चैत्र शुक्ल षष्ठी के दिन सूर्यास्त बेला में ये मुक्त हुए । दूसरे पूर्वभव में ये राजा विमलवाहन और प्रथम पूर्वभव में अहमिन्द्र थे । महापुराण 49.2-56, पद्मपुराण 1. 4, हरिवंशपुराण 1. 5, 60. 138, 156-184, 341-346, वीरवर्द्धमान चरित्र 1. 13, 18.105