श्रेणी
From जैनकोष
Series (ज.प./प्र.108)।
श्रेणी नाम पंक्ति का है। इस शब्द का प्रयोग अनेक प्रकरणों में आता है। जैसे आकाश प्रदेशों की श्रेणी, राजसेना की 18 श्रेणियाँ, स्वर्ग व नरक के श्रेणीबद्ध विमान व बिल, शुक्लध्यान गत साधु की उपशम व क्षपक श्रेणी, अनन्तरोपनिधा व परम्परोपनिधा श्रेणी प्ररूपणा आदि। उपशम श्रेणी से साधु नीचे गिर जाता है, पर क्षपक श्रेणी से नहीं। वहाँ उसे नियम से मुक्ति होती है।
- श्रेणी सामान्य निर्देश
- श्रेणी प्ररूपणा के भेद व भेदों के लक्षण।
- राजसेना की 18 श्रेणियों का निर्देश।
- आकाश प्रदेशों की श्रेणी निर्देश।
- श्रेणिबद्ध विमान व बिल।
- उपशम व क्षपक श्रेणी का लक्षण।
- उपशम व क्षपक श्रेणी में गुणस्थान निर्देश।
- अपूर्वकरण आदि गुणस्थान।–देखें वह वह नाम ।
- सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।–देखें मार्गणा ।
- श्रेणी आरोहण के समय आचार्यादि पद छूट जाते हैं।–देखें साधु - 6।
- श्रेणी मांडने में संहनन सम्बन्धी।–देखें संहनन ।
- उपशम व क्षपक श्रेणी के स्वामित्व सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- क्षपक श्रेणी निर्देश
- चारित्रमोह का क्षपण विधान।–देखें क्षय ।
- अबद्धायुष्क को ही क्षपक श्रेणी की सम्भावना।
- क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही मांड सकता है।
- क्षपकों की संख्या उपशमकों से दुगुनी है।
- क्षपक श्रेणी में मरण सम्भव नहीं।–देखें मरण - 3।
- क्षपक श्रेणी से तद्भव मुक्ति का नियम।–देखें अपूर्वकरण - 4।
- क्षपक श्रेणी में आयुकर्म की प्रदेश निर्जरा ही होती है।–देखें निर्जरा - 3.2।
- उपशम श्रेणी निर्देश
- चारित्र मोह का उपशमन विधान।–देखें उपशम ।
- यदि मरण न हो तो 11वाँ गुणस्थान अवश्य प्राप्त होता है।–देखें अपूर्वकरण - 4।
- उपशम व क्षायिक दोनों सम्यक्त्व में सम्भव है।
- उपशम श्रेणी से नीचे गिरने का नियम।
- उपशान्त कषाय से गिरने का कारण व विधान।
- उपशम श्रेणी में मरण सम्भव है, मरकर देव ही होता है।–देखें मरण - 3।
- द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से सासादन गुणस्थान की प्राप्ति सम्बन्धी दो मत।–देखें सासादन - 2।
- अधिक से अधिक उपशम श्रेणी मांड़ने की सीमा।–देखें संयम - 2।
- गिर जाने पर भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त द्वितीयोपशम सम्यक्त्व रहता है।–देखें मरण - 3।
श्रेणी सामान्य निर्देश
1. श्रेणी प्ररूपणा के भेद व भेदों के लक्षण
ष.खं./11/4,2,6/सू. 252 व टी./352 तेसिं दुविधा सेडिपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा।252। जत्थ णिरंतरं थोवबहुत्तपरिक्खा कीरदे सा अणंतरोवणिधा। जत्थ दुगुण-चदुगुणादि परिक्खा कीरदि सा परंपरोवणिधा।=श्रेणीप्ररूपणा दो प्रकार की है - अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा।252। (ध.10/4,2,4,28/63/1) जहाँ पर निरन्तर अल्पबहुत्व की परीक्षा की जाती है वह अनन्तरोपनिधा कही जाती है। जहाँ पर दुगुणत्व और चतुर्गुणत्व आदि की परीक्षा की जाती है वह परम्परोपनिधा कहलाती है।
2. राजसेना की 18 श्रेणियों का निर्देश
ति.प./2/43-44 करितुरयरहाहिवई सेणवईपदत्तिसेट्ठिदंडवई। सुद्दक्खत्तियवइसा हवंति तह महयरा पवरा।43। गणरायमंतितलवरपुराहियामत्तयामहामत्ता। बहुविह पइण्णया य अट्ठारस होंति सेणीओ।44। =हस्ती, तुरग (घो;ड़ा), और रथ, इनके अधिपति, सेनापति, पदाति (पादचारीसेना), श्रेष्ठि (सेठ), दण्डपति, शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य, महत्तर, प्रवर अर्थात् ब्राह्मण, गणराज, मन्त्री, तलवर (कोतवाल), पुरोहित, अमात्य और महामात्य, वह बहुत प्रकार के प्रकीर्णक ऐसी अठारह प्रकार की श्रेणियाँ हैं।43-44। (ध.1/1,1,1/गा.39/57)।
ध.1/1,1,1/गा.37-38/57 - हय-हत्थि-रहाणहिवा सेणावइ-मंति-सेट्ठि-दंडवई। सुद्द-क्खत्तिय बम्हण-वइसा तह महयरा चेव।37। गणरायमच्च-तलवर-पुरोहिया दप्पिया महामत्ता। अट्ठारह सेणीओ पयाइणामीलिया होंति।38। = घोड़ा, हाथी, रथ, इनके अधिपति, सेनापति, मन्त्री, श्रेष्ठी, दण्डपति, शूद्र, क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, महत्तर, गणराज, अमात्य, तलवर, पुराहित, स्वाभिमानी, महामात्य और पैदल सेना, इस तरह सब मिलाकर अठारह श्रेणियाँ होती है।37-38।
3. आकाश प्रदेशों का श्रेणी-निर्देश
स.सि./2/26/183/7 लोकमध्यादारम्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च आकाशप्रदेशानां क्रमसंनिविष्टानां षङ्क्ति: श्रेणी इत्युच्यते। =लोकमध्य से लेकर ऊपर नीचे और तिरछे क्रम से स्थित आकाश प्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। (रा.वा./2/26/1/137/16); (ध.1/1,1,60/300/4)।
ध.9/4,1,45/223/3 पटसूत्रवच्चर्मावयववद्वानुपूर्व्विणोर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यवस्थिता: आकाशप्रदेशपङ्क्तय: श्रेणय:। =वस्त्र तन्तु के समान अथवा चर्म के अवयव के समान अनुक्रम से ऊपर नीचे और तिरछे रूप से व्यवस्थित आकाश प्रदेशों की पंक्तियाँ श्रेणियाँ कहलाती हैं।
4. श्रेणिबद्ध विमान व बिल
द्र.सं./टी./116/1 विदिक्चतुष्टये प्रतिदिशं पङ्क्तिरूपेण यानि...विलानि (विमानानि वा)...तेषामत्र श्रेणीबद्धसंज्ञा। =चारों विदिशाओं में से प्रत्येक विदिशा में पंक्ति रूप जो...बिल (अथवा विमान) हैं...उनकी श्रेणीबद्ध संज्ञा है।
त्रि.सा./पं.टोडरमल/476 पटल-पटल प्रति तिस इन्द्रक विमान की पूर्वादिक च्यारि दिशानिविषै जे पंक्तिबंध विमान (अथवा बिल) पाईए तिनका नाम श्रेणीबद्ध विमान है। विशेष देखें नरक - 5.3; स्वर्ग/5/3,5।
5. उपशम व क्षपक श्रेणी का लक्षण
रा.वा./9/1/18/590/1 यत्र मोहनीयं कर्मोपशमयन्नात्मा आरोहति सोपशमकश्रेणी। यत्र तत्क्षयमुपगमयन्नुद्गच्छति सा क्षपकश्रेणी। =जहाँ मोहनीयकर्म का उपशम करता हुआ आत्मा आगे बढ़ता है वह उपशम श्रेणी है, और जहाँ क्षय करता हुआ आगे जाता है वह क्षपक श्रेणी है।
6. उपशम व क्षपक श्रेणी में गुणस्थान निर्देश
रा.वा./9/1/18/590/7 इत ऊर्ध्वं गुणस्थानानां चतुर्णां द्वे श्रेण्यौ भवत: - उपशमकश्रेणी क्षपकश्रेणी चेति। = इसके (अप्रमत्त संयत से) आगे के चार गुणस्थानों की दो श्रेणियाँ हो जाती हैं - उपशम श्रेणी, और क्षपक श्रेणी। (गो.क./जी.प्र./336/487/8)।
क्षपक श्रेणी निर्देश
1. अबद्धायुष्क को ही क्षपक श्रेणी की सम्भावना
ध.12/4,2,13,92/412/8 बद्धाउआणं खवगसेडिमारुहणाभावादो। =बद्धायुष्क जीवों के क्षपक श्रेणि पर आरोहण सम्भव नहीं है।
गो.क./जी.प्र./487/8 चतुर्गुणस्थानेष्वेकत्र क्षपितत्वान्नरकतिर्यग्देवायुषां चाबद्धायुष्कत्वेनासत्त्वात् ।=जिसने असंयतादिक गुणस्थान में से किसी एक में (प्रकृतियों का) क्षय किया है, और देव, तिर्यंच और नरकायु का जिसके सत्त्व न हो, और जिसके आयुबन्ध नहीं हुआ हो वही क्षपक श्रेणि को माँडता है।
2. क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही माँड सकता है
ध.1/1,1,16/182/6 सम्यक्त्वापेक्षया तु क्षपकस्य क्षायिको वा भाव: दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपकश्रेण्यारोहणानुपपत्ते:। =सम्यक्दर्शन की अपेक्षा तो क्षपक के क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीय का क्षय नहीं किया है वह क्षपक श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता है। (ध.1/1,1,18/188/2)।
3. क्षपकों की संख्या उपशमकों से दुगुनी है
ध.5/1,8,246/323/1 णाणवेदादिसव्ववियप्पेसु उवसमसेडिं चडंतजीवेहिंतो खवगसेडिं चढंतजीवा दुगुणा त्ति आइरिओवदेसादो। =ज्ञानवेदादि सर्व विकल्पों में उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले जीवों से क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाले जीव दुगुने होते हैं, इस प्रकार आचार्यों का उपदेश पाया जाता है।
उपशम श्रेणी निर्देश
1. उपशम व क्षायिक दोनों सम्यक्त्व में सम्भव है
ध.1/1,1,16/182/7 उपशमकस्यौपशमिक: क्षायिको वा भाव:, दर्शनमोहोपशमक्षयाभ्यां विनोपशमश्रेण्यारोहणानुपलम्भात् । =उपशमक के औपशमिक या क्षायिक भाव होता है, क्योंकि जिसने दर्शनमोहनीय का उपशम अथवा क्षय नहीं किया है, वह उपशम श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता।
ध.1/1,1,18/188/3 उपशमक: औपशमिकगुण: क्षायिकगुणो वा द्वाभ्यामपि सम्यक्त्वाभ्यामुपशमश्रेण्यारोहणसंभवात् । =उपशम श्रेणी वाला औपशमिक तथा क्षायिक इन दोनों भावों से युक्त है, क्योंकि दोनों ही सम्यक्त्वों से उपशम श्रेणी का चढ़ना सम्भव है।
2. उपशम श्रेणी से नीचे गिरने का नियम
रा.वा./10/1/3/640/8 उपशान्तकषाय...आयुष: क्षयात् म्रियते। अथवा पुनरपि कषायानुदीरयन् प्रतिनिवर्त्तते। =उपशान्त कषाय का आयु के क्षय से मरण हो सकता है। अथवा फिर कषायों की उदीरणा होने से नीचे गिर जाता है।
ध.6/1,9-8,14/317/6 ओवसमियं चारित्तं ण मोक्खकारणं, अंतोमुहुत्तकालादो उवरि णिच्छएण मोहोदयणिबंधणत्तादो। =औपशमिक चारित्र मोक्ष का कारण नहीं है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त काल से ऊपर निश्चयत: मोह के उदय का कारण होता है।
ल.सा./मू. व जी.प्र./304/384 अंतोमुहुत्तमेत्तं उवसंतकसायवीयरायद्धा।...।304।...तत: परं कषायाणां नियमेनोदयासंभवात् । द्रव्यकर्मोदये सति संक्लेशपरिणामलक्षणभावकर्मण: तयो कार्यकारणभावप्रसिद्ध:। =उपशान्त कषाय वीतराग ग्यारहवाँ गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए तत्पश्चात् द्रव्यकर्म के उदय के निमित्त से संक्लेश रूप भाव प्रगट होते हैं।
3. उपशान्त कषाय से गिरने का कारण व मार्ग
ध.6/1,9-8,14/317/8 उवसंतकसायस्स पडिवादो दुविहो, भवक्खयणिबंधणो उवसामणद्धाखयणिबंधणो चेदि। तत्थ भवक्खएण पडिवदिदस्स सव्वाणि करणाणि देवेसुप्पण्णपढमसमए चेव उग्घाडिदाणि।...उवसंतो अद्धाखएण पदंतो लोभे चेव पडिवददि, सुहुमसांपराइयगुणमगंतूण गुणंतरगमणाभावा। =उपशान्त कषाय का वह प्रतिपात दो प्रकार है - भवक्षयनिबन्धन और उपशमनकालक्षयनिबन्धन। इनमें भवक्षय से प्रतिपात को प्राप्त हुए जीव के देवों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही बन्ध,...। (गिरकर असंयत गुणस्थान को प्राप्त होता है। - देखें मरण - 3) उपशान्त कषाय काल के क्षय से प्रतिपात को प्राप्त होने वाला उपशान्त कषाय जीव लोभ में अर्थात् सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थान में गिरता है, क्योंकि सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुणस्थानों में जाने का अभाव है।
गो.क./जी.प्र./550/743/9 उपशान्तकषाये आ तच्चरमसमयं...क्रमेणावतरन् ...अप्रमत्तगुणस्थानं गत:। प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्राणि कुर्वन् संक्लेशवशेन प्रत्याख्यानावरणोदयाद्देशसंयतो भूत्वा पुन: अप्रत्याख्यानावरणोदयादसंयतो भूत्वा च। =उपशान्त कषाय के अन्तसमय पर्यन्त...अनुक्रम से उत्तर अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त हुआ। तहाँ अप्रमत्त से प्रमत्त में हज़ारों बार गमनागमन कर, पीछे संक्लेशवश प्रत्याख्यानावरण कर्म के उदय से देशसंयत होकर अथवा अप्रत्याख्यान के उदय से असंयत होकर...।
ल.सा./जी.प्र./308,310/390 उपशान्तकषायपरिणामस्य द्विविध: प्रतिपात: भवक्षयहेतु: उपशमनकालक्षयनिमित्तकश्चेति।...आयु:क्षये सति उपशान्तकषायकाले मृत्वा देवासंयतगुणस्थाने प्रतिपतति। एवं प्रतिपतिते तस्मिन्नेवासंयतप्रथमसमये सर्वाण्यपि बन्धनोदीरणासंक्रमणादीनि कारणानि नियमेनोद्धाटितानि स्वस्वरूपेण प्रवृत्तानि भवन्ति। यथाख्यातचारित्रविशुद्धिबलेनोपशान्तकषाय उपशमितानां तेषां पुनर्देवासंयते संक्लेशवशेनानुपशमनरूपोद्घाटनसंभवात् ।308। आयुषि सत्यद्धा क्षयेऽन्तर्मुहूर्तमात्रोपशान्तकषायगुणस्थानकालावसाने सति प्रतिपतन् स उपशान्तकषाय: प्रथम नियमेन सूक्ष्मसांपरायगुणस्थाने प्रतिपतति। ततोऽनन्तरमनिवृत्तिकरणगुणस्थाने प्रतिपतति। तदन्वपूर्वकरणगुणस्थाने प्रतिपतति। तत: पश्चादप्रमत्तगुणस्थाने अध:प्रमत्तकरणपरिणामे प्रतिपतति। एवमध:प्रवृत्तकरणपर्यन्तमनेनैव क्रमेण नान्यथेति निश्चेतव्यम् । =उपशान्त कषाय से प्रतिपात दो प्रकार है - एक आयु क्षय से, दूसरा काल क्षय से। 1. उपशान्त कषाय के काल में प्रथमादि अन्त पर्यन्त समयों में जहाँ-तहाँ आयु के विनाश से मरकर देव पर्याय सम्बन्धी असंयत गुणस्थान में गिरता है। तहाँ असंयत का प्रथम समय में नियम से बन्ध, उदीरणा, संक्रमण आदि समस्त करण उघाड़ता है। अपने-अपने स्वरूप से प्रगट वर्ते है। यथाख्यात विशुद्धि के बल से उपशान्त कषाय गुणस्थान में जो उपशम किये थे, उनका असंयत गुणस्थान में संक्लेश के बल से अनुपशमन रूप उघाड़ना सम्भव है।308। 2. और आयु के शेष रहने पर कालक्षय से अन्तर्मुहूर्त मात्र उपशान्त कषाय का काल समाप्त होने पर वह उपशामक गिरकर नियम से सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान को प्राप्त होता है। फिर पीछे अनिवृत्तिकरण को प्राप्त होता है। और इसके पश्चात् क्रम से अपूर्वकरण, अध:प्रवृत्तकरण रूप अप्रमत्त को प्राप्त होता है। अध:प्रवृत्तकरण तक गिरने का यही निश्चित क्रम है। [आगे यदि विशुद्धि हो तो ऊपर के गुणस्थान में चढ़ता है, यदि संक्लेशतायुक्त हो तो नीचे के गुणस्थान को प्राप्त होता है। कोई नियम नहीं है। (देखें सम्यग्दर्शन - IV.3.3)]।
क्रमश: -
ल.सा./जी.प्र./310-344 का भावार्थ - संक्लेश व विशुद्धि उपशान्त कषाय से गिरने में कारण नहीं है क्योंकि वहाँ परिणाम अवस्थित विशुद्धता लिये है। वहाँ से गिरने में कारण तो आयु व कालक्षय ही है।310। इन 10,9,8 व 7 गुणस्थानों में पृथक्-पृथक् क्रियाविधान उतरते समय प्रतिस्थान आरोहक की अपेक्षा दूनी अवस्थिति वा दूना अनुभाग हो है। स्थिति बन्धापसरण की बजाय स्थितिबन्धोत्सरण हो है। अर्थात् आरोहक के आठ अधिकारों से उलटा क्रम है।
क्रमश: -
ल.सा./जी.प्र./345/436/1 विरताविरतगुणस्थानाभिमुख: सन् संक्लेशवशेन प्राक्तनगुणश्रेण्यायामात् संख्यातगुणं गुणश्रेण्यायामं करोति पुन: स एव यदि परावृत्योपशमकक्षपकश्रेण्यारोहणाभिमुखो भवति तदा विशुद्धिवशेन प्राक्तनगुणश्रेण्यायामात् संख्यातगुणहानं गुणश्रेण्यायामं करोति।=उपशामक जीव गिरकर यदि विरताविरत गुणस्थान को सन्मुख होय तो संक्लेशता के कारण पूर्व गुणश्रेणी आयाम से संख्यात गुण बंधता गुणश्रेणि आयाम करता है। और यदि पलटकर उपशम व क्षपक श्रेणी चढ़ने को सन्मुख होय तो विशुद्धि के कारण संख्यात गुणा घटता गुणश्रेणि आयाम करता है।
4. गिरकर असंयत होने वाले अल्प हैं
ध.4/1,3,82/135/4 उवसमसेढीदो ओदरीय उवसमसम्मत्तेण सह असंजमं पडिवण्णजीवाणं संखेज्जत्तुवलंभादो। =उपशम श्रेणि से उतरकर उपशम सम्यक्त्व के साथ असंयम भाव को प्राप्त होने वाले जीवों की संख्या संख्यात ही पायी जाती है।
5. पुन: उसी द्वितीयोपशम से श्रेणी नहीं मांड सकता
ध.5/1,6,374/170/2 हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिवज्जिय पुव्वुवसमसम्मत्तेणुवसमसेढीसमारुहणे संभवाभावादो। तं पि कुदो उवसमसेडी समारुहणपाओग्गकालादो सेसुवसमसम्मत्तद्धाए त्थोवत्तुवलंभादो। = उपशम श्रेणी से नीचे उतरे हुए जीव के वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त हुए बिना पहले वाले उपशम सम्यक्त्व के द्वारा पुन: उपशम श्रेणी पर समारोहण की सम्भावना का अभाव है। प्रश्न - यह कैसे जाना जाता है? उत्तर - क्योंकि, उपशम श्रेणी के समारोहण योग्य काल से शेष सम्यक्त्व का काल अल्प है।