संघात: Difference between revisions
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<p> <span class="SanskritText">स.सि./5/26/298/4 पृथग्भूतानामेकत्वापत्ति: संघात:।</span> =<span class="HindiText">पृथग्भूत हुए पदार्थों के एकरूप हो जाने को संघात कहते हैं। (रा.वा./5/26/2/493/25)।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ध.14/5,6,98/121/3 परमाणुपोग्गलसमुदायसमागमो संघादो णाम। | |||
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<p class="HindiText"><strong>2. भेद संघात का लक्षण</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ध.14/5,6,98/121/4 भेदं गंतूण पुणो समागमो भेदसंघादो णाम।</span> =<span class="HindiText">भेद को प्राप्त होकर पुन: संघात अर्थात् समागम होना भेद संघात है।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> <strong>3. संघात नामकर्म का लक्षण</strong></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">स.सि./8/11/390/1 यदुदयादौदारिकादिशरीराणां विवररहितान्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशेन एकत्वापादनं भवति तत्संघातनाम।</span> =<span class="HindiText">जिसके उदय से औदारिकादि शरीरों की छिद्र रहित होकर परस्पर प्रदेशों के अनुप्रवेशन द्वारा एकरूपता आती है वह संघात नामकर्म है। (रा.वा./8/11/7/576/27); (गो.क./जी.प्र./33/29/2)।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ध.6/1,9-1,28/53/3 जेहि कम्मखेधेहिं उदयं पत्तेहिं बंधणणामकम्मोदएण बंधमागयाणं सरीरपोग्गलक्खंधाणं मट्ठत्तं कीरदे तेसिं सरीरसंघादण्णा। जदि सरीरसंघादणामकम्मजीवस्स ण होज्ज, तो तिलमोअओ व्व अवुट्ठसरीरो जीवो होज्ज।</span> =<span class="HindiText">उदय को प्राप्त जिन कर्म स्कन्धों का मृष्टत्व अर्थात् छिद्र रहित संश्लेष किया जाता है उन पुद्गल स्कन्धों की 'शरीरसंघात' यह संज्ञा है। यदि शरीर संघात नामकर्म संज्ञा न हो, तो तिल के मोदक के समान अपुष्ट शरीर वाला जीव हो जावे। (ध.13/5,5,101/364/2)</span></p> | |||
<p class="HindiText"><strong>4. शरीर संघात के भेद</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ष.खं.6/1,9-1/सू.33/70 जं तं सरीरसंघादणामकम्मं तं पंचविहं, ओरालियसरीरसंघाद णामं वेउव्वियसरीरसंघाद णामं आहारसरीरसंघादणामं, तेजससरीरसंघादणामं कम्मइयसरीरसंघादणामं चेदि।</span> = <span class="HindiText">जो शरीर संघात नामकर्म है, वह पाँच प्रकार है - औदारिक शरीर संघात नामकर्म, वैक्रियकशरीर संघात नामकर्म, आहारकशरीर संघातनामकर्म, तैजसशरीर संघातनामकर्म और कार्मणशरीर संघातनामकर्म। (ष.खं.13/5,5/सू.106/367)</span></p> | |||
<p class="HindiText">दूसरे नरक का दसवाँ पटल - देखें [[ नरक#5.11 | नरक - 5.11]]।</p> | |||
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<p> श्रुतज्ञान के बीस भेदो में सातवाँ भेद । एक-एक पद के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि के क्रम से संख्यात हजार पदों के बढ़ जाने पर यह संघात श्रुतज्ञान होता है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10.12 </span>देखें [[ श्रुतज्ञान ]]</p> | |||
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Revision as of 21:49, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से == 1. संघात सामान्य का लक्षण
स.सि./5/26/298/4 पृथग्भूतानामेकत्वापत्ति: संघात:। =पृथग्भूत हुए पदार्थों के एकरूप हो जाने को संघात कहते हैं। (रा.वा./5/26/2/493/25)।
ध.14/5,6,98/121/3 परमाणुपोग्गलसमुदायसमागमो संघादो णाम। =परमाणु पुद्गलों का समुदाय समागम होना संघात है।
2. भेद संघात का लक्षण
ध.14/5,6,98/121/4 भेदं गंतूण पुणो समागमो भेदसंघादो णाम। =भेद को प्राप्त होकर पुन: संघात अर्थात् समागम होना भेद संघात है।
3. संघात नामकर्म का लक्षण
स.सि./8/11/390/1 यदुदयादौदारिकादिशरीराणां विवररहितान्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशेन एकत्वापादनं भवति तत्संघातनाम। =जिसके उदय से औदारिकादि शरीरों की छिद्र रहित होकर परस्पर प्रदेशों के अनुप्रवेशन द्वारा एकरूपता आती है वह संघात नामकर्म है। (रा.वा./8/11/7/576/27); (गो.क./जी.प्र./33/29/2)।
ध.6/1,9-1,28/53/3 जेहि कम्मखेधेहिं उदयं पत्तेहिं बंधणणामकम्मोदएण बंधमागयाणं सरीरपोग्गलक्खंधाणं मट्ठत्तं कीरदे तेसिं सरीरसंघादण्णा। जदि सरीरसंघादणामकम्मजीवस्स ण होज्ज, तो तिलमोअओ व्व अवुट्ठसरीरो जीवो होज्ज। =उदय को प्राप्त जिन कर्म स्कन्धों का मृष्टत्व अर्थात् छिद्र रहित संश्लेष किया जाता है उन पुद्गल स्कन्धों की 'शरीरसंघात' यह संज्ञा है। यदि शरीर संघात नामकर्म संज्ञा न हो, तो तिल के मोदक के समान अपुष्ट शरीर वाला जीव हो जावे। (ध.13/5,5,101/364/2)
4. शरीर संघात के भेद
ष.खं.6/1,9-1/सू.33/70 जं तं सरीरसंघादणामकम्मं तं पंचविहं, ओरालियसरीरसंघाद णामं वेउव्वियसरीरसंघाद णामं आहारसरीरसंघादणामं, तेजससरीरसंघादणामं कम्मइयसरीरसंघादणामं चेदि। = जो शरीर संघात नामकर्म है, वह पाँच प्रकार है - औदारिक शरीर संघात नामकर्म, वैक्रियकशरीर संघात नामकर्म, आहारकशरीर संघातनामकर्म, तैजसशरीर संघातनामकर्म और कार्मणशरीर संघातनामकर्म। (ष.खं.13/5,5/सू.106/367)
दूसरे नरक का दसवाँ पटल - देखें नरक - 5.11।
पुराणकोष से
श्रुतज्ञान के बीस भेदो में सातवाँ भेद । एक-एक पद के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि के क्रम से संख्यात हजार पदों के बढ़ जाने पर यह संघात श्रुतज्ञान होता है । हरिवंशपुराण 10.12 देखें श्रुतज्ञान