हरिवंश
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से == सुमुख राजा ने वीरक नामक श्रेष्ठी की स्त्री का हरणकर उससे भोग किया। ये दोनों फिर आहार दान के प्रभाव से हरिक्षेत्र में उत्पन्न हुए। पूर्व वैर के कारण वीरक ने देव बनकर इसको (सुमुख के जीव को) भरत क्षेत्र में रख दिया। चूँकि यह हरिक्षेत्र से आया था इसलिए इसके वंश का नाम हरिवंश हुआ। ( पद्मपुराण/21/2-73;48-55 ); ( हरिवंशपुराण/15/58 )-देखें इतिहास - 10.18।
पुराणकोष से
ऋषभदेव द्वारा संस्थापित प्रसिद्ध चार क्षत्रियवंशों में इस नाम का एक महावंश । ऋषभदेव ने हरि नाम के राजा को बुलाकर उसे महामांडलिक राजा बनाया था । इसका अपर नाम हरिकांत था । यह इंद्र अथवा सिंह के समान पराक्रमी था । चंपापुर के राजा आर्य और रानी मनोरमा के पुत्र हरि के नाम पर इस महावंश की संस्थापना की गयी थी । इसकी वंश परंपरा में क्रमश: निम्न राजा हुए― महागिरि, हिमगिरि, वसुगिरि, गिरि, इसके पश्चात् अनेक राजा हुए । उनके बाद कुशाग्रपुर का राजा सुमित्र, मुनिसुव्रत, सुव्रत, दक्ष, ऐलेय, कुणिम, पुलौम, पौलोम और चरम राजा हुए पौलोम के महीदत्त और चरम के संजय तथा महीदत्त के अरिष्टनेमि और मत्स्य पुत्र हुए । इनमें मत्स्य के अयोधन आदि सौ पुत्र हुए । अयोधन के पश्चात् क्रमश: मूल, शाल, सूर्य, अमर, देवदत्त, हरिषेण, नभसेन, शंख, भद्र, अभिचंद्र, वसु, बृहध्वज, सुबाहु, दीर्घबाहु, वज्रबाहु, लब्धाभिमान भानु, यवु, सुभानु, भीम आदि अनेक राजाओं के पश्चात् नमिनाथ के तीर्थ में यदु नाम का एक राजा हुआ, जिसके नाम पर यदुवंश की स्थापना हुई थी । राजा सुवसु का एक पुत्र बृहदरथ था । इसके बाद निम्नलिखित राजा हुए― दृढ़रथ, नरवर, दृढ़रथ, सुखरथ, दीपन, सागरसेन, सुमित्र, वप्रथु, बिंदुसार, देवगर्भ, शतधनु इसके पश्चात् अनेक राजा हुए तत्पश्चात् निहतशत्रु, शतपति, बृहदरथ, जरासंध का भाई अपराजित और कालयवन आदि सौ पुत्र हुए । परमपुराण के अनुसार इस वश का संस्थापक राजा सुमुख का जीव था । वह मरकर आहारदान के प्रभाव से हरिक्षेत्र में उत्पन्न हुआ था । इसके पूर्वभव के बैरी वीरक का जीव एक देव इसे हरिक्षेत्र से सपत्नीक उठाकर भरतक्षेत्र में रख गया था । हरिक्षेत्र स लाये जाने के कारण इसे हरि और इसके वंश को हरिवंश कहा गया । मिथिला के राजा वासवकेतु और उनके पुत्र जनक इसी वंश के राजा थे । महापुराण 16. 256-259, पद्मपुराण 5.1-3, 21.2-55, हरिवंशपुराण 15.56-62, 16.17, 55, 17.1-3, 22-37, 8. 1-6, 17-25, पांडवपुराण 2.163-164