पांडव
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सिद्धांतकोष से
श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार भगवान् वीर के पश्चात् मूल परंपरा में तीसरे 11 अंगधारी थे। समय - वी.नि. 383-420 (ई.पू. 144-105) - देखें इतिहास - 4.1। 2. पांडवपुराण/ सर्ग/श्लोक युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव, ये पाँचों कुरुवंशी राजा पांडु के पुत्र होने से पांडव कहलाते थे (8/217)। भीम के बल से अपमानित होने तथा इनका राज्य हड़पना चाहने के कारण कौरव राजा दुर्योधन इनसे द्वेष करता था (10/34-40)। उसी द्वेष वश उसने इनको लाक्षागृह में जलाकर मारने का षड्यंत्र किया, पर किसी प्रकार पांडव वहाँ से बच निकले (18/60, 115,166)। और अर्जुन ने स्वयंवर में द्रौपदी व गांडीव धनुष प्राप्त किया (15/105)। वहीं पर इनका कौरवों से मिलाप हुआ (15/143,182-202) तथा आधा राज्य बाँटकर रहने लगे (16/2-3)। परंतु पुनः ईर्षावश दुर्योधन ने जुए में इनका सर्व राज्य जीतकर इन्हें बारह वर्ष अज्ञातवास करने पर बाध्य किया (16/14, 105-125)। सहायवन में इनकी दुर्योधन के साथ मुठभेड़ हो गयी (17/87-221)। जिसके पश्चात् इन्हें विराटनगर में राजा विराट के यहाँ छद्मवेश में रहना पड़ा (17/230)। द्रौपदी पर दुराचारी दृष्टि रखने के अपराध में वहाँ भीम ने राजा के साले कीचक व उसके 100 भाइयों को मार डाला (17/278)। छद्मवेश में ही कौरवों से भिड़कर अर्जुन ने राजा के गोकुल की रक्षा की (19/152)। अंत में कृष्ण जरासंध युद्ध में इनके द्वारा सब कौरव मारे गये (19/91; 20/296)। एक विद्याधर द्वारा हर ली गयी द्रौपदी को अर्जुन ने विद्या सिद्ध करके पुनः प्राप्त किया (21/114,118)। तत्पश्चात् भगवान् नेमिनाथ के समीप जिन दीक्षा धार (15/12) शत्रुंजय गिरि पर्वत पर घोर तप किया (25/12)। दुर्योधन के भानजे कृत दुस्सह उपसर्ग को जीत युधिष्ठिर, भीम व अर्जुन मुक्त हुए और नकुल व सहदेव सर्वार्थसिद्धि में देव हुए (25/52-139)।
पुराणकोष से
राजा पांडु के युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव पाँच पुत्र । इनमें प्रथम तीन पांडु की रानी कुंती के तथा अंतिम दो उसकी दूसरी रानी माद्री से उत्पन्न हुए थे । राज्य के विषय को लेकर इनका कौरवों से विरोध हो गया था । द्वेषवश कौरवों ने इन्हें लाक्षागृह में जलाकर मारने का षड्यंत्र किया था किंतु ये माता कुंती सहित सुरंग से निकलकर बच गये थे । स्वयंवर में अर्जुन ने गांडीव धनुष को चढ़ाकर माकम्दी के राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी प्राप्त की थी । अर्जुन के गले में डालते समय माला के टूट जाने से उसके फूल वायु वेग से उसी परित में बैठे अर्जुन के अन्य भाइयों पर भी जा पड़े इसलिए चपल लोग यह कहने लगे थे कि द्रौपदी ने पाँचों भाइयों को वरा है । हरिवंशपुराण - 45.2, 37-39, 56-57, 121-130, 138, पांडवपुराण 12.166-168, 15.112-115 जुएं में कौरवों से हार जाने के कारण इन्हें बारह वर्ष का वन और एक वर्ष का अज्ञातवास करना पड़ा था । द्रौपदी का अपमान भी इन्हें सहना पड़ा । विराट नगर में इन्हें गुप्त वेष में रहना पडा, इसी नगर में भीम ने कीचक को मारा था । हरिवंशपुराण - 46.2-36, पांडवपुराण 16.121-141, 17.230-244, 295-296 अंत में कृष्ण-जरासंध का युद्ध हुआ । इसमें पांडव कृष्ण के पक्ष में और कौरव जरासंध की ओर से लड़े थे । इस युद्ध में द्रोणाचार्य को धृष्टार्जुन ने, भीष्म और कर्ण को अर्जुन ने तथा दुर्योधन और उसके निन्यानवें भाइयों को भीम ने मारा था । कृष्ण ने जरासंध को मारा था । कृष्णा की इस विजय के साथ पांडवों को भी कौरवों पर पूर्ण विजय हो गयी । उन्हें उनका खोया राज्य वापस मिला । पांडवपुराण 19. 221-224,20.166-232, 296 राज्य प्राप्त करने के पश्चात् नारद की प्रेरणा से विद्याधर पद्मनाभ द्वारा भेजा गया देव द्रौपदी को हरकर ले गया था । नारद ने ही द्रौपदी के हरे जाने का समाचार कृष्ण को दिया था । पश्चात् श्री स्वस्तिक देव को सिद्ध कर कृष्ण अमरकंकापुरी गये और वहाँ के राजा को पराजित कर द्रौपदी को ससम्मान के आये थे । पद्मपुराण - 21.57-58, 113-141 इन्होंने पूर्व जन्म में निर्मल काम किये थे । युधिष्ठिर ने निर्मल चरित्र पाला था, सत्य-भाषण से उसे यश मिला था । भीम वैयावृत्ति तप के प्रभाव से अजेय और बलिष्ठ हुआ, पवित्र चारित्र के प्रभाव से अर्जुन धनुर्धारी वीर हुआ, पूर्व तप के फलस्वरूप नकुल और सहदेव उनके भाई हुए । पांडवपुराण 24.85-90 अंत में नेमिजिन से इन्होंने दीक्षा ली । तप करते समय ये शत्रुंजय गिरि पर दुर्योधन के भानजे कुर्यधर द्वारा किये गये उपसर्ग-काल में ध्यानरत रहे । ज्ञान-दर्शनापयोग में रमते हुए अनुप्रेक्षाओं का चिंतन करते हुए ये आत्मलीन रहे । इस कठिन तपश्चरण के फलस्वरूप युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ने केवलज्ञान प्राप्त किया तथा वे मुक्ति को प्राप्त हुए । अल्प कषाय शेष रह जाने से नकुल और सहदेव सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग में अहमिंद्र हुए । वहाँ से च्युत होकर वे आगे मुक्त होगे । कुंती, द्रौपदी, राजीमती और सुभद्रा आर्यिका के व्रत पालकर सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुई थी । पांडवपुराण 25.12-14,52-143