हुंडावसर्पिणी: Difference between revisions
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तिलोयपण्णतिसंगहो/4/1615-1623
असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुण्डावसर्पिणी आती है। उस के चिन्ह ये हैं-
- इस हुण्डावसर्पिणी काल के भीतर सुषमादुषमा काल की स्थिति में से कुछ काल के अवशिष्ट रहने पर भी वर्षा आदिक पडने लगती है और विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है। ।।1616।।
- इसके अतिरिक्त इसी काल में कल्पवृक्षों का अन्त और कर्मभूमि का व्यापार प्रारम्भ हो जाता है।
- उस काल में प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं। ।।1617।।
- चक्रवर्ती का विजय भंग,
- और थोडे से जीवों का मोक्ष गमन भी होता है ।
- इसके अतिरिक्त चक्रवर्ती से की गयी द्विजों के वंश की उत्पत्ति भी होती है। ।।1618।।
- दुष्षमसुषमा काल में 58 शलाकापुरुष ही होते हैं।
- और नौवें (पन्द्रहवें की बजाय) से सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति होती है। ।। 1618।। त्रिलोकसार/ 814
- ग्यारह रूद्र और कलयप्रिय नौ नारद होते हैं।
- तथा इसके अतिरिक्त्त सातवें, तेईसवें और अन्तिम तीर्थंकर के उपसर्ग भी होता है। ।। 1620।।
- तृतीय, चतुर्थ व पंचम काल में उत्तम धर्म को नष्ठ करने वाले विविध प्रकार के दुष्ठ पापिष्ठ कुदेव और कुलिंगी भी दिखने लगते हैं।
- तथा चाण्डाल, शबर, पाण (श्वपच), पुलिंद, लाहल और किरात इत्यादि जातियां उत्पन्न होती हैं।
- तथा दुषम काल में 42 कल्की व उपकल्की होते हैं।
- अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूवृद्धि (भूकम्प) और वज्राग्नि आदि का गिरना इत्यादि विचित्र भेदों तो लिये हुए नाना प्रकीर के दोष इस हुण्डावसर्पिणी काल में हुआ करते हैं। ।। 1621-1623।।
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