देशसंयत: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
(3 intermediate revisions by one other user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/ गाथा</span> <span class="PrakritText">जो तसवहाउ विरदो णो विरओ अक्खथावरवहाओ। पडिसमयं सो जीवो विरयाविरओ जिणेक्कमई।13। जो ण विरदो दु भावो थावरवहइंदियत्थदोसाओ। तसवहविरओ सोच्चिय संजमासंजमो दिट्ठो।134। पंच तिय चउविहेहिं अणुगुण-सिक्खावएहिं संजुत्ता। वुच्चंति देसविरया सम्माइट्ठी झडियकम्मा।135। </span> = <span class="HindiText">1. जो जीव एक मात्र जिन भगवान् में ही मति को रखता है, तथा त्रस जीवों के घात से विरत है, और इंद्रिय विषयों से एवं स्थावर जीवों के घात से विरक्त नहीं है, वह जीव प्रतिसमय विरताविरत है। अर्थात् अपने गुणस्थान के काल के भीतर दोनों संज्ञाओं को युगपत् धारण करता है।13। 2. भावों से स्थावरवध और पाँचों इंद्रियों के विषय संबंधी दोषों से विरत नहीं होने किंतु त्रस वध से विरत होने को संयमासंयम कहते हैं, और उनका धारक जीव नियम से संयमासंयमी कहा गया है।134। 3. पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों से संयुक्त होना विशिष्ट संयमासंयम है। उसके धारक और असंख्यात गुणश्रेणीरूप निर्जरा के द्वारा कर्मों के झाड़ने वाले ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत या संयतासंयत कहलाते हैं।135। </span> | |||
[[ | <span class="HindiText">अधिक जानकारी के लिये देखें [[ संयतासंयत ]]। | ||
[[Category:द]] | <noinclude> | ||
[[ देशसंधि | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[ देशसत्य | अगला पृष्ठ ]] | |||
</noinclude> | |||
[[Category: द]] | |||
[[Category: चरणानुयोग]] |
Latest revision as of 13:28, 2 August 2023
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/ गाथा जो तसवहाउ विरदो णो विरओ अक्खथावरवहाओ। पडिसमयं सो जीवो विरयाविरओ जिणेक्कमई।13। जो ण विरदो दु भावो थावरवहइंदियत्थदोसाओ। तसवहविरओ सोच्चिय संजमासंजमो दिट्ठो।134। पंच तिय चउविहेहिं अणुगुण-सिक्खावएहिं संजुत्ता। वुच्चंति देसविरया सम्माइट्ठी झडियकम्मा।135। = 1. जो जीव एक मात्र जिन भगवान् में ही मति को रखता है, तथा त्रस जीवों के घात से विरत है, और इंद्रिय विषयों से एवं स्थावर जीवों के घात से विरक्त नहीं है, वह जीव प्रतिसमय विरताविरत है। अर्थात् अपने गुणस्थान के काल के भीतर दोनों संज्ञाओं को युगपत् धारण करता है।13। 2. भावों से स्थावरवध और पाँचों इंद्रियों के विषय संबंधी दोषों से विरत नहीं होने किंतु त्रस वध से विरत होने को संयमासंयम कहते हैं, और उनका धारक जीव नियम से संयमासंयमी कहा गया है।134। 3. पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों से संयुक्त होना विशिष्ट संयमासंयम है। उसके धारक और असंख्यात गुणश्रेणीरूप निर्जरा के द्वारा कर्मों के झाड़ने वाले ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत या संयतासंयत कहलाते हैं।135।
अधिक जानकारी के लिये देखें संयतासंयत ।