प्रवचनसार - गाथा 158 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्टगोट्ठिजुदो । (158)
उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो ॥170॥
अर्थ:
[यस्य उपयोग:] जिसका उपयोग [विषयकषायावगाढ:] विषयकषाय में अवगाढ़ (मग्न) है, [दु:श्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्टियुत:] कुश्रुति, कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है, [उग्र:] उग्र है तथा [उन्मार्गपर:] उन्मार्ग में लगा हुआ है, [सः अशुभ:] उसका वह अशुभोपयोग है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथाशुभोपयोगस्वरूपं प्ररूपयति -
विशिष्टोदयदशाविश्रान्तदर्शनचारित्रमोहनीयपुद्गलानुवृत्तिपरत्वेन परिग्रहीताशोभनोपरा-गत्वात्परमभट्टारकमहादेवाधिदेवपरमेश्वरार्हत्सिद्धसाधुभ्योऽन्यत्रोन्मार्गश्रद्धाने विषयकषाय-दु:श्रवणदुराशयदुष्टसेवनोग्रताचरणे च प्रवृत्तेऽशुभोपयोग: ॥१५८॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
विशिष्ट उदयदशा में रहने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से अशुभ उपराग को ग्रहण करने से, जो (उपयोग) परम भट्टारक, महा देवाधिदेव, परमेश्वर—अर्हंत, सिद्ध और साधु को छोड़कर अन्य- उन्मार्ग की श्रद्धा करने में तथा विषय, कषाय, कुश्रवण, कुविचार, कुसंग और उग्रता का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह अशुभोपयोग है ॥१५८॥