प्रवचनसार - गाथा 211-212 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेट्ठम्हि । (211)
जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया ॥225॥
छेदुवजुत्तो समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि । (212)
आसेज्जालोचित्ता उवदिट्ठं तेण कायव्वं ॥226॥
अर्थ:
[यदि] यदि [श्रमणस्य] श्रमण के [प्रयतायां] प्रयत्न-पूर्वक [समारब्धायां] की जाने-वाली [कायचेष्टायां] काय-चेष्टा में [छेद: जायते] छेद होता है तो [तस्य पुन:] उसे तो [आलोचनापूर्विका क्रिया] १आलोचना-पूर्वक क्रिया करना चाहिये ।
[श्रमण: छेदोपयुक्त:] (किन्तु) यदि श्रमण छेद में उपयुक्त हुआ हो तो उसे [जिनमत] जैनमत में [व्यवहारिणं] व्यवहार-कुशल [श्रमणं आसाद्य] श्रमण के पास जाकर [आलोच्य] २आलोचना करके (अपने दोष का निवेदन करके), [तेन उपदिष्टं] वे जैसा उपदेश दें वह [कर्तव्यम्] करना चाहिये ॥२११-२१२॥
१आलोचना = सूक्ष्मता से देख लेना वह, सूक्ष्मता से विचारना वह, ठीक ध्यान में लेना वह
२निवेदन; कथन ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ छिन्नसंयमप्रतिसंधानविधानमुपदिशति -
द्विविध: किल संयमस्य छेद:, बहिरङ्गोऽन्तरङ्गश्च । तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरङ्ग:, उपयोगाधिकृत: पुनरन्तरंग: ।
तत्र यदि सम्यगुपयुक्तस्य श्रमणस्य प्रयत्नसमारब्धाया: कायचेष्टाया: कथंचिद्वहिरंगच्छेदो जायते तदा तस्य सर्वथांतरंगच्छेदवर्जितत्वादालोचनपूर्विकयाक्रिययैव प्रतिकार: । यदा तु स एवोपयोगाधिकृतच्छेदत्वेन साक्षाच्छेद एवोपयुक्तो भवति तदा जिनोदितव्यवहारविधिविदग्ध-श्रमणाश्रययालोचनपूर्वकतदुपदिष्टानुष्ठानेन प्रतिसंधानम् ॥२११-२१२॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
संयम का छेद दो प्रकार का है; बहिरंग और अन्तरंग । उसमें मात्र कायचेष्टा संबंधी वह बहिरंग है और उपयोग संबंधी वह अन्तरंग है । उसमें, यदि भलीभाँति उपर्युक्त श्रमण के प्रयत्नकृत कायचेष्टा का कथंचित् बहिरंग छेद होता है, तो वह सर्वथा अन्तरंग छेद से रहित है इसलिये आलोचनापूर्वक क्रिया से ही उसका प्रतीकार (इलाज) होता है । किन्तु यदि वही श्रमण उपयोगसंबंधी छेद होने से साक्षात् छेद में ही उपयुक्त होता है तो जिनोक्त व्यवहारविधि में कुशल श्रमण के आश्रय से, आलोचनापूर्वक, उनके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा (संयम का) प्रतिसंधान होता है ॥२११-२१२॥