प्रवचनसार - गाथा 255 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । (255)
णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥293॥
अर्थ:
[इह नानाभूमिगतानि बीजानि इव] जैसे इस जगत में अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हुए बीज [सस्यकाले] धान्यकाल में विपरीतरूप से फलते हैं, उसी प्रकार [प्रशस्तभूतः राग:] प्रशस्तभूत राग [वस्तुविशेषेण] वस्तु-भेद से (पात्र भेद से) [विपरीतं फलति] विपरीतरूप से फलता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ शुभोपयोगस्य कारणवैपरीत्यात् फलवैपरीत्यं साधयति -
यथैकेषामपि बीजानां भूमिवैपरीत्यान्निष्पत्तिवैपरीत्यं, तथैकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रवैपरीत्यात्फलवैपरीत्यं कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभावि-त्वात् ॥२५५॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, ऐसा सिद्ध करते हैं कि शुभोपयोग को कारण की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है :-
जैसे बीज ज्यों के त्यों होने पर भी भूमि की विपरीतता से निष्पत्ति की विपरीतता होती है, (अर्थात् अच्छी श्रम में उसी बीज का अच्छा अन्न उत्पन्न होता है और खराब भूमि में वही खराब हो जाता है या उत्पन्न ही नहीं होता), उसी प्रकार प्रशस्तराग स्वरूप शुभोपयोग ज्यों का त्यों होने पर भी पात्र की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है, क्योंकि कारण के भेद से कार्य का भेद अवश्यम्भावी (अनिवार्य) है ॥२५५॥