योगसार - संवर-अधिकार गाथा 198: Difference between revisions
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मूर्त पुद्गलों में राग-द्वेष करना मूढ़बुद्धि -
वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्द-युक्तै: शुभाशुभै: ।
चेतनाचेतर्नैूर्तैरमूर्त: पुद्गलैरयम् ।।१९८।।
शक्यो नेतुं सुखं-दुखं सम्बन्धाभावत: कथम् ।
रागद्वेषौ यतस्तत्र क्रियेते मूढ़ानसै: ।।१९९।।
अन्वय :- शुभ-अशुभै: वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्द-युक्तै: चेतन-अचेतनै: मूर्तै: पुद्गलै: अयं अमूर्त: (आत्मा) कथं सुखं दु:खं नेतुं शक्य:? यत: तत्र (मूर्ताूर्तेषु) सम्बन्ध-अभावत: मूढ़-मानसै: (पुद्गलेषु) राग-द्वेषौ क्रियेते ।
सरलार्थ :- सचेतन मूर्तिक पुद्गल अर्थात् पुत्र-कलत्रादि शरीर के संबंधी और अचेतन मूर्तिक पुद्गल अर्थात् अन्न, वस्त्र, दुकान-मकान आदि जड़ पदार्थो के मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्दों से अमूर्तिक आत्मा सुख-दु:ख को कैसे प्राप्त कर सकता है? क्योंकि मूर्तिक-अमूर्तिक में परस्पर सम्बन्ध का अभाव है; ऐसा वस्तु-स्वरूप होने पर भी मूढ़बुद्धि जीव मूर्त्त पुद्गलों में राग-द्वेष करते हैं ।