योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 534: Difference between revisions
From जैनकोष
(New page: स्वभाव और विभाव ज्ञान का स्वरूप - <p class="SanskritGatha"> स्वरूपमात्मन: सूक्ष्ममव्यप...) |
(No difference)
|
Latest revision as of 08:38, 22 January 2009
स्वभाव और विभाव ज्ञान का स्वरूप -
स्वरूपमात्मन: सूक्ष्ममव्यपदेशमव्ययम् ।
तत्र ज्ञानं परं सर्वं वैकारिकमपोह्यते ।।५३५।।
अन्वय : - आत्मन: स्वरूपं (ज्ञानं) सूक्ष्मं अव्यपदेशं च अव्ययं (अस्ति) । तत्र (आत्मन: स्वरूपत:) परं सर्वं वैकारिकं ज्ञानं अपोह्यते ।
सरलार्थ :- जो ज्ञान आत्मा का स्वरूप अर्थात् स्वभाव है, वह अत्यंत सूक्ष्म है, व्यपदेश अर्थात् किसी विशेष नाम से जानने योग्य नहीं है अथवा वचनातीत और अविनाशी है; ऐसे ज्ञान को कोई भी आत्मा से भिन्न नहीं कर सकता । इस स्वाभाविक तथा अनादि-अनंत ज्ञान से भिन्न दूसरा वैकारिक/विभावरूप अर्थात् स्पर्शनेंद्रियादि के निमित्त से होनेवाला पौद्गलिक ज्ञान है, उसे दूर किया जा सकता है ।