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| <p> आत्मा का दूसरा भेद । विवेकी, जिनसूत्र का वेत्ता, तत्त्व-अतत्त्व, शुभ-अशुभ, देव-अदेव, सत्य-असत्य, दुष्पथ-मुक्तिपथ का ज्ञाता तथा इन्द्रिय-विषय-जनित सुख का निरभिलाषी और मुमुक्षु, कर्म और कर्मों के कार्यों से उत्पन्न मोह, इन्द्रिय और राग-द्वेष आदि से आत्मा को पृथक्, निष्फल और योगिगम्य, जानने वाला जीव । ऐसा जीव सर्वार्थसिद्धि तक के सुखी को और जिनेन्द्र के वैभव को भोगता है । इसके उत्तम मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार है । चौथे गुणस्थानवर्ती जीव को जघन्य, पाँचवें से ग्यारह तक सात गुणस्थानवर्ती जीव को मध्यम तथा बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव को उत्तम अन्तरात्मा कहा गया है । <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.75-82, 95-96, </span>ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के अन्तर्वर्ती होने से यह जीव कहलाता है । <span class="GRef"> महापुराण 24.107 </span>देखें [[ जीव ]]।</p>
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| [[Category: पुराण-कोष]]
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| [[Category: अ]]
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