भावपाहुड - गाथा 157: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
मोहमयगारवेहिं य मुक्का जे करुणमावसजुत्ता ।
ते सव्वदुरियखंभं हणंति चारित्तखग्गेणु ।।157।।
(580) मोहमदरहित भव्य जीवों द्वारा दुरितखंडन―जो पुरुष मोहमद और घमंड से रहित है, मोह का मद याने शराब का जैसा नशा होता वैसा ही मोह का नशा होता है । मोह के नशे में यह जीव न्याय अन्याय कुछ नहीं गिनता और जैसा इसे रुचा वैसा अटपट काम करता है । तो मोह का नशा न हो और गारव न हो । गारव कहते हैं घमंड को । मुझे खूब खाना पीना मिलता । ये लोग मेरा बहुत बड़ा आदर करते । मेरे को ऐसी-ऐसी ऋद्धियां प्राप्त हुई हैं, मेरे में बड़ा चमत्कार उत्पन्न हुआ है, ऐसा घमंड करना यह गारव कहलाता है । तो मोह न हो, और करुणाभाव से हृदय भर गया हो, ऐसे मुनि श्रेष्ठ चारित्ररूपी खड़ग के द्वारा समस्त पापरूपी स्तंभ को नष्ट कर देते हैं । मोह मायने क्या हैं? पर को आपा मानना । जैसे ये स्त्री, पुत्र, धन वैभव आदिक मेरे नहीं हैं पर इन्हें अपना मानना, इनमें आसक्तिपूर्वक स्नेह जगना मोह कहलाता है । और मद क्या कहलाता है? घमंड । सम्यक्त्व के 8 मदों में बताया है―1. ज्ञान का मद, 2. पूजा का मद, 3. कुल का मद 4. जाति का मद, 5. बल का मद, 6. ऋद्धिऐश्वर्य का मद, 7. तप का मद, रूप का मद याने शरीर की सुंदरता का मद । इन 8 प्रकार के मदों से रहित हो वही पाप के स्तंभ को नष्ट कर सकता है ।
(581) गारवयुक्त भव्य जीवों द्वारा दूरितखंडन―गारव कितने होते ? तो पहला तो यह ही गर्व कि मैं बहुत शुद्ध बोलता हूँ, मेरे वर्णों का उच्चारण बहुत सुंदर होता है, इस प्रकार अपनी शब्दकला पर मद करना यह वर्णोच्चार गारव है । मेरे अनेक शिष्य हैं, मेरे पास इतना पुस्तकों का संग्रह है । मेरा कमंडल कैसा छोटा सुहावना है, मेरी पिछी बहुत सुंदर है, इस प्रकार का अपना महत्त्व प्रकट करना ऋद्धिगारव है । और, भोजनपान आदिक से उत्पन्न हुए सुख का गर्व होना सातगारव है । लोग बहुत सोचते कि मेरा बड़ा पुण्य का उदय है, जो मन ने चाहा वही चीज मिल जाती है, इस प्रकार का गारव होता है, घमंड होता है यह है सातगारव । इसी में अन्य और भी गारव आ जाते हैं । जैसे मेरी राजल में बड़ी मान्यता है आदिक बहुत सी मद पूर्ण बातें हैं, यह सब कहलाता है ऋद्धिगारव । तो जो मुनि इन गारवों से मुक्त है, मोहमद कषायों से दूर रहता है, दयाभाव से संयुक्त है वह पापों को याने अपनी वृत्ति में आने वाली शिथिलता को चारित्ररूपी खड्ग के द्वारा नष्ट कर देता है । सब उपयोग का प्रभाव है । उपयोग कहां लगाना, कैसे लगाना, इसमें ही दुर्गति और सद्गति के पाने का रूप बसा है । जब उपयोग से ही, भावों से ही हम बुरे बनते हैं, भले बनते हैं तो बुरे बनकर हमने अपना ही घात किया । इसलिए भावों में कभी बुराई न आये । सद्भावना हों, अपने ज्ञानस्वरूप की आराधना हो, ऐसी भीतर में तीक्ष्ण दृष्टि बन जाये तो इस आत्मा के कल्याण में कोई विलंब नहीं है । तो जो मुनिवर इन गारवों से दूर रहते, घमंडों से अलग रहते वे चारित्ररूपी खड़ग के द्वारा समस्त पाप अतिचार दोषों को नष्ट कर देते हैं । अपना बल है ज्ञानबल । इस ज्ञानबल से सच्ची समझ बने तो वहाँ अशांति का काम नहीं रहता और जहाँ केवल मोहमद ही आक्रमण कर रहा है तो ऐसा पुरुष स्वयं कायर होता है और अपने आत्मा का वह बल नहीं प्रकट कर पाता कि जिससे अनेक भव-भव के बांधे हुए कर्म भस्म हो जाया करते हैं । कोई भीतर निहारे तो सही, उसको विदित होगा कि मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ और ज्ञान की परिणति हुए बिना ज्ञान जगता नहीं । सो मति, श्रुत, अवधि आदिक जैसे स्थूल की बात नहीं कह रहे, किंतु ज्ञान में ज्ञानस्वरूप ही समाया हो तो उसमें वह बल प्रकट होता है कि जिससे भवभव के बांधे हुए कर्म भी निर्जीर्ण हो जाते हैं । इससे हे मुने ! सम्यक्त्व सहित बनो, अपने भावों की संभाल करो । यदि भाव संभाले रहे तो आगे भविष्य सब अच्छा ही अच्छा रहेगा ।