भावपाहुड - गाथा 53: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य ।
णामेण य सिवभूई केवलणाली फुडं जाओ ꠰꠰53꠰।
(93) भावविशुद्ध श्रमण की केवलज्ञानपात्रता―इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि कोई शास्त्र भी न पढ़ पाये और उसके सहज अविकार ज्ञानस्वभाव में आत्मत्व की प्रतीति हो जाये तो वह भी मोक्ष पा लेता है । ऐसी एक शिवभूति नामक मुनि की घटना हुई है । शिवभूति मुनि ने गुरु से केवल इतना ही पढ़ा था, मा तुष मा रुण । वे इतने शब्द भी भूल गये और रट डाला तुषमाष । उसका उस समय कुछ अर्थ भी नहीं भासा, लेकिन एक घटना से उनको अपने ज्ञानस्वरूप की दृष्टि हुई तो उस मुनि ने फिर केवलज्ञान प्राप्त किया कोई ऐसा समझे कि शास्त्र पढ़ने से ही सिद्धि होती है सो ऐसी बात नहीं । देखो शिवभूति की कहानी, शिवभूति नामक मुनि गुरु के पास शास्त्र पढ़ते थे, पर उन्हें कुछ याद न रहता था, उनको कुछ धारणा न हो सकती थी तो गुरु ने ये शब्द पढ़ाये थे मा तुष मा रुष इसका अर्थ है कि न राग करो न द्वेष करो संस्कृत में ये शब्द हैं, ये शब्द उसे याद न होते थे तो मुनि ने ये ही शब्द याद करने को कहा । तो इतना तो उसे याद न रहा सो वह बोलने लगा तुष माष । और तुषमाष बड़ी प्रसिद्ध बात है । तुष कहते हैं छिलका को । और माष कहते हैं उड़द की दाल को । तुष माष तुषमाष, ऐसा ही वह रटने लगा । वहाँ मा रुष मा तुष, ये शब्द विस्मरण हो गए, तुषमाष, इतना ही याद रहा । अब वह मुनि एक बार नगर में, जा रहा था तो दरवाजे के आगे एक महिला उड़द की दाल को धो रही थी । शाम को भिगो रखा था और सुबह धो रही थी तो धोने में छिलके अलग हो रहे थे और दाल अलग हो रही थी । तो उस महिला से किसी ने पूछा कि तुम यह क्या कर रही हो? तो उससे महिला ने कहा कि तुष और माष को अलग-अलग कर रही हूँ । जब यह बात मुनि ने सुनी अरि देखा भी, तो तुषमाष शब्द का भाव यह जाना उस मुनि ने कि यह शरीर तो है तुष की तरह और आत्मा है माष की तरह । उड़द और छिलके की तरह ये दोनों न्यारे-न्यारे हैं । देह और जीव एक नहीं है । मैं देह से निराला ज्ञानमात्र आत्मा हूँ, सो वह आत्मा का अनुभव करने लगा और चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मा का खूब परिचय बना और इस ही में लीन होकर इस ही शुद्ध आत्मा के ध्यान के प्रताप से घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया । तो देखो भावों की निर्मलता कि जिसके प्रताप से कोई शास्त्र भी न पढ़े, अन्य कुछ याद भी न रहे, लेकिन जो लक्ष्यभूत शुद्ध आत्मा है वह दृष्टि में आ गया तो उसका भला हो गया ।