भावपाहुड - गाथा 74: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो भाववज्जिओ सवणो ।
कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ꠰꠰74꠰।
(166) भावलिंग व द्रव्यलिंग का परिणाम―भावसहित मुनिधर्म पालन करना ऐसा जो परिणाम है वह स्वर्ग सुख और मोक्ष सुख का देने वाला है, किंतु भावरहित कमल से मलिन चित्त वाला पापयुक्त मुनि तिर्यंचगति का पात्र है । इस गाथा में सामान्यरूप से दो बातें कही गई हैं, जो भावलिंगसहित मुनि है वह तो स्वर्ग सुख और मोक्षसुख को पाता है और जो भावरहित और पापसहित प्रवृत्ति वाला मुनि है वह तिर्यंचगति को प्राप्त होता है । यहाँ इन दो सामान्य कथनों में अनेक बातें भरी हुई हैं । प्रथम बात तो यह है कि जो भावलिंगी निर्ग्रंथ साधु है और वीतराग दशा को प्राप्त हुआ है, क्षपक श्रेणी से चढ़कर जिसने वीतराग चारित्र पाया हो, जो क्षपक श्रेणी के चारित्र से चल रहा हो वह मुनि नियम से मोक्ष पाता है । दूसरी बात―जो मुनि भावलिंगी साधु है किंतु अभी सराग चारित्रदशा में है, अथवा उपशमश्रेणी में हो, उपशम मोह में या सरागचारित्र में रहकर मरण को प्राप्त होता है वह स्वर्ग के सुख, स्वर्ग से ऊपर के कल्पातीत विमानों में देवों के सुख पाता है, किंतु जो मुनि भावलिंगी नहीं है और साथ ही द्रव्यलिंग के अनुकूल महाव्रत का पालन नहीं करता, पापपरिणाम वाला है, दुराचार करता है तो वह मुनि तो तिर्यंचगति को प्राप्त होता है ।
(167) भावलिंग, द्रव्यलिंग, गृहस्थलिंग आदिक परिणामों के अनेक तथ्य―यहाँं यह भी ध्वनित होता है कि गृहस्थ सम्यक्त्वसहित अपने योग्य आचारों को पालते हुए 16वें स्वर्ग तक के देवों में उत्पन्न होता है वह देवियों में उत्पन्न नहीं होता । यहाँ बात यह जानना कि देवियां सिर्फ दो स्वर्गों में रहती हैं । देवियों की उत्पत्ति दो स्वर्गों में है―सौधर्म और ऐशान में, वैसे ये देवियां 16 स्वर्ग तक के देवों की है, कोई किसी की देवी कोई किसी की मगर उत्पत्ति दो स्वर्गों में होती है । बाद में जिस देवी का जिस स्वर्ग के देव से नियोग है वहाँं पहुंचती है, देव ले जाते हैं, वहाँ वह देवी उस देव के साथ रहती है । वह देवी उस देव की हो जाती है, किंतु उत्पत्ति दो ही स्वर्गों में होती है । हाँं कोई द्रव्यलिंगी मुनि मिथ्यादृष्टि मुनि हो और वह शास्त्रानुकूल बाह्य आचरण करता हो तो ऐसा मुनि भी नवग्रैवेयक तक उत्पन्न होता है, स्वर्गों से ऊपर मुनि हुए बिना कोई जीव उत्पन्न नहीं हो सकता । अभव्य जीव भी हो वह भी द्रव्यलिंग के प्रभाव से नवग्रैवेयक तक उत्पन्न हो लेता है । तो यहाँ शिक्षा लेना है कि अपने भावों की सम्हाल करें । भावों की सम्हाल से ही अपना कल्याण है, सो भावों की सम्हाल के लिए योग्य व्रतादिक भी धारण करें । पाप क्रियावों में रहकर कोई भाव नहीं सम्हाल सकता है । उसके लिए गृहस्थों को देवदर्शन आदिक बाह्य आवश्यक बताये गए हैं व मुनिजनों के लिए महाव्रत आदिक बताये गए हैं । तो व्यवहार धर्म का पालन करते हुए अपने परिणामों को सम्हालें, रागद्वेष से दूर रहे, आत्मा का जो यथार्थ सहज स्वरूप है उस स्वरूप की भावना बनायें ।