मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-3: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
तपसा निर्जरा च ।। 9-3 ।।
तप से संवर और निर्जरा का उद्भव―तप के द्वारा संवर होता है और निर्जरा भी होती है । यहाँ एक शंकाकार कहता है कि तप का तो धर्म में अंतर्भाव हो जाता है । धर्म के दस अंग बताए गए हैं । क्षमा, मार्दव, आदिक उन्हीं में से उत्तम तप नाम का भी धर्म आया है और धर्म से संवर होता है, यह दूसरे सूत्र में कहा गया है । फिर यहाँ इस सूत्र का बनाना या तप का पृथक से ग्रहण करना अनर्थक है? समाधान―यद्यपि तप का अंतर्भाव धर्म के अंग में हो गया है तो भी दूसरे सूत्र में संवर का वर्णन है, पर यहाँ तप से निर्जरा भी होती है, ऐसा निर्जरा का कारणपना प्रसिद्धि करने के लिये इस सूत्र को पृथक कहा गया है और निर्जरा का कारण भी है । अथवा जितने संवर के कारण बताये गए हैं उनमें प्रधान तप है । इसका ज्ञान कराने के लिए भी तप का पृथक ग्रहण किया गया है । इस सूत्र में च शब्द का जो ग्रहण है उससे संवर के निमित्त का समुच्चय भी ग्रहण किया जाता है । तप के द्वारा नवीन कर्मों का संबंध का अभाव होता है अर्थात् संवर होता है, यह तो युक्त है ही, पर पूर्व में बाँधे गए कर्मों का विनाश भी होता है । यही अविपाक निर्जरा कहलाती है । निर्जरा के दो भेद हैं―(1) सविपाकनिर्जरा और ( 2) अविपाकनिर्जरा । सविपाक निर्जरा तो समस्त संसारी जीवों के चल ही रही है । कर्म का उदय होता है याने उदय होकर कर्म निकल जाते हैं । कर्मों का झड़ना होता है और उनका निमित्त पाकर जीव फल भोगता है । सो ऐसी सविपाकनिर्जरा तो सर्व संसारी जीवों के पायी जा रही है, पर अविपाकनिर्जरा विशिष्ट महान आत्मावों के पायी जाती है । तपश्चरण के द्वारा उन कर्मों का क्षय करके या कर्मों की अदल-बदल होने पर उसका फल प्राप्त न होना और कर्मों का खिर जाना इसे अविपाक निर्जरा कहते हैं । ऐसी अविपाक निर्जरा तपश्चरण के द्वारा होती है, यह बात इस सूत्र में कही गई है ।
तप की समृद्धिहेतुता का भी कथन―शंकाकार कहता है कि तपश्चरण तो स्वर्गादिक की प्राप्ति का भी कारण है फिर तपश्चरण को निर्जरा का अंग न कहना चाहिए । बड़े-बड़े अहिमिंद्रादिक पद तपश्चरण के द्वारा ही प्राप्त होते हैं, फिर इस सूत्र में तप से निर्जरा होती है यह कहना कैसे युक्त हुआ? समाधान―एक कारण अनेक कार्यों के आरंभ का कारण बन जाता है, जैसे अग्नि एक है तो भी उस अग्नि के कारण जलना, पकना, किसी का भस्म हो जाना, प्रकाश होना आदिक अनेक प्रयोजन पाये जाते हैं । इसी प्रकार तपश्चरण से कर्मों का क्षय होता है, यह तो बात कही गई, पर स्वर्गादिक की प्राप्ति, अहिमिंद्र पद की प्राप्ति जैसे अभ्युदय का भी उत्पत्ति का कारण होता है इसमें कोई विरोध नहीं है । अथवा यह समझना चाहिये कि जहाँ तपश्चरण करते हुए भी जब तक वीतरागता नही जगी है तब तक यह उसके अभ्युदय का कारण भी बनता है, पर वीतरागता बने तो तपश्चरण निर्जरा ही कारण होता है । अथवा जैसे कोई किसान खेती का काम करता है तो उसका प्रयोजन अन्न का उत्पन्न करना है, धान्य आदिक दानों को उत्पन्न करने का प्रयोजन है, पर उस ही क्रिया में घास भी मिल जाती है, भूसा भी मिल जाता है, तो खेती का फल तो हुआ अनाज । मुख्यता है अनाज की, पर गौण रूप से घास, भूसा आदि भी प्राप्त हो जाते हैं । तो ऐसे ही मुनियों के तपश्चरण की क्रियाओं में भी मुख्यता तो है कर्मों के क्षय की पर उसका गौणफल देवेंद्र पद की प्राप्ति है । अब संवर तत्त्व के प्रसंग में गुप्ति आदिक को संवर का कारण बतलाया । अब उन्हीं गुप्ति आदिक के संबंध में विवरण चलेगा कि वे कितने प्रकार के हैं और उनका विषय क्या है । उनकी सामर्थ्य क्या है । सो अब क्रम प्राप्त गुप्ति का वर्णन का रहे हैं ।